॥ श्रीहरि:॥
साधकोंके लिये बहुत ही महत्त्वकी बातें
प्रवचन तिथि—ज्येष्ठ कृष्ण १०, संवत् १९२९ सन् १९३२, सायंकाल वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
इतने दिनोंमें बातें तो बहुत ही कही गयीं, शेषमें ऋषिकेशके इस सत्रके अन्तिम दिन उनमेंसे ये दो बातें प्रधान बतायी गयी थीं—
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यावन्मात्र जीवोंकी सेवा करनी और उनको सुख पहुँचाना चाहिये।
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परमात्माको हर समय याद रखना चाहिये।
दोनोंमेंसे एक बातको धारण करनेसे सब बातें स्वत: ही आ जायँगी।
वैराग्यवान् पुरुषोंका संग करना चाहिये। हर समय उद्यमशील होना चाहिये। पाँच मिनट भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये। समय मूल्यवान्से मूल्यवान् कार्यमें बिताना चाहिये। व्यर्थ बात करनेका अवकाश ही नहीं रहे, समय परमार्थके काममें बितावें। जिस काममें न स्वार्थ हो, न परमार्थ हो—ऐसे कामके तो निकट ही नहीं जायँ।
मनुष्यको तीन प्रकारकी कमायी करनी चाहिये—
(१) मनसे भजन-ध्यान।
(२) वाणीके द्वारा सत्य वचन, प्रिय वचन और नाम-जप।
(३) शरीरके द्वारा परोपकार।
ये बातें खूब कामकी हैं। जो काममें लाये उसकी आत्माका शीघ्र ही उद्धार हो जाय। यह शास्त्रोंका निचोड़ है, सब बातोंका सार है।
मनुष्यको सहनशील बनना चाहिये। भारी-से-भारी आपत्तियोंको हर्षके साथ सहना चाहिये। संकट सहनेसे मनुष्य धैर्यवान् होता है।
कल एक बात बतायी थी कि समय किस तरह बिताना चाहिये—
- इस (ऋषिकेशके) दृश्यको याद कर लें और भगवान् से कहें ‘हे प्रभु! हे दीनबन्धु!! आपकी प्रेम-भक्तिमें इस तरह समय बितानेके दिन फिर कब आवेंगे?’
२.सत्संगमें सुनी हुई बातों, गीता इत्यादिकोंका मनन, निदिध्यासन करना चाहिये एवं उनमें मन लगाकर समय बिताना चाहिये।
जिनके पास सत्संगकी लिखी हुई बातें हों, उनके अनुसार मनन करें, एकान्तमें चिन्तन करें, फिर उन बातोंको काममें लावें। उन बातोंको सब प्रकारसे समझ लें और काममें लानेवाली नहीं हो, वह छोड़ दें। युक्तिसंगत जँचें, उनको काममें लानेके लिये कटिबद्ध हो जायँ।
इन सब बातोंका प्रत्यक्ष फल मिलेगा, परमात्माका दर्शन होगा और उनकी प्राप्ति होगी। जिनको आज परमात्मा कोसों दूर दीखते हैं, उन्हीं पुरुषोंको वह परमेश्वर रोम-रोममें, पत्ते-पत्तेमें दर्शन देगा। संसार दु:खमयके बदले आनन्दमय हो जायगा। भगवत्-स्वरूपमें निष्ठावाली परम शान्ति प्राप्त होगी, चारों ओर शान्ति-ही-शान्ति होगी।
