सिद्धान्तकी अनमोल बातें
प्रवचन तिथि—वैशाख शुक्ल १५, शुक्रवार, संवत् १९८९ सन् १९३२, दोपहर, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
सबसे बढ़कर यह बात है कि उत्तम गुण, उत्तम आचरणका उपार्जन करना चाहिये एवं बुरे गुण, बुरे आचरणोंका त्याग करना चाहिये।
ईश्वरकी बड़ी कृपा है। उसकी कृपासे यह सब बात होगी—ऐसा विश्वास मनमें लाना चाहिये। मनमें हिम्मत रखनी चाहिये। सद्गुण, सदाचार, शान्ति, प्रेम, शील, सरलता, तेज और ईश्वरकी भक्ति—ये सब ईश्वरकी दयासे मेरेमें आयेंगे। इनके आनेमें कुछ भी कठिनता नहीं समझे।
ईश्वरकी दया और उसके बलके भरोसेपर इन बातोंका उपार्जन करनेका प्रयत्न करना चाहिये। नित्य देखना चाहिये कि मुझमें बुरी बातें कम हो रही हैं और अच्छी बातें बढ़ रही हैं या नहीं। यह बात प्रत्यक्षमें होगी, ईश्वरके भरोसेपर ऐसी भावना करनी चाहिये।
हममें एक तिनका तोड़नेकी भी स्वतन्त्रता नहीं है। पेशाब करना, भोजन करना भी अपने हाथकी बात नहीं है। अभी पेशाब बन्द हो जाय तो क्या कर सकते हैं, परन्तु ईश्वरका विश्वास रखना चाहिये। जो ईश्वरका विश्वास रखता है, ईश्वर उसकी सहायता करते हैं।
भगवान् का भजन-ध्यान और शास्त्रका विचार—इन विषयोंमें स्त्री, पुत्र, माँ-बाप, भाई या अन्य कोई सम्बन्धी अटकावे तो पहले तो उनको इस विषयमें उचित रीतिसे समझा देवे। इसपर भी वह नहीं समझें तो उनकी बातोंपर ध्यान नहीं देवे। अपना भजन-ध्यानका काम जैसे करना हो, उसी तरह करे। इस कारणसे यदि उनका व्यवहार बिगड़े तो फिर सहनशक्ति रखे, उनके व्यवहारसे उखड़े नहीं उनकी अन्य सब बातें माने और भजन-ध्यान करते हुए उनको प्रसन्न करनेकी ही चेष्टा करे।
कोई भी साधु-महात्माका संग करें तो बैठकर उनकी बातें सुननेकी अपेक्षा उनके बताये हुए मार्गपर चलना श्रेष्ठ है। उनकी वाणी, सलाह, आदेश, संकेत—जिस किसी तरहसे वे मार्ग बतावें, उसपर चलनेसे जितना लाभ है, उतना उनकी शारीरिक सेवासे नहीं है। उनका वास्तविक आदर यही है कि उनके बताये हुए मार्गपर चलना। अच्छे पुरुषोंके अभावमें उनके द्वारा बनाये हुए शास्त्रोंका संग ही साधु-संग है।
सबसे अधिक लाभ देनेवाला काम यह है कि समयपर, न्याययुक्त जो काम आकर प्राप्त हो जाय, वही स्वार्थ-त्यागीके लिये सबसे बड़ा काम है। जैसे दो दिन पहले गीताकी चर्चा हो रही थी, उस समय एक भाईके पत्थरकी चोट लगी, उस समय सेवाका वही काम बड़ा था। गीता तो आपलोग बादमें भी सुन सकते हैं। कोई बीमार हो, डूबता हो या और कोई भी सेवाका ऐसा काम आ पड़े तो उस समय उस कामको सत्संगसे अधिक आदर देना चाहिये। उस समय उस कामको मूल्यवान् समझकर करे। अपनी बुद्धिमें दूसरा कम मूल्यवान् दीखे तो भी उसकी परवाह न करे। जिस कार्यमें परिश्रम, झंझट हो एवं देखनेमें कामका दर्जा छोटा हो और उस कामको करनेमें दूसरे व्यक्ति हटते हों तो उस जगह उस कामको पहले करना चाहिये। नीची भावनासे बड़ा काम भी छोटा