ॐ श्रीपरमात्मने नम:
अथ सप्तमोऽध्याय:
सातवाँ अध्याय
(श्लोक-१)
श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय:।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु॥
श्रीभगवान् बोले—हे पृथानन्दन! मुझमें आसक्त मनवाला, मेरे आश्रित होकर योगका अभ्यास करता हुआ तू मेरे जिस समग्ररूपको नि:सन्देह जिस प्रकारसे जानेगा, उसको (उसी प्रकारसे) सुन।
व्याख्या—आत्मीयताके कारण जिसका मन भगवान् की ओर आकर्षित हो गया है, जो सब प्रकारसे भगवान् के आश्रित हो गया है और जिसने भगवान् के साथ अपने नित्य-सम्बन्धको पहचान लिया है, ऐसा भक्त भगवान् के समग्ररूपको जान लेता है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार आदि सब कुछ एक भगवान् ही हैं—यह भगवान् का समग्ररूप है। भगवान् कहते हैं कि पार्थ! अपने समग्ररूपका वर्णन मैं इस ढंगसे करूँगा, जिससे तू मेरे समग्ररूपको सुगमतापूर्वक यथार्थरूपसे जान लेगा और तेरे सब संशय मिट जायँगे।
(श्लोक-२)
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत:।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्-ज्ञातव्यमवशिष्यते॥
तेरे लिये मैं यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्णतासे कहूँगा, जिसको जाननेके बाद फिर इस विषयमें जाननेयोग्य अन्य (कुछ भी) शेष नहीं रहेगा।
व्याख्या—परा तथा अपरा प्रकृतिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है—यह ‘ज्ञान’ है और परा-अपरा सब कुछ एक भगवान् ही हैं—यह ‘विज्ञान’ है। अहम् सहित सब कुछ भगवान् हैं—यह भगवान् का समग्ररूप ही ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है। इस विज्ञानसहित ज्ञानको जाननेके बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता; क्योंकि ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इसे जाननेके बाद यदि कुछ शेष रहेगा तो वह भी भगवान् ही होंगे!
(श्लोक-३)
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
हजारों मनुष्योंमें कोई एक सिद्धि (कल्याण)-के लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले सिद्धों (मुक्त पुरुषों)-में कोई एक ही मुझे यथार्थरूपसे जानता है।
व्याख्या—वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कठिन या दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत परमात्मप्राप्तिके मार्गपर चलनेवाले बहुत कम हैं। अधिकतर मनुष्य सांसारिक भोग और संग्रहमें ही रचे-पचे रहते हैं। इसलिये हजारों मनुष्योंमें कोई एक ही मनुष्य लगनपूर्वक परमात्माकी तरफ चलता है। परन्तु लगनके साथ भोगेच्छा, मान-बड़ाई और आरामकी इच्छा भी रहनेके कारण उनमें भी कोई एक परमात्मतत्त्वको प्राप्त करता है। परमात्माको प्राप्त उन जीवन्मुक्त ज्ञानी महापुरुषोंमें भी कोई एक ही भगवान् को जाननेकी इच्छावाला तथा भगवान् पर विश्वास रखनेवाला महापुरुष ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—इस प्रकार भगवान् के समग्ररूपको जानता है और भगवत्प्रेमको प्राप्त करता है। तात्पर्य है कि भगवान् के समग्ररूपको जाननेवाला प्रेमी भक्त अत्यन्त दुर्लभ है (गीता ७।१९)।
भगवान् के समग्ररूपको जानना ही भगवान् को यथार्थरूपसे जानना है। भगवान् के यथार्थरूपको भक्तिसे ही जाना जा सकता है (गीता १८।५५)।
जिस साधकके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, जो भक्तिका खण्डन नहीं करता, वह जब मुक्त होता है तब उसके भीतर नाशवान् रसकी कामना तो सर्वथा मिट जाती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती। तब भगवान् कृपा करके उसकी मुक्तिके अखण्डरसको फीका कर देते हैं और प्रेमका अनन्तरस प्रदान करते हैं।
किसी वस्तुके आकर्षणसे जो सुख मिलता है, वह सुख उस वस्तुके ज्ञानसे नहीं मिलता—यह सिद्धान्त है। जैसे, रुपयोंके आकर्षण (लोभ)-से जो सुख मिलता है, वह रुपयोंके ज्ञानसे नहीं मिलता।
कर्मयोगमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शान्त आनन्द (शान्ति) मिलता है। ज्ञानयोगमें स्वरूपका बोध होनेपर अखण्ड आनन्द मिलता है। भक्तियोगमें भगवान् की ओर आकर्षण होनेसे अनन्त आनन्द (प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम) मिलता है।
(श्लोक-४)
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
(श्लोक-५)
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश (—ये पंचमहाभूत) और मन, बुद्धि तथा अहंकार—इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा प्रकृति है; और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
व्याख्या—जब चेतन-तत्त्व अपरा प्रकृतिके अहंकारके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब वह ‘परा प्रकृति’ कहलाता है। अपरा (जगत् ) और परा (जीव)—दोनों ही भगवान् की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं। शक्तिमान् के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे नख और केश निष्प्राण होते हुए भी प्राणयुक्त शरीरसे भिन्न नहीं होते, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होते हुए भी चेतन परमात्मासे भिन्न नहीं होती। अत: अपरा और परा—दोनों प्रकृतियाँ भगवान् का स्वरूप होनेसे भगवान् के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रहा!
