ॐ श्रीपरमात्मने नम:
अथ दशमोऽध्याय:
दसवाँ अध्याय
(श्लोक-१)
श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वच:।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥
श्रीभगवान् बोले—हे महाबाहो अर्जुन! मेरे परम वचनको तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं मुझमें अत्यन्त प्रेम रखनेवाले तुम्हारे लिये हितकी कामनासे कहूँगा।
व्याख्या—अर्जुन भगवान् में अत्यन्त प्रेम रखनेवाले (भक्त) हैं; अत: भगवान् उनके लिये भक्ति-सम्बन्धी परम वचन पुन: कहते हैं।
(श्लोक-२)
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥
मेरे प्रकट होनेको न देवता जानते हैं और न महर्षि; क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका आदि हूँ।
व्याख्या—परमात्मा जाननेका विषय नहीं हैं, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय हैं। उन्हें माना ही जा सकता है, जाना नहीं जा सकता। जैसे, अपने माता-पिताको हम मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते; क्योंकि जन्म लेते समय हमने उन्हें देखा ही नहीं, देखना सम्भव ही नहीं, माताकी अपेक्षा भी पिताको जानना सर्वथा असम्भव है; क्योंकि मातासे जन्म लेते समय तो हमारा शरीर बन चुका था, पर पितासे जन्म लेते समय हमारे शरीरकी सत्ता ही नहीं थी। भगवान् सम्पूर्ण संसारके पिता हैं—‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:’ (गीता ९। १७), ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (गीता ११।४३), ‘अहं बीजप्रद: पिता’ (गीता १४।४) इसलिये परमात्माको जानना सर्वथा असम्भव है। उन्हें माना ही जा सकता है।
परमात्माको हम जान सकते ही नहीं और माने बिना रह सकते ही नहीं। जैसे, माता-पिताको माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी (शरीरकी) सत्ता मानते हैं तो माता-पिताकी सत्ता माननी ही पड़ेगी। कार्य है तो उसका कारण भी है। ऐसे ही परमात्माको माने बिना हम रह सकते ही नहीं। अगर हम अपनी सत्ता (होनापन) मानते हैं तो परमात्माकी सत्ता माननी ही पड़ेगी। कारणके बिना कार्य कहाँसे आया? परमात्माके बिना हम स्वयं कहाँसे आये? हमारी सत्ता परमात्माके होनेमें प्रत्यक्ष प्रमाण है। जैसे ‘हम नहीं हैं’—इस तरह अपने होनेपनका कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता, ऐसे ही ‘परमात्मा नहीं हैं’—इस तरह परमात्माके होनेपनका भी कोई निषेध या खण्डन नहीं कर सकता।
(श्लोक-३)
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढ: स मर्त्येषु सर्वपापै: प्रमुच्यते॥
जो मनुष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़तासे (सन्देह-रहित) स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्योंमें ज्ञानवान् है और वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।
व्याख्या—महर्षिगण भगवान् के आदिको तो नहीं जान सकते, पर वे भगवान् को अज-अनादि तो जानते ही हैं। भगवान् का अंश होनेसे जीव स्वयं भी अज-अनादि है। अत: वह जैसे भगवान् को अज-अनादि जानता है, वैसे ही अपनेको भी अज-अनादि जानता है। कारण कि जैसे संसारसे अलग होकर ही संसारको जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम संसारसे अलग ही हैं, ऐसे ही भगवान् से अभिन्न होकर ही भगवान् को जान सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें हम भगवान् से अभिन्न ही हैं। अपनेको अज-अनादि जाननेपर जीव मूढ़तारहित हो जाता है, फिर उसमें पाप कैसे रहेंगे? क्योंकि पाप तो पीछे पैदा हुए हैं, अज-अनादि पहलेसे हैं।
(श्लोक-४)
बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोह: क्षमा सत्यं दम: शम:।
सुखं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥
(श्लोक-५)
अहिंसा समता तुष्टिस्-तपो दानं यशोऽयश:।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधा:॥