हो जाता है और ऊँची भावनासे छोटा काम भी बड़ा हो जाता है। जो बुद्धि द्वारा समझमें आ जाय, उसे बल द्वारा कार्य रूपमें परिणत कर लेना चाहिये। निर्णय करनेपर ठीक समझमें आ जाय तो उस कामको करनेके लिये तत्पर हो जाना चाहिये। उस काममें तत्परताका न होना ही अकर्मण्यता है। आलस्य अथवा अभ्यास न होनेके कारण कोई सेवा इत्यादिका काम अच्छा समझनेपर भी नहीं होता हो तो उसको बलपूर्वक करना चाहिये, तभी वह काम होगा।
शत्रु, विपरीत पक्षवाले, द्वेषीके साथ व्यवहार करनेका अवसर आ जाय, उस समय गम्भीरतासे काम लेना चाहिये। उखड़नेसे क्रोध आना स्वाभाविक है। क्रोध आनेसे अपना पतन हो जायगा।
प्रतिपक्षी, वैरी, द्वेष रखनेवालोंका भी उपकार करे तथा धर्म, न्याय, सत्यकी रक्षा करते हुए उनके अनुकूल बर्तावकी चेष्टा करे। तन, मन, धनसे सहायता करे। व्यवहार करते समय उदारतासे काम ले। युधिष्ठिरका दुर्योधनके साथ बर्ताव याद कर ले। बात करनेमें गम्भीरता, समता और उदारताको याद रखे। मुखसे वचन सोच-विचार कर निकाले। गम्भीरताका अर्थ है—नाना प्रकारकी खराब और चुभती हुई बातोंको सहन करना।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥
(गीता २। ७०)
जैसे नाना नदियोंके जल जब सब ओरसे परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठावाले, समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्तिको प्राप्त होता है, भोगोंको चाहनेवाला नहीं।
समुद्र सब नदियोंको अपनेमें समा लेता है, इसी प्रकार उनके कठोर वचन रूपी नदियाँ, कान रूपी द्वारोंसे, हृदय रूपी समुद्रमें समा जाती हैं। प्रतिपक्षी चाहे जैसे बोले, गम्भीर रहे।
उदारता—भलाई करनेवालेके साथ तो दुनिया भी भलाई करती है। यह स्वभाव तो कुत्तोंमें भी देखा गया है, यह स्वभाव तो सबका ही है, परन्तु जो अपने साथ नीच व्यवहार करे, उसके साथ साधु व्यवहार करना उदारता है।
समता—कोई भी चीज अपने पास है उसे मित्र और शत्रु दोनोंमें समान भावसे बरते, जैसे—महाराज श्रीकृष्णके पास दुर्योधन और अर्जुन दोनों गये, उस समयका उसका व्यवहार याद कर लेना चाहिये। उस समयकी उनकी समतामें उदारता है, इससे अधिक उदारता करनेसे अनुचित हो सकता है। न्यायकी रक्षा और धर्मका पालन करते हुए उदारता, गम्भीरता और समताका व्यवहार रखना चाहिये। अप्राप्त भयसे अपनी रक्षा करनी चाहिये, प्राप्त भयका सामना करना चाहिये, उससे डरना नहीं चाहिये। आपत्ति आकर प्राप्त हो, उस समय धीरता और वीरता—ये दो गुण रखने चाहिये। धीरता और वीरताकी शरणसे ही धर्मकी रक्षा होगी। आपत्ति भी धीरता और वीरतासे ही कम होगी। उस जगह रोने नहीं बैठ जाना चाहिये, चाहे जो विपत्ति आकर प्राप्त हो जाय। मनुष्यकी धीरता, वीरता उसी समय काम आती है।
बड़ोंकी सेवा और उनके पास रहकर उनसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