समयकी अमोलकताको जाननेके साथ ही वैराग्य हो जायगा। देवताओंके समयका इतना मूल्य नहीं है, जितना मनुष्यके समयका मूल्य है। ऐसा साधन प्राप्त होनेपर भी जो मुक्तिका साधन न करे, उसको धिक्कार है।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ॥
(रा०च०मा०, उत्तरकाण्ड, दोहा ४३)
भावनाके अनुसार फल—किसीको भोजन करते समय निम्न भाव हो सकते हैं—(१) परमेश्वर-बुद्धि। (२) महात्मा-बुद्धि। (३) कुटुम्बी-बुद्धि। (४) बेगार-बुद्धि। जो स्त्री सबको परमेश्वर-बुद्धिसे भोजन कराती है उसे परमात्माको ही भोजन करानेका फल होगा। सकामभावसे भोजन करानेपर स्वर्गकी प्राप्ति होगी। पंक्तिभेद करनेपर नरक होता है (भोजन करवाते समय भोजन सामग्रीमें भेदभाव रखना पंक्तिभेद कहलाता है)। भावनाके अनुसार ही फल होता है।
मनुष्यका जन्म पाकर भलाई लेकर ही जाय, बुराई लेकर नहीं जाय। अपने साथ बुराई करनेवालोंकी भी भलाई ही करे। अपकार करनेवालोंके साथ उपकार करना चाहिये—इससे बढ़कर संसारमें ऊँचा दर्जा नहीं है। वह मनुष्य रूपमें साक्षात् नारायण ही है। स्त्री है तो साक्षात् लक्ष्मी ही है। उत्तम-से-उत्तम पुरुष वही है, जो भलाई करके मनमें अभिमान न लावे, वह भगवद्-रूप ही है।
सबसे बढ़कर बात यह है कि समयको उत्तरोत्तर मूल्यवान् बनाना चाहिये। जो समयका मूल्य जान गया, उसका कल्याण तो हुआ ही पड़ा है।
परमात्माकी प्राप्ति मनुष्य जन्ममें एक क्षणमें हो सकती है। जिस कालमें परमात्मा मिलें, वह क्षण कैसा है? वह दशा अभी हो जाय तो परमात्मा अभी मिल जायँ। इसको वही पुरुष जानता है, जिनको परमात्माके दर्शन होते हैं। वह क्षण हठात् भी आ सकता है, वह क्षण समयपर तो आता ही है। किसी क्षण नाम उच्चारण करते-करते वह प्रेम जाग्रत् हो जाय तो उसको उसी क्षण परमात्मा मिल जायँ। वह प्रेम उसकी दयासे आता है। उसके लिये रोना चाहिये, उससे प्रार्थना करनी चाहिये। खयाल करो, परमात्माकी कितनी दया है! परमात्माकी ओर वृत्ति जानी—यह परमात्माकी कितनी दया है! अध्यात्म-शास्त्र प्रचारवाली जातिमें जन्म होना—यह परमात्माकी कितनी भारी दया है! यहाँ भागीरथीके किनारे आना हुआ—यह भी परमात्माकी कितनी दया हुई!
गंगातट, वटवृक्ष, भगवत्-चर्चा और यह गंगाजीकी रेणुका—जो मुँह और नासिकाके द्वारा पेटमें जाकर बाहर-भीतरसे रोम-रोमको पवित्र करती है। गंगाजीका जल बाहर-भीतर रोम-रोमको पवित्र कर रहा है। ऐसे देशमें आकर वैराग्य न हो तो फिर कब होगा? इससे बढ़कर ईश्वरकी क्या दया होगी? इससे बढ़कर क्या भाग्योदय होगा? अगर परमात्माकी प्राप्ति न हो तो फिर क्या कहा जाय?
