ॐ श्रीपरमात्मने नम:
अथ त्रयोदशोऽध्याय:
तेरहवाँ अध्याय
(श्लोक-१)
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद:॥
श्रीभगवान् बोले—हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’-रूपसे कहे जानेवाले शरीरको ‘क्षेत्र’—इस नामसे कहते हैं और इस क्षेत्रको जो जानता है, उसको ज्ञानीलोग ‘क्षेत्रज्ञ’—इस नामसे कहते हैं।
व्याख्या—अर्जुनके द्वारा बारहवें अध्यायके आरम्भमें किये गये प्रश्नके उत्तरमें भगवान् ने सगुण-साकारकी उपासनाका विस्तारसे वर्णन किया। अब भगवान् यहाँसे निर्गुण-निराकारकी उपासनाका विस्तारसे वर्णन करना आरम्भ करते हैं।
जैसे खेतमें तरह-तरहके बीज डालकर खेती की जाती है, ऐसे ही इस मनुष्यशरीरमें अहंता-ममता करके जीव तरह-तरहके कर्म करता है और फिर उन कर्मोंके फलरूपमें उसे दूसरा शरीर मिलता है। भगवान् शरीरके साथ माने हुए अहंता-ममतारूप सम्बन्धका विच्छेद करनेके लिये शरीरको इदंता (पृथक्ता)-से देखनेके लिये कह रहे हैं, जो प्रत्येक मार्गके साधकके लिये अत्यन्त आवश्यक है।
अनन्त ब्रह्माण्डोंमें जितने भी शरीर हैं, उनमें जीव स्वयं ‘क्षेत्रज्ञ’ है और अनन्त ब्रह्माण्ड ‘क्षेत्र’ हैं। क्षेत्रज्ञके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं—‘येन सर्वमिदं ततम्’ (गीता २। १७)। साधकको जानना चाहिये कि मैं क्षेत्र नहीं हूँ, प्रत्युत क्षेत्रको जाननेवाला ‘क्षेत्रज्ञ’ हूँ।
एक ही चिन्मय तत्त्व (सत्ता) क्षेत्रके सम्बन्धसे ‘क्षेत्रज्ञ’, क्षरके सम्बन्धसे ‘अक्षर’, शरीरके सम्बन्धसे ‘शरीरी’, दृश्यके सम्बन्धसे ‘द्रष्टा’, साक्ष्यके सम्बन्धसे ‘साक्षी’ और करणके सम्बन्धसे ‘कर्ता’ कहा जाता है। वास्तवमें उस तत्त्वका कोई नाम नहीं है। वह केवल अनुभवरूप है।
(श्लोक-२)
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! तू सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका जो ज्ञान है, वही मेरे मतमें ज्ञान है।
व्याख्या—क्षेत्र (शरीर)-की तो अनन्त ब्रह्माण्डोंके साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा)-की अनन्त-अपार-असीम ब्रह्मके साथ एकता है। तात्पर्य है कि क्षेत्रज्ञ और ब्रह्म एक ही हैं। एक क्षेत्रके सम्बन्धसे वही ‘क्षेत्रज्ञ’ है और सम्पूर्ण क्षेत्रोंके सम्बन्धसे रहित होनेपर वही ‘ब्रह्म’ है।
ब्रह्मके लिये ‘माम्’ कहनेका तात्पर्य है कि ब्रह्म और ईश्वर दो नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं (गीता ९। ४)। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें जो निर्लिप्तरूपसे सर्वत्र परिपूर्ण चिन्मय सत्ता है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डोंका स्वामी है, वह ईश्वर है।
(श्लोक-३)
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु॥
वह क्षेत्र जो है और जैसा है तथा जिन विकारोंवाला है और जिससे जो पैदा हुआ है तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो है और जिस प्रभाववाला है, वह सब संक्षेपमें मुझसे सुन।
(श्लोक-४)
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:॥
यह क्षेत्र-क्षेत्रज्ञका तत्त्व ऋषियोंके द्वारा बहुत विस्तारसे कहा गया है तथा वेदोंकी ऋचाओंद्वारा बहुत प्रकारसे विभागपूर्वक कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।
(श्लोक-५)
महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचरा:॥
मूल प्रकृति और समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत और दस इन्द्रियाँ, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियोंके पाँच विषय—यही (चौबीस तत्त्वोंवाला) क्षेत्र है।
व्याख्या—पाँच महाभूत, एक अहंकार और एक बुद्धि—ये सात ‘प्रकृति-विकृति’ हैं, मूल प्रकृति केवल ‘प्रकृति’ है और दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियोंके विषय—ये सोलह केवल ‘विकृति’ हैं। इस तरह इन चौबीस तत्त्वोंके समुदायका नाम ‘क्षेत्र’ है। इसीका एक तुच्छ अंश यह मनुष्यशरीर है।
(श्लोक-६)
इच्छा द्वेष: सुखं दु:खं सङ्घातश्चेतना धृति:।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्॥
इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, संघात (शरीर), चेतना (प्राणशक्ति) और धृत—इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेपसे कहा गया है।
व्याख्या—पाँचवें श्लोकमें भगवान् ने समष्टि संसारका वर्णन किया और यहाँ व्यष्टि शरीरके विकारोंका वर्णन करते हैं। क्षेत्रके साथ सम्बन्ध रखनेसे ही इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख आदि विकार क्षेत्रज्ञमें होते हैं (गीता १३।२०)। ये सभी विकार तादात्म्य (चिज्जडग्रन्थि)-के जड़-अंशमें रहते हैं।
