Hindu text bookगीता गंगा
होम > गीता प्रबोधनी > अथैकादशोऽध्याय:

ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अथैकादशोऽध्याय:

ग्यारहवाँ अध्याय

(श्लोक-१)
अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम॥

अर्जुन बोले—केवल मुझपर कृपा करनेके लिये आपने जो परमगोपनीय अध्यात्म-विषयक वचन कहे, उससे मेरा यह मोह नष्ट हो गया है।

(श्लोक-२)
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया।
त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम्॥

क्योंकि हे कमलनयन! सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति तथा विनाश मैंने विस्तारपूर्वक आपसे ही सुने हैं और आपका अविनाशी माहात्म्य भी सुना है।

(श्लोक-३)
एवमेतद्यथात्थ त्व‍‍‍मात्मानं परमेश्वर।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूप‍‍‍मैश्वरं पुरुषोत्तम॥

हे पुरुषोत्तम! आप अपने-आपको जैसा कहते हैं, यह (वास्तवमें) ऐसा ही है। हे परमेश्वर! आपके ईश्वर-सम्बन्धी रूपको मैं देखना चाहता हूँ।

(श्लोक-४)
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥

हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह ऐश्वररूप देखा जा सकता है—ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूपको मुझे दिखा दीजिये।

(श्लोक-५)
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रश:।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च॥

श्रीभगवान् बोले—हे पृथानन्दन! अब मेरे अनेक तरहके और अनेक वर्णों (रंगों) तथा आकृतियोंवाले सैकड़ों-हजारों अलौकिक रूपोंको तू देख।

व्याख्या—उपदेश दो प्रकारसे दिया जाता है—कहकर और दिखाकर। पहले दसवें अध्यायमें भगवान् ने अपने समग्ररूपका वर्णन किया कि मैं अपने एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ। अब इस अध्यायमें भगवान् अर्जुनके द्वारा प्रार्थना करनेपर उसी रूपको प्रत्यक्ष दिखाते हैं।

(श्लोक-६)
पश्यादित्यान्वसून्‍रुद्रा‍नश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! बारह आदित्योंको, आठ वसुओंको, ग्यारह रुद्रोंको और दो अश्विनीकुमारोंकाे तथा उनचास मरुद्गणोंको देख। जिनको तूने पहले कभी देखा नहीं, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपोंको भी तू देख।

व्याख्या—बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनीकुमार—ये तैंतीस कोटि (तैंतीस प्रकारके) देवता सम्पूर्ण देवताओंमें मुख्य हैं। ये सब देवता भगवान् के समग्ररूपके अन्तर्गत हैं।

(श्लोक-७)
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्‍द्रष्टुमिच्छसि॥

हे नींदको जीतनेवाले अर्जुन! मेरे इस शरीरके एक देशमें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् को अभी देख ले। इसके सिवाय तू और भी जो कुछ देखना चाहता है, वह भी देख ले।

व्याख्या—भगवान् अपने शरीरके किसी एक अंशमें सम्पूर्ण जगत् देखनेकी आज्ञा देते हैं। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण समग्र हैं और उनके एक अंशमें सम्पूर्ण जगत् (अनन्त ब्रह्माण्ड) है। जब सम्पूर्ण जगत् भगवान् के किसी एक अंशमें है, तो फिर भगवान् के सिवाय क्या शेष रहा? सब कुछ भगवान् ही हुए!

(श्लोक-८)
न तु मां शक्यसे द्रष्टु‍मनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम्॥

परन्तु तू इस अपनी आँख (चर्मचक्षु)-से मुझे देख ही नहीं सकता, इसलिये मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरी ईश्वरीय सामर्थ्यको देख।

व्याख्या—‘पश्य’ क्रियाके दो अर्थ होते हैं—जानना और देखना। पहले (गीता ९।५में) ‘पश्य मे योगमैश्वरम्’ पदोंसे भगवान् को जाननेकी बात आयी है और यहाँ इन पदोंसे देखनेकी बात आयी है। तात्पर्य यह हुआ कि जो जाननेमें आता है, वह भी भगवान् हैं और जो देखनेमें आता है, वह भी भगवान् हैं। इतना ही नहीं, जानने और देखनेके सिवाय भी जो कुछ है, वह भगवान् ही हैं—‘सदसत्तत्परं यत्’ (गीता ११।३७)।