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥
(रा०च०मा०, उत्तरकाण्ड, दोहा ४४)
यह दोहा रामचन्द्रजीके समयका है। उस समय अयोध्या तीर्थभूमि थी। यह गंगाजी अयोध्यासे भी पहलेका तीर्थ है। उस समय साक्षात् भगवान् थे—इस समय भगवान् का गुणानुवाद है। कलियुगमें भगवान् से भी बढ़कर भगवान् का गुणानुवाद तारनेवाला है।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
(रा०च०मा०, उत्तरकाण्ड, दोहा १०३ क)
उस समय ध्यानसे कल्याण होता था, इस समय भगवान् के नामसे कल्याण होता है।
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
(श्रीमद्भागवत १२। ३। ५२)
सत्ययुगमें भगवान् का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
कलियुगमें केवल हरिका नाम ही सार है। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कलियुगमें हरिनामको छोड़कर दूसरी गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।
इसीलिये तुलसीदासजी कहते हैं—
कलियुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा॥
सत् युगमें भगवान् नृसिंहका अवतार था और कलियुगमें नाम साक्षात् अवतार है। नामकी महिमा सदा ही है, पर कलियुगमें नाम साक्षात् राजा है, साक्षात् नृसिंह भगवान् का अवतार है। नामको जपनेवाले प्रह्लादके समान हैं। हिरण्यकशिपु स्वयं कलियुग है। भगवान् के भजनसे वही काम सिद्ध होगा।
ऐसा अवसर पाकर उद्धार न हो तो क्या समझा जाय? नामजपके साथ-साथ भगवान् का ध्यान भी हो तो भगवान् से वार्ता भी चले। फिर सब विघ्नोंका नाश होकर परमात्माकी प्राप्ति हुई ही पड़ी है। बस! ध्यानसे बेड़ा पार है।
इसमें समयका नियम नहीं, एक क्षणके स्मरणसे भगवान् मिल जायँ। एक श्वासके बदलेमें त्रिलोकीके राज्यका मूल्य भी नहीं है। एक क्षणमें भगवान् मिल सकते हैं, उस समयका मूल्य क्या कहा जाय! शास्त्रोंमें समयका मूल्य भगवान् की प्राप्तिसे भी बढ़कर बताया है, वहाँतक अपनी दृष्टि पहुँचती नहीं। जो रत्नकी बिक्री कौड़ियोंके बदले करता है, वह समयकी कीमत क्या जाने? समय तो रत्न है। कौड़ियोंके बदले बेचना—यानी भोगोंके द्वारा रस लेना ही समय रूपी रत्नको कौड़ियोंके बदले बेचना है। मनुष्यको परमात्माकी प्राप्ति एक क्षणमें हो सकती है।
इससे भी बढ़कर सत्संगकी महिमा गायी गयी है, सत्संगसे एक क्षणमें नारद मुनिने दस हजारकी मुक्ति करवा दी। तब सत्संगका मूल्य कितना हुआ! जिसकी कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है!
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(रा०च०मा०, सुन्दरकाण्ड, दोहा ४)
सत्संगका इतना महत्त्व है, यह हमलोगोंने कभी जाना नहीं, सनकादि जानते हैं। नारदके उपदेशसे क्षण मात्रमें हजारोंका उद्धार हो जाता था। दक्ष प्रजापतिने प्रजाकी वृद्धिके लिये दस हजार पुत्र उत्पन्न किये थे, वे सब नारदके उपदेशसे तप करने चले गये। जब वे तप करके तैयार हो गये, तब नारद पहुँचे और उनसे बोले—तुम्हारे पिताने तुमको संसार फैलानेके लिये उत्पन्न किया है। तुम लोग किनारे लगी नौकाको डुबा मत देना।
बस! उनकी आँखें खुल गयीं। वे सब-के-सब महात्मा, जीवन्मुक्त हो गये। दक्षने फिर दस हजार पुत्र उत्पन्न किये, उनकी भी वही दशा हुई। तब नारदकी ऐसी करतूत देखकर दक्षने उनको शाप दिया—हे नारद! तू दो घड़ीसे अधिक कहीं नहीं ठहर सकेगा।
नारदने कहा—दो घड़ी तो बहुत है। दो घड़ीमें तो बहुतोंका उद्धार हो सकता है।
नारदकी ऐसी महिमा है कि ब्रह्मा और शिव भी दौड़-दौड़कर भगवान् के गुणानुवाद उनसे सुनते हैं। सनकादि तो समाधि छोड़कर सुनते हैं। सत्संगमें उस तरहका श्रद्धा और प्रेम हमलोगोंका नहीं है।
परमात्मामें श्रद्धा और प्रेम होनेसे और उनके गुणानुवाद सुननेसे क्षण-क्षणमें रोमाञ्च और नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगती है। भगवान् का नाम कानोंमें सुनायी देते ही आनन्दकी लहरें आने लग जाती हैं। भगवान् के चिन्तनसे, नाम-कीर्तनसे और गुणानुवादसे अद्भुत आनन्द होने लग जाता है।
इस मनुष्य-जीवनका मूल्य भगवत्-प्राप्ति है, फिर पारसका तो मूल्य ही क्या है?