यहाँ भगवान् ने चौबीस तत्त्वोंवाले शरीरको तथा उसके सात विकारोंको ‘एतत्’ (यह) कहा है। तात्पर्य है कि स्वयं क्षेत्रसे मिला हुआ नहीं है, प्रत्युत उससे सर्वथा अलग है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों ही शरीर ‘एतत्’ पदके अन्तर्गत होनेसे हमारा स्वरूप नहीं हैं। यहाँ विशेष ध्यान देनेकी बात है कि जब अहंकारका कारण ‘महत्तत्त्व’ और ‘मूल प्रकृति’ को भी ‘एतत्’ शब्दसे कह दिया, तो फिर अहंकारके ‘एतत्’ होनेमें कहना ही क्या है! अहम् से समीप महत्तत्त्व है और महत्तत्त्वसे समीप प्रकृति है, वह प्रकृति भी ‘एतत् क्षेत्रम्’ में है। तात्पर्य है कि अहम् हमारा स्वरूप है ही नहीं। जो साधक स्वयंको और अहम् (क्षेत्र)-को अलग-अलग जान लेता है, उसका फिर कभी जन्म नहीं होता और वह परमात्माको प्राप्त हो जाता है (गीता १३।२३)।
(श्लोक-७)
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रह:॥
अपनेमें श्रेष्ठताका भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरुकी सेवा, बाहर-भीतरकी शुद्धि, स्थिरता और मनका वशमें होना।
व्याख्या—अब भगवान् क्षेत्रके साथ माने हुए सम्बन्ध (तादात्म्य)-को तोड़नेके लिये ज्ञानके साधन बताते हैं।
(श्लोक-८)
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्॥
इन्द्रियोंके विषयोंमें वैराग्यका होना, अहंकारका भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियोंमें दु:खरूप दोषोंको बार-बार देखना।
व्याख्या—एक ‘दु:खका भोग’ होता है और एक ‘दु:खका प्रभाव’ होता है। दु:खसे दु:खी होना और सुखकी इच्छा करना ‘दु:खका भोग’ है। दु:खके कारणकी खोज करके उसको मिटाना ‘दु:खका प्रभाव’ है। यहाँ दु:खके प्रभावको ‘दु:खदोषानुदर्शनम्’ पदसे कहा गया है।
दु:खका भोग करनेसे अर्थात् दु:खी होनेसे विवेक लुप्त हो जाता है। परन्तु दु:खका प्रभाव होनेसे विवेक लुप्त नहीं होता, प्रत्युत मनुष्य विवेक-दृष्टिसे दु:खके कारणकी खोज करता है और खोज करके उसे मिटाता है। सुखकी इच्छा ही सम्पूर्ण दु:खोंका कारण है। कारणके मिटनेपर कार्य अपने-आप मिट जाता है। अत: सुखकी इच्छा मिटनेपर सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता है।
(श्लोक-९)
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥
आसक्तिरहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदिमें एकात्मता (घनिष्ठ सम्बन्ध) न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें चित्तका नित्य सम रहना।
(श्लोक-१०)
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥
मुझमें अनन्ययोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्तिका होना, एकान्त स्थानमें रहनेका स्वभाव होना और जनसमुदायमें प्रीतिका न होना।
(श्लोक-११)
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥
अध्यात्मज्ञानमें नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सब जगह देखना—यह (पूर्वोक्त बीस साधनसमुदाय) तो ज्ञान है और जो इसके विपरीत है, वह अज्ञान है—ऐसा कहा गया है।
व्याख्या—क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विभागका ज्ञान करानेवाले होनेसे इन बीस साधनोंको भी ‘ज्ञान’ नामसे कहा गया है। इससे जो विपरीत है, वह ‘अज्ञान’ है। साधन न करनेसे मनुष्य ज्ञानकी बातें तो सीख लेता है, पर अनुभव नहीं कर सकता। अत: साधन न करनेसे अज्ञान (क्षेत्र-क्षेत्रज्ञमें एकताका भाव) रहता है और अज्ञानके रहते हुए अगर कोई सीखकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागका विवेचन करता है तो वह वास्तवमें अपने देहाभिमानको ही पुष्ट करता है। परन्तु जो ये साधन करता है, उसे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके विभागका अनुभव हो जाता है।
(श्लोक-१२)
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
जो ज्ञेय (पूर्वोक्त ज्ञानसे जाननेयोग्य) है, उस परमात्मतत्त्वको मैं अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। वह ज्ञेय-तत्त्व अनादिवाला और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है।
व्याख्या—गीतामें एक ही समग्र परमात्माका तीन प्रकारसे वर्णन हुआ है—
(१) परमात्मा सत् भी हैं और असत् भी हैं—‘सदसच्चाहम्’ (९।१९)।
(२) परमात्मा सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत् से पर भी हैं—‘सदसत्तत्परं यत्’ (११।३७)।
(३) परमात्मा न सत् हैं और न असत् ही हैं—‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३।१२)।
—इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक अनिर्वचनीय परमात्मतत्त्वके सिवाय कुछ नहीं है। वह मन, बुद्धि, वाणीसे सर्वथा अतीत है, इसलिये उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, पर उसे प्राप्त किया जा सकता है।
परमात्मतत्त्वको असत् की अपेक्षासे सत्, जड़की अपेक्षासे चेतन, विकारकी अपेक्षासे निर्विकार, एकदेशीयकी अपेक्षासे सर्वदेशीय, ‘नहीं’ की अपेक्षासे ‘है’, गुणोंकी अपेक्षासे सगुण-निर्गुण, आकारकी अपेक्षासे साकार-निराकार, अनेककी अपेक्षासे एक, प्रकाश्यकी अपेक्षासे प्रकाशक, नाशवान् की अपेक्षासे अविनाशी आदि कह देते हैं, पर वास्तवमें उस तत्त्वमें कोई शब्द लागू होता ही नहीं! कारण कि सभी शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, पर तत्त्व निरपेक्ष और प्रकृतिसे अतीत है। देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, गुण आदिको लेकर ही संज्ञा बनती है। परमात्मामें देश, काल आदि हैं ही नहीं, फिर उनकी संज्ञा कैसी? इसलिये यहाँ आया है कि उस तत्त्वको सत् अथवा असत् कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