गुण, बुद्धि, अवस्था, विद्या, पद—किसी भी प्रकारसे बड़े और पूज्य पुरुष हों, उनका सेवन करना चाहिये। उनमें जो गुण हैं, उनको धारण करना चाहिये और उनमें जो अवगुण हों, उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। उत्तम बात धारण करनी चाहिये, उनकी आज्ञाका पालन करना चाहिये, परन्तु पापवाली बात स्वयं ब्रह्माजी कहें तो भी नहीं माननी चाहिये। दो बड़े हों और परस्पर विरुद्ध आज्ञा देते हों तो जिसकी न्याययुक्त आज्ञा हो, वही माननी चाहिये। दोनों ही ठीक कहते हों, परन्तु पालन करनेमें आपत्ति आती हो तो स्वार्थको छोड़कर सोचना चाहिये और उस कार्यको करनेमें शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। धर्म-संकटके अवसरपर शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। ऐसी अवस्थामें धर्मकी रक्षाके लिये थोड़ा पाप स्वीकार कर लेना चाहिये। दोनोंमें समान पाप हो तो गम्भीरतापूर्वक सलाह लेनी चाहिये। सलाह देनेवाला नहीं हो तो ठहर जाना चाहिये, शीघ्रता नहीं करनी चाहिये। (इस प्रसंगमें गौतम और चिरकारीका दृष्टान्त देखना चाहिये)।
जाति, समाज, घर, गाँव—कहीं भी समुदायमें लड़ाई हो जाय तो निरपेक्ष भावसे स्वार्थ त्यागकर उसको मिटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। वह व्यक्ति दलबंदी मिटानेके उद्देश्यसे दल बना सकता है। निर्बल और न्याययुक्त दलका पक्ष लेना चाहिये। प्रधान बात—दोनों न्याययुक्त हों तो निर्बलके साथ होना चाहिये। अन्तमें विजय न्यायकी ही होगी। अन्यायकी विजय हो जाय तो वह परिणाममें विनाशकारक ही होगी। जहाँ न्याय है, वहीं भगवान् हैं।
प्रेमके विषयकी बात सार रूपमें कही जाती है—प्रेमके योग्य एक परमेश्वर ही हैं। परमेश्वरके लिये किसीसे भी प्रेम करना परमेश्वरसे ही प्रेम करना है। सम्पूर्ण संसारमें भगवान् के नाते हेतुरहित प्रेम करना परमेश्वरसे ही प्रेम करना है। परमेश्वरका स्वरूप धर्म, सत्य, न्याय, प्रेम, दया है। लोकमें प्रसिद्ध जो झूठ-साँच है, उन दोनोंसे ही वह परमेश्वर परे है। जैसे गन्धकको साक्षात् आग बताया जाता है; केरोसिन, पेट्रोल और घासके भीतर प्रत्यक्षमें आग दिखायी नहीं देती है, परन्तु उनमें आग व्यापक हो रही है, दियासलाई दिखानेकी देर है, इसी प्रकार उपरोक्त स्थानों (धर्म, सत्य, न्याय, प्रेम और दया)-में भगवान् क्षणभरमें प्रकट हो सकते हैं। इनमें भगवान् व्यापक हो रहे हैं। विशेष रूपसे भगवान् इन्हींमें विराजमान हैं। जहाँ न्याय है, वहीं भगवान् हैं—
यत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:। (महाभारत)
जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं विजय है।
धर्ममें भगवान् का वास है। दियासलाईकी रगड़से जैसे आग प्रकट हो जाती है, वैसे ही धर्मकी रगड़से भगवान् प्रकट हो जाते हैं। जो सत्यका पालन करता है, उसको कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं है। सत्य ही साक्षात् भगवान् का स्वरूप है। सत्यमें भगवान् का वास है। हरिश्चन्द्रकी सारी नगरी सत्यके प्रतापसे वैकुण्ठको चली गयी।
