गीता गंगा
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पहले अपने दोष दूर करो

प्रवचन दिनांक—२०-१२-१९४५, प्रात:काल, गीताप्रेस, गोरखपुर

प्रश्न—दोष-दृष्टि कैसे दूर हो?

उत्तर—यह समझ लें कि किसीमें भी दोष-दृष्टि करनेसे हमारी ही हानि है। जो दोषी है, उसका पतन तो हो चुका, किन्तु जो उसमें दोष-दृष्टि करता है, उसका भी पतन हो सकता है। दोष दलदलकी तरह है, इसमें फँसे ही नहीं। मनको समझावे इसमें तुम्हें क्या लाभ है? हम यदि किसीके दोष बतलावें तो कौन-से उसके दोष निकल जायँगे? दोष तो तभी निकलेंगे, जब वह स्वयं चाहेगा।

अपने दोष दूर करो; दूसरोंके दोषोंकी चिन्ता छोड़ो। दूसरोंके दोष दूर करनेके लिये भी पहले अपने दोष दूर करने चाहिये।

मुझे आजतक ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला कि उसके दोष उसके हितके लिये बतायें तो वह प्रसन्न हो।

संसारमें कोई भी यदि हमें हमारा दोष बताये और हम सुनकर प्रसन्न हों तो वे दोष रह नहीं सकते।

काम-क्रोध आदि हमारे हृदयमें डाकू हैं। इन दोषोंका हम पोषण करते हैं। कबीरदासजी कहते हैं—निन्दा करनेवालेको कुटी छवाकर पड़ोसमें बसाना चाहिये, किन्तु हमारी यदि कोई निन्दा करे तो हम उसे लाठी मारनेको तैयार हैं।

किसी आदमीने हमपर झूठा दोष लगा दिया तो हमें कोई हानि नहीं है। मेरे ऊपर कोई झूठा दोष लगा देता है तो मैं यही सोचता हूँ कि इसमें हमारी क्या हानि है?

यदि कोई हमारी सच्ची निन्दा करता है तो हमें सावधान होना चाहिये और उस दोषको निकालना चाहिये।

ईश्वर सर्वान्तर्यामी हैं। यदि दुनिया मुझे बेईमान बताये, झूठा बताये और मैं सच्चा हूँ तो लोगोंके कहनेका क्या मूल्य है? यदि मैं दोषी हूँ तो लोगोंके प्रमाणपत्रका भी ईश्वरके दरबारमें क्या मूल्य है?

संसारकी निन्दा-स्तुति मेंढकके शब्दकी तरह है। मेढक टर्र-टर्र करता है, उससे क्या हानि-लाभ है? कोई भी हमारेमें दोष आरोपित करता है तो हमें उस दोषको निकालना चाहिये। यदि हमारेमें दोष नहीं है, फिर भी लोग निन्दा करते हैं तो उससे हमें क्या हानि है?

हम नहीं चाहते कि कोई हमारी अपकीर्ति करे, निन्दा करे। प्रशंसा करे, सत्कार करे ऐसा तो सभी चाहते हैं। कुत्तेका भी सत्कार करें तो वह पूँछ हिलाता है।

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा अमृतके समान और निन्दा, तिरस्कार विषके समान—ऐसा सभीको लगता है, किन्तु परमात्माकी प्राप्तिका मामला इससे बिल्कुल उलटा है।

थोड़ी देरके लिये मान लो—मान, बड़ाई, कीर्ति इस किनारे तथा अपमान, तिरस्कार, अपकीर्ति उस किनारे है। हम यह चाहते हैं कि इस किनारेकी चीज इस किनारे रहे, उस किनारेकी उस किनारे रहे—यह बात सदासे ही है। हमें खूब जोर लगाना चाहिये कि उस किनारेकी चीज इस किनारे आ जाय और इस किनारेकी उस किनारे चली जाय, तभी हम समतामें ठहरेंगे। मान, बड़ाईको विषके समान और निन्दा, स्तुतिको अमृतके समान समझेंगे तो समतामें स्थित होंगे।

हमारी कोई स्तुति करता है तो हम फूल जाते हैं—यह खतरनाक चीज है, गलेमें पत्थर बाँधकर डूबना है।

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका बड़ा भारी बोझा है। इनका पत्थर गलेमें बाँध लेनेसे यह रसातलमें ले जाता है—

हल्के-हल्के तिर गये, डूबे जाँ सिर भार।

निरहंकारता, विनय—यह हल्कापन है और अहंकार, अविनय यह पत्थर है।

जो मनुष्य सबके चरणोंकी धूलि होकर रहता है, वह सबका सरदार रहता है। जो सबका सरदार बनकर रहता है, वह सबके चरणोंकी धूलि बन जाता है।

