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ॐ श्रीपरमात्मने नम:

अथ षोडशोऽध्याय:

सोलहवाँ अध्याय

(श्लोक-१)
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धि‍र्-ज्ञानयोगव्यवस्थिति:।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥

श्रीभगवान् बोले—भयका सर्वथा अभाव, अन्त:करणकी अत्यन्त शुद्धि, ज्ञानके लिये योगमें दृढ़ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियोंका दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, कर्तव्य-पालनके लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणीकी सरलता।

(श्लोक-२)
अहिंसा सत्यमक्रोधस्-‍‍‍त्याग: शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥

अहिंसा, सत्यभाषण, क्रोध न करना, संसारकी कामनाका त्याग, अन्त:करणमें राग-द्वेषजनित हलचलका न होना, चुगली न करना, प्राणियोंपर दया करना, सांसारिक विषयोंमें न ललचाना, अन्त:करणकी कोमलता, अकर्तव्य करनेमें लज्जा, चपलताका अभाव।

(श्लोक-३)
तेज: क्षमा धृति: शौच‍‍‍मद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवी‍मभिजातस्य भारत॥

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीरकी शुद्धि, वैर-भावका न होना और मानको न चाहना; हे भरतवंशी अर्जुन! ये सभी दैवी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।

(श्लोक-४)
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्॥

हे पृथानन्दन! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेकका होना भी—ये सभी आसुरी सम्पदाको प्राप्त हुए मनुष्यके लक्षण हैं।

(श्लोक-५)
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुच: सम्पदं दैवी‍मभिजातोऽसि पाण्डव॥

दैवी सम्पत्ति मुक्तिके लिये और आसुरी सम्पत्ति बन्धनके लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! तुम दैवी-सम्पत्तिको प्राप्त हुए हो, इसलिये तुम शोक (चिन्ता) मत करो।

व्याख्या—जीवके एक ओर भगवान् हैं और एक ओर संसार है। जब वह भगवान् के सम्मुख होता है तब उसमें दैवी-सम्पत्ति आती है और जब वह संसारके सम्मुख होता है तब उसमें आसुरी-सम्पत्ति आती है।

दूसरोंके सुखके लिये कर्म करना अथवा दूसरोंका सुख चाहना ‘चेतनता’ है, और अपने सुखके लिये कर्म करना अथवा अपना सुख चाहना ‘जड़ता’ है। भजन-ध्यान भी अपने सुखके लिये, अपने मान-आदरके लिये करना जड़ता है। चेतनताकी मुख्यतासे दैवी-सम्पत्ति आती है और जड़ताकी मुख्यतासे आसुरी-सम्पत्ति आती है।

मूल दोष एक ही है, जिससे सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति उत्पन्न होती है, और मूल गुण भी एक ही है, जिससे सम्पूर्ण दैवी-सम्पत्ति प्रकट होती है। मूल दोष है—शरीर-संसारकी सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना। मूल गुण है—भगवान् की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध-जोड़ना। यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थानभेदसे अनेक रूपोंमें दीखता है।

जबतक गुणोंके साथ अवगुण रहते हैं, तभीतक गुणोंकी महत्ता दीखती है और उनका अभिमान होता है। कोई भी अवगुण न रहे तो अभिमान नहीं होता। अभिमान आसुरी-सम्पत्तिका मूल है। अभिमानके कारण मनुष्यको दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता दीखने लगती है—यह आसुरी-सम्पत्ति है। अभिमान होनेके कारण दैवी-सम्पत्ति भी आसुरी-सम्पत्तिकी वृद्धि करनेवाली बन जाती है। जब गुणोंके साथ अवगुण नहीं रहते, तब गुणोंकी महत्ता नहीं दीखती और उनका अभिमान भी नहीं होता। अभिमान न होनेके कारण अर्जुनको अपनेमें गुण (श्रेष्ठता) नहीं दीखते। इसलिये उनकी चिन्ता दूर करनेके लिये भगवान् उनसे कहते हैं कि तुम्हारेमें दैवी-सम्पत्ति है, भले ही वह तुम्हें न दीखे।