(श्लोक-९)
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राज‍‍‍न् महायोगेश्वरो हरि:।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्॥

संजय बोले—हे राजन्! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको परम ऐश्वर विराट्‍रूप दिखाया।

व्याख्या—भगवान् को ‘महायोगेश्वर’ कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् सम्पूर्ण योगोंके ईश्वर हैं। ऐसा कोई भी योग नहीं है, जिसके ईश्वर (स्वामी) भगवान् न हों। सब योग भगवान् के ही अन्तर्गत हैं।

(श्लोक-१०)
अनेकवक्त्रनयन‍‍‍मनेकाद्भुतदर्शनम्।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्॥
(श्लोक-११)
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देव‍‍‍मनन्तं विश्वतोमुखम्॥

‘जिनके अनेक मुख और नेत्र हैं, अनेक तरहके अद्भुत दर्शन हैं, अनेक अलौकिक आभूषण हैं, हाथोंमें उठाये हुए अनेक दिव्य आयुध हैं तथा जिनके गलेमें दिव्य मालाएँ हैं, जो अलौकिक वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीरपर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपोंवाले तथा सब तरफ मुखोंवाले देव (अपने दिव्य स्वरूप)-को भगवान् ने दिखाया।’

(श्लोक-१२)
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भा: सदृशी सा स्या‍द् भासस्तस्य महात्मन:॥

अगर आकाशमें एक साथ हजारों सूर्योंका उदय हो जाय, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस महात्मा (विराट्‍रूप परमात्मा)-के प्रकाशके समान शायद ही हो अर्थात् नहीं हो सकता।

व्याख्या—यदि हजारों सूर्योंका प्रकाश हो जाय तो भी वह है तो भौतिक ही! परन्तु भगवान् का प्रकाश दिव्य है, भौतिक नहीं। सूर्यमें जो तेज है, वह भी भगवान् से ही आया है (गीता १५।१२)।

(श्लोक-१३)
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा॥

उस समय अर्जुनने देवोंके देव भगवान् के उस शरीरमें एक जगह स्थित अनेक प्रकारके विभागोंमें विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।

व्याख्या—अर्जुनने भगवान् के शरीरमें एक जगह स्थित जरायुज, अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज; स्थावर-जंगम;नभचर-जलचर-थलचर; चौरासी लाख योनियाँ; चौदह भुवन आदि अनेक विभागोंमें विभक्त जगत् को देखा। जगत् भले ही अनन्त हो, पर है वह भगवान् के एक अंशमें ही (गीता १०।४२)। अर्जुन भगवान् के शरीरमें जहाँ भी दृष्टि डालते हैं, वहीं उन्हें अनन्त जगत् दीखता है।

(श्लोक-१४)
तत: स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जय:।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत॥

भगवान् के विश्वरूपको देखकर वे अर्जुन बहुत चकित हुए और आश्चर्यके कारण उनका शरीर रोमांचित हो गया। वे हाथ जोड़कर विश्वरूप देवको मस्तकसे प्रणाम करके बोले।

(श्लोक-१५)
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-
मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥

अर्जुन बोले—हे देव! मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण देवताओंको तथा प्राणियोंके विशेष-विशेष समुदायोंको और कमलासनपर बैठे हुए ब्रह्माजीको, शंकरजीको, सम्पूर्ण ऋषियोंको और दिव्य सर्पोंको देख रहा हूँ।

(श्लोक-१६)
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥

हे विश्वरूप! हे विश्वेश्वर! आपको मैं अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रोंवाला तथा सब ओरसे अनन्त रूपोंवाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदिको, न मध्यको और न अन्तको ही देख रहा हूँ।

व्याख्या—भगवान् के एक अंशमें भी अनन्तता है। भगवान् साकार हों या निराकार, सगुण हों या निर्गुण, बड़े-से-बड़े हों या छोटे-से-छोटे, उनका अनन्तपना ज्यों-का-त्यों रहता है।

(श्लोक-१७)
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च
तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्॥