गौरांग महाप्रभुने कहा—मैं तीन ही बात जानता हूँ—नामे रुचि, जीवे दया और वैष्णव सेवा। हमलोगोंने इन तीनका छ: बना लिया—भजन और ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय, दु:खियोंकी सेवा तथा मन और इन्द्रियोंका संयम। ये छहों चीजें बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं।

काम इन चारसे भी चल जाय और अज्ञानका नाश हो जाय—

संयम, सेवा, साधना, सत्पुरुषोंका संग।
इन चारोंके साथ से मोह होवे भंग॥

मन, इन्द्रियोंका संयम करे, इनको विषयोंसे रोके। साधना यानी जप और ध्यान।

उपरोक्तमें चार ‘स’-कार हैं। इसी प्रकारसे पाँच ‘ग’-कार भी हैं—

गौ, गीता, गंगा, गायत्री अरु गोविन्दका नाम।
इन पाँचों की शरण से, पूर्ण हो जाय काम॥

दस चीजके सेवनसे आत्माका कल्याण हो जाय—

धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥
(मनुस्मृति ६। ९२)

धृति (धैर्य), क्षमा, मनको नियन्त्रणमें रखना, चोरी-ठगी न करना, बाहर-भीतरकी शुद्धि, इन्द्रियोंको वशमें रखना, बुद्धिको सात्त्विक बनाना, विद्या (जिससे परमात्माका यथार्थ अनुभव हो, ऐसा सात्त्विक ज्ञान प्राप्त करना), सत्य कहना और अक्रोध—ये दस धर्मके लक्षण हैं।

दूसरे दस-यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—इनका नाम यम है) और नियम (पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान—ये पाँच नियम हैं)। चाहे वे दस कर लो, चाहे ये दस कर लो। इनसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।

ये दस न हों तो नौ कर लो। नवधा भक्ति—

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भागवत ७। ५। २३)

विष्णु भगवान् की भक्तिके नौ भेद हैं—भगवान् के गुण-लीला-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।

यदि नौ नहीं कर सको तो आठ करो—अष्टांग योगका पालन करो—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।

आठ नहीं हो सकें तो सात कर लो—ज्ञानकी सात भूमिकाएँ।

सात नहीं कर सकें तो छ: करें—ब्राह्मणोंके लिये—ब्राह्मणके षट्कर्म बताये गये हैं। क्षत्रियोंके कर्म इस प्रकार हैं—

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥
(गीता १८। ४३)

शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्धमें न भागना, दान देना और स्वामिभाव—ये सब-के-सब ही क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।

वैश्यके लिये विहित कर्म यज्ञ करना, दान देना, विद्या पढ़ना, कृषि करना, गोपालन और व्यापार हैं।

शूद्रके लिये विहित कर्म सेवा, जप, ध्यान, मनको वशमें करना, सत्संग, इन्द्रियोंका संयम है।

चार (‘स’-कारका) एवं पाँच (‘ग’-कारका) साधन पहले बताया गया ही है।

चार नहीं हो सकें तो तीन ही कर लो—तीनसे भी काम चल जायगा—भजन, ध्यान और सत्संग।

तीन नहीं कर सको तो दो कर लो—भजन और सत्संग।

दो नहीं हो सकें तो एक ही कर लो—ईश्वरकी शरण-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(गीता १८। ६२)

हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त होगा।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६६)

सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥
(श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्र, श्लोक १३०)

जो मनुष्य वासुदेवके आश्रित और उनके परायण है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विशुद्ध अन्त:करणवाला हो सनातन परब्रह्मको पाता है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
(गीता ७। १४)

क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है; परंतु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

केवल ज्ञान, केवल ध्यान और केवल प्रेमसे भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है।

ग्यारह पदार्थ ऐसे हैं, उनका आप सेवन करें तो आपका ही नहीं, आप चाहें तो सारे संसारका उद्धार कर सकते हैं। ग्यारह पदार्थ ये हैं—परमात्मामें प्रेम और श्रद्धा, जप और ध्यान, उपरति और वैराग्य, गुण और प्रभाव, भगवान् की महिमा, लीला और धाम—इनका सेवन करे तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। समता, शान्ति और आनन्दकी उसमें बाढ़ आ जाती है।

प्रश्न—उपरति किसे कहते हैं?