गीतामें ‘मा शुच:’ पद दो बार आये हैं—एक यहाँ और दूसरा अठारहवें अध्यायके छाछठवें श्लोकमें। यहाँ ये पद ‘साधन’ के विषयमें और अठारहवें अध्यायमें ‘सिद्धि’ के विषयमें चिन्ता न करनेके लिये आये हैं। अत: भक्तको इन दोनों ही विषयोंमें चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

(श्लोक-६)
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मि‍न् दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरश: प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥

इस लोकमें दो तरहके ही प्राणियोंकी सृष्टि है—दैवी और आसुरी। दैवीको तो मैंने विस्तारसे कह दिया, अब हे पार्थ! तुम मुझसे आसुरीको (विस्तारसे) सुनो।

(श्लोक-७)
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुरा:।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥

आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये—इसको नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।

व्याख्या—आसुर मनुष्य केवल अपना सुख-आराम, अपना स्वार्थ देखते हैं। जिससे अपनेको सुख मिलता दीखे, उसीमें उनकी प्रवृत्ति होती है और जिससे दु:ख मिलता दीखे, स्वार्थ सिद्ध होता न दीखे, उसीसे उनकी निवृत्ति होती है। वास्तवमें प्रवृत्ति और निवृत्तिमें शास्त्र ही प्रमाण है (गीता १६।२४); परन्तु अपने शरीर और प्राणोंमें मोह रहनेके कारण आसुर मनुष्योंकी प्रवृत्ति और निवृत्ति शास्त्रको लेकर नहीं होती। आसुर स्वभावके कारण वे शास्त्रकी बात सुनते ही नहीं और अगर सुन भी लें तो उसे समझ सकते ही नहीं। कभी सन्त-महात्माओंसे शास्त्रकी बात सुननेपर भी वे उन्हें स्वीकार नहीं करते।

(श्लोक-८)
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥

वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादाके और बिना ईश्वरके अपने-आप केवल स्त्री-पुरुषके संयोगसे पैदा हुआ है। इसलिये काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कारण हो ही नहीं सकता।)

(श्लोक-९)
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धय:।
प्रभवन्त्युग्रकर्माण: क्षयाय जगतोऽहिता:॥

इस (पूर्वोक्त नास्तिक) दृष्टिका आश्रय लेनेवाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूपको नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करनेवाले और संसारके शत्रु हैं, उन मनुष्योंकी सामर्थ्यका उपयोग जगत् का नाश करनेके लिये ही होता है।

(श्लोक-१०)
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विता:।
मोहाद्‍गृहीत्वासद्‍ग्राहा‍न् प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रता:॥

कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मदमें चूर रहनेवाले तथा अपवित्र व्रत धारण करनेवाले मनुष्य मोहके कारण दुराग्रहोंको धारण करके (संसारमें) विचरते रहते हैं।

(श्लोक-११)
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिता:।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:॥

वे मृत्युपर्यन्त रहनेवाली अपार चिन्ताओंका आश्रय लेनेवाले, पदार्थोंका संग्रह और उनका भोग करनेमें ही लगे रहनेवाले और ‘जो कुछ है, वह इतना ही है’—ऐसा निश्चय करनेवाले होते हैं।

(श्लोक-१२)
आशापाशशतैर्बद्धा: कामक्रोधपरायणा:।
ईहन्ते कामभोगार्थ-‍‍‍मन्यायेनार्थसञ्चयान्॥

वे आशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोधके परायण होकर पदार्थोंका भोग करनेके लिये अन्यायपूर्वक धन-संचय करनेकी चेष्टा करते रहते हैं।

व्याख्या—जबतक मनुष्यका सम्बन्ध शरीर-संसारके साथ रहता है, तबतक उसकी कामनाओंका अन्त नहीं आता। दूसरे अध्यायके इकतालीसवें श्लोकमें भी आया है कि अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओंवाली होती हैं। कारण कि उन्होंने अविनाशी तत्त्वसे विमुख होकर नाशवान् को सत्ता और महत्ता दे दी तथा उसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया।

