ॐ श्रीपरमात्मने नम:
अथ नवमोऽध्याय:
नवाँ अध्याय
(श्लोक-१)
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
श्रीभगवान् बोले—यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान दोषदृष्टिरहित तेरे लिये तो मैं फिर अच्छी तरहसे कहूँगा, जिसको जानकर तू अशुभसे अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जायगा।
व्याख्या—कर्मयोग (निष्कामभाव) ‘गुह्य’ है, ज्ञानयोग (आत्म-ज्ञान) ‘गुह्यतर’ है और भक्तियोग (परमात्मज्ञान) ‘गुह्यतम’ है।
अपने स्वरूपको जानना ‘ज्ञान’ है और समग्र भगवान् को जानना ‘विज्ञान’ है। समग्र सगुण ही हो सकता है; क्योंकि निर्गुणके अन्तर्गत तो सगुण नहीं आ सकता, पर सगुणके अन्तर्गत निर्गुण भी आ जाता है।
सातवें अध्यायसे भगवान् विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन कर रहे थे, पर बीचमें अर्जुनके द्वारा सात प्रश्न कर दिये जानेसे भगवान् ने आठवें अध्यायमें उनका विस्तारसे उत्तर दिया। अब भगवान् अपनी ओरसे पुन: उस विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन आरम्भ करते हैं।
(श्लोक-२)
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
यह (विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् समग्ररूप) सम्पूर्ण विद्याओंका राजा और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अति श्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
व्याख्या—यह विज्ञानसहित ज्ञान करनेमें बहुत सुगम है; क्योंकि ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’—इसे स्वीकारमात्र करना है। इसमें कोई परिश्रम अथवा अभ्यास नहीं है।
(श्लोक-३)
अश्रद्दधाना: पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥
हे परन्तप! इस धर्मकी महिमापर श्रद्धा न रखने-वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसारके मार्गमें लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
व्याख्या—पूर्वश्लोकमें कथित विज्ञानसहित ज्ञानकी महिमापर श्रद्धा न रखनेवाले मनुष्य इससे लाभ नहीं उठाते, प्रत्युत नाशवान् शरीर-संसारको महत्त्व देकर बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं। ऐसे अश्रद्धालु मनुष्य स्वत:प्राप्त अमरताका मार्ग छोड़कर मृत्युके मार्गपर चलते रहते हैं, जिसमें केवल मृत्यु-ही-मृत्यु है। मनुष्यशरीरमें भगवत्प्राप्तिका बहुत श्रेष्ठ अवसर था, पर वे उस मार्गको पकड़ लेते हैं, जिस मार्गसे कभी भगवत्प्राप्ति न हो सके। उनकी ऐसी दशाको देखकर भगवान् मानो दु:खके साथ कहते हैं—‘अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि’।
(श्लोक-४)
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥
(श्लोक-५)
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥
यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझमें स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मुझमें स्थित नहीं हैं—मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य)-को देख। सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और प्राणियोंका धारण, भरण-पोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।
व्याख्या—बर्फमें जलकी तरह संसारमें सत्ता (‘है’)-रूपसे एक सम, शान्त, सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है। उस अविभक्त सत्तामें मैं, तू, यह तथा वह—ये चार विभाग नहीं हैं।
जबतक साधकमें यह भाव है कि परमात्मा और संसार दो हैं, तबतक उसको यह समझना चाहिये कि परमात्मामें संसार है, संसारमें परमात्मा हैं। परन्तु जब दोका भाव न हो, तब न परमात्मामें संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं। संसारको स्वतन्त्र सत्ता जीवने ही दी है। जबतक अहंता, ममता और कामना है, तबतक (साधककी दृष्टिमें) परमात्मामें संसार है और संसारमें परमात्मा हैं। परन्तु अहंता, ममता और कामना मिटनेपर (सिद्धकी दृष्टिमें) न परमात्मामें संसार है, न संसारमें परमात्मा हैं अर्थात् परमात्मा-ही-परमात्मा हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’।
