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मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा पतन करानेवाली हैं

प्रवचन दिनांक—२९-११-१९४५

वास्तवमें यदि मान-बड़ाईसे घृणा हो तो आत्माका कल्याण हो। हृदयमें जबतक मान-बड़ाईकी थोड़ी भी इच्छा है, तबतक किसी-न किसी प्रकारसे स्वीकार हो ही जाती है। पर-स्त्रीका दर्शन, भाषण सब पापमय है, पर जब अपने मनकी आसक्ति पर-स्त्रीमें है तो बुरी समझते हुए भी यदि वह आकर प्राप्त होगी तो दृष्टि बलात् चली ही जायगी। यह घातक है, मृत्युकी तरह है, मौत है। उससे भय हो जाय तो काम चले या परमात्मामें अनन्य प्रेम हो जाय तो काम चले, वह अटका ले।

साधारण व्यक्ति, जो लोभमें फँसे हुए हैं, उन्हें बड़ा लोभ दिखावे तो छोटा लोभ छूट जाय। परमात्माके ध्यानमें जो आनन्द है, वह त्रिलोकीके सुखमें नहीं है—यह विश्वास हो जाय तो यह छोटा लोभ छूट जाय। राजलक्ष्मा (टी०बी०)* का रोग कटना जैसे कठिन होता है, इसी प्रकार मान-बड़ाईका रोग कठिन है। उस रोगमें जैसे सौमेंसे निन्यानवे मरते हैं, इसी प्रकार यह मान-बड़ाईकी बीमारी है। चेष्टा करनेपर भी अधिकांश इससे बच नहीं पाते। किसी विरलेकी ही बीमारी मिटती है। यह बीमारी बलात् चिपकनेवाली है। एक तो स्वत: ही यह बुरी है, फिर दूसरा व्यक्ति सहायक हो जाय तो डूबे ही पड़े हैं।

* उस समय टी० बी० की चिकित्सा उपलब्ध नहीं थी।

अपने विचारके द्वारा मान-बड़ाईसे बचें, दूसरे आदमी मान-बड़ाई करने लग जायँ तो कैसे बचें? इसके लिये हर एक भाईको सावधान रहना चाहिये। लोग बहुत भोले हैं। दुजारीजी बहुत भोले हैं। मेरी जीवनी लिखनेके लिये मेरे पीछे पड़े। मैंने बहुत विरोध किया। ऐसे समझो कि मेरे पीछे कोई इस तरहसे पड़ जाय तो यह तो कह नहीं सकते कि मेरेमें कोई कमी नहीं है।

जिन्हें परमात्माकी प्राप्ति हो गयी है, वे मान-बड़ाईको ठुकराते हैं। उनकी दृष्टि ही दूसरी हो जाती है। विष्ठाके पास कोई कैसे जाय? परन्तु जिनके हृदयमें अन्धकार है, उनका पतन हो जाता है।

किसी भी प्रकारकी मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा, सत्कारका आयोजन कोई करे तो वह चाहे मेरा भाई हो, मित्र हो, वह मेरा अपमान ही करता है। यदि मैं परमात्माकी प्राप्तिवाला होऊँ, तब वे मेरा सिद्धान्त समझे नहीं हैं और यदि मैं साधक हूँ तो वे मित्रके रूपमें मेरे शत्रु हैं। मान-बड़ाई बड़े खतरेकी चीज है। यह परमात्माकी प्राप्तिमें भी रुकावट डालनेवाली है। साधकके लिये पतनकी चीज है, महापुरुषोंके लिये कलंक है।

संसारमें जो अध्यात्म-विषयक प्रचार करे, उसके लिये यह रुकावट डालनेवाली चीज है। इसका हृदयसे खूब विरोध करना चाहिये। यह परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब करनेवाली चीज है। जैसे थोड़ा-सा भी संखिया मार डालनेवाला है, इसी प्रकार यह मार डालनेवाली है। संखियाकी लीक भी खराब है, गन्ध भी नहीं रहनी चाहिये। आगे जाकर अटकानेवाली चीज मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा है।