आसुर स्वभाववाले मनुष्य काम और क्रोधको स्वाभाविक मानते हैं। काम और क्रोधके सिवाय उन्हें और कुछ दीखता ही नहीं, इनसे आगे उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। मनुष्य समझता है कि क्रोध करनेसे दूसरा हमारे वशमें रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वशमें हुआ है वह कबतक वशमें रहेगा? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अत: क्रोधका परिणाम बुरा ही होता है।

(श्लोक-१३)
इदमद्य मया लब्ध‍‍‍मिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥

(वे इस प्रकारके मनोरथ किया करते हैं कि—) इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं और अब इस मनोरथको प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना धन फिर भी हो जायगा।

व्याख्या—पूर्वपक्ष—दैवी-सम्पत्तिवाले साधकोंके मनमें भी कभी-कभी व्यापार आदिको लेकर ऐसी स्फुरणाएँ होती हैं कि इतना काम तो हो गया, इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा, इतना पैसा (व्यापार आदिमें) आ गया है और इतना पैसा वहाँ देना है, आदि-आदि। फिर उनमें और आसुरी-सम्पत्तिवाले मनुष्योंमें क्या अन्तर हुआ?

उत्तरपक्ष—दोनोंकी वृत्तियाँ एक-सी दीखनेपर भी दोनोंके उद्देश्यमें बहुत अन्तर है। साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होता है; अत: वह उन वृत्तियोंमें तल्लीन नहीं होता। परन्तु आसुरी सम्पत्तिवालोंका उद्देश्य धनका संग्रह करने तथा भोग भोगनेका रहता है; अत: वे उन वृत्तियोंमें ही तल्लीन रहते हैं।

(श्लोक-१४)
असौ मया हत: शत्रुु‍‍र्-हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥

वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओंको भी हम मार डालेंगे। हम ईश्वर (सर्वसमर्थ) हैं। हम भोग भोगनेवाले हैं। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं।

(श्लोक-१५)
आढॺोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिता:॥

हम धनवान् हैं, बहुत-से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? हम खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे और मौज करेंगे—इस तरह वे अज्ञानसे मोहित रहते हैं।

(श्लोक-१६)
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृता:।
प्रसक्ता: कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥

(कामनाओंके कारण) तरह-तरहसे भ्रमित चित्तवाले, मोह-जालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयंकर नरकोंमें गिरते हैं।

व्याख्या—ऊँचे लोकोंकी अथवा नरकोंकी प्राप्ति होनेमें क्रिया और पदार्थ कारण नहीं हैं, प्रत्युत भीतरका भाव कारण है। जैसा भाव होता है, वैसी ही क्रिया अपने-आप होती है। इसलिये भगवान् ने आसुर मनुष्योंके भावों (मनोरथ आदि)-का वर्णन किया है।

(श्लोक-१७)
आत्मसम्भाविता: स्तब्धा धनमानमदान्विता:।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥

अपनेको सबसे अधिक पूज्य माननेवाले, अकड़ रखनेवाले तथा धन और मानके मदमें चूर रहनेवाले वे मनुष्य दम्भसे अविधिपूर्वक नाममात्रके यज्ञोंसे यजन करते हैं।

व्याख्या—आसुर स्वभाववाले मनुष्य दूसरोंसे प्रतिस्पर्धा रखते हैं और इसलिये यज्ञ करते हैं कि दूसरोंकी अपेक्षा हममें कोई कमी न रह जाय अर्थात् कोई हमें यज्ञ करनेवालोंकी अपेक्षा नीचा न मान ले। वे लोगोंमें केवल अपनी प्रसिद्धि करनेके लिये यज्ञ करते हैं, फलपर विश्वास नहीं रखते। दूसरा व्यक्ति यज्ञ करता है तो वे ऐसा समझते हैं कि वह भी अपनी प्रसिद्धिके लिये ही यज्ञ करता है। ईश्वर और परलोकपर विश्वास न होनेके कारण उनकी दृष्टि विधिपर नहीं रहती। विधिका विचार वही करते हैं, जो ईश्वर और परलोकको मानते हैं कि अमुक कर्म करेंगे तो उसका अमुक फल मिलेगा।