इस जगत् को जीवने ही धारण कर रखा है। तात्पर्य है कि जगत् न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है। जीवने ही जगत् को सत्ता और महत्ता देकर उसमें अपनापन कर लिया और जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ गया।
पृथ्वीसे लेकर अहंकारतक सब जड़ अपरा प्रकृति है। अत: जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि जाननेमें आनेवाले हैं, ऐसे ही अहंकार भी जाननेमें आनेवाला है। उस अहंकारसे तादात्म्य करके जीव अपनेको ‘मैं हूँ’—ऐसा मान लेता है। इसमें ‘मैं’ तो अपरा प्रकृति है और ‘हूँ’ परा प्रकृति है। अहंकारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ‘मैं’ का तो अभाव हो जाता है और ‘हूँ’ चिन्मय सत्तामात्र ‘है’ में परिणत हो जाता है—यही मोक्ष है।
अहम् को धारण करनेसे जीवने सम्पूर्ण अपरा प्रकृतिको धारण कर लिया। ‘मैं हूँ’—इस अभिमानको रखना ही अपरा प्रकृतिको धारण करना है। यदि अहम् अभिमानशून्य हो जाय अर्थात् अभिमान न रहकर अपरा प्रकृतिका शुद्ध अहम् रह जाय तो वह बन्धनकारक नहीं होता; जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि आदि कभी बन्धनकारक नहीं होते।
(श्लोक-६)
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥
सम्पूर्ण प्राणियोंके उत्पन्न होनेमें अपरा और परा—इन दोनों प्रकृतियोंका संयोग ही कारण है—ऐसा तुम समझो। मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ।
व्याख्या—अनन्त ब्रह्माण्डोंमें स्थावर-जंगम, थलचर-जलचर-नभचर, जरायुज-अण्डज-स्वेदज-उद्भिज्ज, मनुष्य, देवता, गन्धर्व, पितर, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि जितने भी प्राणी देखने-सुनने-पढ़नेमें आते हैं, वे सब अपरा और परा—इन दोनोंके माने हुए संयोगसे ही उत्पन्न होते हैं। अपरा और पराका संयोग ही सम्पूर्ण संसारका बीज है।
मैं सम्पूर्ण जगत् का प्रभव तथा प्रलय हूँ—इससे भगवान् का तात्पर्य है कि मैं ही सम्पूर्ण संसारको उत्पन्न करनेवाला हूँ और मैं ही उत्पन्न होनेवाला हूँ, मैं ही नाश करनेवाला हूँ और मैं ही नष्ट होनेवाला हूँ; क्योंकि मेरे सिवाय संसारका अन्य कोई भी कारण तथा कार्य नहीं है। मैं ही इसका निमित्त और उपादान कारण हूँ।
भगवान् ही जगद्रूपसे प्रकट हुए हैं। यह जगत् भगवान् का आदि अवतार है—‘आद्योऽवतार: पुरुष: परस्य’ (श्रीमद्भा० २।६।४१)। आदि अवतार होनेसे जगत् नहीं है, केवल भगवान् ही हैं।
(श्लोक-७)
मत्त: परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
इसलिये हे धनंजय! मेरे सिवाय (इस जगत् का) दूसरा कोई किंचिन्मात्र भी (कारण तथा कार्य) नहीं है। जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मुझमें ही ओत-प्रोत है।
व्याख्या—जैसे सूतकी मणियाँ सूतके धागेमें पिरोयी हुई हों तो उनमें सूतके सिवाय अन्य कुछ नहीं है, ऐसे ही मणिरूप अपरा प्रकृति और धागारूप परा प्रकृति—दोनोंमें एक भगवान् ही परिपूर्ण हैं अर्थात् एक भगवान् के सिवाय अन्य कुछ नहीं है। तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो न धागा है, न मणियाँ हैं, प्रत्युत एक सूत (रुई) ही है। इसी तरह न परा है, न अपरा है, प्रत्युत एक परमात्मा ही हैं।
इस श्लोकमें आये ‘मत्त: परतरं नान्यत्’ पदोंसे आरम्भ करके बारहवें श्लोकके ‘मत्त एवेति तान्विद्धि’ पदोंतक भगवान् ने यही सिद्ध किया है कि मेरे सिवाय कुछ भी नहीं है, सब कुछ मैं ही हूँ।
(श्लोक-८)
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥
हे कुन्तीनन्दन! जलोंमें रस मैं हूँ, चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ, सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार), आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषत्व मैं हूँ।
व्याख्या—सृष्टिकी रचनामें भगवान् ही कर्ता होते हैं, भगवान् ही कारण होते हैं और भगवान् ही कार्य होते हैं। इस दृष्टिसे रस-तन्मात्रा और जल, प्रभा और चन्द्र-सूर्य, ओंकार और वेद, शब्द-तन्मात्रा और आकाश, पुरुषत्व और मनुष्य—ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं।
(श्लोक-९)
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु॥
पृथ्वीमें पवित्र गन्ध मैं हूँ और अग्निमें तेज मैं हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें जीवनीशक्ति मैं हूँ और तपस्वियोंमें तपस्या मैं हूँ।