मैं आपको किरीट (मुकुट), गदा, चक्र (तथा शंख और पद्म) धारण किये हुए देख रहा हूँ। आपको तेजकी राशि, सब ओर प्रकाशवाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्यके समान कान्तिवाले, नेत्रोंके द्वारा कठिनतासे देखे जानेयोग्य और सब तरफसे अप्रमेय-स्वरूप देख रहा हूँ।

व्याख्या—भगवान् के द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टिसे भी अर्जुन भगवान् के विराट्‍रूपको देखनेमें पूरे समर्थ नहीं हो रहे हैं—‘दुर्निरीक्ष्यम्’। इससे सिद्ध होता है कि भगवान् की दी हुई शक्तिसे भी भगवान् को पूरा नहीं जान सकते। इतना ही नहीं, भगवान् भी अपनेको पूरा नहीं जानते, यदि पूरा जान जायँ तो वे अनन्त कैसे रहेंगे?

(श्लोक-१८)
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यं
त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्यय: शाश्वतधर्मगोप्ता
सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे॥

आप ही जाननेयोग्य परम अक्षर (अक्षर ब्रह्म) हैं, आप ही इस सम्पूर्ण विश्वके परम आश्रय हैं, आप ही सनातन धर्मके रक्षक हैं और आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं—ऐसा मैं मानता हूँ।

व्याख्या—यहाँ ‘त्वमक्षरं परमं वेदितव्यम्’ पदोंसे निर्गुण-निराकारका, ‘त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्’ पदोंसे सगुण-निराकारका और ‘त्वं शाश्वतधर्मगोप्ता’ पदोंसे सगुण-साकारका वर्णन हुआ है। ये सब मिलकर भगवान् का समग्ररूप है, जिसे जान लेनेपर फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता (गीता ७।२)।

(श्लोक-१९)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य-
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्॥

आपको मैं आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओंवाले, चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले, प्रज्वलित अग्निरूप मुखोंवाले और अपने तेजसे इस संसारको तपाते हुए देख रहा हूँ।

(श्लोक-२०)
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्॥

हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत और उग्ररूपको देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं।

(श्लोक-२१)
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति
केचिद्भीता: प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा:
स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभि: पुष्कलाभि:॥

वे ही देवताओंके समुदाय आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए (आपके नामों और गुणोंका) कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धोंके समुदाय ‘कल्याण हो! मंगल हो!’ ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।

व्याख्या—देवता, महर्षि, सिद्ध आदि सभी भगवान् के ही विराट्‍रूपके अंग हैं। अत: प्रविष्ट होनेवाले, भयभीत होनेवाले, भगवान् के नामों और गुणोंका कीर्तन करनेवाले और स्तुति करनेवाले भी भगवान् हैं और जिनमें प्रविष्ट हो रहे हैं, जिनसे भयभीत हो रहे हैं, जिनके नामों और गुणोंका कीर्तन कर रहे हैं तथा जिनकी स्तुति कर रहे हैं, वे भी भगवान् हैं।

(श्लोक-२२)
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा
वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे॥

जो ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव और दो अश्विनीकुमार तथा उनचास मरुद्गण और गरम-गरम भोजन करनेवाले (सात पितृगण) तथा गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धोंके समुदाय हैं, (वे) सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं।

(श्लोक-२३)
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं
महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा लोका: प्रव्यथितास्तथाहम्॥

हे महाबाहो! आपके बहुत मुखों और नेत्रोंवाले, बहुत भुजाओं, जंघाओं और चरणोंवाले, बहुत उदरोंवाले और बहुत विकराल दाढ़ोंवाले महान् रूपको देखकर सब प्राणी व्यथित हो रहे हैं तथा मैं भी व्यथित हो रहा हूँ।

(श्लोक-२४)
नभ:स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा
धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो॥

क्योंकि हे विष्णो! आपके देदीप्यमान अनेक वर्ण हैं, आप आकाशको स्पर्श कर रहे हैं अर्थात् सब तरफसे बहुत बड़े हैं, आपका मुख फैला हुआ है, आपके नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। ऐसे आपको देखकर भयभीत अन्त:करणवाला मैं धैर्य और शान्तिको प्राप्त नहीं हो रहा हूँ।