परमात्मतत्त्वका आदि (आरम्भ) नहीं है। जो सदासे है, उसका आदि कैसे? सब अपर हैं, वह पर है। आदि-अनादि, पर-अपर आदिका भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है। वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर, सत्-असत् आदिसे विलक्षण है। इस प्रकार भगवान् ने ज्ञेयतत्त्वका वर्णन करनेकी जो बात कही है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक अर्थात् लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाली है। इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं। इसलिये साधकको भी लक्षककी दृष्टिसे ही विचार करना चाहिये, केवल सीखनेकी दृष्टिसे नहीं।
(श्लोक-१३)
सर्वत:पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरोंवाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखोंवाले तथा सब जगह कानोंवाले हैं। वे संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं।
व्याख्या—भगवान् सभी अवयवोंसे सभी क्रियाएँ कर सकते हैं; क्योंकि उनके सभी अवयवोंमें सभी अवयव विद्यमान हैं। उनके छोटे-से-छोटे अंशमें भी सब-की-सब इन्द्रियाँ विद्यमान हैं। उनमें सब जगह सब कुछ है—‘सर्वं सर्वात्मकम्’ (योगदर्शन व्यासभाष्य, विभूति० १४)। जैसे, कलम और स्याहीमें किस जगह कौन-सी लिपि नहीं है? जानकार व्यक्ति उस एक ही कलम और स्याहीसे अनेक लिपियाँ लिख देता है। सोनेकी डलीमें किस जगह कौन-सा गहना नहीं है? सुनार उस एक डलीमेंसे कड़ा, कण्ठी, नथ आदि अनेक गहने निकाल लेता है। इसी तरह लोहेमें किस जगह कौन-सा औजार अथवा अस्त्र-शस्त्र नहीं है? मिट्टी और पत्थरमें किस जगह कौन-सी मूर्ति नहीं है? ऐसे ही भगवान् में किस जगह क्या नहीं है?
(श्लोक-१४)
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
वे परमात्मा सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको प्रकाशित करनेवाले हैं, आसक्तिरहित हैं और सम्पूर्ण संसारका भरण-पोषण करनेवाले हैं तथा गुणोंसे रहित हैं और सम्पूर्ण गुणोंके भोक्ता हैं।
व्याख्या—एक परमात्माके सिवाय और किसीकी भी सत्ता नहीं है। हम जो कुछ भी कहते, सुनते, पढ़ते, सोचते हैं, वह परमात्मासे भिन्न नहीं है। सबसे रहित भी वही है और सबके सहित भी वही है।
इस प्रकरणमें ब्रह्मकी मुख्यता होनेपर भी प्रस्तुत श्लोकमें समग्र परमात्माका ज्ञेय-तत्त्वके रूपमें वर्णन हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि समग्रकी मुख्यता ज्ञान और भक्ति दोनोंमें है।
(श्लोक-१५)
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियोंके रूपमें भी वे ही हैं एवं दूर-से-दूर तथा नजदीक-से-नजदीक भी वे ही हैं और वे अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे जाननेमें नहीं आते।
व्याख्या—परमात्माको बारहवें श्लोकमें तो ‘ज्ञेय’ कहा गया है, पर प्रस्तुत श्लोकमें उन्हें ‘अविज्ञेय’ कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि परमात्मा ज्ञेय होनेपर भी संसारकी तरह ज्ञेय नहीं हैं। जैसे संसार इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जाना जाता है, ऐसे परमात्मा इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे नहीं जाने जाते। इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि प्रकृतिके कार्य हैं। प्रकृतिका कार्य प्रकृतिको भी पूरा नहीं जान सकता, फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्माको जान ही कैसे सकता है? परमात्माको तो मानकर स्वीकार करना पड़ता है; क्योंकि स्वीकृति स्वयंमें होती है। स्वयंकी परमात्माके साथ एकता है, इसलिये परमात्माकी प्राप्ति भी स्वीकृतिसे होती है, चिन्तन-मनन-श्रवण-वर्णन करनेसे नहीं।
(श्लोक-१६)
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च॥
वे परमात्मा स्वयं विभागरहित होते हुए भी सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्तकी तरह स्थित हैं और वे जाननेयोग्य परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले तथा उनका भरण-पोषण करनेवाले और संहार करनेवाले हैं।
व्याख्या—जैसे संसार भौतिक दृष्टिसे एक है, ऐसे ही परमात्मा भी एक (अविभक्त) हैं। जैसे संसार भौतिक दृष्टिसे एक होते हुए भी अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों आदिके रूपमें दीखता है, ऐसे ही परमात्मा एक होते हुए भी अनेक रूपोंमें दीखते हैं। तात्पर्य है कि परमात्मा एक होते हुए भी अनेक हैं और अनेक होते हुए भी एक हैं। वास्तविक सत्ता कभी दो हो सकती ही नहीं, क्योंकि दो होनेसे असत् आ जायगा।
उत्पन्न करनेवाले भी परमात्मा हैं और उत्पन्न होनेवाले भी परमात्मा हैं। भरण-पोषण करनेवाले भी परमात्मा हैं और जिनका भरण-पोषण होता है, वे भी परमात्मा हैं। संहार करनेवाले भी परमात्मा हैं और जिनका संहार होता है, वे भी परमात्मा हैं।
