जो कुछ होता है, परमात्माकी दृष्टिमें होता है
प्रवचन तिथि—ज्येष्ठ कृष्ण ६, संवत् १९८९, सन् १९३२, स्वर्गाश्रम
भक्तिके मार्गमें यही दो बातें हैं—एक तो अपनेको ईश्वरके अर्पण करना और दूसरा मैं-मेरेका त्याग। मैं और मेरेमें ही दु:ख होता है। इन दोनोंको ईश्वरके अर्पण कर दो, फिर दु:ख नहीं होगा। जैसे यह कम्बल मेरी है, यह कम्बल यदि मैं किसीको दे दूँ, वह इस कम्बलको चाहे बिछाये या ओढ़े, इससे मुझको कोई दु:ख नहीं होता। जबतक मैं अपना अधिकार मानता हूँ, तभीतक दु:ख होता है। इसलिये सब चीजोंका अधिकार ईश्वरके अर्पण कर देना चाहिये। चीज तो वहीं-ही-वहीं पड़ी है, दूकानका नाम बदल दें कि सब परमात्माकी ही है, फिर निश्चिन्त हो जायँ। मेरी जितनी चीजें हैं, सब भगवान् की ही हैं, सच्चे मनसे भगवान् को सँभला दो। भगवान् को सब सँभलाकर, फिर भगवान् का सेवक बनकर सब काम करो। सेवकको जो काम जिस तरह करना चाहिये, उसी तरह करते रहो, परन्तु बाजार घट गया या बढ़ गया, उसके लाभ-हानिके स्वामी भगवान् हैं। भगवान् के दास होकर उनका काम करो।
जैसे कोई चीज किसीको देते हैं, उसी तरह अपने-आपको भी भगवान् के अर्पण कर दो। वह चीज फिर भगवान् की ही है, भगवान् अपनी इच्छाके अनुसार अपने काममें लें। उसका सुख-दु:ख, हर्ष-शोक हमको नहीं होना चाहिये। भगवान् को शरीर सहित सब चीज सँभला दी, फिर शरीरके रोग हो, पुत्र जन्मे अथवा मरे, रुपया आये जा जाये, भगवान् को सँभलानेके बाद तुमको प्रसन्नता-दु:ख नहीं होना चाहिये। अपना मानते हो तो फिर सँभलाया कहाँ? पुत्र मरा तो भगवान् का मरा, भगवान् रोओ! तुमने तो अच्छी तरह तुम्हारेसे शक्तिशाली सर्व-समर्थको सँभलाया है। तुमको क्यों रोना चाहिये?
ऐसे ही भगवान् को धन सँभला दिया, अब उनकी जो इच्छा हो, वही करें। सब देश भगवान् का है, उनकी इच्छा हो, सो करें, चाहे जिस देशमें भेज दें। तुम्हारे पास लाख रुपया था, चला गया, अब भगवान् की जहाँ इच्छा होगी, उसी दूकानमें ले जायेंगे, तुम तो सब कुछ भगवान् को सँभला चुके। सब कुछ उनकी इच्छा पर है, चाहे ले जावें, चाहे और बढ़ावें। यदि रोते हो तो अभी सँभलाया नहीं। जो कुछ भी हो—बढ़े, घटे, नष्ट हो। तुम्हारे अधिकारमें जितनी चीज है, उससे सब संसार, जो कि उसकी प्रजा है, उनको सुख पहुँचाते हुए काम करो। फिर घटो, बढ़ो, तुम्हारा क्या?
मैंकी बात—जैसे कोई लड़का किसीके यहाँ गोद आता है और वह बाप उस लड़केसे पूछता है—तू मेरा बेटा है? लड़का कहता है—हाँ!
किसी समय वह बाप उस लड़केके चार थप्पड़ मारता है। यदि इस व्यवहारसे वह लड़का विचलित हो जाय तो वह उसको अपना बेटा नहीं समझेगा। उसी तरह भगवान् उस सब कुछ अर्पण किये हुए भक्तको जाँच-परखकर देखते हैं कि यह वास्तवमें मेरे अर्पण हुआ है या नहीं। तुम रोओगे तो भगवान् कहेंगे कि यह अर्पण कहाँ हुआ? यह तो रोता है?