व्याख्या—गन्ध और पृथ्वी, तेज और अग्नि, जीवनीशक्ति और प्राणी, तप और तपस्वी—ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं।
(श्लोक-१०)
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्॥
हे पृथानन्दन! सम्पूर्ण प्राणियोंका अनादि बीज मुझे जान। बुद्धिमानोंमें बुद्धि और तेजस्वियोंमें तेज मैं हूँ।
व्याख्या—बीज और प्राणी, बुद्धि और बुद्धिमान्, तेज और तेजस्वी—ये सब-के-सब (कारण तथा कार्य) एक भगवान् ही हैं।
अनन्त अलग-अलग ब्रह्माण्ड हैं और उनमें अनन्त अलग-अलग जीव हैं, पर उन सम्पूर्ण जीवोंका बीज एक ही परमात्मा हैं। एक ही परमात्मासे अनेक प्रकारके प्राणी उत्पन्न होते हैं। लौकिक बीज तो वृक्ष उत्पन्न करके स्वयं नष्ट हो जाता है, पर अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होनेपर भी परमात्मरूपी बीज ज्यों-का-त्यों रहता है (गीता ९।१८)।
(श्लोक-११)
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ और प्राणियोंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
व्याख्या—सात्त्विक बल और बलवान्, धर्मयुक्त काम और प्राणी—ये सब-के-सब एक भगवान् ही हैं।
पूर्वपक्ष—तामसी बल और धर्मविरुद्ध काम क्या भगवान् नहीं हैं?
उत्तरपक्ष—भगवान् होते हुए भी ये त्याज्य हैं, ग्राह्य नहीं। कारण कि तामसी बल और धर्मविरुद्ध कामके परिणामस्वरूप दु:ख, पीड़ा, सन्ताप, नरक आदिके रूपमें भगवान् मिलते हैं, जो किसीके भी अभीष्ट नहीं हैं।
(श्लोक-१२)
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि॥
(और तो क्या हूँ—) जितने भी सात्त्विक भाव हैं और जितने भी राजस तथा तामस भाव हैं, वे सब मुझसे ही होते हैं—ऐसा उनको समझो। परन्तु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं।
व्याख्या—शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे जो सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव, क्रिया, पदार्थ आदि ग्रहण किये जाते हैं, वे सब भगवान् ही हैं। ‘मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं’—ऐसा कहनेका तात्पर्य है कि साधककी दृष्टि सात्त्विक, राजस तथा तामस भावोंकी ओर न जाकर भगवान् की ओर ही जानी चाहिये। यदि उसकी दृष्टि भावों (गुणों)-की ओर जायगी तो वह उनमें उलझकर जन्म-मरणमें चला जायगा (गीता १३।२१)।
सम्पूर्ण सात्त्विक, राजस और तामस भाव भगवत्स्वरूप हैं—यह सिद्ध पुरुषोंकी दृष्टि है, और भगवान् उनमें और वे भगवान् में नहीं हैं—यह साधकोंकी दृष्टि है।
(श्लोक-१३)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥
किन्तु इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत और अविनाशी मुझे नहीं जानता।
व्याख्या—जो मनुष्य भगवान् को न देखकर गुणोंको देखते हैं अर्थात् गुणोंकी स्वतन्त्र सत्ता मानते हैं, वे गुणोंसे मोहित हो जाते हैं। गुणोंसे मोहित मनुष्य गुणातीत परमात्माको नहीं जान सकते।
यद्यपि परमात्माका अंश होनेसे जीवात्मा भी गुणातीत है, तथापि गुणोंको सत्ता और महत्ता देनेसे वह भी गुणमय जगत् बन जाता है। इसी कारण इस श्लोकमें जीवात्माको ‘जगत्’ कहा गया है। जगत् बना हुआ जीवात्मा शरीर-संसारको ही मैं, मेरा और मेरे लिये मान लेता है।
(श्लोक-१४)
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैं।
व्याख्या—जो मनुष्य भगवान् की गुणमयी माया (तीनों गुणों)-की स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता मानते हैं, उनके लिये इस मायासे पार पाना बहुत ही कठिन है। यह गुणमयी माया है तो भगवान् की—‘मम माया’, पर जीव इसे अपनी और अपने लिये मानकर बँध जाता है। इस मायासे पार पानेका सुगम उपाय है—शरणागति अर्थात् किसी भी वस्तुको अपनी और अपने लिये न मानकर भगवान् की और भगवान् के लिये ही मान लेना।
(श्लोक-१५)
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥
परन्तु मायाके द्वारा जिनका ज्ञान हरा गया है, वे आसुर भावका आश्रय लेनेवाले और मनुष्योंमें महान् नीच तथा पाप-कर्म करनेवाले मूढ़ मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।
व्याख्या—यद्यपि भगवान् ने सभीको अपनी शरणमें ले रखा है; परन्तु भोग तथा संग्रहकी आसक्तिमें रचे-पचे मनुष्य भगवान् की शरण न लेकर संसारकी शरण लेते हैं और परिणाममें दु:ख पाते हैं।
पूर्वपक्ष—भगवान् की मायाने सबको बाँध रखा है, फिर मनुष्य बेचारा क्या करे?