जो हमारी बात समझकर हमारी मान-बड़ाईमें शामिल नहीं होते, वे हमारे मित्र हैं। मैं यदि चाहूँ भी तो आप मेरेको बचानेकी ही चेष्टा करें। रोगी कुपथ्य करना चाहता है तो घरवाले बचाते हैं। इससे आप भी बचें, मुझे भी बचायें। आप नहीं बच सकें तो मुझे तो बचा लें। आप मुझे बचानेका प्रयास करेंगे तो मैं आपलोगोंको बचानेका प्रयास करूँगा—परस्परं भावयन्त:। आप मेरी उन्नति चाहो, मैं आपलोगोंकी उन्नति चाहूँ तो दोनोंका कल्याण है। आप मुझे गिरानेका प्रयास नहीं करें तो मैं आपकी बड़ी भारी दया समझूँगा। मान, बड़ाई—ये प्रेममें कलंक हैं। ऐसी सभ्यताको नमस्कार ही करे। शरीरकी पूजा तो रूपकी पूजा है। कीर्ति चाहना—नामकी पूजा है।

जहाँ नाम और रूपकी पूजा है, वहाँ अन्धकार-ही-अन्धकार है। मैं यदि मेरी उच्छिष्ट आपलोगोंको नहीं खिलाऊँ, यदि प्रसाद ही दूँ तो भी मेरी बड़ी भूल है। आपको यदि प्रसादका शौक है तो आप भगवान् के भोग लगायें और पायें। मेरे हाथसे ही क्यों? मेरे हाथसे देनेसे यदि मुझे आपलोगोंका कल्याण होता दिखता तो मैं आपलोगोंके बिना कहे ही देनेको तैयार हूँ। मैं विज्ञापन करता कि मेरे हाथसे प्रसाद लो और मुक्त होओ, किन्तु मुझे रुपयामें पाई भर भी विश्वास नहीं है कि मुक्त हो जायँगे। फिर यदि मैं लोगोंको प्रसाद बाँटूँ तो ईश्वरके और मेरे-दोनोंके कलंक लगा रहा हूँ। क्योंकि जो लोग भगवान् के भोग लगाकर प्रसाद बाँटते हैं, वे समझते हैं कि यह हमारी कल्पना है और एक व्यक्ति किसी पुरुषमें अच्छी कल्पना करके उसके हाथका प्रसाद ले और कल्याण न हो तो वह यही समझेगा कि गीतामें जो यह आया है कि प्रसादसे दु:खोंका नाश हो जाता है—यह केवल बात-ही-बात है। प्रसाद मन्दिरोंमेंसे ले आओ। असली प्रसादका फल जो होना चाहिये, वही हो, तभी उसे प्रसाद कहना चाहिये, नहीं तो मिथ्या है।

मैं हर एक भाईसे प्रार्थना करता हूँ कि आपलोग मुझे बचा ही लेना, कोई धक्का देकर गिरा मत देना। रोगी व्यक्ति कहींपर कुपथ्य कर बैठता है तो उसकी सेवा करनेवाले, सँभाल करनेवाले उसकी रक्षा करते हैं। मैं कुपथ्य करना नहीं चाहता, किन्तु यदि कभी कर बैठूँ तो आप मुझे बचाना ही।

आप यदि कहें कि तू रोगी नहीं है, न कुपथ्य ही करता है? तो फिर आपको मेरी बात माननी चाहिये और यदि मैं भीतरसे चाहता हूँ कि खूब मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा हो तो आपलोग जो अपनी मान्यतामें यह समझते हैं कि मैं एक अच्छा आदमी हूँ—यह भावना हटानी चाहिये। यह बात बड़े मार्केकी है। यह बात किसी जगह नहीं मिलेगी। मेरा हृदयसे इसका बहिष्कार है। यदि किसी जगह मैं स्वीकार करता हूँ तो वह दोष मेरे स्वभावका है। मेरा कहना विवेक-विचारपूर्वक, सूक्ष्मतासे देखकर है, जैसे कोई व्यक्ति ऐकान्तिक मित्रोंको एकान्तकी बात कहे, उसी तरह आपलोगोंको मेरा यह कहना है। जो मान, बड़ाईको गुंजाइश देते हैं, वे अँधेरेमें हैं। यह बात ब्रह्माजी भी आकर मुझे कहें तो मुझे नहीं जँच सकती।