आसुर मनुष्योंकी चेष्टाएँ प्राय: दिखावटी होती हैं; परन्तु उनके भीतर यह अभिमान होता है कि हम दूसरोंसे भी बढ़िया यज्ञ करेंगे। उनमें अपनी जानकारीका भी अभिमान होता है कि हम समझदार हैं, दूसरे सब मूर्ख हैं, समझते नहीं। वास्तवमें उनमें कोरी मूर्खता भरी होती है।

(श्लोक-१८)
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता:।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका:॥

वे अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोधका आश्रय लेनेवाले मनुष्य अपने और दूसरोंके शरीरमें (रहनेवाले) मुझ अन्तर्यामीके साथ द्वेष करते हैं तथा (मेरे और दूसरोंके गुणोंमें) दोषदृष्टि रखते हैं।

व्याख्या—आसुरी प्रकृतिवाले मनुष्य अपनी जिदपर अड़े रहते हैं और अपनी बातको ही सच्ची मानते हैं। यह सिद्धान्त है कि जो खुद दु:खी होता है, वही दूसरोंको दु:ख देता है। आसुर मनुष्य खुद दु:खी रहते हैं, इसलिये वे दूसरोंको भी दु:ख देते हैं। उन्हें कहीं भी गुण नहीं दीखता, प्रत्युत दोष-ही-दोष दीखते हैं। उनकी ऐसी मान्यता होती है कि सब अच्छाई हममें ही है। उन्हें संसारमें कोई अच्छा आदमी दीखता ही नहीं।

(श्लोक-१९)
तानहं द्विषत: क्रूरा‍न् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभा‍‍नासुरीष्वेव योनिषु॥

उन द्वेष करनेवाले, क्रूर-स्वभाववाले और संसारमें महान् नीच, अपवित्र मनुष्योंको मैं बार-बार आसुरी योनियोंमें ही गिराता रहता हूँ।

व्याख्या—भगवान् का क्रूर, निर्दय आसुर मनुष्योंमें भी अपनापन है! भगवान् उनको पराया नहीं समझते, अपना द्वेषी-वैरी नहीं समझते, प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे हितैषी अध्यापक विद्यार्थियोंपर शासन करके, उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं जिससे वे विद्वान् बन जायँ, उन्नत बन जायँ, ऐसे ही जो मनुष्य भगवान् को नहीं मानते, उनका खण्डन करते हैं, उनको भगवान् आसुरी योनियोंमें गिराते हैं, जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जायँ और वे शुद्ध-निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।

(श्लोक-२०)
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥

हे कुन्तीनन्दन! वे मूढ़ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तरमें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गतिमें अर्थात् भयंकर नरकोंमें चले जाते हैं।

व्याख्या—यहाँ ‘मामप्राप्यैव’ (मुझे प्राप्त न करके) पदसे भगवान् मानो पश्चात्तापके साथ कहते हैं कि मैंने अत्यन्त कृपा करके जीवोंको मनुष्यशरीर देकर इन्हें अपने उद्धारका अवसर दिया था और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे, परन्तु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस मनुष्यजन्मसे मेरी प्राप्ति करनी थी, उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गतिमें चले गये!

