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साधनमें खास बाधा—राग-द्वेष

प्रवचन दिनांक—१८-१२-१९४५, गोरखपुर

सभी अपनी बात रखना चाहते हैं। जिसमें यह दोष हो, उसे सुधार करना चाहिये। सुधार भगवान् की कृपासे हो सकता है। मनुष्य यदि अपनी बात छोड़ दे तो सुधार हो सकता है।

यह मन्त्र पढ़ लो कि जो काम जिस प्रकारसे हो, उसीमें आनन्द मानना चाहिये। न अपनी बातका पक्ष ले, न किसी अन्यका पक्ष।

राग-द्वेष होनेका हेतु अहंकार है। हमलोग समझते हैं कि सोलह आना बुद्धि मेरेमें ही है। जिसमें जितना राग-द्वेष कम होगा, वह उतना ही भगवान् के निकट पहुँचेगा।

परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब क्यों है?

—क्योंकि पक्षपात है, समता नहीं है। जो पक्षपात-रहित है, उसे महात्मा समझो।

आपसका मत भले ही न मिले, राग-द्वेषका नाश होना चाहिये। बिल्कुल आशा नहीं हो, तब भी मनुष्यको आशावादी बनना चाहिये। जबतक जीवन है तबतक आशा रखनी चाहिये।

सत्संगमें रहस्य और तत्त्वकी बातें, जो पाँच वर्ष पहले कही जाती थीं, वह तीन वर्ष पहले कम कही गयीं, एक वर्ष पहले उससे कम कही गयी, अब उससे भी कम कही गयी, क्योंकि मेरे बात उपजती ही नहीं है। जो उपजती है, उसको कहनेमें हिचक होती है।

क्यों होती है?

—मैं यदि आपको यह कहूँ कि आप मेरे मनके अनुसार चलें। उस प्रकारसे चलनेपर यदि मैं दावा करके कहूँ कि आपको निश्चित रूपसे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है—तो यह मैं नहीं कह सकता हूँ। ऐसा कहनेमें मैं मेरा पतन समझता हूँ, क्योंकि न तो मैं ऐसा महापुरुष हूँ, न मेरे हाथमें अधिकार है, किन्तु मैं यह सिद्धान्त मानता हूँ कि आप यदि मान लें तो आपका कल्याण हो जाय, इसमें संशय नहीं है। यह मेरी सामर्थ्यका फल नहीं है, आपकी श्रद्धाका फल है।

मेरे सामर्थ्यकी क्या बात है? स्वामीजी कहते हैं कि मुझे भगवान् की प्राप्ति नहीं हुई, किन्तु यदि किसीको श्रद्धा हो जाय कि ये परमात्माकी प्राप्ति करा सकते हैं तो उसको परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, इनको मत हो।

श्रद्धाकी बात छोड़कर दूसरी बात कहता हूँ।

मैं तो वही हूँ, आप भी वही हैं, फिर किस बातकी कमी आयी? दो ही बातकी कमी आ सकती है। या तो मेरी पात्रतामें कमी आ सकती है या आपलोगोंकी पात्रतामें। किसमें कमी आयी, यह तो परमात्मा ही जानें, किन्तु नीति यही कहती है कि मुझे अपनेमें ही कमी माननी चाहिये, आपलोगोंको अपनेमें। वास्तवमें इस तरहकी मान्यतासे ही सुधार हो सकता है। आपलोग मेरेमें कमी मानें, मैं आपलोगोंमें कमी मानूँ तो इससे न तो आपलोगोंका हित है, न मेरा और न संसारका हित है।

क्या गलती है, क्यों गलती है—इसकी हर एक भाईको खोज करनी चाहिये। खोज करके सुधार करना चाहिये। दूसरेकी गलती प्रतीत हो तो उसे अपने मनसे हटानी चाहिये। अपनी गलती हट जायगी तो दूसरेकी गलती स्वत: ही हट जायगी।

मनुष्यमें नीयतका ही दोष सबसे अधिक समझा जाता है। यह नीयतका दोष हम सबमें ही है, किन्तु किसीकी नीयतमें दोष प्रतीत हो तो उसकी नीयतमें दोष है—यह बात कायम नहीं करनी चाहिये। यदि उसकी समझमें आ गयी कि आप उसकी नीयतमें दोष मान रहे हैं, फिर सुधार होना कठिन है। दूसरेका दोष माननेमें आपकी भूल भी हो सकती है, क्योंकि आप सर्वज्ञ नहीं हैं। इतनेपर भी आपका मन यदि नहीं माने, तब भी उसकी नीयतमें दोष है—यह नहीं कहना चाहिये।

अपना व्यवहार श्रद्धाको छोड़कर कायदेके अनुसार कार्यमें लाया जाय तो उससे अधिक सुधार हो सकता है।

प्रेमका परिणाम यह नहीं होना चाहिये कि अपना स्तर गिर जाय। यह प्रेम नहीं, यह तो उद्दण्डता है। यदि वास्तवमें प्रेम हो तो प्रेमीको प्रसन्न करना चाहिये। अवहेलना तो वहींपर होगी, जब हम उसे महत्त्वपूर्ण नहीं समझेंगे।