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दु:ख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, यश और अपयश—प्राणियोंके ये अनेक प्रकारके अलग-अलग (बीस)भाव मुझसे ही होते हैं।
व्याख्या—ज्ञानकी दृष्टिसे तो सभी भाव प्रकृतिसे होते हैं, पर भक्तिकी दृष्टिसे सभी भाव भगवान् से तथा भगवत्स्वरूप होते हैं। अगर इन भावोंको जीवका मानें तो जीव भी भगवान् की ही परा प्रकृति होनेसे भगवान् से अभिन्न है। अत: ये भाव भगवान् के ही हुए। भगवान् में तो ये भाव निरन्तर रहते हैं पर जीवमें अपरा प्रकृतिके संगसे आते-जाते रहते हैं। भगवान् से उत्पन्न होनेके कारण सभी भाव भगवत्स्वरूप ही हैं।
जैसे हाथ एक ही होता है, पर उसमें अँगुलियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं,ऐसे ही भगवान् एक ही हैं, पर उनसे प्रकट होनेवाले भाव भिन्न-भिन्न प्रकारके होते हैं।
(श्लोक-६)
महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमा: प्रजा:॥
सात महर्षि और उनसे भी पहले होनेवाले चार सनकादि तथा चौदह मनु—ये सब-के-सब मेरे मनसे पैदा हुए हैं और मुझमें भाव (श्रद्धा-भक्ति) रखनेवाले हैं, जिनकी संसारमें यह सम्पूर्ण प्रजा है।
व्याख्या—सात महर्षि, चार सनकादि तथा चौदह मनु—ये सब भगवान् के मनसे प्रकट होनेके कारण भगवान् से अभिन्न अर्थात् भगवत्स्वरूप हैं।
(श्लोक-७)
एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत:।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशय:॥
जो मनुष्य मेरी इस विभूतिको और योग (सामर्थ्य)-को तत्त्वसे जानता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक (सन्देहरहित) स्वीकार कर लेता है, वह अविचल भक्तियोगसे युक्त हो जाता है; इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
व्याख्या—संसारमें जो कुछ विलक्षणता, विशेषता देखनेमें आती है, वह सब भगवान् का ‘योग’ (विलक्षण प्रभाव, सामर्थ्य) है। उस योगसे प्रकट होनेवाली विशेषता ‘विभूति’ है—इस प्रकार जो मनुष्य भगवान् की विभूति और योगको तत्त्वसे जान लेता है कि जो कुछ प्रभाव, महत्त्व दीखता है, वह सब भगवान् का ही है, तब उसकी भगवान् में ही दृढ़ भक्ति हो जाती है।
एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं—ऐसा सन्देहरहित दृढ़तापूर्वक मान लेना ही वास्तवमें भगवान् की विभूति और योगको तत्त्वसे जानना है।
(श्लोक-८)
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:॥
मैं संसारमात्रका प्रभव (मूल कारण) हूँ और मुझसे सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है—ऐसा मानकर मुझमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं—सब प्रकारसे मेरे ही शरण होते हैं।
व्याख्या—पदार्थ और व्यक्ति भी भगवान् से होते हैं (अहं सर्वस्य प्रभव:) और क्रियाएँ भी भगवान् से ही होती हैं (मत्त: सर्वं प्रवर्तते)। परन्तु जीव पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओंसे सम्बन्ध जोड़कर, उनको अपना मानकर, उनका भोक्ता और कर्त्ता बनकर बन्धनमें पड़ जाता है। जो मनुष्य पदार्थों, व्यक्तियों और क्रियाओंसे सम्बन्ध न जोड़कर भगवान् के महत्त्व (प्रभाव)-को मान लेते हैं, वे संसारमें न फँसकर भगवान् के ही भजनमें लग जाते हैं।
(श्लोक-९)
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
मुझमें चित्तवाले तथा मुझमें प्राणोंको अर्पण करनेवाले (भक्तजन) आपसमें (मेरे गुण, प्रभाव आदिको) जनाते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें ही प्रेम करते हैं।
व्याख्या—भक्तोंका चित्त भगवान् को छोड़कर कहीं जाता ही नहीं। उनकी दृष्टिमें जब एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं तो फिर उनका चित्त कहाँ जाय, कैसे जाय और क्यों जाय? वे भगवान् के लिये ही जीते हैं। उनकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ भगवान् के लिये ही होती हैं। कोई सुननेवाला आ जाय तो वे भगवान् के गुण, प्रभाव आदिकी विलक्षण बातोंका ज्ञान कराते हैं, भगवान् की लीला-कथाका वर्णन करते हैं, और कोई सुनानेवाला आ जाय तो प्रेमपूर्वक सुनते हैं। न तो कहनेवाला तृप्त होता है, न सुननेवाला। तृप्ति नहीं होती—यह वियोग है और नित्य नया रस मिलता है—यह योग है। इस वियोग और योगके कारण प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।