(श्लोक-६)
यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥
जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं—ऐसा तुम मान लो।
व्याख्या—जैसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है, आकाशमें ही स्थित रहती है तथा आकाशमें ही लीन हो जाती है अर्थात् आकाशको छोड़कर वायुकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी भगवान् से ही उत्पन्न होते हैं, भगवान् में ही स्थित रहते हैं तथा भगवान् में ही लीन हो जाते हैं अर्थात् भगवान् को छोड़कर प्राणियोंकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं—इस बातको साधक दृढ़तासे स्वीकार कर ले तो उसे ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा।
(श्लोक-७)
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥
हे कुन्तीनन्दन! कल्पोंका क्षय होनेपर (महाप्रलयके समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें (महासर्गके समय)मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
व्याख्या—पूर्वोक्त श्लोकमें वर्णित स्थिति न होनेपर मनुष्यकी क्या दशा होती है—इसे भगवान् इस श्लोकमें बताते हैं। महाप्रलयके समय प्रकृतिके परवश हुए सम्पूर्ण प्राणी अपने-अपने कर्मोंको लेकर भगवान् की प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं। प्रकृतिमें लीन हुए उन प्राणियोंके कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं, तब भगवान् में ‘बहु स्यां प्रजायेय’ ‘मैं अनेक रूपोंमें प्रकट हो जाऊँ’ (छान्दोग्य० ६।२।३)—ऐसा संकल्प हो जाता है और महासर्गका आरम्भ हो जाता है। महासर्गके आदिमें भगवान् उन प्राणियोंके परिपक्व कर्मोंका फल देकर उन्हें शुद्ध करनेके लिये उनके शरीरोंकी रचना करते हैं।
(श्लोक-८)
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन:।
भूतग्राममिमं कृत्स्न-मवशं प्रकृतेर्वशात्॥
प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणिसमुदायकी (कल्पोंके आदिमें) मैं अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचना करता हूँ।
व्याख्या—प्रकृति परमात्माकी एक अनिर्वचनीय अलौकिक विलक्षण शक्ति है। ऐसी अपनी प्रकृतिको स्वीकार करके ही भगवान् सृष्टिकी रचना करते हैं। कारण कि सृष्टिमें जो परिवर्तन,उत्पत्ति-विनाश, आदि-अन्त होता है, वह सब प्रकृतिमें ही होता है, भगवान् में नहीं। इसलिये भगवान् क्रियाशील प्रकृतिको लेकर ही सृष्टिकी रचना करते हैं। इसमें भगवान् की कोई असमर्थता, पराधीनता, कमजोरी आदि नहीं है। भगवान् का प्रकृतिपर आधिपत्य होनेपर भी उनमें लिप्तता, कर्तृत्व आदि नहीं होते।
भगवान् उन्हीं प्राणियोंकी रचना करते हैं, जो प्रकृतिके परवश हैं अर्थात् जिन्होंने प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ रखा है।
(श्लोक-९)
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥
हे धनंजय! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।
व्याख्या—कर्मासक्ति, फलासक्ति और कर्तृत्वाभिमानके कारण मनुष्य कर्मोंसे बँध जाता है। परन्तु भगवान् में न तो कर्मासक्ति है, न फलासक्ति है और न कर्तृत्वाभिमान ही है, इसलिये वे सृष्टि-रचना आदि कर्मोंसे नहीं बँधते।
(श्लोक-१०)
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥
प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् की रचना करती है। हे कुन्तीनन्दन! इसी हेतुसे जगत् का (विविध प्रकारसे) परिवर्तन होता है।
व्याख्या—भगवान् से सत्ता-स्फूर्ति पाकर ही प्रकृति चराचरसहित सम्पूर्ण प्राणियोंकी रचना करती है। तात्पर्य है कि सब क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं, भगवान् में नहीं। प्रकृतिमें कितना ही परिवर्तन हो जाय, परमात्मा वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। इसी प्रकार भगवान् का अंश जीव भी सदा निर्लिप्त, असंग रहता है। प्रकृति तो परमात्माके अधीन रहकर सृष्टिकी रचना करती है, पर जीव प्रकृतिके अधीन होकर जन्म-मरणके चक्रमें घूमता है। तात्पर्य है कि परमात्मा तो स्वतन्त्र हैं, पर उनका अंश जीवात्मा सुखकी इच्छासे परतन्त्र हो जाता है।