उत्तरपक्ष—भगवान् की माया किसीको भी नहीं बाँधती। मनुष्य ही भगवान् की मायाको अपनी और अपने लिये मानकर बँधता है।
(श्लोक-१६)
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी—ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।
व्याख्या—पूर्वश्लोकमें भगवान् से विमुख हुए मनुष्योंकी बात कहकर अब भगवान् के सम्मुख हुए भक्तोंकी बात कहते हैं। ऐसे भक्त चार प्रकारके होते हैं—अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और प्रेमी। जबतक संसारका किंचित् सम्बन्ध रहता है, तबतक अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु—ये तीन भेद रहते हैं। परन्तु संसारसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर मनुष्य ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है।
अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु—तीनोंमें भगवान् की मुख्यता तथा सम्मुखता रहती है। अत: अर्थार्थी भगवान् से ही अपनी धनकी इच्छा पूरी कराना चाहता है। आर्त भगवान् से ही अपना दु:ख मिटाना चाहता है। जिज्ञासु भगवान् से ही अपनी जिज्ञासा शान्त कराना चाहता है। जब भक्त एक भगवान् के सिवाय कुछ भी नहीं चाहता, तब वह ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त होता है।
पूर्वपक्ष—ज्ञानीको प्रेमी भक्त कैसे मान लिया गया? यदि उसे तत्त्वज्ञानी मान लें तो क्या आपत्ति है?
उत्तरपक्ष—कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे ‘ज्ञानी’ को प्रेमी भक्त मानना ही अधिक उपयुक्त दीखता है; जैसे—
(१) भगवान् ने ‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ कहकर ‘ज्ञानी’ को चार प्रकारके भक्तोंके अन्तर्गत लिया है।
(२) भगवान् ने अगले श्लोकमें ज्ञानीको अनन्य-भक्तिवाला कहा है—‘एकभक्तिर्विशिष्यते’ और अपनेको उसका अत्यन्त प्रिय बताया है—‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम्’।
(३) भगवान् ने ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव करनेवाले भक्तको ही वास्तविक ज्ञानी बताया है (७।१९)।
पूर्वपक्ष—परन्तु भगवान् ने ‘भक्त’ शब्द न देकर ‘ज्ञानी’ शब्द दिया ही क्यों?
उत्तरपक्ष—कोई यह न समझ ले कि भक्तमें ज्ञानकी कमी या अभाव रहता है, इसलिये ‘ज्ञानी’ शब्द देकर भगवान् ने यह बताया है कि मेरे भक्तमें किसी प्रकारकी कोई कमी नहीं रहती। तत्त्वज्ञानीको तो ब्रह्मका ज्ञान होता है, पर भक्तको विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् समग्रका ज्ञान हो जाता है (गीता ७।२९-३०)।
(श्लोक-१७)
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थ-महं स च मम प्रिय:॥
उन चार भक्तोंमें मुझमें निरन्तर लगा हुआ अनन्य भक्तिवाला ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्त श्रेष्ठ है; क्योंकि ज्ञानी भक्तको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
व्याख्या—अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु सर्वथा भगवान् के सम्मुख नहीं होते; परन्तु प्रेमी भक्त (निष्काम होनेसे) सर्वथा भगवान् के सम्मुख होता है। इसलिये भक्त और भगवान्—दोनोंमें परस्पर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी लीला चलती रहती है।
(श्लोक-१८)
उदारा: सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थित: स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्॥
पहले कहे हुए सब-के-सब (चारों) ही भक्त बड़े उदार (श्रेष्ठ भाववाले) हैं। परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) तो मेरा स्वरूप ही है—ऐसा मेरा मत है। कारण कि वह मुझसे अभिन्न है और जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मुझमें ही दृढ़ स्थित है।
व्याख्या—अर्थार्थी, आर्त और जिज्ञासु भक्तको उदार कहना वास्तवमें भगवान् की अपनी उदारता है! उनको उदार कहनेका तात्पर्य है कि वे संसारसे विमुख होकर भगवान् के सम्मुख हो गये।