वे तुमको दु:ख देते हैं तो प्रसन्न होओ कि उन्होंने मुझको स्वीकार कर लिया। अब मुझे परख रहे हैं।
बहुत व्यक्ति अपने फोड़ेको अपने हाथसे चीर डालते हैं। मूर्ख वैद्य-डाक्टरोंके चीरनेपर भी रोते हैं। ऐसे ही परमात्मा जो कुछ भी करते हैं, वह तुम्हारे भलेके लिये करते हैं एवं पवित्र बनाते हैं, वे परम दयालु हैं। जो रोता है उसका फोड़ा डाक्टर नहीं काटता, वह फिर सड़ जाता है। जो प्रसन्न मनसे कटाता है, उसीका काटता है, ऐसे ही भगवान् उसीको मुक्त करते हैं जो उनके अर्पण हो जाता है। मयूरध्वजके लड़केको इस तत्त्वका ज्ञान हो गया था, वह कहता है—हे नाथ! शीघ्र आरी चलाओ। उसपर आरी चलती है और वह हँस रहा है। इतनेमें भगवान् प्रकट हो गये, वह परीक्षामें पास हो गया। तब भगवान् स्वीकार कर लेते हैं कि इसने सब कुछ मेरे अर्पण कर दिया।
शरीर कटानेमें हँसनेकी गुंजाइश है-रोनेकी नहीं। रोता है वह उसके तत्त्वको नहीं जानता। जो उसके तत्त्वको जान जायेगा, वह हँसते-हँसते कटायेगा और रोयेगा नहीं। आपके शरीरमें कोई रोग होता है, कष्ट होता है तो जो परमात्माके अर्पण हो गया है, वह जानता है कि जो कुछ होता है, वह परमात्माकी दृष्टिमें होता है। परमात्मा ही सब कुछ करता है। फिर केवल हँसना-ही-हँसना रहता है। भगवान् उसपर आसन लगाकर बैठ जायँ तो उसको आनन्द ही होगा, कष्ट नहीं होगा, हर्ष होगा। जब किसी स्त्रीके बच्चा होता है तो उसे कितना कष्ट होता है, परन्तु जब वह सुनती है कि लड़का हुआ है तो उसे बहुत प्रसन्नता होती है। उस प्रसन्न्ताके आगे वह कष्ट कुछ भी नहीं है। इतना कष्ट पाया, फिर भी आगे दूसरे लड़केकी इच्छा करती है।
दिनमें सौ रुपये दलालीके बन गये, इस कामके करनेमें चलने-फिरनेसे अब पैर दु:खते हैं, पर मनमें हर्ष हो रहा है। कोई और सौ रुपयेकी दलालीका काम बता दे तो पैर दु:ख रहे हैं, फिर भी मनमें हर्ष हो रहा है। वह यह चाहता है कि इससे दुगुना काम और मिले तो और अच्छा है। शरीरको परिश्रम और पीड़ा बढ़ रही है, गधेकी तरह खट रहा है। यह रुपयोंके महत्त्वको जाननेकी बात है, तभी इतना परिश्रम कर रहा है। इसी प्रकार भगवान् का तत्त्व जाननेके बाद भगवान् का भक्त भगवान् के प्रत्येक विधानमें जो कुछ भी हो रहा है, उसमें प्रभुकी मंगलमय मूर्तिका दर्शन करके सदा खूब प्रसन्न रहता है और हँसता रहता है।
गोपियाँ चाहती हैं कि हमारे शरीरको पीसकर भगवान् गुलाल बना लेवें अथवा हमारी चमड़ीसे जूतियाँ बना लेवें, किसी भी तरहसे हमारा यह शरीर भगवान् के काममें आ जाय।
परमात्माके चिन्तन और दर्शनमें कितना अधिक आनन्द आता है! उस आनन्दके मुकाबले उस समय उसको क्या क्लेश हो? मेरी चीज परमात्माके काम आ रही है—इस विचारसे उसको जितना हर्ष हो रहा है, उसमें दु:खको तो वह कुछ समझता ही नहीं है।
परमात्मा दयालु हैं। जिसको चीज देनेमें दु:ख होता दीखता है, उसकी चीजको भगवान् काममें नहीं लाते।