एक विरक्त महात्माके एक भोला मूर्ख शिष्य था। वह भजन-ध्यान तो करता था, पर मूर्खताके कारण लोगोंको पुत्र, धन इत्यादिके लिये आशीर्वाद दे देता था। गुरुने उससे कहा—‘मूर्ख! तू यह क्या करता है? तेरी ऐसी आदत कैसे पड़ गयी?’
शिष्यने कहा—ये लोग अन्न-वस्त्र इत्यादिकी सेवा करते हैं। आशीर्वाद न देनेसे फिर क्यों करेंगे? तब गुरुने उसको एक पत्थर लाकर दिया और कहा—इसकी कीमत बाजारमें जाकर करा ला, परन्तु इसे किसी भी भावमें बेचना नहीं है। शिष्य बाजारमें गया। उस पत्थरका मूल्य मालीने तीन पैसे, बनियेने एक रुपया, कपड़ेवालेने सौ रुपये, छोटे सुनारने हजार रुपये, बड़े सुनारने दस हजार रुपये और जौहरीने दस लाख बताया। तब वह शिष्य आश्चर्य-चकित होकर राजाके पास गया। राजाने बड़े-बड़े जौहरियोंको बुलाकर उस पत्थरका मूल्य पूछा। उन जौहरियोंने कहा—हे राजन्! आप अपना सारा राज्य दे डालें तो भी इस पत्थरका मूल्य नहीं आँका जा सकता।
राजाने उस चेलेसे कहा—‘महाराज! पचास करोड़ रुपये तो मैं अभी दे सकता हूँ। आप अपने गुरुसे पूछिये कि वे कितनेमें दे सकते हैं? माँगेंगे, उतना ही दे सकता हूँ।’
शिष्य गुरुजीके पास गया। गुरुजीने कहा—इसको लोहेके छुआओ! लोहेके छुआनेके साथ ही वह लोहा स्वर्ण बन गया। तब गुरुजीने कहा—इसको जितनेमें भी बेचो, ठगाई-ही-ठगाई है। अब जा! इसको गंगाजीमें फेंक दे। यह चीज गुप्त रखनेकी है। लोगोंको मालूम हो जायगा तो वे लड़कर मर जायँगे। हम इसका बोझ ढोकर क्या करेंगे? शिष्यसे वह पत्थर फेंका नहीं गया। तब महात्माने लेकर गंगाजीमें फेंक दिया। शिष्य बोला—महाराज! आपने यह क्या किया? गुरुजीने कहा—थोड़ा लोहा और ला। उसको लेकर अपने सिरके रगड़ा तो वह भी सोना बन गया। शिष्य चकरा गया। गुरुजीने कहा—किसीको यह बात कहना नहीं, नहीं तो लोग हमारा सिर फोड़ देंगे। मूर्ख! तू तो इसको तीन पैसेमें बेचनेको तैयार हो गया था!