(श्लोक-११)
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप श्रेष्ठभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
व्याख्या—भगवान् से बड़ा कोई ईश्वर नहीं है। वे सर्वोपरि हैं। परन्तु अज्ञानी मनुष्य उन्हें स्वरूपसे नहीं जानते। वे अलौकिक भगवान् को भी अपनी तरह लौकिक मानकर उनकी अवहेलना करते हैं और नाशवान् शरीर-संसारकी ही सत्ता मानकर भोग तथा संग्रहमें लगे रहते हैं।
(श्लोक-१२)
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥
जो आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका ही आश्रय लेते हैं, ऐसे अविवेकी मनुष्योंकी सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभकर्म व्यर्थ होते हैं और सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् उनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देनेवाले नहीं होते।
व्याख्या—जो मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें लगे रहते हैं, दूसरोंके दु:खकी परवाह नहीं करते, वे ‘आसुरी’ स्वभाववाले होते हैं। जो स्वार्थसिद्धिमें बाधा लगनेपर क्रोधवश दूसरोंका नाश कर देते हैं, वे ‘राक्षसी’ स्वभाववाले होते हैं। जो बिना किसी कारणके दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं, वे ‘मोहिनी’ स्वभाववाले होते हैं। आसुरी, राक्षसी और मोहिनी—तीनों ही स्वभाववाले मनुष्य आसुरी सम्पत्तिके अन्तर्गत आ जाते हैं, जो चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंकी प्राप्ति करानेवाली है।
(श्लोक-१३)
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
परन्तु हे पृथानन्दन! दैवी प्रकृतिके आश्रित अनन्यमनवाले महात्मालोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।
व्याख्या—जो जिसके महत्त्वको जितना अधिक जानता है, वह उतना ही उसमें लग जाता है। जिन्होंने भगवान् को ही सर्वोपरि मान लिया है, वे दैवी स्वभाववाले महात्मा पुरुष भगवान् में ही लग जाते हैं। भोग तथा संग्रहकी तरफ उनकी वृत्ति कभी जाती ही नहीं।
(श्लोक-१४)
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥
नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधनमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुए निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
व्याख्या—भक्त जो कुछ कहता है, वह सब भगवान् का ही कीर्तन होता है। वह जो कुछ क्रिया करता है, वह सब भगवान् की ही सेवा होती है। उसकी सम्पूर्ण लौकिक और पारमार्थिक क्रियाएँ केवल भगवान् की प्रसन्नताके लिये ही होती हैं।
(श्लोक-१५)
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥
दूसरे साधक ज्ञानयज्ञके द्वारा एकीभावसे (अभेदभावसे) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपनेको) पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट्रूपकी अर्थात् संसारको मेरा विराट्रूप मानकर सेव्य-सेवक भावसे मेरी अनेक प्रकारसे उपासना करते हैं।
व्याख्या—साधकोंकी रुचि, योग्यता और श्रद्धा-विश्वास अलग-अलग होनेके कारण उनके साधन भी अलग-अलग होते हैं। अलग-अलग साधनोंसे वे जिसकी भी उपासना करते हैं, वह भगवान् के समग्ररूपकी ही उपासना होती है। आगे सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक इसी समग्ररूपका वर्णन हुआ है।
(श्लोक-१६)
अहं क्रतुरहं यज्ञ: स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥
(श्लोक-१७)
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च॥
(श्लोक-१८)
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य पवित्र ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत् का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