उत्तम पुरुषको न्याय और सत्य प्रिय होते हैं। शत्रु भी उनके न्याय और सत्यकी प्रशंसा ही करते हैं। सत्य, न्याय, धर्म—इनमें थोड़ा-थोड़ा अन्तर है। वास्तवमें तो एक ही वस्तु है। न्याय ही सत्य है। जिस सत्यमें न्याय नहीं है, वह सत्य, सत्य नहीं है। नीतिसे धर्मका दर्जा ऊँचा है। चार भाई बँटवारा करते हैं—५००० में १२५०-१२५० का हिस्सा करना चाहिये—यह नीति है, परन्तु उनमें एक भाई कमजोर है, इसलिये अपने हिस्सेमेंसे उसको अधिक दिया गया, यह विशेष उदारता करना धर्म है। वही कर्तव्य है, परन्तु बराबर देना भी न्याय है। त्याग करनेवाला न्यायसे ऊँचा है। न्यायके पेटमें धर्म और नीति दोनों ही हैं। धर्म न्यायसे ऊँचा बढ़ गया। न्यायका दायरा बड़ा है, परन्तु दर्जा धर्मका ऊँचा है। धर्मसे भी सत्यका दर्जा और ऊँचा है। उदाहरण—दशरथजी और रामचन्द्रजीका। धर्म था—रामजीको राजगद्दी देना, परन्तु कैकेयीको दिये हुए वचनका पालन करके जगत् को दिखा दिया कि सत्य ही बड़ा है। मर गये, परन्तु सत्यका ही पालन किया।
सम्पूर्ण संसारके जीवोंके साथ सेवा, सत्कार, दया और उदारताका बर्ताव करना—यह भगवान् से ही प्रेम करना है। परमेश्वरमें प्रेम करना ही विश्वप्रेम है। स्वार्थ त्यागकर सबका हित चिन्तन करनेसे सबमें प्रेम होता है। यह क्रिया ही प्रेम करानेमें हेतु होती है। जो ईश्वरका प्रिय होता है, वह इसी प्रकार चाहता है। इसलिये जो ईश्वरका प्रेमी है, वह सबका प्रेमी है—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
(गीता १२। १३)
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है।
जो सबके साथ हेतुरहित प्रेम करता है, वही मेरा प्रेमी है। वह इस बातको जानता है कि सब मेरी आत्मा है। एक व्यक्ति मेरी आठ अँगुलियोंकी तो पूजा करे और दो अँगुलियोंमें आग लगावे, वह प्रेमी थोड़े ही माना जायगा। सम्पूर्ण जीव परमात्माकी आत्मा हैं। भगवान् के वचन हैं—जो मनुष्य एक जीवको भी जान-बूझकर कष्ट देता है, वह मेरेको नहीं पाता है। दूसरा आदमी चाहे वैर रखे, परन्तु भक्त बदलेमें उससे वैर रखता है तो वह मेरेसे ही वैर रखता है, क्योंकि मैं ही सबकी आत्मा हूँ—
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥
(गीता ११। ५५)
जो सम्पूर्ण भूतप्राणियोंमें वैरभावसे रहित है—वह अनन्य-भक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।
स्वार्थरहित होकर सबके साथ प्रेम करना चाहिये। ईश्वरके साथ प्रेम करना सबके साथ प्रेम करना है और सबके साथ प्रेम करना ही ईश्वरसे प्रेम करना है।
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
(रा०च०मा० किष्किन्धाकाण्ड दोहा ३)