(श्लोक-१७)
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्-तमस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
वे परमात्मा सम्पूर्ण ज्योतियोंकी भी ज्योति और अज्ञानसे अत्यन्त परे कहे गये हैं। वे ज्ञानस्वरूप, जाननेयोग्य, ज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य और सबके हृदयमें विराजमान हैं।
व्याख्या—बारहवेंसे सत्रहवें श्लोकतक जिस ज्ञेय-तत्त्वका वर्णन हुआ है, वह भगवान् का समग्ररूप ही है। कारण कि इसमें निर्गुण-निराकार (बारहवाँ श्लोक), सगुण-निराकार (तेरहवाँ श्लोक) और सगुण-साकार (सोलहवाँ श्लोक)—तीनों ही रूपोंका वर्णन हुआ है।
‘ज्योति’ नाम प्रकाश (ज्ञान)-का है। शब्दका प्रकाशक कान है। स्पर्शका प्रकाशक त्वचा है। रूपका प्रकाशक नेत्र है। रसका प्रकाशक जिह्वा है। गन्धका प्रकाशक नासिका है। इन पाँचों इन्द्रियोंका प्रकाशक मन है। मनका प्रकाशक बुद्धि है। बुद्धिका प्रकाशक स्वयं है। स्वयंका प्रकाशक परमात्मा है। स्वयंप्रकाश परमात्माका कोई भी प्रकाशक नहीं है। जैसे सूर्यमें अन्धकार कभी आता ही नहीं, ऐसे ही परम-प्रकाशक परमात्मामें अज्ञान कभी आता ही नहीं, आ सकता ही नहीं।
(श्लोक-१८)
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते॥
इस प्रकार क्षेत्र तथा ज्ञान और ज्ञेयको संक्षेपसे कहा गया है। मेरा भक्त इसको तत्त्वसे जानकर मेरे भावको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—समग्र परमात्माका ज्ञान वास्तवमें भक्तिसे ही हो सकता है। इसलिये साधकको भक्त होना चाहिये। क्षेत्रको तत्त्वसे जाननेपर क्षेत्रसे संबंध-विच्छेद हो जाता है। ज्ञान (साधन-समुदाय)-को तत्त्वसे जाननेपर देहाभिमान मिट जाता है। ज्ञेयको तत्त्वसे जाननेपर उसकी प्राप्ति हो जाती है।
यहाँ आये ‘मद्भावायोपपद्यते’ पदको गीतामें कई प्रकारसे कहा गया है; जैसे—‘मद्भावमागता:’ (४।१०), ‘मम साधर्म्यमागता:’ (१४।२), ‘मद्भावं सोऽधिगच्छति’ (१४।१९) ‘मद्भाव’ का अर्थ है—मुझ परमात्माकी सत्ता। यह सिद्धान्त है कि सत्ता एक ही होती है, दो नहीं। भगवान् ने ज्ञान और भक्ति—दोनोंमें ही अपने भावकी प्राप्ति बतायी है। ‘ज्ञान’ में इसका तात्पर्य है—ब्रह्मसे साधर्म्य होना अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दरूप है, ऐसे ही ज्ञानी महापुरुषका भी सत्-चित्-आनन्दरूप होना। ‘भक्ति’ में इसका तात्पर्य है—भक्तकी भगवान् के साथ आत्मीयता अर्थात् अभिन्नता होना।
(श्लोक-१९)
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान्॥
(श्लोक-२०)
कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष: सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
प्रकृति और पुरुष—दोनोंको ही तुम अनादि समझो और विकारोंको तथा गुणोंको भी प्रकृतिसे ही उत्पन्न समझो। कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दु:खोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है।
व्याख्या—भगवान् क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागका ही प्रकृति और पुरुषके नामसे पुन: वर्णन करते हैं। शरीर तथा संसार प्रकृति-विभागमें और आत्मा तथा परमात्मा पुरुष-विभागमें हैं। जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं, ऐसे ही इनके भेदका ज्ञान अर्थात् विवेक भी अनादि है। अत: विवेक-दृष्टिसे देखें तो ये दोनों विभाग एक-दूसरेसे बिलकुल असम्बद्ध हैं।
विकृति मात्र जड़में ही होती है, चेतनमें नहीं। अत: वास्तवमें सुखी-दु:खी होना चेतनका धर्म नहीं है, प्रत्युत जड़के संगसे अपनेको सुखी-दु:खी मानना चेतनका स्वभाव है। तात्पर्य है कि चेतन सुखी-दु:खी नहीं होता, प्रत्युत (सुखाकार-दु:खाकार वृत्तिसे मिलकर) अपनेको सुखी-दु:खी मान लेता है। चेतनमें एक-दूसरेसे विरुद्ध सुख-दु:खरूप दो भाव हो ही कैसे सकते हैं? दो भाव परिवर्तनशील प्रकृतिमें ही हो सकते हैं। जो अपरिवर्तनशील है, उसके दो भाव अथवा रूप नहीं हो सकते। तात्पर्य है कि सम्पूर्ण विकार परिवर्तनशीलमें ही हो सकते हैं। चेतन स्वयं ज्यों-का-त्यों रहते हुए भी परिवर्तनशील प्रकृतिके संगसे उन विकारोंको अपनेमें आरोपित करता रहता है।
भगवान् शक्तिमान् हैं और प्रकृति उनकी शक्ति है। ज्ञानकी दृष्टिसे शक्ति और शक्तिमान्—दोनों अलग-अलग हैं; क्योंकि शक्तिमें तो परिवर्तन (घटना-बढ़ना) होता है, पर शक्तिमान् ज्यों-का-त्यों रहता है। परन्तु भक्तिकी दृष्टिसे देखें तो शक्ति और शक्तिमान् दोनों अभिन्न हैं; क्योंकि शक्तिको शक्तिमान् से अलग नहीं कर सकते अर्थात् शक्तिमान् के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ज्ञान और भक्ति—दोनोंकी बात रखनेके लिये ही भगवान् ने प्रकृतिको न अनन्त कहा है, न सान्त, प्रत्युत ‘अनादि’ कहा है। कारण कि यदि प्रकृतिको अनन्त (नित्य) कहें तो ज्ञानका खण्डन हो जायगा; क्योंकि ज्ञानकी दृष्टिसे प्रकृतिकी सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २।१६)। यदि प्रकृतिको सान्त (अनित्य) कहें तो भक्तिका खण्डन हो जायगा; क्योंकि भक्तिकी दृष्टिसे प्रकृति भगवान् की शक्ति होनेसे भगवान् से अभिन्न है—‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९।१९)।
