ॐ श्रीपरमात्मने नम:
अथ द्वादशोऽध्याय:
बारहवाँ अध्याय
(श्लोक-१)
अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥
अर्जुन बोले—जो भक्त इस प्रकार (ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकके अनुसार) निरन्तर आपमें लगे रहकर आप (सगुण-साकार)-की उपासना करते हैं और जो अविनाशी निर्गुण-निराकारकी ही उपासना करते हैं, उन दोनोंमेंसे उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?
(श्लोक-२)
श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्-ते मे युक्ततमा मता:॥
श्रीभगवान् बोले—मुझमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी (सगुण-साकारकी) उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।
व्याख्या—यद्यपि ज्ञान और भक्ति—दोनों ही मनुष्यका दु:ख दूर करनेमें समान हैं, तथापि ज्ञानकी अपेक्षा भक्तिकी अधिक महिमा है। ज्ञानसे तो अखण्डरसकी प्राप्ति होती है, पर भक्तिसे अनन्तरस (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम)-की प्राप्ति होती है। जैसे संसारमें किसी वस्तुका ज्ञान होता है कि ‘ये रुपये हैं’ आदि, तो इस ज्ञानसे केवल अज्ञान (अनजानपना) मिट जाता है, ऐसे ही तत्त्वज्ञानसे केवल अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटनेसे दु:ख, भय, जन्म-मरण—ये सब मिट जाते हैं। परन्तु भक्ति ज्ञानसे भी विलक्षण है। जैसे ‘ये रुपये हैं’ यह ज्ञान हो जानेपर अनजानपना मिट जाता है, पर उनको पानेका लोभ हो जाय कि ‘और मिले, और मिले’ तो उसमें एक विशेष रस आता है। वस्तुके आकर्षणमें जो रस है वह रस वस्तुके ज्ञानमें नहीं है। ऐसे ही भक्तिमें एक विशेष रस है। ज्ञानका रस तो स्वयं लेता है, पर प्रेमका रस भगवान् लेते हैं। भगवान् ज्ञानके भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेमके भूखे हैं। अत: ‘प्रेम’ मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी वस्तु है!
ज्ञानमार्गमें सत् और असत् दोनोंकी मान्यता (विवेक) साथ-साथ रहनेसे असत् की अति सूक्ष्म सत्ता अर्थात् सूक्ष्म अहम् दूरतक साथ रहता है। यह सूक्ष्म अहम् मुक्त होनेपर भी रहता है। इस सूक्ष्म अहम् के रहनेसे पुनर्जन्म तो नहीं होता, पर भगवान् से अभिन्नता नहीं होती और दार्शनिकोंमें तथा उनके दर्शनोंमें परस्पर मतभेद रहता है। परन्तु प्रेमका उदय होनेपर भगवान् से अभिन्नता हो जाती है तथा सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद मिट जाते हैं।
(श्लोक-३)
ये त्वक्षरमनिर्देश्य-मव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
(श्लोक-४)
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
और जो अपने इन्द्रियसमूहको भलीभाँति वशमें करके चिन्तनमें न आनेवाले, सब जगह परिपूर्ण, देखनेमें न आनेवाले, निर्विकार, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्तकी तत्परतासे उपासना करते हैं, वे प्राणिमात्रके हितमें प्रीति रखनेवाले और सब जगह समबुद्धिवाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—भगवान् ने यहाँ ब्रह्मके जो लक्षण (अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, अक्षर, अव्यक्त आदि) बताये हैं, वही लक्षण जीवात्माके भी बताये हैं*। दोनोंके समान लक्षण बतानेका तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म—दोनों स्वरूपसे एक ही हैं। देहके साथ सम्बन्ध होनेसे (अनेकरूपसे) जो जीव है, वह देहके साथ सम्बन्ध न होनेसे (एकरूपसे) ब्रह्म है अर्थात् जीव केवल शरीरकी उपाधिसे, देहाभिमानके कारण ही अलग है, अन्यथा वह ब्रह्म ही है। इसलिये ज्ञानमार्गमें ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर साधककी साध्यसे सधर्मता हो जाती है—‘मम साधर्म्यमागता:’ (गीता १४।२)।