सम्पूर्ण चराचर परमेश्वरका ही स्वरूप है। जहाँ कहीं प्रेममें बाधा आती है, वहाँ हमारा शत्रु स्वार्थ रहता है। जहाँ स्वार्थ नहीं, वहाँ बाधा नहीं ठहर सकती। धन, मान, बड़ाई, लोक,परलोक—ये सब प्रकारके स्वार्थ प्रेममें बाधक हैं। कोई अपनी प्रतिष्ठाका अहंकार करके कहे—मेरे सामने वह क्या है?—यह अहंकार वैर करानेवाला है। जो पुरुष ईश्वरमें प्रेम करना चाहे, उसको ऐसा विचार करके स्वार्थका त्याग कर देना चाहिये। पारमार्थिक स्वार्थ सहायक है, सांसारिक स्वार्थ मुक्तिमें बाधक है। रोम-रोममें, पद-पदमें, बात-बातमें स्वार्थकी मात्रा भरी हुई है।
बिना प्रयोजन किसीसे बात नहीं करना—यह तुच्छ नीचे दर्जेका प्रयोजन है। यह तुच्छ उद्देश्य ही मनुष्यको तुच्छ बनाकर तुच्छ गति देता है। ऐसा उद्देश्य बहुत छोटा है। छोटा है, वह खोटा है। इसलिये हरेक मनुष्यको अपने उद्देश्यको सत्-उद्देश्य, महान् उद्देश्य बनाना चाहिये। जितना उद्देश्य ऊँचा होगा, उतना ही शीघ्र पहुँचेगा। उद्देश्य एक साधन है। योगसे एक क्षणमें, विमानसे आधा दिनमें, रेलगाड़ीसे दो दिनमें और पैदल जायँ तो दो महीनेमें मार्ग तय होता है, यह सब मार्ग तय करनेके साधन हैं। जितना ऊँचा उद्देश्य और भाव हो, उतना ही लाभ है। छोटा कार्य भी उद्देश्य ऊँचा होनेके कारण ऊँचा हो जाता है। ईश्वरमें और सम्पूर्ण संसारमें हेतुरहित प्रेम करना—इसका दर्जा परमात्माके समान है। हेतुरहित सेवा, दया और उदारता—इन सबको परमात्माके समान दर्जा दिया गया है।
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥
(रा०च०मा०, ७। ४७। ५-६)
बिना प्रयोजन प्रेम करनेवाले दो ही हैं—या तो आप या आपके दास।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
(रा०च०मा० ४। १२। २)
हेतुरहित और प्रेमसे भजन करना भगवान् के समान है। इसीको—ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् (गीता ७। १८)—ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है—ऐसा कहा है। ज्ञानी-अर्थात् निष्कामी।
सा (भक्ति:) परानुरक्तिरीश्वरे—(शाण्डिल्य-भक्ति-सूत्र१।१। २)
अर्थात् वह भक्ति ईश्वरके प्रति परम अनुरागरूपा है। इसे ही पराभक्ति कहा गया है।
हेतुरहित प्रेमका नाम भक्ति है। ऐसा प्रेम परमात्मामें करना चाहिये। भगवान् के प्रेम, गुण, प्रभावकी कथाका श्रवण, मनन, पठन-पाठन करे। भगवान् की रहस्यमयी, तत्त्वमयी, अमृतमयी कथाका श्रवण करे तो भगवान् में प्रेम हो। यह चेष्टा रखे कि ईश्वरमें प्रेम कैसे हो।
इसी बातकी लालसा, उत्कण्ठा, चेष्टा, उपाय अपनी बुद्धिके अनुसार करे। उस प्यारे प्रेमीसे मिलनेकी इच्छा, उसीके नामका जप, स्वरूपका चिन्तन और उसीके अनुकूल बर्ताव करे। अपनी कोई भी चीज प्यारेके काममें आ जाय तो प्रेममें समावे ही नहीं—यह प्रेमका उपाय है।
जहाँ प्रेमका बाहुल्य होता है, वहाँ नीति, न्याय, धर्म—सब परे हो जाते हैं, पर दया वहाँ भी रहती है। प्रेमके बाहुल्यमें ज्ञान न रहनेसे किसी समय दयाका त्याग भी हो जाय तो वह वास्तवमें दयाका त्याग नहीं है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...