व्याख्या—उपर्युक्त श्लोकोंको देखते हुए साधक यह बात दृढ़तासे स्वीकार कर ले कि कार्य-कारणरूपसे स्थूल-सूक्ष्मरूप जो कुछ देखने, सुनने, समझने और माननेमें आता है, वह सब केवल भगवान् ही हैं।
(श्लोक-१९)
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन॥
हे अर्जुन! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
व्याख्या—जो देखने, सुनने, पढ़ने तथा कल्पना करनेमें आता है और जिन शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि-अहम् के द्वारा देखा, सुना, पढ़ा, सोचा जाता है, वह सब-का-सब असत् (अपरा प्रकृति) है। परन्तु जो देखता, सुनता, पढ़ता, सोचता, जानता, मानता है, वह सत् (परा प्रकृति) है। भगवान् कहते हैं कि सत् भी मैं हूँ और असत् भी मैं हूँ।
जैसे अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ले, गुलाबजामुन आदि भी होते हैं और मेथी, करेले आदिका साग भी होता है अर्थात् मीठा भी भगवान् का प्रसाद होता है और कड़वा भी। ऐसे ही अमृत भी भगवान् हैं और मृत्यु भी। सूर्यरूपसे जलको ग्रहण करना और फिर उसे बरसा देना—ये दोनों विपरीत कार्य (ग्रहण और त्याग) भी भगवान् ही करते हैं।
‘सदसच्चाहम्’ (सत् और असत् भी मैं ही हूँ)—इसमें विवेक नहीं है, प्रत्युत विश्वास है। विश्वास विवेकसे भी तेज होता है कारण कि विवेक वहीं काम करता है, जहाँ सत् और असत्—दोनोंका विचार होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर विवेक क्या करे? विवेकमें तो सत्-असत् का विभाग है, पर विश्वासमें विभाग है ही नहीं। विश्वासमें केवल सत्-ही-सत् अर्थात् भगवान्-ही-भगवान् हैं।
ज्ञानमार्गमें सत्-असत् का विवेक मुख्य होनेसे इसमें ‘द्वैत’ है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान् का ही विश्वास मुख्य होनेसे इसमें ‘अद्वैत’ है। तात्पर्य है कि दो सत्ता न होनेसे वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है।
ज्ञानमार्गमें साधक असत् का निषेध करता है। निषेध करनेसे असत् की सत्ताका भाव बहुत समयतक बना रह सकता है। साधक असत् के निषेधपर जितना जोर लगाता है, उतना ही असत् की सत्ताका भाव दृढ़ होता है। अत: असत् का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितना उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है। उपेक्षा करनेकी अपेक्षा भी ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’—यह भाव और भी बढ़िया है। अत: भक्त न असत् को हटाता है, न असत् की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्-असत् सबमें भगवान् को ही देखता है।
अपनेसहित इस संसारमें जो कुछ दीखता है, वह भगवान् का स्वरूप है और इसमें जो क्रिया दीख रही है, वह भगवान् की लीला है। भगवान् और उनकी लीलाके सिवाय कुछ नहीं है। कोई जन्म गया, कोई मर गया, किसीका विवाह हो गया, किसीकी सन्तान हो गयी, कोई बीमार हो गया, कोई नीरोग हो गया, किसीका आदर हो गया, किसीका निरादर हो गया, किसीको नफा हो गया, किसीको घाटा लग गया, कोई धनवान् हो गया, कोई निर्धन हो गया—यह सब-की-सब भगवान् की लीला है। सर्ग-प्रलय भी उनकी लीला है और महासर्ग-महाप्रलय भी उनकी लीला है। वे कभी सत्ययुगकी लीला करते हैं, कभी त्रेतायुगकी लीला करते हैं, कभी द्वापरयुगकी लीला करते हैं और कभी कलियुगकी लीला करते हैं। इस प्रकार भगवान् और उनकी लीलाको देख-देखकर साधकको सदा आनन्दित रहना चाहिये।
(श्लोक-२०)
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥
तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
व्याख्या—यहाँ ऐसे मनुष्योंका वर्णन है, जिनके भीतर संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई है और जो भगवान् की अविधिपूर्वक उपासना करते हैं (गीता ९।२३)। ऐसे मनुष्योंकी उपासनाका फल नाशवान् ही होता है (गीता ७।२३)।
(श्लोक-२१)