(श्लोक-२१)
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभ‍‍‍स्-तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥

काम, क्रोध और लोभ—ये तीन प्रकारके नरकके दरवाजे जीवात्माका पतन करनेवाले हैं, इसलिये इन तीनोंका त्याग कर देना चाहिये।

व्याख्या—भोगकी इच्छाको लेकर ‘काम’ तथा संग्रहकी इच्छाको लेकर ‘लोभ’ आता है और इन दोनोंमें बाधा पड़नेपर ‘क्रोध’ आता है। ये तीनों ही आसुरी सम्पत्तिके मूल हैं। सब पाप इन तीनोंसे ही होते हैं।

(श्लोक-२२)
एतैर्विमुक्त: कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नर:।
आचरत्यात्मन: श्रेय‍‍‍स्-ततो याति परां गतिम्॥

हे कुन्तीनन्दन! इन नरकके तीनों दरवाजोंसे रहित हुआ जो मनुष्य अपने कल्याणका आचरण करता है, वह उससे परम गतिको प्राप्त हो जाता है।

व्याख्या—काम-क्रोध-लोभसे रहित होनेका तात्पर्य है—इनके त्यागका उद्देश्य रखना, इनके वशमें न होना। कामसे, क्रोधसे अथवा लोभसे किया गया शुभ-कर्म भी कल्याणकारक नहीं होता। इसलिये इनके त्यागकी तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये। काम-क्रोध-लोभको पकड़े रहनेसे कल्याणका आचरण (जप,ध्यान आदि) करनेपर भी कल्याण नहीं होता; क्योंकि ये सम्पूर्ण पापोंके कारण (गीता ३।३७) तथा सम्पूर्ण अच्छे गुणोंका भक्षण करनेवाले हैं।

(श्लोक-२३)
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥

जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्त:करणकी शुद्धि)-को, न सुख (शान्ति)-को और न परम गतिको ही प्राप्त होता है।

व्याख्या—जैसे रोगी अपनी दृष्टिसे तो कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करता है, पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है, जिससे उसका रोग और अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही आसुर मनुष्य अपनी दृष्टिसे तो अच्छा काम करते हैं, पर भीतरमें काम, क्रोध और लोभ रहनेके कारण वे शास्त्रविधिकी अवहेलना करके मनमाने ढंगसे काम करने लग जाते हैं, जिससे वे अधोगतिमें चले जाते हैं। वे अभिमानके कारण अपनेको सिद्ध और सुखी मानते हैं—‘सिद्धोऽहं बलवान्सुखी’ (गीता १६।१४), पर वास्तवमें वे न सिद्ध होते हैं, न सुखी। उनके भीतर अभिमान और द्वेषकी अग्नि जलती रहती है।

(श्लोक-२४)
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥

अत: तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है—ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधिके अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।

व्याख्या—सातवें श्लोकमें भगवान् ने कहा था कि आसुर स्वभाववाले मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्यको नहीं जानते। यहाँ भगवान् बताते हैं कि वह आसुर-स्वभाव शास्त्रके अनुसार आचरण करनेसे ही मिटेगा।

पूर्वपक्ष—जो शास्त्र पढे़ हुए नहीं हैं उन्हें कर्तव्यका ज्ञान कैसे होगा?

उत्तरपक्ष—यदि उनका अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो अपने कर्तव्यका ज्ञान स्वत: होगा; क्योंकि आवश्यकता आविष्कारकी जननी है। यदि अपने कल्याणका उद्देश्य नहीं होगा तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं!

जिनके आचरण शास्त्रके अनुसार होते हैं, ऐसे सन्त-महापुरुषोंके आचरणों और वचनोंके अनुसार चलना भी शास्त्रोंके अनुसार ही चलना है। वास्तवमें देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदिसे ही शास्त्र बनते हैं।

इतिहासके आधारपर सत्यका निर्णय नहीं हो सकता। कारण कि उस समय समाजकी क्या परिस्थिति थी, और किसने किस परिस्थितिमें क्या किया और क्यों किया, किस परिस्थितिमें क्या कहा और क्यों कहा—इसका पूरा पता नहीं लग सकता। इसलिये इतिहासमें आयी अच्छी बातोंसे मार्गदर्शन तो हो सकता है, पर सत्यका निर्णय शास्त्रके विधि-निषेधसे ही हो सकता है। इतिहाससे विधि प्रबल है और विधिसे भी निषेध प्रबल है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:॥ १६॥

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