तत्त्वज्ञानीकी भगवान् के साथ सधर्मता होती है—‘मम साधर्म्यमागता:’ (गीता १४।२), पर भक्तकी भगवान् के साथ आत्मीयता होती है—‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’। साधर्म्यमें जीव और ब्रह्ममें अभेद होता है। आत्मीयतामें भक्त और भगवान् में अभिन्नता होती है। अभेदमें जीव और ब्रह्म दोसे एक हो जाते हैं। अभिन्नतामें भक्त और भगवान् प्रेम-लीलाके लिये एकसे दो हो जाते हैं। तत्त्वज्ञानीमें तो सूक्ष्म अहम् रहता है, पर भक्तमें अहम् का सर्वथा नाश हो जाता है, इसलिये भगवान् कहते हैं—‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’।
(श्लोक-१९)
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें सब कुछ परमात्मा ही हैं—इस प्रकार जो ज्ञानवान् मेरे शरण होता है, वह महात्मा* अत्यन्त दुर्लभ है।
** गीतामें ‘महात्मा’ शब्द केवल भक्तके लिये ही आया है। इसी तरह ‘उदार’, ‘युक्ततम’, ‘सर्ववित्’ आदि शब्द भी भक्तके लिये ही आये हैं।*
व्याख्या—साधक पहले परमात्माको दूर देखता है, फिर समीप देखता है, फिर अपनेमें देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है। कर्मयोगी परमात्माको समीप देखता है, ज्ञानयोगी परमात्माको अपनेमें देखता है और भक्तियोगी सब जगह परमात्माको ही देखता है। ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’—ऐसा अनुभव करना ही असली शरणागति है अर्थात् केवल शरण्य ही रह जाय, शरणागत कोई रहे ही नहीं!
‘वासुदेव: सर्वम्’—यह गीताका सर्वोच्च सिद्धान्त है। हमारी दृष्टिमें ‘सर्वम्’ (संसार)-की सत्ता है, इसलिये भगवान् ने हमें समझानेके लिये ‘वासुदेव: सर्वम्’ कहा है। वास्तवमें केवल वासुदेव-ही-वासुदेव है, ‘सर्वम्’ है ही नहीं! कारण कि असत् होनेसे ‘सर्वम्’ की सत्ता विद्यमान ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २।१६)।
जैसे, खेतमें पहले भी गेहूँ बोया गया था और अन्तमें भी गेहूँ ही निकलेगा, पर बीचमें हरी-हरी घास दीखनेपर भी वह ‘गेहूँकी खेती’ कहलाती है। उसे गाय खा जाय तो किसान कहता है कि गाय हमारा गेहूँ खा गयी, जबकि गायने गेहूँका एक दाना भी नहीं खाया। इसी प्रकार सृष्टिके पहले भी परमात्मा थे और अन्तमें भी परमात्मा ही रहेंगे, पर बीचमें परमात्मा न दीखनेपर भी सब कुछ परमात्मा ही हैं। जैसे गेहूँसे उत्पन्न खेती भी गेहूँ ही है, ऐसे ही परमात्मासे उत्पन्न सृष्टि भी परमात्मा ही है। परमात्माने कहींसे सामान मँगवाकर सृष्टि नहीं बनायी, प्रत्युत वे खुद ही सृष्टिरूप बन गये। अत: सृष्टि भगवान् का प्रथम अवतार है—‘आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते’ (श्रीमद्भा० ३।६।८)।
जैसे जिसके भीतर प्यास होती है, उसे ही जल दीखता है। प्यास न हो तो जल सामने रहते हुए भी दीखता नहीं। ऐसे ही जिसके भीतर परमात्माकी प्यास (लालसा) है, उसे परमात्मा दीखते हैं और जिसके भीतर संसारकी प्यास है, उसे संसार दीखता है। परमात्माकी प्यास हो तो संसार लुप्त हो जाता है और संसारकी प्यास हो तो परमात्मा लुप्त हो जाते हैं। तात्पर्य है कि संसारकी प्यास होनेसे संसार न होते हुए भी मृगमरीचिकाकी तरह दीखने लग जाता है और परमात्माकी प्यास होनेसे परमात्मा न दीखनेपर भी दीखने लग जाते हैं। परमात्माकी प्यास जाग्रत् होनेपर भक्तको भूतकालका चिन्तन नहीं होता, भविष्यकी आशा नहीं रहती और वर्तमानमें उसे प्राप्त किये बिना चैन नहीं पड़ता।
सब कुछ (समग्ररूपमें) एक भगवान् ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’, ‘सदसच्चाहम्’ (गीता ९। १९)। एक भगवान् के सिवाय कुछ भी न होनेसे भगवान् अकेले हैं, उनके पास (उनसे भिन्न) कुछ भी नहीं है। भगवान् का अंश होनेसे जीवके पास भी भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है; अत: वह भी वास्तवमें अकेला है। जीव भगवान् के सिवाय भूलसे जिसको भी अपना मानता है, वह सब असत् है, त्याज्य है, मिलने और बिछुड़नेवाला है। तात्पर्य है कि भगवान् भी अकिंचन हैं और उनका अंश जीव भी! इसलिये भगवान् ने रुक्मिणीजीसे कहा है—‘निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रिया:’ (श्रीमद्भा० १०।६०।१४) ‘हम सदाके अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं तथा वे हमारेसे प्रेम करते हैं।’ जब साधक संसारमें शरीरादि किसी भी वस्तु-व्यक्तिको अपना तथा अपने लिये नहीं मानता, प्रत्युत एकमात्र भगवान् को ही अपना तथा अपने लिये मानता है, तब वह अकिंचन होकर भगवान् का प्रेमी हो जाता है—‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:’ (७। १७), ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (७।१८), ‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (९।२९)।