वास्तवमें परमात्माका स्वरूप ‘समग्र’ है। परमात्मामें कोई शक्ति न हो—ऐसा सम्भव ही नहीं है। यदि परमात्माको सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय (सीमित) ही सिद्ध होंगे। उनमें शक्तिका परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्तिका अभाव नहीं हो सकता। शक्ति कारणरूपसे उनमें रहती ही है, अन्यथा परमात्माके सिवाय शक्ति (प्रकृति)-के रहनेका स्थान कहाँ होगा? इसलिये यहाँ प्रकृति और पुरुष—दोनोंको अनादि कहा गया है।
(श्लोक-२१)
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
प्रकृतिमें स्थित पुरुष (जीव) ही प्रकृतिजन्य गुणोंका भोक्ता बनता है और गुणोंका संग ही इसके ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म लेनेका कारण बनता है।
व्याख्या—‘मैं’ जड़ (प्रकृति) है और ‘हूँ’ चेतन (पुरुष) है। ‘मैं हूँ’—यह जड़-चेतनका तादात्म्य है। इस ‘मैं हूँ’ में ही कर्तापन तथा भोक्तापन रहता है। यदि साधक ‘मैं’ को मिटा दे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। जैसे लोहे और अग्निमें तादात्म्य न रहनेसे लोहा पृथ्वीपर ही रह जाता है और अग्नि निराकार अग्नि-तत्त्वमें लीन हो जाती है, ऐसे ही ‘मैं’ (अहम्) तो प्रकृतिमें ही रह जाता है और ‘हूँ’ (‘है’ का स्वरूप होनेसे) ‘है’ में ही विलीन हो जाता है। मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये—इन दो बातोंकी सिद्धि होते ही ‘हूँ’ सत्तामात्रमें अर्थात् ‘है’ में विलीन हो जाता है। तात्पर्य है कि ‘मैं’ (जड़-अंश) जड़में और ‘हूँ’ (चेतन-अंश) चेतन तत्त्वमें विलीन हो जाता है। इस प्रकार जड़-चेतनकी ग्रन्थि छूट जाती है और फिर एक ‘है’ (सत्तामात्र)-के सिवाय कुछ नहीं रहता। ‘है’ में कर्तापन और भोक्तापन नहीं है। तात्पर्य है कि भोगोंमें ‘हूँ’ खिंचता है, ‘है’ नहीं खिंचता। ‘हूँ’ ही कर्ता-भोक्ता बनता है, ‘है’ कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। अत: साधक ‘हूँ’ को न मानकर ‘है’ को ही माने अर्थात् अनुभव करे।
सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण कोई बाधा नहीं देते; परन्तु इनका संग करनेसे जीव ऊर्ध्वगति, मध्यगति अथवा अधोगतिमें जाता है। गुणोंका संग जीव स्वयं करता है। असंगता जीवका स्वरूप है—‘असङ्गो ह्ययं पुरुष:’ (बृहदा०४।३।१५)। यदि जीव गुणोंका संग न करे तो जन्म-मरण हो ही नहीं सकता।
(श्लोक-२२)
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर:।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर:॥
यह पुरुष (शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेसे) ‘उपद्रष्टा’, (उसके साथ मिलकर सम्मति, अनुमति देनेसे) ‘अनुमन्ता’, (अपनेको उसका भरण-पोषण करनेवाला माननेसे) ‘भर्ता’, (उसके संगसे सुख-दु:ख भोगनेसे) ‘भोक्ता’ और (अपनेको उसका स्वामी माननेसे) ‘महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु (स्वरूपसे) यह पुरुष ‘परमात्मा’—इस नामसे कहा जाता है। यह इस देहमें रहता हुआ भी देहसे पर (सर्वथा सम्बन्ध-रहित) ही है।
व्याख्या—वास्तवमें पुरुष (चेतन) ‘पर’ ही है, पर अन्यके सम्बन्धसे वह उपद्रष्टा, अनुमन्ता आदि बन जाता है। जैसे, मनुष्य पुत्रके सम्बन्धसे ‘पिता,’ पिताके सम्बन्धसे ‘पुत्र’, पत्नीके सम्बन्धसे ‘पति’, बहनके सम्बन्धसे ‘भाई’ आदि बन जाता है। ये सम्बन्ध अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं, ममता करनेके लिये नहीं। वास्तविक स्वरूप तो ‘पर’ अर्थात् सर्वथा सम्बन्धरहित ही है।
यहाँ उपद्रष्टा, अनुमन्ता आदि अनेक उपाधियोंका तात्पर्य एकतामें है कि चेतन-तत्त्व वास्तवमें एक ही है।
(श्लोक-२३)
य एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणै: सह।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते॥
इस प्रकार पुरुषको और गुणोंके सहित प्रकृतिको जो मनुष्य (अलग-अलग) जानता है, वह सब तरहका बर्ताव करता हुआ भी फिर जन्म नहीं लेता।
व्याख्या—जो साधक पूर्वश्लोकमें आये ‘देहेऽस्मिन् पुरुष: पर:’ के अनुसार अपनेको देहसे सर्वथा असंग अनुभव कर लेता है, वह अपने वर्ण-आश्रम आदिके अनुसार समस्त कर्तव्य-कर्म करते हुए भी पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं होता; क्योंकि पुनर्जन्म होनेमें गुणोंका संग ही कारण है (गीता १३।२१)। जैसे छाछसे निकला हुआ मक्खन पुन: छाछमें मिलकर दही नहीं बनता, ऐसे ही प्रकृतिजन्य गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य पुन: गुणोंसे नहीं बँधता (गीता ४।३५)।
(श्लोक-२४)
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
कई मनुष्य ध्यानयोगके द्वारा, कई सांख्ययोगके द्वारा और कई कर्मयोगके द्वारा अपने-आपसे अपने-आपमें परमात्मतत्त्वका अनुभव करते हैं।