अनुभव और शास्त्र विचार सबके द्वारा मैं इस अनुभव पर पहुँचा हूँ कि अच्छे-अच्छे व्यक्ति भी इस मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी घाटीपर आकर अटके हैं। दुनिया विष खाकर मरती है तो मरने दो, स्वयं तो विष खाकर मत मरो। श्रेष्ठ पुरुष इस सिद्धान्तसे विचलित होते ही नहीं।

सत्संगकी एक और बात सुनायी जाती है। शिक्षाकी बात कही जाय, उसका विशेष प्रभाव नहीं हो तो शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार नहीं कहना चाहिये, चुप ही रहना चाहिये; किन्तु यह बात उन पुरुषोंपर लागू पड़ती है, जो महात्मा हैं, क्योंकि उनकी बात काममें आनी ही चाहिये, अन्यथा उनकी आज्ञाकी अवहेलना होती है। सच्चे श्रद्धालुके लिये अपने श्रद्धेयकी आज्ञाका उल्लंघन मृत्युके समान है, किन्तु हम साधारण लोग हैं, भगवान् की चर्चा इस उद्देश्यसे करें कि संसारकी चर्चा छोड़कर भगवान् के गुण, प्रभावकी आलोचना करें तो आज्ञाकी अवहेलना करनेपर होनेवाली हानि नहीं होती है। दूसरे हमलोग यह भी समझते हैं कि इन बातोंको काममें लानेसे ही लाभ होगा। काममें नहीं लायें तो कहनेवालेका क्या दोष है? सुनने मात्रसे ही कल्याण हो जाय, यह बात नहीं है। काममें लायें तो कल्याण हो सकता है। नहीं काममें लाते हैं तो वक्ताका क्या दोष है?

मैं यदि कोई वस्तु प्रसादके रूपमें बाँटूँ और उससे मुक्ति नहीं हो तो आपके यही भाव होगा कि जैसे मन्दिरका प्रसाद, वैसे ही यह प्रसाद। इस तरहसे इसका मनपर बुरा प्रभाव पड़ता है। मैं अच्छा पुरुष नहीं भी होऊँ तो भी मुझे अच्छे पुरुषकी जगह बैठकर यह गुंजाइश क्यों देनी चाहिये? मैं विनय करता हूँ कि मेरी बातोंको आप काममें लायें तो आपके लाभकी बात है, मैं काममें लाऊँ तो मेरे लाभ है। ऐसी बात हो तो वक्तापर दोष नहीं आता।

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके स्थानसे बचना चाहिये। वक्ताका स्थान मान, बड़ाईका है, इससे बचना चाहिये। भीतरसे भी यह न समझे कि मैं वक्ता हूँ। यह बता दें कि ये भगवान् के वचन हैं। इनका आप पालन करेंगे तो आपका कल्याण है, मैं पालन करूँगा तो मेरा कल्याण है। और नीचे उतरे तो सलाहके रूपमें कहे, शिक्षा और उपदेशके रूपमें नहीं कहे, आचार्यका रूप नहीं दे। इससे सुननेवालेका भी बचाव हो गया और वक्ताका भी बचाव हो गया। सुननेवालेका बचाव है कि वे काममें नहीं लावें तो उनका पतन नहीं है।

मान और बड़ाईको स्वीकार करना शरीरको महत्त्व देना है। यह बड़े खतरेकी चीज है, इसलिये अच्छे पुरुषोंको इससे बचना चाहिये, जो उनके अनुयायी हैं, उन्हें बचाना चाहिये।