(श्लोक-२०)
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया॥
परन्तु उन-उन कामनाओंसे जिनका ज्ञान हरा गया है, ऐसे मनुष्य अपनी-अपनी प्रकृति अर्थात् स्वभावसे नियन्त्रित होकर उस-उस अर्थात् देवताओंके उन-उन नियमोंको धारण करते हुए अन्य देवताओंके शरण हो जाते हैं।
व्याख्या—जो मनुष्य भगवान् से विमुख हैं और संसारके सम्मुख हैं, वे अपनी सांसारिक कामनाओंकी पूर्तिके लिये विभिन्न देवताओंकी शरण लेते हैं। सांसारिक भोग और संग्रहकी कामनाके कारण ‘सब कुछ भगवान् ही हैं; देवताओंके रूपमें भी एक भगवान् ही हैं’—यह ज्ञान ढक जाता है।
पूर्वपक्ष—सोलहवें श्लोकमें वर्णित अर्थार्थी और आर्त भक्तमें भी क्रमश: धन पानेकी और दु:ख दूर करनेकी कामना है, फिर इस श्लोकमें वर्णित कामनावाले मनुष्योंकी निन्दा क्यों की गयी है?
उत्तरपक्ष—दोनों प्रकारके मनुष्योंमें परस्पर बड़ी भिन्नता है। सोलहवें श्लोकमें वर्णित मनुष्य भक्त हैं और इस श्लोकमें वर्णित मनुष्य सांसारिक हैं। भक्तोंमें भगवान् की मुख्यता है और सांसारिक मनुष्योंमें कामनापूर्तिकी मुख्यता है। भक्त एक भगवान् का ही आश्रय लेते हैं, पर सांसारिक मनुष्य अनेक देवी-देवताओंका आश्रय लेते हैं; क्योंकि उन्हें कामनापूर्तिसे मतलब है, देवताओंसे नहीं।
(श्लोक-२१)
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥
जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवतामें ही मैं उसी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।
व्याख्या—संसारमें प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य दूसरे मनुष्योंको अपनी तरफ लगाना चाहते हैं कि वे मुझपर श्रद्धा रखें, मेरे शिष्य बनें, मेरा सम्मान करें, मेरे सम्प्रदायको मानें, मेरी आज्ञा मानें आदि। परन्तु सर्वोपरि होते हुए भी भगवान् के स्वभावमें यह बात नहीं है। जो मनुष्य जहाँ लगना चाहता है, भगवान् उसे वहीं लगा देते हैं—यह भगवान् का पक्षपातरहित स्वभाव है।
(श्लोक-२२)
स तया श्रद्धया युक्तस्-तस्याराधनमीहते।
लभते च तत: कामान् मयैव विहितान्हि तान्॥
उस (मेरे द्वारा दृढ़ की हुई) श्रद्धासे युक्त होकर वह मनुष्य उस देवताकी (सकामभावपूर्वक) उपासना करता है और उसकी वह कामना पूरी भी होती है; परन्तु वह कामनापूर्ति मेरे द्वारा ही विहित की हुई होती है।
व्याख्या—भगवान् ही मनुष्यकी श्रद्धाको उसकी इच्छाके अनुसार अन्य देवताओंमें दृढ़ करते हैं और वे ही अन्य देवताओंके द्वारा मनुष्यकी कामनाओंकी पूर्ति करवाते हैं—यह भगवान् की उदारता है, परन्तु मनुष्य यही समझता है कि अन्य देवताओंकी उपासनासे मेरी कामनापूर्ति हुई है। वास्तवमें सभी देवता भगवान् के अधीन हैं। उन्हें कामनापूर्तिका अधिकार और सामर्थ्य भगवान् का ही दिया हुआ है।
(श्लोक-२३)
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि॥
परन्तु उन तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्योंको उन देवताओंकी आराधनाका फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—जो मनुष्य सकामभाव रखनेवाले तथा देवताओंको भगवान् से भिन्न समझनेवाले हैं, उन्हें नाशवान् फलकी प्राप्ति होती है। जीते-जी तथा मृत्युके बाद उन्हें जो पदार्थ, लोक आदि मिलते हैं, वे सभी नाशवान् अर्थात् मिलने-बिछुड़नेवाले होते हैं। ऐसे मनुष्य अपनेको कितना ही बुद्धिमान् समझें, पर वास्तवमें वे अल्प बुद्धिवाले ही हैं।
पूर्वपक्ष—अर्थार्थी भक्तको भी नाशवान् धनकी प्राप्ति होती है, फिर उसमें और देवताओंका पूजन करनेवालेमें अन्तर क्या हुआ?