व्याख्या—जैसे पूर्वश्लोकमें विवेकके महत्त्वको मुक्तिका उपाय बताया, ऐसे ही यहाँ ध्यानयोग आदि अन्य मुक्तिके उपाय बताते हैं। गीतामें ध्यानयोगसे (६।२८), सांख्ययोगसे (२।१५) और कर्मयोगसे (२।७१)—तीनोंसे परमात्मप्राप्तिकी बात कही गयी है। ये तीनों परमात्मप्राप्तिके स्वतन्त्र साधन हैं।
(श्लोक-२५)
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
दूसरे मनुष्य इस प्रकार (ध्यानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग आदि साधनोंको) नहीं जानते, पर दूसरोंसे (जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे) सुनकर ही उपासना करते हैं, ऐसे वे सुननेके अनुसार आचरण करनेवाले मनुष्य भी मृत्युको तर जाते हैं।
व्याख्या—जिन मनुष्योंमें शास्त्रोंको तथा उनमें वर्णित साधनोंको समझनेकी योग्यता नहीं है, जिनका विवेक कमजोर है, पर जिनके भीतर मृत्युसे तरने (मुक्ति)-की उत्कट अभिलाषा है, ऐसे मनुष्य भी जीवन्मुक्त सन्त-महात्माओंकी आज्ञाका पालन करके मृत्युको तर जाते हैं अर्थात् तत्त्वज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं।
(श्लोक-२६)
यावत्सञ्जायते किञ्चित् सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद्विद्धि भरतर्षभ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, उनको तुम क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संयोगसे उत्पन्न हुए समझो।
व्याख्या—चर-अचर, स्थावर-जंगम आदि जितने भी प्राणी हैं, वे सब-के-सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके सम्बन्धसे ही पैदा होते हैं। क्षेत्रज्ञ (प्रकृतिस्थ पुरुष) शरीरको मैं, मेरा, तथा मेरे लिये मान लेता है—यही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका संयोग है।
पूर्वपक्ष—संयोग सजातीयतामें ही होता है, फिर विजातीय क्षेत्र (जड़)-के साथ क्षेत्रज्ञ (चेतन)-का संयोग कैसे सम्भव है?
उत्तरपक्ष—ठीक है, जैसे अंधकार और सूर्यका संयोग नहीं हो सकता, ऐसे ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका भी संयोग नहीं हो सकता, तथापि परमात्माका अंश होनेके कारण क्षेत्रज्ञ (जीव)-में यह शक्ति है कि वह विजातीय वस्तुको भी पकड़ सकता है, उसके साथ अपना सम्बन्ध मान सकता है। उसे यह स्वतन्त्रता परमात्माके द्वारा प्रदत्त है। इस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके ही क्षेत्रज्ञने संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया और जन्म-मरणके चक्रमें पड़ गया (गीता १३।२१)।
(श्लोक-२७)
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥
जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमेश्वरको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है।
व्याख्या—जैसे—आकाशमें कभी सूर्यका प्रकाश फैल जाता है, कभी रातका अँधेरा छा जाता है, कभी धुआँ छा जाता है, कभी बादल छा जाते हैं, कभी बिजली चमकती है, कभी वर्षा होती है, कभी ओले गिरते हैं, कभी गर्जना होती है; परन्तु आकाशमें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह ज्यों-का-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहता है। इसी प्रकार सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मसत्तामें कभी महासर्ग और महाप्रलय होता है, कभी सर्ग और प्रलय होता है, कभी जन्म और मृत्यु होती है, कभी अकाल पड़ता है, कभी बाढ़ आती है, कभी भूकम्प आता है, कभी घमासान युद्ध होता है; परन्तु सत्ता ज्यों-की-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहती है। बद्ध हो या मुक्त, पापी हो या धर्मात्मा, यह निर्विकार सत्ता दोनोंमें समानरूपमें स्थित रहती है।
प्रतिक्षण विनाशकी तरफ जानेवाले प्राणियोंमें विनाशरहित, सदा एकरूप रहनेवाले परमात्माको जो निर्लिप्त-निर्विकार देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है। तात्पर्य है कि जो परिवर्तनशील, नाशवान् शरीरके साथ स्वयंको देखता है, उसका देखना सही नहीं है। परन्तु जो सदा ज्यों-के-त्यों निर्लिप्त-निर्विकार रहनेवाले परमात्मतत्त्वके साथ स्वयंको अभिन्नरूपसे देखता है, उसका देखना ही सही है।
(श्लोक-२८)
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्॥
क्योंकि सब जगह समरूपसे स्थित ईश्वरको समरूपसे देखनेवाला मनुष्य अपने-आपसे अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परम गतिको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—जो मनुष्य स्थावर-जंगम, चर-अचर आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे परिपूर्ण परमात्मतत्त्वके साथ अपनी अभिन्नताका अनुभव करता है, वह अपने द्वारा अपनी हत्या नहीं करता। शरीरके जन्म, मृत्यु, रोग आदि विकारोंको अपने विकार मानना ही अपने द्वारा अपनी हत्या करना अर्थात् अपनेको जन्म-मृत्युके चक्करमें डालना है।
वास्तवमें सत्ताईसवें-अट्ठाईसवें श्लोकोंमें आत्माका ही वर्णन है, परन्तु ‘परमेश्वर’ तथा ‘ईश्वर’ नाम आनेसे इन श्लोकोंकी व्याख्यामें परमात्माका वर्णन किया गया है; क्योंकि आत्माका परमात्मासे साधर्म्य है (गीता १३।२२)।