उत्तर—संसारको अत्यन्त भुला देना—यह उपरति है। संसारसे प्रीति हटानी और परमात्मासे प्रेम करना—यह वैराग्य है।

ये ग्यारह पदार्थ खूब उच्चकोटिके हैं। शास्त्रोंमें, महात्माओंने एक-से-एक बढ़कर बातें कही हैं, आपकी जो इच्छा हो, चुन लें। सभी मुक्तिको देनेवाली हैं।

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
(गीता १३। १४)

वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है, परन्तु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है, तथा आसक्तिरहित होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और निर्गुण होनेपर भी गुणोंको भोगनेवाला है।

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
(गीता ४। २४)

जिस यज्ञमें अर्पण अर्थात् स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किये जानेयोग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है—उस ब्रह्मकर्ममें स्थित रहनेवाले योगीद्वारा प्राप्त किये जानेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है।

यह ब्रह्मयज्ञ है। कितने ही देवयज्ञ करते हैं, कितने ही इन्द्रियसंयम रूप यज्ञ करते हैं, कितने ही प्राणायाम-रूपी यज्ञ करते हैं।

भगवान् कहते हैं—सारे ही साधन मुझे प्राप्त करानेवाले हैं।

महर्षि पतञ्जलिने अनेक साधन बताये हैं। कोई भी एक साधन कर लें तो उससे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। सारे साधन दो निष्ठाओंके अन्तर्गत आ जाते हैं—सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा; अर्थात् ज्ञानयोग और भक्तियोग।

ज्ञान और भक्तिके भी कई भेद हैं। भक्तिमार्गमें मुख्य है—शरणागति। ज्ञानके मार्गमें अजातवाद है—एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई वस्तु नहीं है।

हमें दोनों मार्ग अच्छे लगते हैं, कोई बड़ा, छोटा नहीं है। अधिकांश मनुष्य इस समय भक्तिके अधिकारी हैं, इसलिये भक्तिकी चर्चा अधिक की जाती है। ज्ञानकी चर्चा पुस्तकोंमें तो देखी हुई ही है। जिन्हें अनुभव है, उन्हें हम प्रणाम करते हैं।

प्रश्न—भक्ति कैसे करनी चाहिये?

उत्तर—मछली जैसे जलके शरणापन्न है, ऐसे ही भगवान् के शरण होना चाहिये। पपीहा स्वाति बूँदको छोड़कर दूसरा पानी छूता ही नहीं, इस तरह एकके परायण हो जाय। पतिव्रता स्त्री जैसे पतिके परायण रहती है, इसी तरह परमात्माके परायण रहे। उदाहरण मिलता है—बलिका। उन्होंने अपने मस्तकपर भगवान् का चरण रखवाया। बलि भगवान् के शरण हो गये। उन्होंने अहंता, ममता सब कुछ भगवान् के समर्पण कर दी। जयन्त त्रिलोकीमें घूम आया, कहीं जगह नहीं मिली, आखिर भगवान् के शरण आया,तब शान्ति मिली। विभीषण भगवान् के शरण आये। इस तरह शरणके अनेक उदाहरण मिलते हैं। अर्जुन आखिर भगवान् के शरण ही हुए।

नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव॥
(गीता १८। ७३)

हे अच्युत! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अत: आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।

शरणागतका और उदाहरण है—कठपुतलीका। वह जिस तरह सब कुछ समर्पण किये हुए सूत्रधारके अधीन रहती है, इसी तरह भगवान् की शरण होना चाहिये। केवल एक शरणसे ही कल्याण हो जाता है। आपलोगोंको कई शास्त्रोंकी बातें कही, कई साधन बतलाये।

भरतजीमें प्रेम तो था ही, वे सारे गुणोंके शिरोमणि थे। नवधा भक्ति उनके रोम-रोममें रमी हुई थी।

जितने गुण संसारमें हैं, उनका सेवन करना चाहिये और जितने अवगुण हैं, उनका त्याग कर देना चाहिये। भगवान् की भक्ति और प्रेम जब हृदयमें प्रकट हो जाता है तो सारे गुण स्वत: ही आकर इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे जल स्वाभाविक ही नीचेकी ओर जाता है, इसी प्रकार जिसमें भक्ति होती है, विनय आदि सारे गुण उसमें आ जाते हैं।

सारे सद्‍गुणोंका खजाना बनना चाहिये। जिसमें भगवान् के सारे गुण आकर प्राप्त हो गये, वही भगवान् का अनुयायी है। भक्ति करनेसे सारे गुण स्वत: ही आ जाते हैं।

भगवान् को मन, बुद्धि और वाणीसे पकड़ लेना चाहिये। बुद्धिसे पकड़ना यह है कि भगवान् हैं यह दृढ़ निश्चय रखना और जो कुछ भी वे करें, उसमें प्रसन्न रहना। उनका ध्यान करना ही उनको मनसे पकड़ना है। नामका जप, कीर्तन करना—यह वाणीसे पकड़ना है। पुकार लगावे—‘हे नाथ! हे नाथ!!’