** द्रष्टव्य—‘गीता-दर्पण’ ग्रन्थका उनसठवाँ लेख—‘गीतामें परमात्मा और जीवात्माका स्वरूप’।*
सगुण और निर्गुण—ये दो परमात्माके विशेषण हैं। विशेष्य परमात्मतत्त्व एक ही है। इसलिये भगवान् ने निर्गुणके उपासकोंको भी अपनी ही प्राप्ति बतायी है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव’। भगवान् के कथनका तात्पर्य है कि निर्गुण-निराकार रूप भी मेरा ही है, वह मेरे समग्ररूपसे अलग नहीं है।
ज्ञानयोगका साधक प्राय: समाजसे असंग रहता है। वास्तवमें असंगता शरीरसे होनी चाहिये, समाजसे नहीं। समाजसे असंगता होनेपर अहंभाव नहीं मिटता। जबतक साधक स्वयंको शरीरसे सर्वथा असंग अनुभव नहीं कर लेता, तबतक संसारसे अलग (एकान्तमें) रहनेमात्रसे उसका साधन सिद्ध नहीं होगा: क्योंकि शरीर भी संसारका ही अंग है। इसलिये शरीरसे सम्बन्ध माननेपर संसारमात्रसे सम्बन्ध हो जाता है। शरीरसे असंग होनेके लिये साधकमें प्राणिमात्रके हितका भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है।
(श्लोक-५)
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते॥
अव्यक्तमें आसक्त चित्तवाले उन साधकोंको (अपने साधनमें) कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियोंके द्वारा अव्यक्तविषयक गति कठिनतासे प्राप्त की जाती है।
व्याख्या—निर्गुणोपासनामें जो देहसहित है, वह उपासक (जीव) है और जो देहरहित है, वह उपास्य (ब्रह्म) है। देहके साथ माना हुआ सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्मकी एकतामें मुख्य बाधक है। इसलिये देहाभिमानीके लिये निर्गुणोपासनाकी सिद्धि कठिनतासे और देरीसे होती है। परन्तु सगुणोपासनामें भगवान् की विमुखता ही बाधक है, देहाभिमान नहीं। इसलिये सगुणोपासक संसारसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो जाता है और साधनके आश्रित न होकर भगवान् के आश्रित हो जाता है। अत: भगवान् कृपा करके उसका शीघ्र ही उद्धार कर देते हैं (गीता ८।१४, १२।७)। यह सगुणोपासनाकी विलक्षणता है।
(श्लोक-६)
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मोंको मेरे अर्पण करके और मेरे परायण होकर अनन्ययोग (सम्बन्ध)-से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं।
व्याख्या—जैसे ज्ञानयोगी क्रियाओंको प्रकृतिके द्वारा होनेवाली समझकर तथा अपनेको उनसे सर्वथा असंग अनुभव करके कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, ऐसे ही भक्तियोगी अपनी क्रियाओंको भगवान् के अर्पण करके कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।
‘मैं केवल भगवान् का ही हूँ, और किसीका नहीं हूँ तथा केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं, और कोई भी मेरा अपना नहीं है’—ऐसा मानना ही अनन्ययोगसे भगवान् की उपासना करना है।
(श्लोक-७)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