प्रह्लादने भगवान् की भक्तिका आश्रय पकड़ा था। भगवान् ने उसकी परीक्षा लेना शुरू कर दिया। भगवान् उसे कभी साँपसे कटाते हैं, कभी विष पिलाते हैं, कभी अग्निमें जलाते हैं—इस प्रकार पीड़ा-पर-पीड़ा देते हैं, परन्तु प्रह्लादने उस पीड़ाको पीड़ा माना ही नहीं।
आप भी भगवान् की शरण लेंगे तो आपको भी भगवान् तपा-तपाकर देखेंगे। तब जो भी बात होगी, उसीमें आपको हर्ष होगा। परीक्षाको परीक्षा समझनेके बाद फिर कष्ट होता ही नहीं।
भगवान् शरीरको जो भी कष्ट पहुँचा रहे हैं, उसको परीक्षा समझ लो फिर आपको कष्ट ही नहीं होगा। आजसे जितने कष्ट हों, उनको परीक्षा समझ लें—इस तरहसे तत्त्वको समझने-वाला प्रह्लाद होता है, द्रौपदी नहीं। वह तो कष्टके अवसरपर रो पड़ी थी।
भगवान् के अर्पण होनेके बाद जिसको जितनी आपत्ति आयेगी, उसको उतनी ही भगवान् की सम्पदाका दर्शन होगा। जितनी-जितनी सम्पदाका दर्शन होगा, उतना-उतना ही वह भगवान् के निकट पहुँचेगा, उसका आनन्द उतना ही बढ़ता जायगा, उसको चाहे जितना ही काटो, छाँटो।
एक वास्तविक घटना है—एक सेठके यहाँ एक मुनीम रहता था। सब काम वह मुनीम ही करता था, मालिकको कामके बारेमें कुछ भी मालूम नहीं था। जो मुनीम कहता, वही काम होता था, मालिकके कहनेकी कोई कीमत नहीं थी। एक बार सेठका भानजा आया, वह बहुत ही बुद्धिमान् था। मामाकी उसे दुकानपर रखनेकी इच्छा हुई, तब मामाने भानजेको कहा—तेरी दुकानपर रहनेकी और काम करनेकी इच्छा हो तो मुनीमजीकी प्रसन्नताके अनुसार काम कर। तू हमलोगोंका कहना नहीं सुनेगा तो कोई हर्ज नहीं है, पर मुनीमजीका कहना नहीं सुनेगा तो तुम्हारा दुकानपर रहना कठिन है। तुम्हें काम सीखना है तो उनकी खूब सेवा करके काम सीख ले।
यह बात सुनकर वह भानजा तन-मनसे मुनीमजीकी सेवा करने लग गया। जिस चीजकी मुनीमजीको आवश्यकता पड़ती, वह चीज पहलेसे ही तैयार कर देता। कभी-कभी मुनीमके पैर भी दबा देता। मुनीमका जो भी काम होता, वह सब कर देता। साथमें दूकानका भी सब काम करता। काम करते-करते वह इतना होशियार हो गया कि सब काम जान गया, मुनीमजी नमूना मात्र रह गये। मुनीमजी एक महीनेकी छुट्टी लेकर अपने घर गये, पीछेसे उस भानजेने सब काम कर लिया। मुनीमजीकी किसी भी काममें आवश्यकता नहीं रही।
मुनीमजी वापस आये, तब भानजा छुट्टी लेकर घर गया। उसके पीछेसे कामका नुकसान हुआ तो भानजेको बुलाना पड़ा। तब मुनीमजीका वेतन घटा दिया गया और भानजेका दूकानमें हिस्सा डाल दिया, वही मालिक-जैसा हो गया।
इसी प्रकार परमात्माके अनुकूल बनकर उनका काम करे तो वह पुरुष मालिकका भी मालिक हो जाय। अपनेको उस परमात्माका सेवक बनना चाहिये। काम, क्रोध, लोभ, मोह—इनको रात-दित ठोक-पीटकर निकालना चाहिये। जितने भी कष्ट आयें, उन्हें सहन करते जाओ, हँस-हँसकर सहन करो। दो दु:ख आवें तो कहो कि हे भगवान्! चार आने दो। इस तरहसे चाहे कितनी ही आपत्ति आये, उनको सहन करते जाओ। चलते जाओ, बेड़ा पार है। पैर पीछे रखे कि मामला समाप्त।