(श्लोक-२९)
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति॥
जो सम्पूर्ण क्रियाओंको सब प्रकारसे प्रकृतिके द्वारा ही की जाती हुई देखता है और अपने-आपको अकर्ता देखता (अनुभव करता) है, वही यथार्थ देखता है।
व्याख्या—जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, वे सब-की-सब प्रकृति-विभागमें ही होती हैं। प्रकृतिके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको ही गीतामें कहीं गुणोंसे होनेवाली और कहीं इन्द्रियोंसे होनेवाली क्रियाएँ कहा गया है; जैसे—सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं—‘प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:’ (३। २७); गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं—‘गुणा गुणेषु वर्तन्ते’ (३।२८); गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं—‘नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति’ (१४।१९); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयमें बरत रही हैं—‘इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्ते’ (५।९) आदि।
तात्पर्य है कि क्रियामात्र प्रकृतिजन्य ही है। अत: प्र्रकृति कभी किंचिन्मात्र भी अक्रिय नहीं होती और पुरुषमें कभी किंचिन्मात्र भी क्रिया नहीं होती। इसलिये गीतामें आया है कि तत्त्वको जाननेवाला सांख्ययोगी ‘मैं (स्वयं) लेशमात्र भी कुछ नहीं करता हूँ’ ऐसा अनुभव करता है—‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (५।८) स्वयं न करता है, न करवाता है—‘नैव कुर्वन्न कारयन्’ (५। १३); यह पुरुष शरीरमें रहता हुआ भी न करता है, न लिप्त होता है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (१३।३१); जो आत्माको कर्ता मानता है, वह दुर्मति ठीक नहीं समझता; क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है—‘तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं......’ (१८।१६) आदि।
(श्लोक-३०)
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
जिस कालमें साधक प्राणियोंके अलग-अलग भावोंको एक प्रकृतिमें ही स्थित देखता है और उस प्रकृतिसे ही उन सबका विस्तार देखता है, उस कालमें वह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या—सृष्टिके सम्पूर्ण प्राणियोंके स्थूल-सूक्ष्म तथा कारणशरीर एक प्रकृतिसे ही उत्पन्न होते हैं, प्रकृतिमें ही स्थित रहते हैं और प्रकृतिमें ही लीन होते हैं—इस प्रकार देखनेवाला ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है अर्थात् प्रकृतिसे अतीत स्वत:सिद्ध अपने स्वरूप परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है।
(श्लोक-३१)
अनादित्वान्निर्गुणत्वात् परमात्मायमव्यय:।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते॥
हे कुन्तीनन्दन! यह (पुरुष स्वयं) अनादि होनेसे और गुणोंसे रहित होनेसे अविनाशी परमात्म-स्वरूप ही है। यह शरीरमें रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।
व्याख्या—जैसे मकानमें रहते हुए भी हम मकानसे अलग हैं, ऐसे ही शरीरमें रहते हुए माननेपर भी हम स्वयं शरीरसे अलग हैं। स्वयं अनादि है, पर शरीर आदिवाला है। स्वयं निर्गुण है, पर शरीर गुणमय है। स्वयं परमात्मा है, पर शरीर अनात्मा है। स्वयं अव्यय है, पर शरीर नाशवान् है। इसलिये अज्ञानी मनुष्यके द्वारा स्वयंको शरीरमें स्थित माननेपर भी वास्तवमें वह शरीरमें स्थित नहीं है अर्थात् शरीरसे सर्वथा असम्बद्ध है—‘न करोति न लिप्यते’। कारण कि शरीरका सम्बन्ध तो संसारके साथ है, पर स्वयंका सम्बन्ध परमात्माके साथ है। अत: वास्तवमें स्वयं कभी शरीरस्थ हो सकता ही नहीं; परन्तु इस वास्तविकताकी तरफ ध्यान न देनेके कारण मनुष्य स्वयंको शरीरस्थ मान लेता है।
‘न करोति न लिप्यते’—यह साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वत: स्वाभाविक है। तात्पर्य है कि स्वयंमें लेशमात्र भी कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है—यह स्वत:सिद्ध बात है। इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं है अर्थात् इसके लिये कुछ करना नहीं है। अत: कर्तृत्व-भोक्तृत्वको मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है, इनके अभावका अनुभव करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं! इसलिये साधकको अपनेमें निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्वका अनुभव करना चाहिये। अपनेमें निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्वका अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है।
(श्लोक-३२)
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥
जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देहमें लिप्त नहीं होता।