(श्लोक-२५)
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥

आपके प्रलयकालकी अग्निके समान प्रज्वलित और दाढ़ोंके कारण विकराल (भयानक) मुखोंको देखकर मुझे न तो दिशाओंका ज्ञान हो रहा है और न शान्ति ही मिल रही है। इसलिये हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।

(श्लोक-२६)
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्रा:
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घै:।
भीष्मो द्रोण: सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यै:॥
(श्लोक-२७)
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै:॥

हमारे पक्षके मुख्य-मुख्य योद्धाओंके सहित भीष्म, द्रोण और वह कर्ण भी आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। राजाओंके समुदायोंके सहित धृतराष्ट्रके वे ही सब-के-सब पुत्र आपके विकराल दाढ़ोंके कारण भयंकर मुखोंमें बड़ी तेजीसे प्रविष्ट हो रहे हैं। उनमेंसे कई-एक तो चूर्ण हुए सिरोंसहित आपके दाँतोंके बीचमें फँसे हुए दीख रहे हैं।

(श्लोक-२८)
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगा:
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥

जैसे नदियोंके बहुत-से जलके प्रवाह स्वाभाविक ही समुद्रके सम्मुख दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसारके महान् शूरवीर आपके सब तरफसे देदीप्यमान मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।

(श्लोक-२९)
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-
स्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगा:॥

जैसे पतंगे (मोहवश) अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी (मोहवश) अपना नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए आपके मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।

(श्लोक-३०)
लेलिह्यसे ग्रसमान: समन्ता-
ल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भि:।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं
भासस्तवोग्रा: प्रतपन्ति विष्णो॥

आप अपने प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए उन्हें सब ओरसे बार-बार चाट रहे हैं; और हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश अपने तेजसे सम्पूर्ण जगत् को परिपूर्ण करके सबको तपा रहा है।

(श्लोक-३१)
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥

मुझे यह बताइये कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? हे देवताओंमें श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको मैं तत्त्वसे जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको भलीभाँति नहीं जानता।

व्याख्या—भगवान् के ऐश्वर्ययुक्त उग्ररूपको देखकर अर्जुन इतने घबरा जाते हैं कि अपने ही सखा श्रीकृष्णसे पूछ बैठते हैं कि आप कौन हैं!

(श्लोक-३२)
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे
येऽवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:॥

श्रीभगवान् बोले—मैं सम्पूर्ण लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय मैं इन सब लोगोंका संहार करनेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, वे सब तुम्हारे (युद्ध किये) बिना भी नहीं रहेंगे।

(श्लोक-३३)
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥

इसलिये तुम (युद्धके लिये) खड़े हो जाओ और यशको प्राप्त करो तथा शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन् अर्थात् दोनों हाथोंसे बाण चलानेवाले अर्जुन! (तुम इनको मारनेमें) निमित्तमात्र बन जाओ।

व्याख्या—निमित्तमात्र बननेका तात्पर्य यह नहीं है कि नाममात्रके लिये कर्म करो, प्रत्युत इसका तात्पर्य है कि अपनी पूरी-की-पूरी शक्ति लगाओ, पर अपनेको कारण मत मानो अर्थात् अपने उद्योगमें कमी भी मत रखो और अपनेमें अभिमान भी मत करो। भगवान् ने अपनी ओरसे हमपर कृपा करनेमें कोई कमी नहीं रखी है। हमें तो निमित्तमात्र बनना है। अर्जुनके सामने तो युद्ध था, इसलिये भगवान् उनसे कहते हैं कि तुम निमित्तमात्र बनकर युद्ध करो, तुम्हारी विजय होगी। इसी तरह हमारे सामने संसार है, इसलिये हम भी निमित्तमात्र बनकर साधन करें तो संसारपर हमारी विजय हो जायगी।

(श्लोक-३४)
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं च
कर्णं तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥

द्रोण और भीष्म तथा जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो और युद्ध करो। युद्धमें (तुम नि:सन्देह) वैरियोंको जीतोगे।

व्याख्या—भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि ये सभी शूरवीर शत्रु मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। इससे साधकको यह समझना चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि शत्रु भी पहलेसे ही मारे हुए हैं अर्थात् सत्तारहित हैं। इनको साधकने ही सत्ता और महत्ता देकर अपनेमें स्वीकार किया है।

