॥ श्रीहरि:॥
निवेदन
प्राय: मनुष्य अपना समय धन कमानेमें खर्च कर रहे हैं। परिवारके पोषणको ही विशेष महत्त्व देते हैं, इन कामोंमें पाप करते हुए भी नहीं हिचकते। मनुष्य-शरीर पाकर भी हमलोग अपना पतन कर रहे हैं, इतने पर भी कोई हमें मनुष्य कहे, यह उचित नहीं है। प्रत्यक्षमें आत्माका कल्याण हो, ऐसे काममें समय न लगाकर जो अनावश्यक कामोंमें समय बिताते हैं, दिन-रात पाप करते हैं, वे गड्ढा खोदकर मर रहे हैं, उनको धिक्कार है—ये विचार हैं उन महापुरुषके, जिनका हृदय लोगोंके कल्याणके लिये तड़पता था। उनका एक ही लक्ष्य था कि मनुष्य चेतन है, यदि यह अपनी पूरी शक्ति लगा दे तो क्षण-भरमें भगवत्प्राप्ति करके जन्म-मरणके चक्रसे छूटकर परम आनन्द और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति तक कर सकता है।
जिन महापुरुषके ये भाव रहे, उनका नाम है—श्रीजयदयाल गोयन्दका। उन्होंने मनुष्योंके कल्याणके लिये गीताप्रेसकी स्थापना की, गीताभवन, स्वर्गाश्रममें प्रतिवर्ष लगभग ३-४ महीने सत्संगकी व्यवस्था की, जहाँ कोई भी मनुष्य सत्संग सुनकर उन बातोंको अपने जीवनमें लाकर अपना शीघ्र कल्याण कर ले। वहाँपर वटवृक्षके सात्त्विक वातावरणमें दिये गये प्रवचनोंको किसी सज्जनने लिख लिया था। प्राय: उन्हीं प्रवचनोंको इस पुस्तकमें प्रकाशित किया गया है।
उनका मानना था कि मनुष्यमें इतनी शक्ति है कि वह भगवान् से जीवोंके कल्याण-प्राप्तिका अधिकार प्राप्त कर सकता है। यह बात केवल कहने, लिखनेकी नहीं है—उन महापुरुषने ऐसा अधिकार भगवान् से प्राप्त किया। उनके सत्संगमें आनेवाले लोगोंका उनके दर्शन एवं सत्संगसे कल्याण हो जाता था। ऐसे महापुरुषके अनुभवकी बातें, जो कि स्वर्ण अक्षरोंमें लिखने योग्य हैं तथा अपने जीवनमें उतारने योग्य हैं, उन बातोंका यहाँ संकलन हुआ है।
पाठकोंसे सविनय प्रार्थना है कि इन प्रवचनोंको ध्यानपूर्वक स्वयं पढें, काममें लानेकी चेष्टा करें ताकि हमलोगोंका मनुष्य-जीवन पाना सफल हो जाय। उन महापुरुषका प्रयास एवं संकल्प हमारे साथ है।