समय अमूल्य है। समयको ऐसा बना लो कि शरीर, वाणी पारस हो जायँ। ऐसी योग्यता हो जाय कि उसकी दया-दृष्टिसे पापी भी मुक्त हो जायँ।
ऐसे मनुष्यका जीवन ही अमूल्य है। जो जितने कम मूल्यमें अपने समयको बेचता है, वह उतना ही मूर्ख है, जैसे—पारसका मूल्य राजाका सर्वस्व देकर भी पूरा नहीं हुआ।
चेतन आत्माका कितना मूल्य है! माथेसे लगाकर लोहेको सोना बना दिया तो क्या हुआ? वाणीके द्वारा वृक्षको कल्पवृक्ष बना दिया, पत्थरको पारस बना दिया तो क्या हुआ? महान् विलक्षण पुरुषके दर्शन, भाषण, स्पर्शसे, उसकी दया-दृष्टिसे पापी पुरुष भी परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।
लाखों बार ब्रह्मा होनेपर भी संसारके दु:खोंसे पिण्ड नहीं छूटता है। जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तबतक चौरासी लाख योनिके यन्त्रमें घूमना ही पड़ेगा।
हम ऐसे बन सकते हैं, जिससे स्वयंको तथा लाखों मनुष्योंको भगवत्-प्राप्ति हो सकती है। समयके ऐसे मूल्यको समझकर भी ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो समयको व्यर्थ खोवेगा? हे परमात्मा! हे प्रभो!! जब यहाँतक सुननेमें आता है तो हे नाथ! मुझे आप ऐसा सेवक बना दें कि (काशीमें शिवजीकी तरह) मुक्तिका सदाव्रत बाँटता रहूँ। आपका ही सदाव्रत है, मैं बाँटकर अपना मन प्रसन्न कर लूँ।
इस तरहकी योग्यता मनुष्यकी बन सकती है। मनुष्य इतना ऊँचा बन सकता है, फिर भी हमलोग अभीतक अपना पेट भी पाप करके ही भरते हैं, ऐसे जीवनको धिक्कार है! मनुष्य-जीवनमें इतनी उन्नति हो सकती है और हमलोग इतने गिरे हुए हैं! मनुष्य-शरीरमें आकर नीचे योनियोंमें जाना पड़े, उसको धिक्कार है।
जहाँ योग्यता है, जहाँ साधन है, जहाँ उपाय है, वहाँसे जो नीचे गिरता है, उसको बारम्बार धिक्कार है।
तुम्हारी बातपर ईश्वर तो क्या तुम्हारी स्त्री, बालक भी विश्वास नहीं करते; तुम्हारे मुनीम, सेवक भी विश्वास नहीं करते। तुम्हारी वाणीका इतना ही मूल्य है? तुम्हारेमें और पशुओंमें क्या अन्तर है? दोनों ही दयाके पात्र हैं। संसारमें व्यर्थ ही आये, मातासे व्यर्थ ही बोझ ढुलाया। पत्थर होता तो दीवाल बनानेके काम तो आता। अच्छे-अच्छे भोजनके पदार्थ खाकर पृथ्वी गन्दी की, क्या मनुष्यका जन्म इसी बातके लिये मिला था?
मनुष्यका जीवन जीते हुए ही काममें आता है, पशुका शरीर तो मरनेके बाद भी काममें आता है। मनुष्यका हाड़, माँस, चमड़ी—कुछ भी काममें नहीं आता। राख होकर उड़ जायगी। जबतक यह राख नहीं उड़े, उसके पहले-पहले ही जिस कामके लिये आये हो, उसे पूरा कर लो। चूको मत। सब काम धरे रहने दो। बस, यह काम पूरा कर लो। अन्यथा तुम्हारी क्या दशा होगी? तिर्यक् योनिमें पड़नेके बाद किसकी सामर्थ्य है, जो तुमको वहाँसे वापस लाये? बद्रीनाथके पहाड़ोंसे कोई गिरे तो उसको उठानेवाला भी मिल सकता है, पर मनुष्य-शरीरसे गिरे हुएको उठानेवाले नहीं मिलते। उत्तरोत्तर उन्नति करो। आपकी दृष्टिमें जो आवश्यकसे आवश्यक सांसारिक कार्य हैं, वे चूल्हेमें जायँ। तुम मर जाओगे तो उस कार्यको दूसरे कर लेंगे। तुम्हारे बिना नहीं होवे तो मत होओ, परन्तु तुम्हारी मृत्यु आ जाय और तुम दूसरी योनिमें गिर गये तो फिर तुम्हारा कौन सुधार करेगा? सब स्वार्थके मित्र हैं। क्यों अपने जीवनको धूलमें मिलाते हो?
