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ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अथ सप्तदशोऽध्याय:

सत्रहवाँ अध्याय

(श्लोक-१)
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:॥

अर्जुन बोले—हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक (देवता आदिका) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी?

व्याख्या—दैवी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके भाव, आचरण और विचार ‘सात्त्विक’ होते हैं और आसुरी सम्पत्तिवाले मनुष्योंके भाव, आचरण और विचार ‘राजस-तामस’ होते हैं। भाव, आचरण और विचारके अनुसार ही मनुष्यकी निष्ठा (स्थिति) होती है।

(श्लोक-२)
श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥

श्रीभगवान् बोले—मनुष्योंकी वह स्वभावसे उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी—ऐसे तीन तरहकी ही होती है, उसको (तुम मुझसे) सुनो।

व्याख्या—यद्यपि अर्जुनने निष्ठाको जाननेके लिये प्रश्न किया था, तथापि भगवान् उसका उत्तर श्रद्धाको लेकर देते हैं; क्योंकि श्रद्धाके अनुसार ही निष्ठा होती है।
शास्त्रविधिको न जाननेपर भी प्रत्येक मनुष्यमें स्वभावसे उत्पन्न होनेवाली स्वत:सिद्ध श्रद्धा तो रहती है। इसलिये भगवान् उस श्रद्धाके भेद बताते हैं।

(श्लोक-३)
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स:॥

हे भारत! सभी मनुष्योंकी श्रद्धा अन्त:करणके अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा (स्थिति) है।

व्याख्या—अर्जुनने पूछा था कि जो मनुष्य शास्त्रविधिका त्याग करके श्रद्धापूर्वक यजन करते हैं, उनकी निष्ठा क्या होती है? तो भगवान् यहाँ उसका उत्तर देते हैं—‘यो यच्छ्रद्ध: स एव स:’ अर्थात् जो मनुष्य जैसी श्रद्धावाला है, वैसी ही उसकी निष्ठा होगी।

स्वरूप (परमात्माका अंश) तो सबका शुद्ध ही है, पर संग, शास्त्र, विचार, वायुमण्डल आदिको लेकर अन्त:करणमें किसी एक गुणकी प्रधानता हो जाती है अर्थात् जैसा संग, शास्त्र आदि मिलता है, वैसा ही मनुष्यका अन्त:करण बन जाता है और उस अन्त:करणके अनुसार ही उसकी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा बन जाती है। इसलिये मनुष्यको सदा-सर्वदा सात्त्विक संग, शास्त्र, विचार, वायुमण्डल आदिका ही सेवन करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे उसका अन्त:करण तथा उसके अनुसार उसकी श्रद्धा भी सात्त्विकी बन जायगी, जो उसका उद्धार करनेवाली होगी। इसके विपरीत मनुष्यको राजस-तामस संग, शास्त्र आदिका सेवन कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि इससे उसकी श्रद्धा भी राजसी-तामसी बन जायगी, जो उसका पतन करनेवाली होगी।

(श्लोक-४)
यजन्ते सात्त्विका देवा‍‍न् यक्षरक्षांसि राजसा:।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना:॥

सात्त्विक मनुष्य देवताओंका पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों तथा राक्षसोंका और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं।

(श्लोक-५)
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना:।
दम्भाहङ्कारसंयुक्ता: कामरागबलान्विता:॥
(श्लोक-६)
कर्शयन्त: शरीरस्थं भूतग्राममचेतस:।
मां चैवान्त:शरीरस्थं तान्विद्‍ध्‍यासुरनिश्चयान्॥

जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित घोर तप करते हैं; जो दम्भ और अहंकारसे अच्छी तरह युक्त हैं; जो भोग-पदार्थ, आसक्ति और हठसे युक्त हैं; जो शरीरमें स्थित पाँच भूतोंको अर्थात् पांचभौतिक शरीरको तथा अन्त:करणमें स्थित मुझ परमात्माको भी कृश करनेवाले हैं, उन अज्ञानियोंको तू आसुर निष्ठावाले (आसुरी सम्पत्तिवाले) समझ।