उत्तरपक्ष—नाशवान् धन आदि मिलनेपर भी अर्थार्थी और आर्त भक्तमें मुख्यता (महत्ता) भगवान् की ही रहती है, धन आदिकी नहीं। उनमें अर्थार्थीभाव तथा आर्तभाव तो गौण होता है, पर भगवद्भाव मुख्य होता है। इसलिये समय पाकर उनका अर्थार्थीभाव तथा आर्तभाव भी मिट जाता है, टिकता नहीं। परन्तु देवताओंकी उपासना करनेवाले सांसारिक मनुष्योंके हृदयमें धन आदिकी मुख्यता और देवताओंकी गौणता रहती है।
(श्लोक-२४)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥
बुद्धिहीन मनुष्य मेरे परम, अविनाशी और सर्वश्रेष्ठ भावको न जानते हुए अव्यक्त (मन-इन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
व्याख्या—सकामभावसे देवताओंकी उपासना करनेवाले मनुष्य भगवान् को साधारण मनुष्यकी तरह जन्मने-मरनेवाला मानते हैं, इसलिये वे भगवान् की उपासना नहीं करते। वास्तवमें भगवान् अव्यक्त भी हैं, व्यक्त भी हैं और अव्यक्त तथा व्यक्त—दोनोंसे परे (निरपेक्ष प्रकाशक) भी हैं—‘सदसत्तत्परं यत्’ (गीता ११।३७)।
(श्लोक-२५)
नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
यह जो मूढ़ मनुष्यसमुदाय मुझे अज और अविनाशी ठीक तरहसे नहीं जानता (मानता), उन सबके सामने योगमायासे अच्छी तरह ढका हुआ मैं प्रकट नहीं होता।
व्याख्या—भगवान् अवतारकालमें सबके सामने प्रकट होते हुए भी मूढ़ मनुष्योंको भगवद्रूपसे न दीखकर मनुष्यरूपसे ही दीखते हैं। मनुष्य अपने भावोंके अनुसार ही योगमायासे ढके हुए भगवान् को देखते हैं। भगवान् अलौकिक होते हुए भी योगमायासे ढके रहनेके कारण लौकिक प्रतीत होते हैं।
(श्लोक-२६)
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
हे अर्जुन! जो प्राणी भूतकालमें हो चुके हैं तथा जो वर्तमानमें हैं और जो भविष्यमें होंगे, उन सब प्राणियोंको तो मैं जानता हूँ; परन्तु मुझे (भक्तके सिवाय) कोई भी प्राणी नहीं जानता।
व्याख्या—भगवान् की दृष्टिमें भूत-भविष्य-वर्तमान-कालका भेद नहीं है। कालकी सत्ता जीवकी दृष्टिमें है। इसलिये हमें समझानेके लिये भगवान् तीनों कालोंकी बात कहते हैं। तात्पर्य है कि भूत, भविष्य और वर्तमानके सभी जीव निरन्तर भगवान् की दृष्टिमें रहते हैं।
पूर्वपक्ष—‘जब भगवान् सब जीवोंको जानते हैं’ तो फिर जिसे बद्ध जानते हैं, वह सदा बद्ध ही रहेगा, मुक्त कैसे होगा?