इस प्रकार काम-क्रोधकी लड़ाईमें जो मार पड़ती है, उसको सह लेनेमें ज्यादा लाभ है, जीतनेमें थोड़ा लाभ है। भगवान् की मारमें खूब हर्ष होना चाहिये। महाभारतके युद्धमें जब भगवान् सुदर्शन चक्र लेकर आये तब भीष्म पितामहने कहा—आइये! आइये नाथ!! इसी उद्देश्यसे तो यह काम किया था।
कोई बालक किसी दूसरे बालकको मारकर फिर माँकी गोदमें बैठ जाता है, तब माँ उस बालकको दिखानेके लिये मारती है। उस समय वह बालक भीतरमें तो हँसता है और उस बालकको दिखानेके लिये झूठे ही रोता है। ईश्वरकी मार माँकी मारकी तरह है। ईश्वर भीतरकी मार नहीं मार सकते। माँ मारती है, वह बच्चेके हितके लिये मारती है। उस माँमें अज्ञान है, परन्तु ईश्वरमें अज्ञान नहीं है। ईश्वर चाहे जितनी मार मारें, उसमें प्रसन्न ही होना चाहिये। भीष्म पितामह कह रहे हैं—हे नाथ! मैंने जितने पाप किये हैं, वे सब रोग-रूप होकर आ जायँ ताकि मैं उऋण हो जाऊँ।
कोई आपको कहे कि आपके सौ जन्मोंके जितने पाप किये हुए हैं, वे सब पाप मैं दस दिनमें भुगता दूँ, जैसे कोई कितना ही पापी हो वह काशीमें मरनेपर अधिक-से-अधिक छत्तीस हजार वर्षतक उसके पापोंका भोग भुगताकर मुक्त कर दिया जाता है। वही मुक्ति इसी जन्ममें मिल जाय तो कितना अधिक आनन्द हो!
ईश्वरकी मारमें बड़ा आनन्द है। उसके स्पर्शमें बड़ा आनन्द है। भगवान् जितनी मार मारें, उसमें कितना आनन्द आवे। ईश्वरकी बहुत अधिक दया हो गयी। भगवान् कहते हैं—मैं तेरा इस जन्ममें ही कल्याण करके छोड़ूँगा!
भक्त कहता है—आपकी इच्छा, कर दें! चाहे जितना कष्ट दें, मैं तैयार हूँ।
ईश्वरके साक्षात् दर्शनकी आशा है, वही आनन्द है। कोई भारी-से-भारी कष्ट सहनेको तैयार है तो ईश्वर उसको शीघ्र मिलनेके लिये तैयार हैं। ईश्वरने अपनेसे मिलनेका दिन निश्चित कर दिया, उसके लिये हम भारी-से-भारी कष्ट सहनेको भी तैयार हैं। शीघ्रातिशीघ्र जिस तरहसे भी वह मिलें।
मान लो कि किसी जगह एक हीरों और रत्नोंकी खान है। किसी राजा, महाराजाके सम्पर्कसे किसी आदमीको यह आदेश मिल गया कि चार पहर (१२ घण्टों) में जितना ले जा सकते हो, उतना ले जाओ। उस व्यक्तिसे यदि दस सेर वजन चलता होगा तो वह बीस सेर ले जानेकी चेष्टा करेगा। उसको उठाकर दौड़ रहा है, कष्ट पा रहा है, फिर भी वह जल्दी-जल्दी भाग रहा है। दूसरे लोग उसे कह रहे हैं कि आपके पैर लँगड़ाते हैं। आप इतना क्यों दौड़ रहे हैं? उसका उत्तर वह यह देता है—कोई बात नहीं, पैर तो दो दिनमें ठीक हो जायेंगे। वह जल्दी-जल्दी भागा जाता है। क्लेश, पैरोंका कष्ट, लोगोंका ताना तथा निन्दा होनेपर भी उसका यह प्रयास रहता है कि संध्या समयतक जितना ढो सकते हैं, उतना ढो लें किसीकी भी सुनो ही मत। जिसने अपनी सारी आयुमें पाव भर रत्न भी नहीं कमाये, उस आदमीको जितने उठाये जा सकें, उतने रत्नोंको उठानेका आदेश मिल जाय तो फिर वह रत्नोंको किस तरहसे छोड़े?