व्याख्या—भगवान् ने अबतक उन मनुष्योंकी बात बतायी, जो शास्त्रविधिको न जाननेके कारण उसका ‘अज्ञतापूर्वक’ त्याग करते हैं; परन्तु अपने इष्ट तथा उसके पूजनमें श्रद्धा रखते हैं। अब इन दो श्लोकोंमें भगवान् उन श्रद्धाविहीन मनुष्योंका वर्णन करते हैं, जो शास्त्रविधिका ‘विरोधपूर्वक’ त्याग करते हैं। यहाँ श्रद्धा, शास्त्रविधि, प्राणिसमुदाय और भगवान्—इन चारोंके साथ विरोध है। ऐसा विरोध दूसरी जगह आये राजस-तामस वर्णनमें नहीं है।

(श्लोक-७)
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय:।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥

आहार भी सबको तीन प्रकारका प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकारके होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मोंमें भी गुणोंको लेकर तीन प्रकारकी रुचि होती है। तू उनके इस भेदको सुन।

(श्लोक-८)
आयु:सत्त्वबलारोग्य‍‍‍सुखप्रीतिविवर्धना:।
रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रिया:॥

आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर रहनेवाले, हृदयको शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने—ऐसे आहार अर्थात् भोजनके पदार्थ सात्त्विक मनुष्यको प्रिय होते हैं।

(श्लोक-९)
कट्वम्ललवणात्युष्ण‍‍‍तीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा:॥

अति कड़वे, अति खट्टे, अति नमकीन, अति गरम, अति तीखे, अति रूखे और अति दाहकारक आहार अर्थात् भोजनके पदार्थ राजस मनुष्यको प्रिय होते हैं, जो कि दु:ख, शोक और रोगोंको देनेवाले हैं।

(श्लोक-१०)
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

जो भोजन सड़ा हुआ, रसरहित, दुर्गन्धित, बासी और जूठा है तथा जो महान् अपवित्र (मांस आदि) भी है, वह तामस मनुष्यको प्रिय होता है।

व्याख्या—चार श्लोकोंके उपर्युक्त प्रकरणमें सात्त्विक, राजस और तामस आहारका वर्णन दीखता है; परन्तु वास्तवमें यहाँ आहारका नहीं, प्रत्युत आहारीकी रुचिका ही वर्णन हुआ है। इसलिये यहाँ ‘प्रिय:’, ‘सात्त्विकप्रिया:’, ‘राजसस्येष्टा:’ और ‘तामसप्रियम्’ पदोंमें ‘प्रिय’ और ‘इष्ट’ शब्द आये हैं, जो रुचिके वाचक हैं।

सात्त्विक आहारीके लिये पहले भोजनका फल बताकर फिर भोजनके पदार्थोंका वर्णन किया गया है; क्योंकि सात्त्विक मनुष्य किसी भी कार्यमें प्रवृत्त होता है तो सबसे पहले उसके परिणामपर विचार करता है। राजस आहारीके लिये पहले भोजनके पदार्थोंका वर्णन करके फिर उसका फल बताया गया है; क्योंकि राजस मनुष्य रागके कारण सर्वप्रथम भोजनको ही देखता है, उसके परिणामपर प्राय: विचार करता ही नहीं। तामस आहारीके वर्णनमें भोजनका परिणाम बताया ही नहीं गया; क्योंकि तामस मनुष्य मूढ़ताके कारण भोजन और उसके परिणामपर विचार करता ही नहीं। सात्त्विकका पहले विचार है, राजसका पीछे विचार है, तामसका विचार है ही नहीं!