व्याख्या—चिन्मय सत्ता एक ही है, पर अहंताके कारण वह अलग-अलग दीखती है। अपरा प्रकृतिके अंश ‘अहम्’ को पकड़नेके कारण यह जीव ‘अंश’ कहलाता है (गीता १५।७)। अगर यह अहम् को न पकड़े तो एक सत्ता-ही-सत्ता है। सत्ताके सिवाय सब कल्पना है। वह चिन्मय सत्ता सब कल्पनाओंका आधार, अधिष्ठान, प्रकाशक और आश्रय है। उस सत्तामें एकदेशीयपना नहीं है। वह चिन्मय सत्ता सर्वव्यापक है। सम्पूर्ण सृष्टि (क्रियाएँ और पदार्थ) उस सत्ताके अन्तर्गत है। सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, पर सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। तात्पर्य है कि चिन्मय सत्ता न शरीरस्थ है और न प्रकृतिस्थ है, प्रत्युत आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित (सर्वगत) है—‘नित्य: सर्वगत:’ (गीता २।२४)। वह सम्पूर्ण शरीरोंके बाहर-भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है।
सत्तामें एकदेशीयता अहम् के कारण दीखती है। वह अहम् सुखलोलुपतापर टिका हुआ है। साधन करते हुए भी साधक जहाँ है, वहीं सुख भोगने लग जाता है—‘सुखसङ्गेन बध्नाति’ (गीता १४।६)। यह सुखलोलुपता गुणातीत होनेतक रहती है। अत: इसमें साधकको बहुत सावधान रहना चाहिये और सावधानीपूर्वक सुखलोलुपतासे बचना चाहिये।
(श्लोक-३३)
यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसारको प्रकाशित करता है, ऐसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है।
व्याख्या—जैसे, सूर्यके प्रकाशमें सम्पूर्ण शुभ-अशुभ क्रियाएँ होती हैं। सूर्यके प्रकाशमें कोई वेदका पाठ करता है, कोई शिकार करता है। परन्तु सूर्यको उन क्रियाओंका न पुण्य लगता है, न पाप। कारण कि सूर्य उन क्रियाओंका न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता ही बनता है। इसी प्रकार आत्मा (सर्वव्यापी सत्ता) सम्पूर्ण शरीरोंको सत्ता-स्फूर्ति तो देता है, पर वास्तवमें वह न तो कुछ करता है और न लिप्त ही होता है (गीता १८।१७), तात्पर्य है कि स्वयंमें प्रकाशकत्वका अभिमान नहीं है।
करनेकी जिम्मेवारी उसीपर होती है, जो कुछ कर सकता है। जैसे, कितना ही चतुर चित्रकार हो, बिना सामग्री (रंग, ब्रश आदि)-के वह चित्र नहीं बना सकता, ऐसे ही पुरुष (चेतन) प्रकृति (जड़ शरीरादि)-की सहायताके बिना कुछ नहीं कर सकता। इसलिये कुछ-न-कुछ करनेमें ही शरीरका उपयोग है। यदि हम कुछ भी न करना चाहें तो शरीरका क्या उपयोग है? कुछ भी उपयोग नहीं है। यदि हम कुछ भी देखना न चाहें तो आँख हमारे क्या काम आयी? कुछ भी सुनना न चाहें तो कान हमारे क्या काम आया? स्थूल क्रिया करनेमें स्थूलशरीर काम आता है। चिन्तन, मनन, ध्यान आदि करनेमें सूक्ष्मशरीर काम आता है। स्थिरता, समाधिमें कारणशरीर काम आता है। शरीर और उसके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ संसारके ही काम आती हैं। हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है; अत: उसके लिये तीनों शरीर और उसकी क्रियाएँ कुछ काम नहीं आतीं। चिन्मय सत्तामात्रमें कोई कमी नहीं आती; क्योंकि सत्ता एक ही हो सकती है, दो हो सकती ही नहीं। अत: हमें किसी साथीकी जरूरत नहीं है। इस प्रकार न तो क्रियाके साथ सम्बन्ध (कर्तृत्व) हो, न अप्राप्त वस्तुके साथ सम्बन्ध (कामना) हो और न प्राप्त वस्तुके साथ सम्बन्ध (ममता) हो तो प्रकृतिके साथ तादात्म्य नहीं रहेगा। प्रकृतिसे तादात्म्य न रहनेपर प्रकृतिमें क्रिया तो रहती है, पर कोई कर्ता और भोक्ता नहीं रहता।
(श्लोक-३४)
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥
इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रोंसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको तथा कार्य-कारणसहित प्रकृतिसे स्वयंको अलग जानते हैं, वे परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या—क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागका ज्ञान ‘विवेक’ कहलाता है। जो साधक इस विवेकको महत्त्व देकर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके विभागको ठीक-ठीक जान लेते हैं तथा प्रकृति और उसके कार्य (शरीर)-को स्वयंसे सर्वथा अलग अनुभव कर लेते हैं, वे चिन्मय परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं। उनकी दृष्टिमें एक चिन्मय तत्त्वके सिवाय कुछ नहीं रहता।
सम्पूर्ण क्रियाएँ क्षेत्र अर्थात् जड़-विभागमें ही होती हैं। क्षेत्रज्ञ अर्थात् चेतन-विभागमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई क्रिया नहीं होती। स्थूलशरीर तथा उससे होनेवाली क्रियाएँ, सूक्ष्मशरीर तथा उससे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीर तथा उससे होनेवाली स्थिरता व समाधि—ये सभी जड़-विभागमें ही हैं। कामना, ममता, अहंता आदि सम्पूर्ण विकार जड़-विभागमें ही हैं। सम्पूर्ण पाप, ताप भी जड़-विभागमें ही हैं। पराश्रय तथा परिश्रम—ये दोनों जड़-विभागमें हैं। भगवदाश्रय और विश्राम—ये दोनों चेतन-विभागमें हैं। जड़ और चेतनके विभागको अलग-अलग जानना ही ‘ज्ञान’ है। इस ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं (गीता ४।३६-३७)।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोगो नाम त्रयोदशोऽध्याय:॥ १३॥