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—सकाम अनुष्ठान करनेवाले मनुष्यके जब स्वर्गके प्रतिबन्धक पाप नष्ट हो जाते हैं, तब वे स्वर्गमें चले जाते हैं। स्वर्गका सुख भोगते-भोगते जब उनके स्वर्गके प्रापक पुण्य नष्ट हो जाते हैं, तब वे पुन: मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार कामनाके कारण मनुष्य आवागमनको प्राप्त होता रहता है, संसार-चक्रमें घूमता रहता है।
(श्लोक-२२)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
व्याख्या—भगवान् के अनन्यभक्त न तो पूर्वश्लोकमें वर्णित इन्द्रको मानते हैं और न अगले श्लोकमें वर्णित अन्य देवताओंको मानते हैं। इन्द्रादिकी उपासना करनेवालोंको तो नाशवान् फल मिलता है, पर भगवान् की उपासना करनेवालोंको अविनाशी फल मिलता है। देवताओंका उपासक तो नौकरकी तरह है और भगवान् का उपासक घरके सदस्यकी तरह है। नौकर काम करता है तो उसे कामके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करे अथवा न करे, सब कुछ उसीका होता है। बालक क्या काम करता है?
भगवान् भक्तको उसके लिये आवश्यक साधन-सामग्री प्राप्त कराते हैं और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करते हैं—यही भगवान् का योगक्षेम वहन करना है। यद्यपि भगवान् सभी साधकोंका योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अपने अनन्यभक्तोंका योगक्षेम वे विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे—प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती।
(श्लोक-२३)
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्॥
हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं।
व्याख्या—‘त्रैविद्या माम्’ (९। २०), ‘अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्’ (९।२२) और ‘तेऽपि मामेव’ (९।२३)—तीनों जगह भगवान् के द्वारा ‘माम्’ पद देनेका तात्पर्य है कि सब कुछ मैं ही हूँ, सब मेरा ही स्वरूप है। यदि साधकमें कामना न हो और सबमें भगवद्बुद्धि हो तो वह किसीकी भी उपासना करे, वह वास्तवमें भगवान् की ही उपासना होगी। तात्पर्य है कि यदि निष्कामभाव और भगवद्बुद्धि हो जाय तो उसका पूजन अविधिपूर्वक नहीं रहेगा, प्रत्युत वह भगवान् का ही पूजन हो जायगा।
(श्लोक-२४)
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते॥
क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
व्याख्या—जब मनुष्य अपनेको भोगोंका भोक्ता और संग्रहका स्वामी मानकर उनका दास बन जाता है और भगवान् से सर्वथा विमुख हो जाता है, तब उसे यह बात याद ही नहीं रहती कि सबके भोक्ता और स्वामी भगवान् हैं। इस कारण उसका पतन हो जाता है। परन्तु जब उसे चेत हो जाता है कि वास्तवमें सम्पूर्ण भोगों और संग्रहोंके स्वामी भगवान् ही हैं, तब वह भगवान् के शरणागत हो जाता है। फिर उसका पतन नहीं होता।
(श्लोक-२५)
यान्ति देवव्रता देवान् पितॄन्यान्ति पितृव्रता:।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्॥
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोड़नेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—वास्तवमें सब कुछ भगवान् का ही रूप है। परन्तु जो भगवान् के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता। वह ऊँचे-से-ऊँचे लोकोंमें भी चला जाय तो भी उसे लौटकर संसारमें आना ही पड़ता है।
(श्लोक-२६)
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।
व्याख्या—देवताओंकी उपासनामें तो अनेक नियमोंका पालन करना पड़ता है; परन्तु भगवान् की उपासनामें कोई नियम नहीं है। भगवान् की उपासनामें प्रेमकी, अपनेपनकी प्रधानता है, विधिकी नहीं। भगवान् भावग्राही हैं, क्रियाग्राही नहीं।
जैसे भोला बालक जो कुछ हाथमें आये, उसको मुँहमें डाल लेता है, ऐसे ही भोले भक्त भगवान् को जो भी अर्पण करते हैं, उसे भगवान् भी भोले बनकर खा लेते हैं। ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४। ११); जैसे—विदुरानीने केलेका छिलका दिया तो भगवान् ने उसे ही खा लिया!