हे पार्थ! मुझमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ।
व्याख्या—छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान् ने सामान्य साधकोंके लिये अपने द्वारा अपना उद्धार करनेकी बात कही थी—‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ और यहाँ कहते हैं कि भक्तोंका उद्धार मैं करता हूँ। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक साधक आरम्भमें स्वयं ही साधनमें लगता है। परन्तु जो साधक भगवान् के आश्रित होता है, उसका उद्धार भगवान् करते हैं। वह तो अपने उद्धारकी चिन्ता न करके केवल भगवान् के भजनमें ही लगा रहता है। उसका साधन और साध्य भगवान् ही होते हैं। परन्तु ज्ञानमार्गमें चलनेवाला साधक अपना उद्धार स्वयं करता है।
(श्लोक-८)
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय:॥
तू मुझमें मनको स्थापन कर और मुझमें ही बुद्धिको प्रविष्ट कर; इसके बाद तू मुझमें ही निवास करेगा—इसमें संशय नहीं है।
व्याख्या—मन-बुद्धि भगवान् की अपरा प्रकृति है (गीता ७।४-५)। भगवान् की शक्ति होते हुए भी अपरा प्रकृति भगवान् से भिन्न स्वभाववाली (जड़ और परिवर्तनशील) है। परन्तु परा प्रकृति (जीवात्मा) भगवान् से भिन्न स्वभाववाली नहीं है। इसलिये वास्तवमें मन-बुद्धि भगवान् में नहीं लग सकते, प्रत्युत स्वयं ही भगवान् में लग सकता है। गीतामें जहाँ-जहाँ मन-बुद्धि भगवान् में लगानेकी बात आयी है, वहाँ वास्तवमें स्वयंको ही भगवान् में लगानेकी बात कही गयी है।
भगवान् में मन-बुद्धि लगानेसे मन-बुद्धि तो नहीं लगते, पर स्वयं लग जाता है—‘निवसिष्यसि मय्येव’। कारण कि जीवका स्वभाव है कि वह स्वयं वहीं लगता है, जहाँ उसके मन-बुद्धि लगते हैं। जैसे सुई जहाँ जाती है, धागा वहीं जाता है, ऐसे ही मन-बुद्धि जहाँ जाते हैं, स्वयं वहीं जाता है। संसारको सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे मन-बुद्धि संसारमें लग गये। संसारमें मन-बुद्धि लगनेसे जीव भी स्वयं संसारमें लग गया। इसलिये जीवको संसारसे हटानेके लिये भगवान् मन-बुद्धिको अपनेमें लगानेकी आज्ञा देते हैं।
भगवान् में लगानेसे मन-बुद्धि भगवान् में नहीं लगते, प्रत्युत लीन हो जाते हैं; क्योंकि मूलमें अपरा प्रकृति भगवान् का ही स्वभाव है। भगवान् में लीन होनेपर मन-बुद्धिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत केवल भगवान् ही रह जाते हैं।
पूर्वपक्ष—मन-बुद्धि तो करण हैं, पर जीव कर्ता है। करण कर्ताके अधीन रहते हैं। जहाँ कर्ता लगेगा, वहीं करण भी लगेंगे। अत: जहाँ करण लगेंगे, वहाँ कर्ता भी लगेगा—ऐसा कहनेका क्या औचित्य है?
उत्तरपक्ष—क्रियाकी सिद्धिमें करण अत्यन्त उपकारक होता है—‘साधकतमं करणम्’ (पाणि० अ० १।४।४२)। जैसे, ‘रामके बाणसे बालि मारा गया’—इस वाक्यमें ‘बाण’ करण है; क्योंकि बालिके मरनेमें बाण हेतु हुआ, धनुष, प्रत्यंचा, हाथ आदि नहीं। साधकके पास सबसे श्रेष्ठ करण ‘बुद्धि’ है, जिसे वह परमात्मामें लगाता है। उपनिषद्में शरीरको रथ, जीवात्माको रथी, इन्द्रियोंको घोड़े, मनको लगाम और बुद्धिको सारथि कहा गया है—‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि’ (कठोपनिषद् १।३।३)। रथ, घोडे़ और लगाम तो राजभवनके बाहर ही छूट जाते हैं। राजभवनके भीतर रनिवासतक सारथि जाता है। फिर रथी अकेले रनिवासके भीतर जाता है, सारथि लौट आता है। अत: साधककी बुद्धि परमात्मातक पहुँचती है, पर वह परमात्माको पकड़ नहीं पाती। परमात्मातक स्वयं ही पहुँच पाता है।