कोई लाख रुपया कमाता है और उसमें अपना समय लगाता है तो वह पशुसे भी अधिक गया-बीता है, पत्थर ही ढोता है। पत्थर और सोना-चाँदी सब पृथ्वीमेंसे ही निकलते हैं। वजन दोनोंमें ही है। दस करोड़ कमाया और मरकर कुत्ता बन गये तो वह धन तुम्हारे क्या कामका? इस भौतिक उन्नतिका एक पैसा भी मूल्य नहीं है, जिस प्रकार स्वप्नकी उन्नति जाग्रत् में कुछ भी काम नहीं आती है। जैसे भिखमंगा स्वप्नमें करोड़पति हो जाय, वास्वतमें तो वह भिखमंगा ही है, ऐसे ही ये सब चीजें यहाँ ही रहनेवाली हैं। एक पाई भी साथ जानेवाली नहीं है।
जो ले जाना चाहे, वह ले जा भी सकता है। बुद्धिमान् मनुष्य कोई वस्तु कहीं भेजना चाहे तो वह पार्सल या रजिस्ट्री द्वारा भेज सकता है। यों-का-यों नहीं जा सकता है, परन्तु डाक द्वारा जा सकता है।
उस तन, मन, धनको दु:खी-अनाथोंकी सेवामें लगाना ही परलोकमें पहुँचानेका मार्ग है। परमात्माकी प्राप्ति कर ली, तब तो यह और वह—सब राज्य अपना ही है।
और भी एक मार्ग है—मरे ही क्यों? ऐसा जीवन्मुक्त बन जाय कि उसकी चाह भगवान् भी करें। भगवान् ने कहा है कि गीताके प्रचार करनेवालेके समान मेरा प्यारा न कोई है, न होगा—
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय:॥
(गीता १८। ६८)
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा—इसमें कोई सन्देह नहीं है।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता १८। ६९)
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।
जिस किसी प्रकारसे भी गीताका प्रचार हो, इसकी चेष्टा प्राण-पर्यन्त करे। गाँव-गाँव, घर-घरमें, पुस्तकोंके द्वारा, व्याख्यानके द्वारा, भावके द्वारा खूब प्रचार कर दे। गीता भगवान् का साक्षात् स्वरूप है, प्राण है। ऐसा अपनी आत्माको बना ले कि एक गीता-भगवतीके प्रतापसे सब कुछ हो जाय। गीताके अनुकूल बर्ताव, वाणीमें गीता, गीताके अनुसार मन, गीताके अनुकूल आचरण, गीताके अनुकूल भाव, गीताके अनुकूल हृदय, गीताके गुण, गीताके अनुकूल चलना, सोना, उठना आदि क्रियाएँ हों और गीताकी ही चर्चा हो। उसके रोम-रोममें गीता रमी हुई है। भगवान् की प्रतिज्ञा है कि उससे बढ़कर मेरा प्यारा न तो कोई हुआ है और न कोई होगा।
गीताका उपदेश ही मुक्तिका सदाव्रत है। जो पुरुष उसके उपदेशको धारण करता है, वही मुक्त है। वही मुक्तिका सदाव्रत बाँटता है। पत्ते-पत्तेमें, वृक्ष-वृक्षमें, गाँव-गाँवमें जगह-जगह उसकी ध्वनि गुंजार करके व्यापक कर दे—ऐसा अपना जीवन बना ले।
मनुष्यका शरीर और बुद्धि पाकर भी हमलोग यदि अपना पतन करें, फिर भी कोई हमें मनुष्य कहे तो वह सही नहीं है। प्रत्यक्षमें आत्माका कल्याण हो, ऐसे काममें समय न बिताकर, जो व्यर्थ कार्यमें समय बिताते हैं, वे गड्ढा खोदकर मर रहे हैं, उनको धिक्कार है।