(श्लोक-११)
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मन: समाधाय स सात्त्विक:॥

यज्ञ करना ही कर्तव्य है—इस तरह मनको समाधान (सन्तुष्ट) करके फलेच्छारहित मनुष्योंद्वारा जो शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।

(श्लोक-१२)
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥

परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जो फलकी इच्छाको लेकर ही किया जाता है अथवा दम्भ (दिखावटीपन)के लिये भी किया जाता है, उस यज्ञको तुम राजस समझो।

(श्लोक-१३)
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥

शास्त्रविधिसे हीन, अन्न-दानसे रहित, बिना मन्त्रोंके, बिना दक्षिणाके और बिना श्रद्धाके किये जानेवाले यज्ञको तामस कहते हैं।

व्याख्या—इन यज्ञोंमें कर्ता, ज्ञान, क्रिया, धृति, बुद्धि, संग, शास्त्र, खान-पान आदि यदि सात्त्विक होंगे तो वह यज्ञ सात्त्विक हो जायगा, यदि राजस होंगे तो वह यज्ञ राजस हो जायगा, और यदि तामस होंगे तो वह तामस हो जायगा।

(श्लोक-१४)
देवद्विजगुरुप्राज्ञ‍‍‍पूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुषका यथायोग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्यका पालन करना और हिंसा न करना—यह शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

व्याख्या—शारीरिक तपमें ‘त्याग’ मुख्य है; जैसे—पूजनमें अपनेमें बड़प्पनके भावका त्याग है, शुद्धि रखनेमें आलस्य-प्रमादका त्याग है, सरलता रखनेमें अभिमानका त्याग है, ब्रह्मचर्यमें विषय-सुखका त्याग है, अहिंसामें अपने सुखके भावका त्याग है। इस प्रकार त्याग मुख्य होनेसे शारीरिक तप होता है।

(श्लोक-१५)
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥

जो किसीको भी उद्विग्न न करनेवाला, सत्य और प्रिय तथा हितकारक भाषण है, वह तथा स्वाध्याय और अभ्यास (नामजप आदि) भी वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

(श्लोक-१६)
मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह:।
भावसंशुद्धिरित्येत‍‍‍त् तपो मानसमुच्यते॥

मनकी प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मनका निग्रह और भावोंकी भलीभाँति शुद्धि—इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

(श्लोक-१७)
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै:।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्त्विकं परिचक्षते॥

परम श्रद्धासे युक्त फलेच्छारहित मनुष्योंके द्वारा (जो) तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन)-का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।

(श्लोक-१८)
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥

जो तप सत्कार, मान और पूजाके लिये तथा दिखानेके भावसे भी किया जाता है, वह इस लोकमें अनिश्चित और नाशवान् फल देनेवाला तप राजस कहा गया है।

(श्लोक-१९)
मूढग्राहेणात्मनो य‍‍‍त् पीडया क्रियते तप:।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥

जो तप मूढ़तापूर्वक हठसे अपनेको पीड़ा देकर अथवा दूसरोंको कष्ट देनेके लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है।

(श्लोक-२०)
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥

दान देना कर्तव्य है—ऐसे भावसे जो दान देश तथा काल और पात्रके प्राप्त होनेपर अनुपकारीको अर्थात् निष्कामभावसे दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।

व्याख्या—यह सात्त्विक दान वास्तवमें ‘त्याग’ है। यह वह दान नहीं है, जिसके लिये कहा गया है—‘एक गुना दान, सहस्रगुना पुण्य’। कारण कि उस दानसे (सहस्रके साथ) सम्बन्ध जुड़ता है, जबकि त्यागसे सम्बन्ध टूटता है।

गीतामें वर्णित सात्त्विक गुण त्यागकी तरफ जाता है। इसलिये भगवान् ने इसे ‘अनामय’ कहा है (गीता १४।६)। सत्त्वगुण सम्बन्ध-विच्छेद (त्याग) करता है, रजोगुण सम्बन्ध जोड़ता है और तमोगुण मूढ़ता लाता है।