(श्लोक-१०)
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
उन नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।
व्याख्या—भगवन्निष्ठ भक्त भगवान् को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं, न मोक्ष चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं। उनका तो एक ही काम है—नित्य-निरन्तर भगवान् में लगे रहना। इसलिये उन भक्तोंकी सारी जिम्मेदारी भगवान् पर आ जाती है। उन भक्तोंमें कोई कमी न रह जाय, इस दृष्टिसे भगवान् अपनी तरफसे उनको समता (कर्मयोग) और तत्त्वज्ञान (ज्ञानयोग)—दोनों दे देते हैं (गीता १०। ११)।
(श्लोक-११)
तेषामेवानुकम्पार्थ-महमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन)-में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
व्याख्या—यद्यपि कर्मयोग तथा ज्ञानयोग—दोनों साधन हैं और भक्तियोग साध्य है, तथापि भगवान् अपने भक्तोंको कर्मयोग भी दे देते हैं—‘ददामि बुद्धियोगं तम्’ और ज्ञानयोग भी दे देते हैं—‘ज्ञानदीपेन भास्वता’। अपरा और परा—दोनों प्रकृतियाँ भगवान् की ही हैं। इसलिये भगवान् कृपा करके अपने भक्तको अपराकी प्रधानतासे होनेवाला कर्मयोग और पराकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञानयोग—दोनों प्रदान करते हैं। अत: भक्तको कर्मयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘निष्कामभाव’ और ज्ञानयोगका प्रापणीय तत्त्व ‘स्वरूपबोध’—दोनों ही सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं। कर्मयोग प्राप्त होनेपर भक्तके द्वारा संसारका उपकार होता है और ज्ञानयोग प्राप्त होनेपर भक्तका देहाभिमान दूर हो जाता है।
(श्लोक-१२)
अर्जुन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥
(श्लोक-१३)
आहुस्त्वामृषय: सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥
अर्जुन बोले—परम ब्रह्म, परम धाम और महान् पवित्र आप ही हैं। आप शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदि-देव, अजन्मा और सर्वव्यापक हैं—ऐसा आपको सब-के-सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।
व्याख्या—निर्गुण-निराकारके लिये ‘परं ब्रह्म’, सगुण-निराकारके लिये ‘परं धाम’ और सगुण-साकारके लिये ‘पवित्रं परमं भवान्’ पदोंका प्रयोग करके अर्जुन भगवान् से मानो यह कहते हैं कि समग्र परमात्मा आप ही हैं।
(श्लोक-१४)
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:॥
हे केशव! मुझसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके प्रकट होनेको न तो देवता जानते हैं और न दानव ही जानते हैं।
व्याख्या—भगवान् को अपनी शक्तिसे कोई नहीं जान सकता, प्रत्युत भगवान् की कृपासे ही जान सकता है। भगवान् के यहाँ बुद्धिके चमत्कार अथवा विविध प्रकारकी सिद्धियाँ नहीं चल सकतीं। बड़े-से-बडे़ भौतिक आविष्कारसे कोई भगवान् को नहीं जान सकता। देवताओंकी दिव्यशक्ति तथा दानवोंकी मायाशक्ति कितनी ही विलक्षण होनेपर भी भगवान् के सामने कुण्ठित हो जाती है।
(श्लोक-१५)
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥
हे भूतभावन! हे भूतेश! हे देवदेव! हे जगत्पते! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।
व्याख्या—आप स्वयं ही स्वयंके ज्ञाता हैं—ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि जाननेवाले भी आप ही हैं, जाननेमें आनेवाले भी आप ही हैं और जानना भी आप ही हैं अर्थात् सब कुछ आप ही हैं। जब आपके सिवाय और कोई है ही नहीं तो फिर कौन किसको जाने? और क्या जाने?