भगवान् की सेवा करना, पूजा करना, आज्ञाका पालन करना, साष्टांग प्रणाम करना—यह शरीरसे भगवान् को पकड़ना है। इस प्रकार सब तरहसे भगवान् की शरण होना चाहिये। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं—

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
(गीता १८। ६५)

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६६)

सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥
(गीता १८। ५७)

सब कर्मोंको मनसे मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योगको अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो।

सारे कर्म मेरेमें समर्पण कर दे, इससे इन्द्रियाँ समर्पण हुई।

मत्पर:-मेरी शरण आ जा-इससे शरीरका समर्पण है।

बुद्धियोगमुपाश्रित्य-इससे बुद्धिका समर्पण है।

मच्चित्त:-इससे मनका समर्पण है।

-इस प्रकार यह सार बात है।

और भी सार बात बतायी जाती है। विनयभावकी वृद्धिके लिये अपनेसे जो बड़े हों, उनको नमस्कार करना चाहिये। इससे अहंकार तथा अभिमानका नाश होता है, अन्त:करण शुद्ध होता है। सकामभावकी ओर खयाल करें तो आयु, बुद्धि, बलकी वृद्धि होती है। इसमें समय कम लगता है, पैसे भी खर्च नहीं होते, परिश्रम भी नहीं है, लाभ बड़ा भारी होता है। यह मनुष्योंके लिये एक सार चीज है। प्रणाम करनेसे बहुत लाभ होता है।

एक दूसरी सार बात है, इसमें कुछ परिश्रम है। वह है-सबको नारायण समझकर सबकी सेवा करना। इसमें परिश्रम तो है, किन्तु सबको नारायण समझकर सेवा करनेसे वह परिश्रम मालूम नहीं देता।

एक भाईने पूछा था कि भगवान् के दर्शन किस तरहसे शीघ्र होते हैं। मैंने कहा था कि आतुर अर्थात् दु:खीकी नारायण समझकर सेवा करनेसे भगवान् शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। भगवान् के शीघ्र प्रकट होनेके दो स्थान हैं—एक महात्मा, दूसरा आतुर। महात्मा तो मिलते नहीं, उनको पहचानना कठिन है। आतुर पुरुष जगह-जगह मिल जाते हैं। उनमें भगवद्-भाव करके सेवा की जाय तो भगवान् बहुत शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। भगवान् वहाँ रुक नहीं सकते। आप कहें कि यह कठिन है?’

क्या कोई पहाड़ उठाना है? इसमें कोई कठिन बात है ही नहीं। तुम्हारी मूर्खतासे कठिन बात दीखती है। नामदेवजीकी बात देखो—कुत्ता रोटी लेकर भागा तो घीकी कटोरी लेकर भागे। कहा—महाराज! चुपड़ने तो दो। कुत्तेमें ही भगवान् प्रकट हो गये।

उनके घरमें आग लगी तो जो चीज बची थी, वह भी अग्निमें होम करने लगे कि प्रभु इसका भी भोग लगाइये। भगवान् अग्निमें प्रकट हो गये। भगवान् कैसे रुक सकते थे?

एकनाथजी महाराज रामेश्वरम् को जल चढ़ानेके लिये गंगोत्रीसे जल लेकर चले। जब तीन-चौथाई रास्ता तय हो गया तो रास्तेमें देखते हैं—एक गधा प्याससे तड़प रहा है। उसे इस प्रकारसे तड़पते देखकर उनका उस गधेमें भगवद्भाव हो गया कि ये साक्षात् शिवशंकर हैं। उन्होंने अपने काँवड़का जल गधेको पिला दिया। साक्षात् शंकर भगवान् उस गधेसे प्रकट हो गये।

ऐसे ही रन्तिदेवकी कथा आती है। भोजन किये अड़तालीस दिन हो गये। उनचासवें दिन कुछ हलवा, खीर, पूड़ी आदि प्राप्त हुए। पूजा-पाठ करके भोग लगाना ही चाहते थे कि इतनेमें एक ब्राह्मण आ गये। उन्हें भोजन कराया। इतनमें एक शूद्र आ गया, उसको भोजन कराया। फिर एक चाण्डाल आ गया, उसे भोजन कराया। जो कुछ भोजन था, वह उन सबने खा लिया। अब थोड़ा-सा जल बचा। राजा पीना ही चाहते थे कि इतनेमें एक चाण्डाल आ गया। कहा—मैं प्यासा हूँ। राजाने वह जल उसे पिला दिया। बस, भगवान् प्रकट हो गये। भगवान् इस तरह परीक्षा लेनेके लिये आते हैं।

हमें सबको भगवान् समझकर सबकी सेवा करनी चाहिये, सबको नमस्कार करना चाहिये—यह शास्त्रोंका सिद्धान्त है।

गीता देखो, रामायण देखो, भागवत देखो, सबका यही सिद्धान्त है कि सबमें भगवद्‍बुद्धि करनी चाहिये, यह सब उपदेशका सार है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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