(श्लोक-९)
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥
अगर तू मनको मुझमें अचलभावसे स्थिर (अर्पण) करनेमें अपनेको समर्थ नहीं मानता, तो हे धनंजय! अभ्यासयोगके द्वारा तू मेरी प्राप्तिकी इच्छा कर।
व्याख्या—एकमात्र भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे किया गया भजन, नाम-जप आदि ‘अभ्यासयोग’ है। यदि केवल अभ्यास हो, योग न हो तो एक नयी स्थिति बनेगी, कल्याण नहीं होगा। मनका निरोध करना अथवा मनको बार-बार भगवान् में लगाना अभ्यास है (गीता ६।२६)। परन्तु अभ्यासयोगमें मनका निरोध नहीं है, प्रत्युत मनसे सम्बन्ध-विच्छेद है।
(श्लोक-१०)
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥
अगर तू अभ्यासयोगमें भी अपनेको असमर्थ पाता है तो मेरे लिये कर्म करनेके परायण हो जा। मेरे लिये कर्मोंको करता हुआ भी तू सिद्धिको प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या—अभ्यासकी अपेक्षा भी क्रियाओंको भगवान् के अर्पण करना सुगम है। कारण कि अभ्यास तो नया काम है, जो करना पड़ता है, पर कर्म करनेका स्वभाव पड़ा हुआ होनेसे कर्म स्वत: होते हैं। उन लौकिक-पारमार्थिक सभी कर्मोंको भगवान् के अर्पण करनेसे मनुष्य सुगमतापूर्वक भगवान् को प्राप्त हो जाता है (गीता ९।२७-२८)।
(श्लोक-११)
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रित:।
सर्वकर्मफलत्यागं तत: कुरु यतात्मवान्॥
अगर मेरे योग (समता)-के आश्रित हुआ तू इस (पूर्वश्लोकमें कहे गये साधन)-को भी करनेमें अपनेको असमर्थ पाता है, तो मन-इन्द्रियोंको वशमें करके सम्पूर्ण कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग कर।
व्याख्या—यदि साधक सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान् के अर्पण न कर सके अर्थात् भगवान् के लिये सभी कर्म न कर सके तो उसे फलेच्छाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करने चाहिये; क्योंकि फलेच्छा ही बाँधनेवाली है—‘फले सक्तो निबध्यते’ (गीता ५।१२)। फलकी इच्छाका त्याग करके कर्तव्य-कर्म करनेसे उसका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा।
(श्लोक-१२)
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्-ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्-त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
अभ्याससे शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलकी इच्छाका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।
व्याख्या—अभ्यास, शास्त्रज्ञान और ध्यान—ये तीनों तो करणसापेक्ष हैं,पर कर्मफलत्याग करणनिरपेक्ष है। वास्तवमें ये चारों ही साधन श्रेष्ठ हैं और उन साधकोंके लिये हैं, जिनका उद्देश्य त्यागका है। परन्तु कर्मफलत्यागको श्रेष्ठ बतानेका कारण यह है कि लोगोंमें इस साधनके प्रति हेयबुद्धि है,जबकि त्यागमें कर्मफलका त्याग ही श्रेष्ठ है। (गीता १८। ११)
इस श्लोकमें आये चार साधनोंके अन्तर्गत दसवें श्लोकमें आये ‘मदर्थमपि कर्माणि’ (भगवान् के लिये कर्म करना) अर्थात् भक्तिको नहीं लिया है। इसका कारण यह है कि भक्तिमें ही साधनकी पूर्णता हो जाती है। अत: भक्ति और त्याग—दोनों ही श्रेष्ठ हैं।