मैं अभी यह नहीं कह सकता कि मुझे बचानेकी आवश्यकता नहीं है या मुझे परमात्माकी प्राप्ति हो गयी है। मैं तो यही कहता हूँ कि आप भी बचें, मुझे भी बचायें।

इस विषयमें पूर्वमें जो महात्मा हो गये हैं, उनके अनुयाइयोंने जो किया है, उसकी ओर हमें नहीं देखना है। वे वैसा क्यों कर गये, वे जानें।

जिन्हें कल्याण करनेकी इच्छा हो, उन्हें मान-बड़ाईसे बचना चाहिये। जो उनके प्रेमी हों, उन्हें बचाना चाहिये। मेरे कहनेमें कोई भूल हो तो आपको हाँमें हाँ नहीं करनी चाहिये, मुझे समझाना चाहिये ताकि मैं सुधार कर सकूँ। जो यह समझता है कि मुझमें श्रद्धा करनेसे मुझे तो कोई हानि नहीं है और श्रद्धा करनेवालेको लाभ है—यह बड़े अंधकारकी बात है। यदि मैं यह समझता हूँ तो मैं महा-तमा ठहरा। इस तरहकी मैं मेरे मनमें कल्पना करूँ तो समझना चाहिये कि मेरेमें बड़ा अन्धकार है। यह बात बहुत विचारके द्वारा आजमाइश की हुई है, बड़े खतरेकी चीज है।

आप पूछें कि क्या आपने यह कल्पना करके देखी है कि लोग मुझमें श्रद्धा करें?

हाँ, मैंने दूसरेपर भी करके देखी है, अपनेपर भी देखी है। बड़ा भयंकर परिणाम हुआ।

जब यह ऐसी तात्त्विक बात है तो इसका खूब प्रचार करना चाहिये?

ठीक है, किन्तु करे कौन? जो वास्तवमें परमात्माको प्राप्त हो चुके हैं, वे भले ही करें, दूसरा कौन कर सकता है? उच्चकोटिका साधक भी नहीं कर सकता। करे तो उससे उलटा प्रचार भले ही हो। मैं जो यह कह रहा हूँ, इससे उलटा प्रचार भले ही हो।

आपने कहा कि अपने ऊपर भी प्रयोग करके देखा क्या?

प्रयोग किया था। जो यह कहा कि ऐसा साधन करके देख लें, मेरी गारन्टी है, इस तरहके प्रयोगसे हानि हुई।

भगवान् बड़ी रक्षा करते हैं। इस तरहका करार किया तो पार नहीं पड़ा। किसी जगह भगवान् ने चेता दिया।

जो यह बात कही जाती है कि शास्त्रकी बात है, उसे काममें लाओ तो कल्याण होनेमें कोई सन्देह नहीं है, वह शास्त्रकी बात है। मैं काममें लाऊँ तो मेरा कल्याण है, आप काममें लायें तो आपका कल्याण है। इस प्रकार कहनेमें मैं भी शामिल रहता हूँ, यदि मैं यह कहूँ कि यह मेरी बात है तो उसका तात्पर्य यह हुआ कि मेरा कल्याण हो चुका है।

भगवान् का वचन यदि झूठा हो जाय तो मेरा झूठा हो—इस प्रकारसे जो गुंजाइश दी जाती है, वह भगवान् के वचनोंके आधारपर दी जाती है। वह काममें लानेकी आपको और हमें चेष्टा करनी चाहिये।

आप कहते हैं कि श्रद्धाके योग्य तो एक परमात्मा ही हैं, किन्तु आपसमें खूब प्रेम करना चाहिये। आप कहें कि प्रेमके लिये तो गुंजाइश देते ही हैं?