गीताके अनुसार दूसरेके हितके लिये कर्म करना ‘यज्ञ’ है, सदा प्रसन्न रहना ‘तप’ है और उसीकी वस्तु मानकर उसीको दे देना ‘दान’ है। स्वार्थबुद्धिपूर्वक अपने लिये यज्ञ-तप-दान करना आसुरी अथवा राक्षसी स्वभाव है।

(श्लोक-२१)
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥

किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकारके लिये अथवा फलप्राप्तिका उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।

(श्लोक-२२)
अदेशकाले यद्दान‍‍‍मपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥

जो दान बिना सत्कारके तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और कालमें कुपात्रको दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है।

व्याख्या—शास्त्रमें आया है कि कलियुगमें दान ही एकमात्र धर्म है—‘दानमेकं कलौ युगे’ (मनुस्मृति १।८६, महा०शान्ति० २३१।२८, स्कन्द० नागर० ५१।६७, पद्म० सृष्टि० १८।४४१ आदि)। अत: जिस-किसी प्रकारसे भी दान दिया जाय, वह कल्याण ही करता है—प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान। जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥ (मानस ७।१०३ ख)। इसका तात्पर्य है कि कलियुगमें यज्ञ, तप, दान, व्रत आदि शुभकर्मोंको विधिपूर्वक करना कठिन है; अत: किसी तरह देनेकी, त्याग करनेकी आदत पड़ जाय।

गीतामें जहाँ-कहीं सात्त्विक, राजस और तामस भेद किया गया है, वहाँ जो सात्त्विक विभाग है, वह ग्राह्य है; क्योंकि वह मुक्ति देनेवाला है—‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ और जो राजस-तामस विभाग है, वह त्याज्य है; क्योंकि वह बाँधनेवाला है—‘निबन्धायासुरी मता’ (गीता१६।५)।

(श्लोक-२३)
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा॥

ॐ, तत्, सत् —इन तीन प्रकारके नामोंसे जिस परमात्माका निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मासे सृष्टिके आदिमें वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञोंकी रचना हुई है।

(श्लोक-२४)
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतप:क्रिया:।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम्॥

इसलिये वैदिक सिद्धान्तोंको माननेवाले पुरुषोंकी शास्त्रविधिसे नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा ‘ॐ’ इस परमात्माके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं।

(श्लोक-२५)
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतप:क्रिया:।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:॥

‘तत्’ नामसे कहे जानेवाले परमात्माके लिये ही सब कुछ है—ऐसा मानकर मुक्ति चाहनेवाले मनुष्योंद्वारा फलकी इच्छासे रहित होकर अनेक प्रकारकी यज्ञ और तपरूप क्रियाएँ तथा दानरूप क्रियाएँ की जाती हैं।

(श्लोक-२६)
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते॥

हे पार्थ! ‘सत्’—ऐसा यह परमात्माका नाम सत्ता-मात्रमें और श्रेष्ठ भावमें प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्मके साथ ‘सत्’ शब्द जोड़ा जाता है।

व्याख्या—परमात्माके अस्तित्व या होनेपनको ‘सद्भाव’ कहते हैं, जिसका कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। सभी आस्तिकजन यह तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति है, जो अपरिवर्तनशील है। संसार प्रतिक्षण बदलनेवाला है। संसार पहले भी नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहा है। समस्त प्राणी-पदार्थ मिले हैं और बिछुड़ जायँगे—यह सभीका अनुभव है। फिर भी संसारमें जो होनापन दीख रहा है, वह वास्तवमें परमात्माका है, संसारका नहीं। परमात्माकी सत्तासे ही प्रतिक्षण बदलनेवाला संसार सत्तावान् की तरह दीख रहा है।