आपलोग जो कर रहे हैं, यह बहुत अच्छा है, ऐसा करते हुए परस्परमें खूब प्रेम बढ़े, वह अच्छा ही है। परमात्माके लिये आपसमें प्रेम बढ़े, वह प्रेम ईश्वरमें ही है। अपना वह प्रेम यदि विशुद्ध हो तो वह प्रेम ईश्वर-प्राप्तिमें विशेष सहायक हो सकता है, श्रद्धाकी कोई आवश्यकता नहीं। मैं तो इस बातको माननेवाला हूँ कि आपसके प्रेमसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, श्रद्धा चाहे मत हो।

नियमानुसार काम करनेसे कार्य सुचारु रूपसे चल सकता है, किन्तु उसका फल परमात्माकी प्राप्ति नहीं है। हमलोग परस्परमें प्रेमका व्यवहार करें तो उसका दर्जा बहुत ऊँचा है। वह प्रेम निष्काम होना चाहिये। मेरे साथमें तो आपलोगोंका बहुत अच्छा प्रेम और भाव है, किन्तु मेरी ओरका लाभ भी आपको होना चाहिये, उसकी मैं कमी देख रहा हूँ। मैं यही समझ रहा हूँ कि मेरी योग्यता नहीं है। मेरी योग्यता हो तो भी मुझे अपनेमें कमी ही देखनी चाहिये।

हमारेमें सहनशक्ति नहीं है, यह दोष है। अहंकार है, यह भी दोष है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी इच्छा है, यह भी दोष है।

एक दूसरेकी महत्ता देखें, एक दूसरेकी बातको आदर देवें तो उसका क्या स्वरूप आयेगा। मेरे यह बात काममें लायी हुई है। मैंने अपनी भूल मानी, उसने अपनी भूल मानी तो वहाँ सुधार ही देखा।

सामनेवालेकी शरण हो जाय और कहे कि बोल! तू क्या चाहता है?

हम सब अपना सुधार चाहते हैं, फिर भी सुधार नहीं हो रहा है। सबसे बढ़कर यही बात है कि अपने स्वार्थका त्याग करना चाहिये। यदि दूसरा भाई हमारा दोष बताये तो हमें अपना दोष स्वीकार कर लेना चाहिये। इस बातसे बहुत लाभ है। झूठ भी नहीं है। इस जगह यदि हम यह कहें कि हमारा दोष नहीं है तो यह कहना ठीक नहीं है, दोष मान लेना ठीक है।

यदि मैं किसीको आपके दो अवगुण बताऊँ, आप अपने चार अवगुण बतायें, तब तो ठीक है।

ईश्वरके ऊपर भरोसा रखें—ईश्वरके राज्यमें हमें दोषी नहीं होना चाहिये। किसीको अपने दोषी नहीं होनेका प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं है। मौन होकर ईश्वरका न्याय देखना चाहिये। यदि दोषी नहीं होनेका प्रमाण देते हैं तो ईश्वरपर निर्भरताकी कमी है। सच्चे मनुष्यको घबड़ानेकी कोई आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह समझना चाहिये कि सफाई देना लज्जाकी बात है। यदि मैं सच्चा हूँ तो भगवान् आकर सफाई देंगे। इससे भी ऊँचा दर्जा है कि सफाईकी इच्छा भी नहीं रखे। न्याय चाहनेकी अपेक्षा अपने ऊपर अन्याय हो, उसको सह लेना और भी उत्तम है। इस प्रकार हमें वास्तवमें अपना सुधार करना चाहिये। कोई हममें एक दोष बताये तो अपने दो स्वीकार करें। वह कहे—तुम्हारेमें लोभका दोष है तो कहें—लोभका ही नहीं, कामका भी दोष है, आपको मालूम नहीं है?

मैंने जो यह बात कही है, यदि उसके अनुसार साधन करो तो जितने वर्ष आपने साधन किया है, उतने महीने भी नहीं लगेंगे और परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी—यह बात लिखकर रख लो।
और एक बात कि आपसका व्यवहार ठीक हो जाय, उत्तरोत्तर आपकी उन्नति हो, यह मेरा उद्देश्य है; आप भी समझते ही हैं, मेरा कोई भी ध्येय मान लो।

मैं आपलोगोंको समझाता हूँ कि स्वार्थ सिद्धिके रास्तेपर जाओ ही मत। आपको कोई आपके लाभकी बात बतलाये उसे आप अपना मित्र समझें।

एक तो स्वार्थका त्याग स्वार्थके लिये किया जाता है और एक स्वार्थका त्याग परमार्थके लिये किया जाता है। मेरा यह विश्वास है कि स्वार्थके त्यागसे दोनों ही सिद्ध होते हैं।

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आपलोगोंसे बाहर दृष्टि जानेमें हम इससे भी ज्यादा अंधकार देखते हैं। यदि ऐसी बात नहीं होती तो भाईजी त्यागपत्र देनेकी बात कहते हैं, मैं उनसे भी पहले त्यागपत्र दे देता।

मैं घनश्यामको कभी-कभी उलाहना भी दे देता हूँ, पर मुझे घनश्याम जैसा आदमी नहीं मिलता है और घनश्यामको मेरे जैसा। यदि घनश्याम अपने व्यवहारसे मुझे सन्तोष करा देता तो मैं घनश्यामको भगवान् की प्राप्ति करा देता।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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