ठीक है, इसमें आपत्ति नहीं है। परमात्माको लेकर आप मेरेसे, मैं आपसे प्रेम करूँ तो दोनोंके लाभ है।

परमात्माके लिये प्रेम किया जाय तो कोई भी करे, लाभकी चीज है। गोपियाँ आपसमें प्रेम करती थीं। हम भी इसी तरह आपसमें प्रेम रखें तो दोनोंके लाभकी बात है। आप यदि आपसमें लड़ते हैं तो दोनोंके हानि है, आपसमें प्रेम करते हैं तो लाभ है। वह चाहे साधक हो, चाहे सिद्ध। जो साधक हैं और एक-दूसरेसे प्रेम रखते हैं, वे लाभ उठाते हैं।

श्रद्धा जो बड़ा हो या जो पूजनीय हो, उसमें ही हुआ करती है। एक-दूसरेमें नहीं होती। प्रेम बराबर वालोंमें होता है। वहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं है। एक-दूसरेसे परस्परमें प्रेम करना—इसकी बड़ी आवश्यकता है। खूब उत्तरोत्तर प्रेम करना चाहिये। वास्तविक प्रेम अधिक लाभकी चीज है।

इस समय दिखाऊ प्रेम बढ़ रहा है, वास्तविक प्रेम नहीं। दिखाऊ प्रेम भी हानिसे तो बचानेवाला है। वह उतना ही लाभ करता है कि परस्परमें लड़ाई करके रसातल जानेसे रोकता है, किन्तु परमात्मा तक तो असली प्रेम ही पहुँचा सकता है। इसलिये हमें अन्तरंग प्रेम करना चाहिये। उससे स्वत: सुधार होगा।

आपसमें खूब प्रेम बढ़ाना चाहिये। वर्तमानमें जो प्रेम है, पहले इससे अधिक प्रेम था। कम कैसे हुआ? एक-दूसरेका छिद्र देखनेसे। किसीका अवगुण नहीं देखना चाहिये, वह हानिकी चीज है। उससे वैर होगा। उसका परमाणु अपनेमें आयेगा, इसलिये किसीके अवगुणोंकी ओर खयाल करना ही नहीं चाहिये। एकदम सिद्धान्तकी बात है। दूसरेके दुर्गुणोंका चिन्तन करेंगे तो वे दुर्गुण अपनेमें आयेंगे। दूसरेके गुणोंका चिन्तन करेंगे तो गुण आयेंगे।

एक दूसरेके साथ द्वेष होगा तो कटकर मरेंगे। कौरव, पाण्डव कटकर मर गये, क्योंकि उनका एक-दूसरेके साथ वैर था। यदि एक-दूसरेके साथ प्रेम करें तो दोनोंके लाभ होता है। एक-दूसरेका हित करना चाहें तो थोड़ेसे ही काम हो जाता है। लड़ाई करना चाहें तो सेना लेकर जाना पड़े। प्रेम करनेमें सरलता है, लड़ाई करनेमें कठिनता है। लड़ाई करनेमें हानि-ही-हानि है, फिर भी लड़ते हैं, यह मूर्खता है। परस्पर प्रेम बहुत उच्चकोटिकी चीज है। वह प्रेम यदि परमात्माकी प्राप्तिके लिये हो तो बात ही क्या है! एक-दूसरेको देखकर प्रतिस्पर्धा करें। जितनी बातें कहते हैं, आजमाइश की हुई हैं। मेरी साठ वर्षकी आयु हो गयी।

लोभके त्यागके मुकाबले कामका त्याग कठिन है। कामके त्यागसे भी मानका त्याग कठिन है। मानसे भी बड़ाईका त्याग कठिन है। बड़ाईका भी त्याग ईर्ष्याके लिये कर दिया जाता है। अपनी भी मान-प्रतिष्ठा है, दूसरेकी भी मान-प्रतिष्ठा है तो जलता है कि इसकी क्यों है? उसको मिटानेकी चेष्टा करता है।

दोष देखनेका स्वभाव है, इस कारण आपसमें प्रेम नहीं है। इन छिद्रोंको सीमेन्टसे बन्द कर दो। सीमेन्ट है उसका गुण-गान करे और सेवा करे। ये दो चीजें परस्पर प्रेम बढ़ानेवाली हैं।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...

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