उत्तरपक्ष—यह शंका संसारकी सत्ताको लेकर हमारी दृष्टिमें है। वास्तवमें भगवान् तथा उनके भक्त—दोनोंकी दृष्टिमें भगवान् के सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। बन्धन और मोक्ष जीवकी दृष्टिमें हैं। तत्त्वसे न बन्धन है, न मोक्ष, प्रत्युत केवल परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’। अपना उद्धार करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है (गीता ६।५)।
(श्लोक-२७)
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप॥
कारण कि हे भरतवंशमें उत्पन्न शत्रुतापन अर्जुन! इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्व-मोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें (अनादिकालसे) मूढ़ताको अर्थात् जन्म-मरणको प्राप्त हो रहे हैं।
व्याख्या—राग-द्वेषरूप द्वन्द्वसे ही संसारका सम्बन्ध दृढ़ होता है और मनुष्य परमात्मासे विमुख हो जाता है। अत: मनुष्यकी प्रवृत्ति तथा निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होनी चाहिये।
(श्लोक-२८)
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता:॥
परन्तु जिन पुण्यकर्मा मनुष्योंके पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्वमोहसे रहित हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं।
व्याख्या—राग-द्वेषसे रहित होनेपर मनुष्य परमात्माके सम्मुख हो जाता है। परमात्माके सम्मुख होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जबतक मनुष्यके भीतर राग-द्वेष रहते हैं, तबतक वह सर्वथा परमात्माके सम्मुख नहीं हो सकता। उसका जितने अंशमें संसारसे राग (सम्मुखता) रहता है, उतने अंशमें परमात्मासे द्वेष (विमुखता) रहता है।
(श्लोक-२९)
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
(श्लोक-३०)
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥
वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
व्याख्या—यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, तथापि शरणागत भक्त जन्म-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान् के समग्ररूपको भी जान लेते हैं। ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ—यह भगवान् का समग्ररूप है। इसके भगवान् ने दो विभाग किये हैं। ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), कृत्स्न अध्यात्म (अनन्त योनियोंके अनन्त जीव) तथा अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदिकी सम्पूर्ण क्रियाएँ)—यह ‘ज्ञान’ का विभाग है, जिसमें निर्गुणकी मुख्यता है। अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांचभौतिक जगत्), अधिदैव (मन-इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवतासहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अन्तर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)—यह ‘विज्ञान’ का विभाग है, जिसमें सगुणकी मुख्यता है।
जिनमें भक्तिके संस्कार हैं; परन्तु जो जरा-मरणरूप सांसारिक दु:खोंसे छूटना चाहते हैं, ऐसे साधक भगवान् का आश्रय लेकर ज्ञानयोगका साधन करते हैं। उन्हें ‘तत्’ अर्थात् ब्रह्म, सम्पूर्ण अध्यात्म और अखिल कर्मका ज्ञान हो जाता है। परिणामस्वरूप वे जरा-मरणसे मुक्त हो जाते हैं। परन्तु भगवान् को चाहनेवाले भक्त भक्तियोगका साधन करते हैं। वे अधियज्ञसहित ब्रह्मको, अधिदैवसहित सम्पूर्ण अध्यात्मको और अधिभूतसहित अखिल कर्मको जान लेते हैं। परिणामस्वरूप उन्हें जरा-मरणसे मुक्तिके साथ-साथ ‘माम्’ अर्थात् समग्ररूप भगवान् का भी ज्ञान हो जाता है (गीता १८। ५५)। इस प्रकार विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान् के समग्ररूपका अनुभव होनेपर उनकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। अत: अन्तकाल आनेपर वे भगवान् को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि अन्तकालमें उन्हें जो भी चिन्तन होगा, वह भगवान् का ही चिन्तन होगा—‘युक्तचेतस:’। इस तीसवें श्लोकमें आये ‘युक्तचेतस:’ को ही आगे आठवें अध्यायमें ‘अनन्यचेता:’ कहा गया है।
इस अध्यायके आरम्भमें भगवान् ने ‘माम्’ पदसे अपने समग्ररूपको जाननेकी बात सुनानेकी प्रतिज्ञा की थी, उसी बातका उपसंहार यहाँ ‘मां विदु:’ पदसे करते हैं।
‘तत्’ को जाननेवाले संसारसे मुक्त हो जाते हैं और ‘माम्’ को जाननेवाले समग्ररूप भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं। इसी बातको चौथे अध्यायके पैंतीसवें श्लोकमें ‘येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ पदोंसे और अठारहवें अध्यायके चौवनवें श्लोकमें ‘सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्’ पदोंसे कहा गया है। भक्तिके द्वारा समग्ररूप भगवान् को प्राप्त होनेकी बात आगे आठवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें भी आयी है।
विज्ञानसहित ज्ञानका अर्थात् भगवान् के समग्ररूपका वर्णन करनेका तात्पर्य यही है कि जड़-चेतन, सत्-असत्, परा-अपरा, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, क्षर-अक्षर आदि जो कुछ भी है, वह सब-का-सब एक भगवान् का ही स्वरूप है।*
** खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
यत्किञ्च भूतं प्रणमेदनन्य:॥
(श्रीमद्भा० ११।२।४१)
‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, जीव-जन्तु, दिशाएँ, वृक्ष, नदियाँ, समुद्र—सब-के-सब भगवान् के ही शरीर हैं—ऐसा मानकर भक्त सभीको अनन्यभावसे प्रणाम करता है।’*
पहले जिन्हें परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा गया था, उन्हींके यहाँ दो-दो भेद किये गये हैं; जैसे—(१) परमात्मा—ब्रह्म और अधियज्ञ, (२) परा प्रकृति—अध्यात्म और अधिदैव, (३) अपरा प्रकृति—कर्म और अधिभूत। तात्पर्य है कि परमात्मा, परा और अपरा—तीनों ही मिलकर भगवान् का समग्ररूप है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय:॥ ७॥