(श्लोक-२७)
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
व्याख्या—ज्ञानयोगी तो संसारके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करता है, पर भक्त एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता मानता ही नहीं। इसलिये ज्ञानयोगी पदार्थ तथा क्रियाका त्याग करता है, और भक्त पदार्थ तथा क्रियाको भगवान् के अर्पण करता है अर्थात् उनको अपना न मानकर भगवान् का और भगवत्स्वरूप मानता है। वास्तवमें भक्त अपने-आपको ही भगवान् के समर्पित कर देता है। स्वयं समर्पित होनेसे उसके द्वारा होनेवाली सम्पूर्ण लौकिक-पारमार्थिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक भगवान् के समर्पित हो जाती हैं।
पूर्वपक्ष—यदि कोई निषिद्ध क्रिया करके उसे भगवान् के अर्पित कर दे तो?
उत्तरपक्ष—वही वस्तु या क्रिया भगवान् के अर्पित की जाती है, जो भगवान् के अनुकूल, उनके आज्ञानुसार होती है। जिस भक्तका भगवान् के प्रति अर्पण करनेका भाव है, उसके द्वारा न तो निषिद्ध क्रिया होगी और न निषिद्ध क्रिया अर्पित ही होगी। भगवान् को दिया हुआ अनन्त गुणा होकर मिलता है। यदि कोई निषिद्ध क्रिया भगवान् के अर्पित करेगा तो उसका फल भी दण्डरूपसे अनन्त गुणा होकर मिलेगा!
(श्लोक-२८)
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
व्याख्या—‘कर्म’ भी शुभ-अशुभ होते हैं और ‘फल’ भी। दूसरोंके हितके लिये करना ‘शुभ-कर्म’ है और अपने लिये करना ‘अशुभ-कर्म’ है। अनुकूल परिस्थिति ‘शुभ फल’ है और प्रतिकूल परिस्थिति ‘अशुभ फल’ है। भगवान् का भक्त शुभकर्मोंको भगवान् के अर्पण करता है, अशुभकर्म करता नहीं और शुभ-अशुभ फलसे अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दु:खी नहीं होता। उसके अनन्त जन्मोंके संचित शुभाशुभ कर्म भस्म हो जाते हैं; जैसे—घासके ढेरमें जलता हुआ घासका टुकड़ा फेंकनेसे सब घास जल जाता है। भगवान् के अर्पण करनेसे संसारका सम्बन्ध (गुणसंग) नहीं रहता, प्रत्युत केवल भगवान् का सम्बन्ध रह जाता है, जो कि स्वत: पहलेसे ही है।
(श्लोक-२९)
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।
व्याख्या—मनुष्य भगवान् को अपनी वस्तुएँ तथा क्रियाएँ अर्पण करे अथवा न करे, भगवान् में कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे तो सदा समान ही रहते हैं। किसी वर्णविशेष, आश्रमविशेष, जातिविशेष, कर्मविशेष, सम्प्रदायविशेष, योग्यताविशेष आदिका भी भगवान् पर कोई असर नहीं पड़ता। अत: प्रत्येक वर्ण, आश्रम, जाति, सम्प्रदाय आदिका मनुष्य उन्हें प्राप्त कर सकता है। भगवान् केवल आन्तरिक भावको ही ग्रहण करते हैं।
भगवान् की दृष्टिमें उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, फिर वे किससे द्वेष करें और किसमें राग करें? जीव ही राग-द्वेष करके संसारमें बँध जाता है और राग-द्वेषका त्याग करके मुक्त हो जाता है। इसलिये बन्धन और मुक्ति जीवकी ही होती है, भगवान् की नहीं। विषमता जीव करता है, भगवान् नहीं।