मनुष्यको बार-बार जगानेकी, चेतानेकी, बल दिलानेकी आवश्यकता है। यह जीव चेतन है, इसकी शक्ति अपार है—आगकी चिनगारीकी तरह। यदि वह चिनगारी अपने वास्तविक रूपको धारण कर ले तो सारे ब्रह्माण्डको जला सकती है। यह जीवात्मा परमात्माका अंश ही है। अग्निकी चिनगारी है, वह साक्षात् आग ही है। फूँक देनेवाला, हवा देनेवाला हो तो वही चिनगारी आगका रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार इस जीवात्माकी इतनी शक्ति है कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका उद्धार कर सकती है। मनुष्यको सत्संग रूपी पंखेकी हवा मिलती रहे तो वह सम्पूर्ण संसारको हिला दे, जैसे हनुमान् जी को जाम्बवान् ने बल याद दिलाया और वे समुद्रको एक खाईकी तरह लाँघ गये।
हम सबमें वह चेतन शक्ति परिपूर्ण है। जाम्बवान् की तरह कोई चेतानेवाला हो, फिर इस संसार-समुद्रको लाँघना कौन बड़ी बात है?
प्रभाव तो सब जगह परिपूर्ण हो रहा है, हमें सावधान होना चाहिये, सचेत होना चाहिये, जागना चाहिये—उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। (कठोपनिषद् १। ३। १४)
हे मनुष्यो! उठो, जागो श्रेष्ठ महापुरुषोंको पाकर—उनके पास जाकर उनके द्वारा उस परब्रह्म परमेश्वरको जान लो।
महान् पुरुषके समीप जाकर यह बात समझो और संसारसे पार हो जाओ। आप भी महान् बन सकते हो, उस परमात्माके साक्षात् रूपको प्राप्त हो सकते हो। वामन भगवान् ने एक ही पगमें सम्पूर्ण संसारको नाप लिया, ऐसे ही हमलोग सम्पूर्ण संसारको लाँघ सकते हैं। वही शक्ति अपनेमें है। उसीके हम अंश हैं। खूब हिम्मत रखो। भगवान् सहारा देनेके लिये तैयार खड़े हैं। उनकी पूर्ण कृपा हो रही है। इस संसार-सागरको लाँघना क्या बड़ी बात है? खूब हिम्मत रखो। भजन-साधन करते रहो। बँधेगा सो फँसेगा, फिरेगा सो चरेगा। मायाकी फाँसीसे बँधेगा, वह मरेगा। मायाका बन्धन काटकर हर समय भजन-साधनकी चेष्टा करते रहो, कुछ ही दिनोंमें कायापलट हो जायगी। लोग कहेंगे कि ये महापुरुषोंके पास किस रूपमें गये थे और आये हैं किस रूपमें।
भगवान् को याद रखनेका यही उपाय है कि उनको हृदयमें अंकित कर लो। नहीं तो कलमसे पकड़ लो। उन बातोंको लिखकर कापियोंको सामने रखो। ये बातें बार-बार खयाल करके आचरणमें लाओ। बार-बार एकान्तमें बैठकर मनन करो, काममें लाओ।
गीताकी बातोंको आदर दो, उसकी महिमा समझो। जिस तरह व्यवसायमें बड़ी कमाईकी बातको याद रखते हो, उसी तरह गीताकी बातोंको भी याद कर-करके पक्की कर लो। इसमें बड़ा लाभ है। अमूल्य समयको अमूल्य कार्यमें ही बिताना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...