अन्त:करणके श्रेष्ठ भावोंको ‘साधुभाव’ कहते हैं। परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे श्रेष्ठ भावोंके लिये ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है। श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्गुण-सदाचार दैवी-सम्पत्ति है। दैवी-सम्पत्ति ‘सत्’ है। मुक्ति देनेवाले, परमात्मप्राप्ति करानेवाले सब साधन ‘सत्’ हैं।

यज्ञ, तप, दान, तीर्थ, व्रत, पूजा-पाठ, विवाह आदि जितने भी शास्त्रविहित शुभ-कर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं। यदि इन प्रशंसनीय कर्मोंका सम्बन्ध भगवान् के साथ न हो तो ये ‘सत्’ न कहलाकर केवल शास्त्रविहित कर्ममात्र रह जाते हैं। यद्यपि दैत्य-दानव भी यज्ञ, तप आदि प्रशंसनीय कर्म करते हैं, तथापि असद्भाव अर्थात् अपने स्वार्थ और दूसरेके अहितका भाव होनेसे वे बाँधनेवाले असत्कर्म हो जाते हैं (गीता १७।१९)। उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता है (गीता ८।१६)। परन्तु भगवत्प्राप्तिके लिये कर्म करनेवाले मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होते (गीता ६।४०); क्योंकि उसका फल ‘सत्’ होता है। जो कर्म स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके प्राणिमात्रके हितके भावसे किये जाते हैं, वही वास्तवमें प्रशंसनीय कर्म होते हैं।

(श्लोक-२७)
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥

यज्ञ तथा तप और दानरूप क्रियामें जो स्थिति (निष्ठा) है, वह भी ‘सत्’—ऐसे कही जाती है और उस परमात्माके निमित्त किया जानेवाला कर्म भी ‘सत्’—ऐसा कहा जाता है।

व्याख्या—मुक्ति चाहनेवाले निष्कामभावसे कर्म करते हैं—‘मोक्षकाङ्क्षिभि:’ (गीता १७।२५), और भक्ति चाहनेवाले भगवान् के लिये कर्म करते हैं (गीता ९।२६—२८)।

(श्लोक-२८)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥

हे पार्थ! अश्रद्धासे किया हुआ हवन, दिया हुआ दान और तपा हुआ तप तथा और भी जो कुछ किया जाय, वह सब ‘असत्’—ऐसा कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न मरनेके बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

व्याख्या—छोटे-से-छोटा और साधारण-से-साधारण कर्म भी यदि परमात्माके उद्देश्यसे निष्कामभावपूर्वक किया जाय तो वह कर्म ‘सत्’ हो जाता है अर्थात् परमात्मप्राप्ति करानेवाला हो जाता है। परन्तु बड़े-से-बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधि-विधानसे सकामभावपूर्वक किया जाय तो वह कर्म नाशवान् फल देकर नष्ट हो जाता है। यदि वे यज्ञादि कर्म वेदोंपर, शास्त्रोंपर तथा भगवान् पर अश्रद्धा करके, केवल अपनी मान-बड़ाई, आदर-सत्कार पानेके उद्देश्यसे किये जायँ तो वे सब असत् हो जाते हैं। उनका न इस लोकमें फल मिलता है, न परलोकमें अर्थात् उसका कहीं भी सत् (श्रेष्ठ, कल्याणकारक) फल नहीं होता।

पूर्वपक्ष—यदि भगवन्नाम-जप, कीर्तन आदि अश्रद्धापूर्वक किये जायँ तो वे भी असत् हो जायँगे! फिर शास्त्रोंमें आयी नाम-जप, कीर्तन आदिकी अतुलनीय महिमाकी सार्थकता क्या हुई?

उत्तरपक्ष—नाम-जप, कीर्तन आदि यदि अश्रद्धापूर्वक भी किये जाते हैं तो वे असत् नहीं होते; क्योंकि उनमें भगवान् का सम्बन्ध होनेसे वे ‘कर्म’ नहीं हैं, प्रत्युत ‘उपासना’ हैं।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:॥ १७॥

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