जो प्रेमपूर्वक भगवान् का भजन करते हैं, वे भगवान् में हैं और भगवान् उनमें हैं अर्थात् भगवान् उनमें विशेषरूपसे प्रकट हैं। तात्पर्य है कि जैसे पृथ्वीमें जल सब जगह रहता है, पर कुएँमें विशेष प्रकट (आवरणरहित) होता है, ऐसे ही भगवान् संसारमात्रमें परिपूर्ण होते हुए भी भक्तोंमें विशेष प्रकट होते हैं। भक्त भगवान् से प्रेम करते हैं और भगवान् भक्तसे प्रेम करते हैं (गीता ७। १७)। इसलिये भक्त भगवान् में हैं और भगवान् भक्तोंमें हैं।
(श्लोक-३०)
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
व्याख्या—ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धिकी प्रधानता रहती है, इसलिये उनमें पहले बुद्धिमें समता आती है—‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु’ (गीता २। ३९)। बुद्धि स्थिर होनेसे मनुष्य ‘स्थितप्रज्ञ’ कहलाता है (गीता २।५४—६८)। ज्ञानयोग और कर्मयोगमें बुद्धि व्यवसित (एक निश्चयवाली) होती है—‘बुद्ध्या विशुद्धया युक्त:’ (गीता १८।५१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह’ (२। ४१), ‘व्यवसायात्मिका बुद्धि:’ (२।४४)। बुद्धि व्यवसित होनेसे अहम् का सर्वथा नाश नहीं होता; क्योंकि अहम् बुद्धिसे परे है—‘भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं... (गीता ७। ४)। अत: मुक्त होनेपर भी अहम् की सूक्ष्म गंध रह जाती है, जो बन्धनकारक तो नहीं होती, पर दार्शनिक मतभेद पैदा करनेवाली होती है। परन्तु भक्तियोगमें स्वयं (भगवान् के अंश)-की प्रधानता रहती है, इसलिये भक्त स्वयं व्यवसित होता है—‘सम्यग्व्यवसितो हि स:’। स्वयं व्यवसित होनेसे अहम् सर्वथा नहीं रहता; क्योंकि स्वयं अहम् से परे है। मन-बुद्धिमें बैठी हुई बातकी विस्मृति हो सकती है, पर स्वयंमें बैठी हुई बातकी विस्मृति कभी नहीं हो सकती। स्वयंमें जो बात होती है, वह अखण्ड रहती है। इसलिये ‘मैं भगवान् का ही हूँ और भगवान् ही मेरे अपने हैं’—यह स्वीकृति स्वयंमें होती है, मन-बुद्धिमें नहीं। कारण यह है कि मूलमें भगवान् का ही अंश होनेसे स्वयं भगवान् से अभिन्न है। भगवान् के सिवाय दूसरेके साथ अपना सम्बन्ध मानना ही भूल है, मोह है, बन्धन है।
जबतक मनुष्यको अपनेमें कुछ बल, योग्यता, विशेषता दीखती है, तबतक वह ‘अनन्यभाक्’ नहीं होता। अनन्यभाक् तभी होता है, जब एक भगवान् के सिवाय अन्य किसीका आश्रय नहीं रहता।
(श्लोक-३१)
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।
व्याख्या—जब मनुष्य सांसारिक दु:खोंसे घबरा जाता है और उन्हें मिटानेमें अपनी निर्बलताका अनुभव करता है, पर साथ-ही-साथ उसमें यह विश्वास रहता है कि सर्वसमर्थ भगवान् की कृपासे मेरी यह निर्बलता दूर हो सकती है और मैं सांसारिक दु:खोंसे छूट सकता हूँ, तब वह तत्काल भक्त हो जाता है।
भक्तका पतन नहीं होता; क्योंकि उसमें अपने बलका आश्रय नहीं होता, प्रत्युत भगवान् के ही बलका आश्रय होता है। वह साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है। इसलिये एक बार भक्त होनेके बाद फिर उसका पतन नहीं होता अर्थात् वह पुन: दुराचारी नहीं बनता।