इस उदाहरणकी तुलनामें उस परमात्मामें लाखों गुणा आनन्द है।
जब-जब आपत्ति आवे, उस समय मानना चाहिये कि भगवान् परीक्षा ले रहे हैं। जो परीक्षामें पास हो जाय, उसको भगवान् के दर्शन होंगे।
प्रह्लादको इस विषयका ज्ञान था। वह आगमें बैठा है फिर भी हँस रहा है।
इसी तरह उस भक्तको ईश्वरसे मिलनेकी आशासे इतना हर्ष होता है कि उसे शारीरिक कष्ट मालूम ही नहीं देता है। जैसे किसी समय यहाँपर आँधी-वर्षा आती है, उस समय यदि वैराग्य धारण कर लें तो उस समय हमें आँधी-वर्षाका कष्ट नहीं होगा। कष्टकी जगह हर्ष ही होगा। यह तो वैराग्यसे होनेवाले हर्षकी बात है, जहाँ भगवान् के आनेकी आशा ही नहीं है, फिर जहाँ भगवान् के आनेकी आशा हो वहाँ हर्ष होगा या कष्ट होगा? उसको कष्टका तो भान ही नहीं होता है। वही आँधी भगवान् से मिलनेकी भावना करनेसे सुखप्रद है और कष्टकी भावनासे ही कष्टदायक है। भावनासे ही वह आँधी आनन्द देनेवाली बन जाती है।
गुहारमलजीके उस दिन कष्ट अधिक था, परन्तु वे स्नान कर रहे थे और खिसककर चल रहे थे। उनके कितना हर्ष उत्पन्न हो रहा था! मामूली भावनाका यह फल है।
साक्षात् ईश्वरका दिया हुआ कष्ट! क्या ईश्वरके दर्शनमें कष्ट मालूम देता है, अपितु कितना हर्ष होता है!
घनश्यामके भाई मोहनका शरीर शान्त हुआ उस समयकी बात है—वह हँसते-हँसते प्राण दे रहा था। कष्ट कहाँ गया, कुछ मालूम ही नहीं। हर्षके कारणसे उसके चित्तकी वृत्तियाँ उस कष्टकी ओर जाती ही नहीं। उस हर्षका अनुमान कौन करे? जितना अधिक कष्ट होता है, उतना ही आनन्द अधिक बढ़ता है। ऐसे ही प्रह्लाद कहते हैं और कष्ट आने दो।
रुपयोंके सेवकको रुपयोंके लोभके लिये शरीरके कष्टका ध्यान नहीं रहता है, फिर ईश्वरकी सेवामें किस प्रकारसे कष्ट मालूम दे?
परमात्माकी प्राप्ति तो सुखसे बैठे-बैठे हो जाय। भजन-ध्यान करते-करते भगवान् मिल जायँ, इससे अधिक सस्ते और क्या मिलेंगे? आपलोगोंसे पत्थर थोड़े ही फुड़वाये जाते हैं? इसपर भी मन उकता रहा है कि यहाँसे चलो!
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...