(श्लोक-१६)
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय:।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥
इसलिये जिन विभूतियोंसे आप इन सम्पूर्ण लोकोंको व्याप्त करके स्थित हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियोंका सम्पूर्णतासे वर्णन करनेमें आप ही समर्थ हैं।
व्याख्या—अर्जुन भगवान् से कहते हैं कि आप स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं, इसलिये अपनी सम्पूर्ण विभूतियोंका वर्णन आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। अत: आप अपनी विलक्षण विभूतियोंको विस्तारपूर्वक सम्पूर्णतासे कहिये, जिससे मेरी आपमें अविचल भक्ति हो जाय।
(श्लोक-१७)
कथं विद्यामहं योगिंस्-त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥
हे योगिन्! निरन्तर सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवन्! किन-किन भावोंमें आप मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ?
व्याख्या—अर्जुनने यह प्रश्न सुगमतापूर्वक भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे किया है कि मैं आपके समग्ररूपको कैसे जानूँ? किन रूपोंमें मैं आपका चिन्तन करूँ? इससे सिद्ध होता है कि विभूतियाँ गौण नहीं हैं, प्रत्युत भगवत्प्राप्तिका माध्यम होनेसे मुख्य हैं। विभूतिरूपसे साक्षात् भगवान् ही हैं। जबतक मनुष्य भगवान् को नहीं जानता, तबतक उसमें गौण अथवा मुख्यकी भावना रहती है। भगवान् को जाननेपर गौण अथवा मुख्यकी भावना नहीं रहती; क्योंकि भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं, फिर उसमें क्या गौण और क्या मुख्य? तात्पर्य है कि गौण अथवा मुख्य साधककी दृष्टिमें है, सिद्धकी दृष्टिमें नहीं।
(श्लोक-१८)
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूय: कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥
हे जनार्दन! आप अपने योग (सामर्थ्य)-को और विभूतियोंको विस्तारसे फिर कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
व्याख्या—जैसे भूखेको अन्न और प्यासेको जल प्रिय लगता है, ऐसे ही भक्त अर्जुनको भगवान् के वचन बहुत प्रिय और विलक्षण लग रहे हैं। वे ज्यों-ज्यों भगवान् के वचन सुनते हैं, त्यों-ही-त्यों उनका भगवान् के प्रति विशेष भाव प्रकट होता जाता है। कानोंके द्वारा उन अमृतमय वचनोंको सुनते हुए न तो उन वचनोंका अन्त आता है और न उनको सुनते हुए तृप्ति ही होती है!
(श्लोक-१९)
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतय:।
प्राधान्यत: कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥
श्रीभगवान् बोले—हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियोंको तेरे लिये प्रधानतासे (संक्षेपसे) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ! मेरी विभूतियोंके विस्तारका अन्त नहीं है।
व्याख्या—भगवान् अनन्त हैं; अत: उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। इस कारण भगवान् की सम्पूर्ण विभूतियोंको न तो कोई कह सकता है और न सुन ही सकता है। अगर कोई कह-सुन ले तो फिर वे अनन्त कैसे रहेंगी? इसलिये भगवान् यहाँ और अध्यायके अन्तमें भी कहते हैं कि मैं अपनी विभूतियोंको संक्षेपसे कहूँगा; क्योंकि मेरी विभूतियोंका अन्त नहीं है (गीता १०।४०)।
(श्लोक-२०)
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥
हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ और सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्त:करण (हृदय)-में स्थित आत्मा भी मैं ही हूँ।
व्याख्या—सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें भगवान् ही हैं—इसका तात्पर्य यह है कि एक भगवान् के सिवाय और कुछ है ही नहीं अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और आत्मा उनकी विभूति है। आत्मा भगवान् की परा प्रकृति है और अन्त:करण अपरा प्रकृति है (गीता ७।४-५)। परा और अपरा—दोनों ही भगवान् से अभिन्न हैं।
(श्लोक-२१)
आदित्यानामहं विष्णुर्-ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥
मैं अदितिके पुत्रोंमें विष्णु (वामन) और प्रकाशमान वस्तुओंमें किरणोंवाला सूर्य हूँ। मैं मरुतोंका तेज और नक्षत्रोंका अधिपति चन्द्रमा हूँ।
(श्लोक-२२)
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासव:।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥
मैं वेदोंमें सामवेद हूँ, देवताओंमें इन्द्र हूँ,इन्द्रियोंमें मन हूँ और प्राणियोंकी चेतना हूँ।
(श्लोक-२३)
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरु: शिखरिणामहम्॥