भगवान् अर्जुनको प्रतिज्ञा करनेके लिये कहते हैं; क्योंकि भक्तकी प्रतिज्ञा भगवान् भी टाल नहीं सकते। भक्ति भगवान् की कमजोरी है।
(श्लोक-३२)
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्-तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
हे पृथानन्दन! जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र हों, वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर नि:सन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या—पूर्वजन्मके पापीकी अपेक्षा भी वर्तमान जन्मका पापी विशेष दोषी होता है। इसलिये पहले वर्तमान जन्मके पापी (सुदुराचारी)-की बात कहकर अब इस श्लोकमें ‘पापयोनय:’ पदसे पूर्वजन्मके पापीकी बात कहते हैं।
जिसमें दूसरेका आश्रय नहीं हो, ऐसे अनन्य आश्रयको यहाँ ‘व्यपाश्रय’ अर्थात् विशेष आश्रय कहा गया है।
(श्लोक-३३)
किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
जो पवित्र आचरण करनेवाले ब्राह्मण और ऋषि-स्वरूप क्षत्रिय भगवान् के भक्त हों, (वे परमगतिको प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है! इसलिये इस अनित्य और सुखरहित शरीरको प्राप्त करके तू मेरा भजन कर।
व्याख्या—तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक भगवान् ने भक्तिके तथा भगवत्प्राप्तिके सात अधिकारियोंके नाम लिये हैं—दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण और क्षत्रिय। इन सातोंसे बाहर कोई भी प्राणी नहीं है। तात्पर्य है कि मनुष्यका कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्मके तथा इस जन्मके कितने ही पाप हों, पर वे सब-के-सब भगवान् और उनकी भक्तिके अधिकारी हैं। कारण कि जीवमात्र भगवान् का ही अंश होनेसे भगवान् की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र है। भगवान् की ओरसे किसीके लिये भी मनाही नहीं है।
अनित्य और सुखरहित इस शरीरको पाकर अर्थात् हम जीते रहें और सुख भोगते रहें—ऐसी कामनाको छोड़कर भगवान् का भजन करना चाहिये। कारण कि संसारमें सुख है ही नहीं, केवल सुखका भ्रम है। ऐसे ही जीनेका भी भ्रम है। हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत प्रतिक्षण मर रहे हैं!
(श्लोक-३४)
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
तू मेरा भक्त हो जा, मुझमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आपको मेरे साथ लगाकर मेरे परायण हुआ तू मुझे ही प्राप्त होगा।
व्याख्या—इस श्लोकमें अहंता-परिवर्तनकी बात मुख्य है। भक्त ‘मैं केवल भगवान् का ही हूँ’—इस प्रकार अपनी अहंताको बदलता है और स्वयंका सम्बन्ध भगवान् से जोड़ता है। इसलिये उसे संसारके सम्बन्धका त्याग करना नहीं पड़ता, प्रत्युत वह स्वत: छूट जाता है। कारण कि वर्ण, आश्रम, जाति, योग्यता, अधिकार, कर्म, गुण आदि सब आगन्तुक हैं, पर स्वयंके साथ भगवान् का सम्बन्ध आगन्तुक नहीं है, प्रत्युत अनादि, नित्य और स्वत:सिद्ध है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय:॥ ९॥