(श्लोक-३५)
सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमान: किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य॥

संजय बोले—भगवान् केशवका यह वचन सुनकर (भयसे) काँपते हुए किरीटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके और भयभीत होते हुए भी फिर प्रणाम करके गद्गद वाणीसे भगवान् कृष्णसे बोले।

(श्लोक-३६)
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥

अर्जुन बोले—हे अन्तर्यामी भगवन्! आपके (नाम, गुण, लीलाका) कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)-को प्राप्त हो रहा है। (आपके नाम, गुण आदिके कीर्तनसे) भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।

(श्लोक-३७)
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्॥

हे महात्मन्! गुरुओंके भी गुरु और ब्रह्माके भी आदिकर्ता आपके लिये (वे सिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? क्योंकि हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षर-स्वरूप हैं; आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और उनसे (सत्-असत् से) पर भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं।

व्याख्या—सत् और असत्—दोनों सापेक्ष होनेसे लौकिक हैं और जो इनसे परे है, वह निरपेक्ष होनेसे अलौकिक है। लौकिक और अलौकिक—दोनों ही परमात्माके समग्ररूप हैं। परमात्माकी परा और अपरा प्रकृति सत्-असत् से परे नहीं है, पर परमात्मा सत्-असत् से परे भी हैं।

(श्लोक-३८)
त्वमादिदेव: पुरुष: पुराण-
स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥

आप ही आदिदेव और पुराण पुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं। आप ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।

(श्लोक-३९)
वायुर्यमोऽग्निर्वरुण: शशाङ्क:
प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व:
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥

आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता) हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो! नमस्कार हो!

(श्लोक-४०)
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:॥

हे सर्वस्वरूप! आपको आगेसे भी नमस्कार हो और पीछेसे भी नमस्कार हो! आपको सब ओरसे (दसों दिशाओंसे) ही नमस्कार हो! हे अनन्तवीर्य! असीम पराक्रमवाले आपने सबको (एक देशमें) समेट रखा है; अत: सब कुछ आप ही हैं।

व्याख्या—ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, रुद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, पितृगण, सर्प, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, असुर, ऋषि-महर्षि, सिद्धगण, वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य आदि और इनके सिवाय भीष्म, द्रोण, कर्ण, जयद्रथ आदि समस्त राजालोग—ये सब-के-सब दिव्य विराट्‍रूपके ही अंग हैं। इतना ही नहीं, अर्जुन, संजय, धृतराष्ट्र तथा कौरव और पाण्डवसेना भी उसी विराट्‍रूपके ही अंग हैं—‘सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्व:’। तात्पर्य है कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूपसे जो कुछ भी देखने, सुनने तथा सोचनेमें आ रहा है, वह सब अविनाशी भगवान् ही हैं।

(श्लोक-४१)
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
(श्लोक-४२)
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥

आपकी इस महिमाको न जानते हुए ‘मेरे सखा हैं’ ऐसा मानकर मैंने प्रमादसे अथवा प्रेमसे भी हठपूर्वक (बिना सोचे-समझे) ‘हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ कहा है; और हे अच्युत! हँसी-दिल्लगीमें, चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा उन (सखाओं, कुटुम्बियों आदि)-के सामने (मेरे द्वारा आपका) जो कुछ तिरस्कार (अपमान) किया गया है; हे अप्रमेयस्वरूप! वह सब आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ अर्थात् आपसे क्षमा माँगता हूँ।

व्याख्या—अर्जुनका भगवान् के प्रति सखाभाव था; परन्तु भगवान् के ऐश्वर्यको देखनेसे वे अपना सखाभाव भूल जाते हैं और भगवान् को देखकर आश्चर्य करते हैं, भयभीत होते हैं! उनके मनमें यह सम्भावना ही नहीं थी कि जिनको मैं अपना सखा मानता हूँ, वे भगवान् ऐसे हैं।

(श्लोक-४३)
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥

आप ही इस चराचर संसारके पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओंके महान् गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन्! इस त्रिलोकीमें आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है!