कर्मफलत्यागका अर्थ है—कर्मफलकी इच्छाका त्याग। इच्छा भीतर होती है और फलत्याग बाहर होता है। फलत्याग करनेपर भी भीतरमें उसकी इच्छा रह सकती है। अत: साधकका उद्देश्य कर्मफलकी इच्छाके त्यागका रहना चाहिये। इच्छाका त्याग होनेसे जन्म-मरणका कारण ही नहीं रहता। मुक्ति वस्तुके त्यागसे नहीं होती, प्रत्युत इच्छाके त्यागसे होती है। इसलिये गीतामें फलेच्छाके त्यागपर अधिक जोर दिया गया है।
किसी साधनकी सुगमता अथवा कठिनता साधककी रुचि और उद्देश्यपर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान् का होनेसे साधन सुगम हो जाता है। परन्तु रुचि संसारकी और उद्देश्य भगवान् का होनेसे साधन कठिन हो जाता है।
(श्लोक-१३)
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
(श्लोक-१४)
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्-यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
सब प्राणियोंमें द्वेषभावसे रहित और मित्रभाववाला तथा दयालु भी और ममतारहित, अहंकाररहित, सुख-दु:खकी प्राप्तिमें सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीरको वशमें किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला मुझमें अर्पित मन-बुद्धिवाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या—गीतामें मित्रता और करुणा न कर्मयोगीके लक्षणोंमें आयी है, न ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें, प्रत्युत केवल भक्तके लक्षणोंमें आयी है। कर्मयोगी और ज्ञानयोगीमें समता तो होती है, पर मित्रता और करुणा नहीं होती। परन्तु भक्तमें आरम्भसे ही मित्रता और करुणा होती है।
भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर कौन वैर करे, किससे करे और क्यों करे? ‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध’ (मानस, उत्तर० ११२ ख)। यद्यपि ज्ञानयोगीका भी किसीसे किंचिन्मात्र भी वैर नहीं होता, तथापि उसमें स्वाभाविक उदासीनता, तटस्थता रहती है। ज्ञानमार्गमें वैराग्यकी मुख्यता रहती है और वैराग्य रूखा होता है इसलिये ज्ञानयोगीके भीतर कठोरता न होनेपर भी वैराग्य, उदासीनताके कारण बाहरसे कठोरता प्रतीत होती है।
प्रत्येक साधकके लिये निर्मम और निरहंकार होना बहुत आवश्यक है। इसलिये गीतामें भगवान् ने कर्मयोग (२।७१), ज्ञानयोग (१८।५३) और भक्तियोग (१२। १३)—तीनों ही योगमार्गोंमें निर्मम और निरहंकार होनेकी बात कही है। कारण कि वास्तवमें हमारा स्वरूप निर्मम-निरहंकार है।
भगवान् में ज्ञानकी भूख तो नहीं है, पर प्रेमकी भूख अवश्य है। कारण कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है, ज्ञान नहीं। इसलिये भगवान् कहते हैं कि मुझमें अर्पित मन-बुद्धिवाला भक्त मुझे प्रिय है।
(श्लोक-१५)
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्-मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणीसे उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या),भय और उद्वेग (हलचल)-से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
व्याख्या—भगवान् के सिवाय अन्यकी सत्ता माननेसे ही उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि होते हैं। भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई सत्ता है ही नहीं, फिर वह किससे उद्वेग, ईर्ष्या, भय आदि करे और क्यों करे?