रुद्रोंमें शंकर और यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर मैं हूँ। वसुओंमें पवित्र करनेवाली अग्नि और शिखरवाले पर्वतोंमें सुमेरु मैं हूँ।
(श्लोक-२४)
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर:॥
हे पार्थ! पुरोहितोंमें मुख्य बृहस्पतिको मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियोंमें कार्तिकेय और जलाशयोंमें समुद्र मैं हूँ।
(श्लोक-२५)
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय:॥
महर्षियोंमें भृगु और वाणियों (शब्दों)-में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञोंमें जपयज्ञ और स्थिर रहनेवालोंमें हिमालय मैं हूँ।
(श्लोक-२६)
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।
गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:॥
सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल, देवर्षियोंमें नारद, गन्धर्वोंमें चित्ररथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि मैं हूँ।
(श्लोक-२७)
उच्चै:श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम्॥
घोड़ोंमें अमृतके साथ समुद्रसे प्रकट होनेवाले उच्चै:श्रवा नामक घोड़ेको, श्रेष्ठ हाथियोंमें ऐरावत नामक हाथीको और मनुष्योंमें राजाको मेरी विभूति मानो।
(श्लोक-२८)
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि:॥
आयुधोंमें वज्र और धेनुओंमें कामधेनु मैं हूँ। सन्तान-उत्पत्तिका हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पोंमें वासुकि मैं हूँ।
(श्लोक-२९)
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्॥
नागोंमें अनन्त (शेषनाग) और जल-जन्तुओंका अधिपति वरुण मैं हूँ। पितरोंमें अर्यमा और शासन करनेवालोंमें यमराज मैं हूँ।
(श्लोक-३०)
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां काल: कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥
दैत्योंमें प्रह्लाद और गणना करनेवालों (ज्योतिषियों)- में काल मैं हूँ तथा पशुओंमें सिंह और पक्षियोंमें गरुड़ मैं हूँ।
(श्लोक-३१)
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी॥
पवित्र करनेवालोंमें वायु और शस्त्रधारियोंमें राम मैं हूँ। जल-जन्तुओंमें मगर मैं हूँ और नदियोंमें गंगाजी मैं हूँ।
(श्लोक-३२)
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वाद: प्रवदतामहम्॥
हे अर्जुन! सम्पूर्ण सृष्टियोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या (ब्रह्मविद्या) और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका (तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।
व्याख्या—इसी अध्यायके बीसवें श्लोकमें भगवान् ने ‘अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च’ कहकर व्यष्टिरूपसे अपनी विभूति बतायी थी, अब यहाँ ‘सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन’ कहकर समष्टिरूपसे अपनी विभूति बताते हैं। तात्पर्य है कि व्यष्टि अथवा समष्टिरूपसे जो कुछ दीखने, सुनने, चिन्तन करने आदिमें आता है, वह सब एक भगवान् ही हैं।
(श्लोक-३३)
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्व: सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षय: कालो धाताहं विश्वतोमुख:॥
अक्षरोंमें अकार और समासोंमें द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षयकाल अर्थात् कालका भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता (सबका पालन-पोषण करनेवाला भी) मैं ही हूँ।
(श्लोक-३४)
मृत्यु: सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम्।
कीर्ति: श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा॥
सबका हरण करनेवाली मृत्यु और भविष्यमें उत्पन्न होनेवाला मैं हूँ तथा स्त्री-जातिमें कीर्ति, श्री, वाक् (वाणी), स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ।
(श्लोक-३५)
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:॥
गायी जानेवाली श्रुतियोंमें बृहत्साम और सब छन्दोंमें गायत्री छन्द मैं हूँ। बारह महीनोंमें मार्गशीर्ष और छ: ऋतुओंमें वसन्त मैं हूँ।
(श्लोक-३६)
द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥
छल करनेवालोंमें जूआ और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ। (जीतनेवालोंकी) विजय मैं हूँ। (निश्चय करनेवालोंका) निश्चय और सात्त्विक मनुष्योंका सात्त्विक भाव मैं हूँ।
व्याख्या—पूर्वपक्ष—भगवान् ने जूएको अपनी विभूति बताया है, फिर जूआ खेलनेमें क्या दोष है? यदि दोष नहीं है तो शास्त्रोंने इसका निषेध क्यों किया है?
उत्तरपक्ष—यदि किसी ग्रन्थके किसी अंशपर शंका उत्पन्न हो तो उस ग्रन्थका आदिसे अन्ततक अध्ययन करके उसमें वक्ताके उद्देश्य, लक्ष्य और आशयको समझनेसे उस शंकाकी निवृत्ति हो जाती है। यहाँ शास्त्रोंके विधि-निषेधका प्रसंग नहीं चल रहा है, प्रत्युत भगवान् की विभूतियोंका प्रसंग चल रहा है। ‘मैं आपका चिन्तन कहाँ-कहाँ करूँ’—अर्जुनके इस प्रश्नके अनुसार भगवान् अपनी विभूतियोंके रूपमें अपने चिन्तनकी बात ही बता रहे हैं। भगवान् ने तो सिंहको तथा मृत्युको भी अपनी विभूति बताया है (१०। ३०,३४)। इसका अर्थ यह थोड़े ही है कि मनुष्य इनका सेवन करे!
(श्लोक-३७)
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय:।
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि:॥
वृष्णिवंशियोंमें वसुदेवपुत्र श्रीकृष्ण और पाण्डवोंमें अर्जुन मैं हूँ। मुनियोंमें वेदव्यास और कवियोंमें कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
(श्लोक-३८)
दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥
दमन करनेवालोंमें दण्डनीति और विजय चाहनेवालोंमें नीति मैं हूँ। गोपनीय भावोंमें मौन मैं हूँ और ज्ञानवानोंमें ज्ञान मैं ही हूँ।
(श्लोक-३९)
यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान् मया भूतं चराचरम्॥
और हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियोंका जो बीज (मूल कारण) है, वह बीज भी मैं ही हूँ; क्योंकि वह चर-अचर कोई प्राणी नहीं है, जो मेरे बिना हो अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।
व्याख्या—संसारमें जो कुछ भी विशेषता दीखती है, उसको संसारकी माननेसे मनुष्य उसमें फँस जाता है, जिससे उसका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान् यहाँ बहुत ही सरल साधन बताते हैं कि तुम्हारा मन जहाँ-कहीं और जिस-किसी विशेषताको देखकर आकृष्ट होता हो, वहाँ उस विशेषताको तुम मेरी ही समझो कि यह विशेषता भगवान् की है और भगवान् से ही आयी है। यह विशेषता इस परिवर्तनशील, जड़, नाशवान् संसारकी नहीं है। ऐसा समझनेसे तुम्हारा आकर्षण उस वस्तु-व्यक्तिमें न होकर मेरेमें ही होगा, जिससे तुम्हारा मुझमें प्रेम हो जायगा।
चौरासी लाख योनियाँ तथा उनके सिवाय देवता, पितर, गन्धर्व, भूत, प्रेत, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, पूतना, बालग्रह आदि जितनी भी योनियाँ हैं, उन सबके मूल कारण भगवान् हैं। तात्पर्य है कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें अनन्त जीव हैं, पर उन सबका बीज एक ही है। लौकिक बीजसे तो एक ही प्रकारकी खेती पैदा होती है; जैसे—गेहूँके बीजसे गेहूँ ही पैदा होता है, अन्य अनाज नहीं। सबके बीज अलग-अलग होते हैं। परन्तु भगवान्-रूपी बीज इतना विलक्षण है कि उस एक ही बीजसे अनन्त ब्रह्माण्डके अनन्त जीव पैदा हो जाते हैं। सब प्रकारके जीव पैदा होनेपर भी उसमें कभी कोई विकृति नहीं आती, वह ज्यों-का-त्यों रहता है; क्योंकि वह बीज अव्यय और सनातन है (गीता ७। १०, ९। १८)।
(श्लोक-४०)
नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप।
एष तूद्देशत: प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया॥
हे परन्तप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियोंका अन्त नहीं है। मैंने (तुम्हारे सामने अपनी) विभूतियोंका जो विस्तार कहा है, यह तो केवल संक्षेपसे नाममात्र कहा है।
व्याख्या—सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार तथा मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत, पिशाच आदि जो कुछ भी है, वह सब मिलकर भगवान् का ही समग्ररूप है अर्थात् सब भगवान् की ही विभूतियाँ हैं, उनका ही ऐश्वर्य है। तात्पर्य है कि एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है। परिवर्तनशील असत् और अपरिवर्तनशील सत् —दोनों ही भगवान् की विभूतियाँ हैं—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९)। अत: जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान् का ही आकर्षण है। परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्ति, मोहमें परिणत हो जाता है, जो संसारमें बाँधनेवाला है।
पूर्वपक्ष—जब सब कुछ भगवान् ही हैं, तो फिर विभूति-वर्णनका क्या प्रयोजन है?