(श्लोक-४४)
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीडॺम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्यु:
प्रिय: प्रियायार्हसि देव सोढुम्॥

इसलिये स्तुति करनेयोग्य आप ईश्वरको मैं शरीरसे लम्बा पड़कर, प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। पिता जैसे पुत्रका, मित्र जैसे मित्रका और पति जैसे पत्नीका (अपमान सह लेता है), ऐसे ही (आप मेरे द्वारा किया गया अपमान) सहनेमें अर्थात् क्षमा करनेमें समर्थ हैं।

(श्लोक-४५)
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देवरूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥

जिसको पहले कभी नहीं देखा, उस रूपको देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ-ही-साथ भयसे मेरा मन अत्यन्त व्यथित हो रहा है। अत: आप मुझे अपने उसी देवरूप (शान्त विष्णुरूप)-को दिखाइये। हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न होइये।

(श्लोक-४६)
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-
मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन
सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते॥

मैं आपको वैसे ही किरीट (मुकुट)-धारी, गदाधारी और हाथमें चक्र लिये हुए अर्थात् चतुर्भुजरूपसे देखना चाहता हूँ। इसलिये हे सहस्रबाहो! हे विश्वमूर्ते! आप उसी चतुर्भुजरूपसे (शंख-चक्र-गदा-पद्मसहित) हो जाइये।

(श्लोक-४७)
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं
रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्॥

श्रीभगवान् बोले—हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी सामर्थ्यसे मेरा यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेजस्वरूप, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसीने नहीं देखा है।

(श्लोक-४८)
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-
र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रै:।
एवंरूप: शक्य अहं नृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर॥

हे कुरुश्रेष्ठ! मनुष्यलोकमें इस प्रकारके विश्वरूप-वाला मैं न वेदोंके पाठसे, न यज्ञोंके अनुष्ठानसे, न शास्त्रोंके अध्ययनसे, न दानसे, न उग्र तपोंसे और न मात्र क्रियाओंसे तेरे (कृपापात्रके) सिवाय और किसीके द्वारा देखा जा सकता हूँ।

(श्लोक-४९)
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य॥

यह मेरा इस प्रकारका उग्र रूप देखकर तुझे व्यथा नहीं होनी चाहिये और विमूढभाव भी नहीं होना चाहिये। अब निर्भय और प्रसन्न मनवाला होकर तू फिर उसी मेरे इस (चतुर्भुज) रूपको अच्छी तरह देख ले।

व्याख्या—अर्जुनको भयभीत देखकर भगवान् कहते हैं कि मैं चाहे शान्त अथवा उग्र किसी भी रूपमें दिखायी दूँ, हूँ तो मैं तुम्हारा सखा ही! तुम डर गये तो यह तुम्हारी मूढ़ता है! जो कुछ दीख रहा है, वह सब मेरी ही लीला है। इसमें डरनेकी क्या बात है?

हमें जो संसार दीखता है, वह भगवान् का विराट्‍रूप नहीं है। कारण कि विराट्‍रूप तो दिव्य और अविनाशी है, पर दीखनेवाला संसार भौतिक और नाशवान् है। जैसे हमें भौतिक वृन्दावन तो दीखता है, पर उसके भीतरका दिव्य वृन्दावन नहीं दीखता, ऐसे ही हमें भौतिक विश्व तो दीखता है, पर उसके भीतरका दिव्य विश्व (विराट्‍रूप) नहीं दीखता। ऐसा दीखनेमें कारण है—सुखभोगकी इच्छा। भोगेच्छाके कारण ही जड़ता, भौतिकता, मलिनता दीखती है। यदि भोगेच्छाको लेकर संसारमें आकर्षण न हो तो सब कुछ चिन्मय विराट्‍रूप ही है।

(श्लोक-५०)
सञ्जय उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दर्शयामास भूय:।
आश्वासयामास च भीतमेनं
भूत्वा पुन: सौम्यवपुर्महात्मा॥

संजय बोले—वासुदेवभगवान् ने अर्जुनसे ऐसा कहकर फिर उसी प्रकारसे अपना रूप (देवरूप) दिखाया और महात्मा श्रीकृष्णने पुन: सौम्यरूप (द्विभुज मानुषरूप) होकर इस भयभीत अर्जुनको आश्वासन दिया।