(श्लोक-१६)
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
जो अपेक्षा (आवश्यकता)-से रहित, (बाहर-भीतरसे) पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथासे रहित और सभी आरम्भोंका अर्थात् नये-नये कर्मोंके आरम्भका सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
व्याख्या—भक्तका दर्शन, स्पर्श, भाषण दूसरोंको शुद्ध करनेवाला होता है। उसके शरीरका स्पर्श करनेवाली हवा भी शुद्ध करनेवाली होती है। यद्यपि ऐसी शुद्धि ज्ञानयोगी महापुरुषमें भी होती है, तथापि भक्तमें आरम्भसे ही सबके हितका भाव विशेषरूपसे रहनेके कारण उसमें विशेष शुद्धि होती है।
भक्तने करनेयोग्य काम कर लिया अर्थात् भगवत्प्राप्तिरूप उद्देश्य पूरा कर लिया इसलिये वह दक्ष है।
भक्त भोग तथा संग्रहके लिये किये जानेवाले सम्पूर्ण कर्मोंका सर्वथा त्यागी होता है। उसके द्वारा होनेवाले सम्पूर्ण कर्म भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही होते हैं। संसारमें किंचिन्मात्र भी आसक्ति न रहनेसे भक्तका एकमात्र भगवान् में स्वत:-स्वाभाविक प्रेम होता है।
(श्लोक-१७)
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥
जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है और जो शुभ-अशुभ कर्मोंसे ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेषरहित) है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
व्याख्या—हर्ष और शोक, राग और द्वेष—ये द्वन्द्व हैं। भक्तमें कोई भी द्वन्द्व नहीं रहता, वह निर्द्वन्द्व हो जाता है। उसके सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेषसे रहित होते हैं।
(श्लोक-१८)
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो:।
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित:॥
(श्लोक-१९)
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेत: स्थिरमतिर्-भक्तिमान्मे प्रियो नर:॥
जो शत्रु और मित्रमें तथा मान-अपमानमें सम है और शीत-उष्ण (शरीरकी अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दु:ख (मन-बुद्धिकी अनुकूलता-प्रतिकूलता)-में सम है एवं आसक्तिरहित है, और जो निन्दा-स्तुतिको समान समझनेवाला, मननशील, जिस किसी प्रकारसे भी (शरीरका निर्वाह होने-न-होनेमें) सन्तुष्ट, रहनेके स्थान तथा शरीरमें ममता-आसक्तिसे रहित और स्थिरबुद्धिवाला है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
व्याख्या—इन दो श्लोकोंमें भगवान् ने वे ही स्थल दिये हैं, जहाँ समता होनेमें कठिनता आती है। यदि इनमें समता हो जाय तो अन्य जगह समता होनेमें कठिनता नहीं प्रतीत होगी। अपनेपर कोई असर न पड़ना ही समता है।
यद्यपि भक्तकी दृष्टिमें भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता होती ही नहीं, तथापि दूसरे लोगोंकी दृष्टिमें वह शत्रु और मित्रमें समभाववाला दीखता है। शत्रुता-मित्रताका ज्ञान होनेपर भी वह सम रहता है।
भक्त सब प्रकारकी अनुकूलता-प्रतिकूलतामें सम रहता है। उसका न तो अनुकूलतामें राग होता है, न प्रतिकूलतामें द्वेष होता है।
(श्लोक-२०)
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:॥
परन्तु जो मुझमें श्रद्धा रखनेवाले और मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृतका जैसा कहा है, वैसा ही भलीभाँति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
व्याख्या—भगवान् ने सिद्ध भक्तोंके उनतालीस लक्षणोंके पाँच प्रकरण कहे हैं—तेरहवें-चौदहवें श्लोकोंका पहला प्रकरण, पन्द्रहवें श्लोकका दूसरा प्रकरण, सोलहवें श्लोकका तीसरा प्रकरण, सत्रहवें श्लोकका चौथा प्रकरण और अठारहवें-उन्नीसवें श्लोकोंका पाँचवाँ प्रकरण। प्रत्येक प्रकरणके लक्षण धर्म्यामृत हैं। साधक भक्त जिस प्रकरणके लक्षणोंको आदर्श मानकर साधन करता है, उसके लिये वही धर्म्यामृत है। ऐसे साधक भक्त भगवान् को अत्यन्त प्रिय होते हैं।
श्रद्धा साधकमें होती है—‘श्रद्दधाना:’। सिद्धमें श्रद्धा नहीं होती, प्रत्युत अनुभव होता है; क्योंकि उसके अनुभवमें एक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, सब कुछ परमात्मा ही हैं, फिर वह श्रद्धा क्या करे? साधककी दृष्टिमें दूसरी सत्ता रहती है, इसलिये वह श्रद्धापूर्वक उपासना करता है। दूसरी सत्ताकी मान्यता रहते हुए भी साधक भगवान् के परायण रहता है और भगवान् के सिवाय दूसरा कोई उसका प्रेमास्पद नहीं होता, इसलिये वह भगवान् को अत्यन्त प्रिय होता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्याय:॥ १२॥