उत्तरपक्ष—अर्जुनका प्रश्न ही यही था कि मैं कहाँ-कहाँ आपका चिन्तन करूँ? यद्यपि सब कुछ भगवान् ही हैं, तथापि मनुष्यको जिस वस्तु-व्यक्तिमें विशेषता दीखती है, उस वस्तु-व्यक्तिमें भगवान् को देखना, उनका चिन्तन करना सुगम पड़ता है। कारण कि मनमें उसकी विशेषता अंकित हो जानेसे मन स्वत: वहाँ जाता है। इसीलिये भगवान् ने अपनी मुख्य-मुख्य विभूतियोंका वर्णन किया है। इस कारण साधकका कहीं भी राग-द्वेष न होकर भगवान् की तरफ ही दृष्टि रहनी चाहिये।
(श्लोक-४१)
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
जो-जो भी ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात् सामर्थ्य)-के अंशसे उत्पन्न हुआ समझो।
व्याख्या—संसारकी सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध ही मनुष्यको बाँधनेवाला है। इसलिये पहले कही गयी विभूतियोंके सिवाय भी साधकको स्वत: जिस-जिसमें व्यक्तिगत आकर्षण दीखता हो, वहाँ-वहाँ वह भगवान् की ही विशेषता देखे। इससे वहाँ उसकी भोगबुद्धि न होकर भगवद्बुद्धि हो जायगी तो उसके अन्त:करणमें भगवान् की सत्ता, महत्ता और उनसे सम्बन्ध हो जायगा।
मनुष्यमें जो भी विशेषता आती है, वह सब भगवान् से ही आती है। अगर भगवान् में विशेषता न होती तो वह मनुष्यमें कैसे आती? जो वस्तु अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है? जो विशेषता बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी? उन्हीं भगवान् की कवित्व-शक्ति कविमें आती है, उन्हींकी वक्तृत्व-शक्ति वक्तामें आती है; उन्हींकी लेखन-शक्ति लेखकमें आती है, उन्हींकी दातृत्व-शक्ति दातामें आती है। जिनसे मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि मिले हैं, उनकी तरफ दृष्टि न जानेसे ही ऐसा दीखता है कि मुक्ति मेरी है, ज्ञान मेरा है, प्रेम मेरा है। यह तो देनेवाले भगवान् की विशेषता है कि सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते, जिससे लेनेवालेको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है। मनुष्यसे यह बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपनी मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उसको अपना नहीं मानता!
परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियों, कलाओं, विद्याओं आदिके विलक्षण भण्डार हैं। शक्ति जड़ प्रकृतिमें नहीं रह सकती, प्रत्युत चिन्मय परमात्मतत्त्वमें ही रह सकती है। जिस ज्ञानसे क्रिया हो रही है, वह ज्ञान जड़में कैसे रह सकता है? अगर ऐसा मानें कि सब शक्तियाँ प्रकृतिमें ही हैं, तो भी यह मानना पड़ेगा कि उन शक्तियोंके प्राकट्य और उपयोग (सृष्टि-रचना) आदि करनेकी योग्यता प्रकृतिमें नहीं है। जैसे, कम्प्यूटर जड़ होते हुए भी अनेक चमत्कारिक कार्य करता है, परन्तु चेतन (मनुष्य)-के द्वारा निर्मित, शिक्षित तथा संचालित हुए बिना वह कार्य नहीं कर सकता। कम्प्यूटर स्वत:सिद्ध नहीं है, प्रत्युत कृत्रिम (बनाया हुआ) है; परन्तु परमात्मा स्वत:सिद्ध हैं।
(श्लोक-४२)
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंशसे इस सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंशमें हैं।
व्याख्या—भगवान् अपनी तरफ दृष्टि कराते हैं कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें सब कुछ मैं ही तो हूँ! मेरी तरफ देखनेसे फिर कोई भी विभूति बाकी नहीं रहेगी। जब सम्पूर्ण विभूतियोंका आधार, आश्रय, प्रकाशक, बीज (मूल कारण) मैं तेरे सामने बैठा हूँ, तो फिर विभूतियोंका चिन्तन करनेकी क्या जरूरत?
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्याय:॥ १०॥