(श्लोक-५१)
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।
इदानीमस्मि संवृत्त: सचेता: प्रकृतिं गत:॥

अर्जुन बोले—हे जनार्दन! आपके इस सौम्य मनुष्यरूपको देखकर मैं इस समय स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थितिको प्राप्त हो गया हूँ।

व्याख्या—द्विभुज मनुष्यरूप (कृष्ण), चतुर्भुजरूप (विष्णु) और सहस्रभुज (विराट्‍रूप)—तीनों एक ही समग्र भगवान् के रूप हैं।

(श्लोक-५२)
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण:॥

श्रीभगवान् बोले—मेरा यह जो (चतुर्भुज) रूप तुमने देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त दुर्लभ हैं। देवता भी इस रूपको देखनेके लिये नित्य लालायित रहते हैं।

व्याख्या—यद्यपि देवताओंका शरीर दिव्य होता है, तथापि भगवान् का शरीर उससे भी अधिक विलक्षण है। देवताओंका शरीर भौतिक तेजोमय और भगवान् का शरीर चिन्मय, सत्-चित्-आनन्दमय तथा अलौकिक होता है। अत: देवता भी भगवान् को देखनेके लिये लालायित रहते हैं। जैसे साधारण लोगोंमें नये-नये स्थान देखनेकी रुचि रहती है, ऐसे ही देवताओंमें भगवान् को देखनेकी रुचि तो है, पर प्रेम नहीं है। भगवान् को अनन्यप्रेमसे ही देखा जा सकता है।

(श्लोक-५३)
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥

जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका (चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।

(श्लोक-५४)
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥

परन्तु हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार (चतुर्भुज-रूपवाला) मैं केवल अनन्यभक्तिसे ही तत्त्वसे जाननेमें और (साकाररूपसे) देखनेमें तथा प्रवेश (प्राप्त)करनेमें शक्य हूँ।

व्याख्या—वेदाध्ययन, तप, दान, यज्ञ आदि कितनी ही महान् क्रिया क्यों न हो, उससे भगवान् को प्राप्त नहीं किया जा सकता। उन्हें तो अनन्यभक्तिसे ही प्राप्त किया जा सकता है। अनन्यभक्ति है—केवल भगवान् का ही आश्रय, सहारा हो और अपने बलका किंचिन्मात्र भी आश्रय न हो।

ज्ञानमार्गमें तो केवल जानना और प्रवेश करना—ये दो होते हैं (गीता १८। ५५), पर भक्तिमार्गमें जानना, देखना और प्रवेश करना—ये तीनों होते हैं। भक्तिसे भगवान् के दर्शन भी हो सकते हैं—यह भक्तिकी विशेषता है। भक्तिसे समग्रकी प्राप्ति होती है।

(श्लोक-५५)
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: सङ्गवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥

हे पाण्डव! जो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला, मेरे ही परायण और मेरा ही प्रेमी भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्रके साथ वैरभावसे रहित है, वह भक्त मुझे प्राप्त होता है।

व्याख्या—अनन्यभक्तिके पाँच साधन हैं—(१) भगवान् के लिये कर्म करना अर्थात् स्थूलशरीरसे भगवान् के परायण होना, (२) भगवान् के परायण होना अर्थात् सूक्ष्म तथा कारणशरीरसे भगवान् के परायण होना, (३) भगवान् का प्रेमी भक्त होना अर्थात् स्वयंसे भगवान् के परायण होना, (४) सर्वथा आसक्तिरहित होना और (५) प्राणिमात्रके साथ वैरभावसे रहित होना। इन पाँचोंमें प्रथम तीन बातें भगवान् से सम्बन्ध जोड़नेके लिये हैं और अन्तिम दो बातें संसारसे सम्बन्ध तोड़नेके लिये हैं।

संसारकी सत्ता सिद्धकी दृष्टिमें नहीं है, प्रत्युत साधककी दृष्टिमें है। अत: साधकको सावधान रहना चाहिये कि वह संसारके साथ किसी भी तरहका सम्बन्ध न माने; क्योंकि सम्बन्ध ही बाँधनेवाला है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्याय:॥ ११॥

अगला लेख  > अथ द्वादशोऽध्याय: