॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
ज्ञानके दीप जले
पराकृतनमद्बन्धं परं ब्रह्म नराकृति।
सौन्दर्यसारसर्वस्वं वन्दे नन्दात्मजं मह:॥
प्रपन्नपारिजाताय तोत्त्रवेत्रैकपाणये।
ज्ञानमुद्राय कृष्णाय गीतामृतदुहे नम:॥
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥
वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणविम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥
हरि: ॐ नमोऽस्तु परमात्मने नम:।
श्रीगोविन्दाय नमो नम:।
श्रीगुरुचरणकमलेभ्यो नम:।
महात्मभ्यो नम:।
सर्वेभ्यो नमो नम:।
हमारा सम्बन्ध ईश्वरके साथ है, संसारके साथ नहीं। जिसका सम्बन्ध हमारे साथ नहीं है, उसका त्याग करना है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२।१२)। जिसके साथ हमारा सम्बन्ध ही नहीं, उसका त्याग क्या करें? त्याग करना है—भूलका। सम्बन्ध भूलसे माना है। मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा तथा मेरे लिये है—यह सम्बन्ध माना हुआ है, वास्तवमें है नहीं। शरीर निरन्तर हमसे अलग हो रहा है। बचपनमें जो शरीर था, वह अब नहीं है, पर मैं वही हूँ। शरीर बदल गया, पर स्वयं नहीं बदला। यह हमारा, सबका अनुभव है। इस अनुभवका आदर करो तो जीवन्मुक्त हो जाओगे।
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जो अपना नहीं है, उसको अपना माननेसे विश्वासघात होगा, धोखा होगा! पहले बालकपनको अपना मानते थे, वह अब रहा क्या? शरीरका निरन्तर वियोग हो रहा है।
जीव भगवान्से विमुख हुआ है, अलग नहीं और संसारके सम्मुख हुआ है, साथ नहीं। संसारसे केवल सेवाके लिये ही सम्बन्ध माने। संसारको अपना और अपने लिये न माने। कोई भी काम अपने लिये न करके दूसरोंकी सेवा (हित)-के लिये करे। भजन-ध्यान आदि भी अपने लिये न करे।
आजकल बेटोंसे भी आशा मत रखो तो सुख पाओगे। उनकी सेवा करो, पर आशा मत रखो।
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मैंपन हमारा स्वरूप नहीं है। ‘मैं’ (अहम्) अलग है, स्वरूप अलग है। ‘मैं’ के कारण ‘हूँ’ है। ‘मैं’ न रहे तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। ‘मैं’ जड़ है, ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं हूँ’—यह चिज्जड़ग्रन्थि है। ‘मैं’ को छोड़नेसे ग्रन्थिभेद हो जाता है।
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परमात्मा आनन्दरूप है। संसार सुख-दु:खरूप है। दु:खके साथ जो सुख है, वह दु:खका कारण है। सुखके भोगीको दु:ख भोगना ही पड़ेगा। सुखमात्र दु:खमें परिणत हो जाता है। भोगी मनुष्य सुख-दु:ख दोनोंको भोगता है। परन्तु योगी सुख-दु:खको नहीं भोगता। यह शरीर सुख-दु:ख भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत दोनोंसे ऊँचा उठकर आनन्द पानेके लिये है।
सुखदायी परिस्थिति सेवा करनेके लिये है। आपमें जो बड़प्पन है, वह दूसरोंका दिया हुआ है। सुखको भोगना दु:खको निमन्त्रण देना है। दु:खदायी परिस्थिति सुखकी चाहना मिटानेके लिये है।
दूसरेके दु:खसे दु:खी होनेपर हमारा दु:ख मिट जाता है। दूसरेके सुखसे सुखी होनेपर हम सुखी हो जाते हैं। काम खुद करो, आराम दूसरोंको दो।
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मैं-तू, यह-वह चारों एक ज्ञानके अन्तर्गत हैं। सत्ता, होनापन ज्यों-का-त्यों है। उससे यह सब प्रकाशित होता है। वह सत्ता बाहर-भीतर सब जगह परिपूर्ण है। उसमें संसारकी सृष्टि-प्रलय आदि अनेक क्रियाएँ होती हैं, पर उस सत्तामें, ज्ञानमें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सत्ता ही हमारा स्वरूप है। उसीको सच्चिदानन्द कहते हैं। वह स्वयं प्रकाश और सबका प्रकाशक है। वह तत्त्व सब समयमें सबको प्राप्त है। उस तत्त्वको जानने या न जाननेसे, मानने या न माननेसे उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। उस तत्त्वमें कोई हलचल, आना-जाना नहीं है। जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया भी उसमें नहीं है। उसीके अन्तर्गत यह सब सृष्टि है। शाखाचन्द्रन्यायसे उसका लक्ष्य कराया जाता है। उसका अनुभव करें या न करें, वह तो वैसा ही है; पर अनुभव करनेसे हम हलचलसे (आवागमनसे) रहित हो जाते हैं। उसका अनुभव करनेमें ही मनुष्य-जीवनकी सफलता है।
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दो बातका सबको अनुभव होता है कि शरीर बदलता है, स्वयं नहीं बदलता। बदलनेवालेमें मोह करना, उसके साथ मिलकर अपनेको भी बदलनेवाला मानना गलती है। जैसे नदी निरन्तर बहती है, पर शिला निरन्तर रहती है, ऐसे ही शरीर बदलता है, आप वही रहते हो। संसार बदलता है, परमात्मा वही रहते हैं। बदलनेवाली वस्तुएँ सेवा करनेके लिये हैं, अपने लिये नहीं। जो मिला है और बिछुड़नेवाला है, उससे सेवा करो। बदलनेवाले शरीर-संसार एक हैं, न बदलनेवाले आप (स्वयं) तथा भगवान् एक हैं। बदलनेवालेको बदलनेवालेकी सेवामें लगा दो।
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हम जो कुछ भी व्यवहार करते हैं, उसमें ‘सत्ता’ और ‘ज्ञान’—ये दो रहते हैं। व्यवहार (चलना, बोलना आदि) तो प्रत्यक्ष बदलता है, पर सत्ता और ज्ञानमें परिवर्तन नहीं होता। सुख, दु:ख आदिमें सत्ता और ज्ञान वैसे-के-वैसे ही रहते हैं। जन्म-मृत्युकी सत्तामें और ज्ञानमें क्या फर्क पड़ता है? सत्ता और ज्ञान एकरूप रहते हैं। सत्ता और ज्ञान ही परमात्मतत्त्व है। सत्ता और ज्ञान ही आपका स्वरूप है।
जो जा रहा है, उसको मत देखो। जो है, उसको देखो। नित्यप्राप्तकी प्राप्तिको देखो। नित्यनिवृत्तकी निवृत्तिको देखो। समको देखो, विषमको मत देखो—‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति’ (गीता १३।२७)।
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भक्तिमार्ग श्रेष्ठ भी है और सुगम भी। परन्तु यह कठिन इसलिये हो गया कि किसीका कहना मानते नहीं! जो माता-पिताकी आज्ञा नहीं मानता, वह भगवान्की आज्ञा माननेकी बात कैसे समझेगा? अब मुश्किल यह हो गयी कि समझायें कैसे? सब उच्छृंखल हो रहे हैं, अब किसका उदाहरण देकर समझायें? उदाहरण समझमें आना कठिन हो गया! कोई पतिव्रता दीखती ही नहीं, फिर पतिव्रताका उदाहरण कौन समझे?
माता-पिता, पति, गुरुकी परतन्त्रतामें महान् स्वतन्त्रता है। आजकल उच्छृंखलताका नाम स्वतन्त्रता मान लिया है। गधेको यहाँ (सत्संगमें) लायें तो यहीं पेशाब कर देगा; क्योंकि वह स्वतन्त्र है कि चाहे जहाँ पेशाब करे!
जो भगवान्का हो गया, वह भगवत्-रूप ही हो जाता है।
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भगवान्की ओरसे मनुष्यको बहुत विशेष अधिकार मिला है। इसमें भगवान्का पक्षपात प्रतीत होता है। भगवान्ने मनुष्यको दुनियामात्रके उद्धारका अधिकार दिया है। इस विषयमें दो बातें हैं—परमात्मामें तल्लीन होना और बुराईका सर्वथा त्याग करना। सबका सार परमात्मा हैं। जैसे वृक्षके मूलमें जल देनेसे पूरे वृक्षको तृप्ति पहुँचती है, ऐसे ही परमात्मामें तल्लीन होनेसे दुनियामात्रका जितना हित होगा, उतना करनेसे नहीं।
हमारे भीतरमें सबके हितका भाव रहे। अगर हमें हिन्दुओंका मरना बुरा लगता है और मुसलमानोंका मरना अच्छा लगता है तो यह पहचान है कि अभी भीतरमें राग-द्वेष हैं। समता प्राप्त नहीं हुई। तत्त्वप्राप्तिकी परीक्षा है कि अन्त:करणमें समता आ जाय।
अगर बुराईसे सर्वथा छूट जायँ तो संसारमात्रकी सेवा हो जायगी। लोगोंकी दृष्टि विधिपर रहती है, त्यागपर नहीं। त्यागका जो माहात्म्य है, वह विधिका नहीं है। बुराईका त्याग करनेसे दुनियामात्रका हित होता है। जो किसीको भी बुरा नहीं मानता, किसीका भी बुरा नहीं चाहता और बुरा नहीं करता, वह सबकी सेवा करता है। किसीका बुरा होनेसे अथवा किसीकी मृत्युसे राजी नहीं होना चाहिये।
बलिवैश्वदेव करनेसे त्रिलोकीको भोजन देनेका माहात्म्य होता है। सूर्यको जल देनेसे त्रिलोकीको जल देनेका माहात्म्य होता है। प्रात:स्नानके बाद ताँबेके लोटेमें जल डालकर उसमें लाल पुष्प या कुंकुम डाल दे और ‘श्रीसूर्याय नम:’ अथवा ‘एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥’ कहते हुए सूर्यको (तीन अंजलि) जल दे।
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मानवजीवन बहुत कीमती है। यह मोतियाबिन्दके आपरेशनके औजारकी तरह है, जिससे काठ नहीं चीरा जाता। मनुष्यका कर्तव्य है—सबकी सेवा करना। जो दूसरोंको कष्ट देते हैं, हिंसा करते हैं, मांस-सेवन करते हैं, वे राक्षस हैं, मनुष्य नहीं। किसीकी बुराई न करे, किसीको बुरा न समझे और किसीका बुरा न सोचे। जो बुराई करता है, देखता है, सोचता है, वह खुद बुरा हो ही जायगा।
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शरीर बदलता है, पर मैं (स्वयं) नहीं बदलता—यह सबका अनुभव है। बदलनेको जाननेवाला बदलनेवाला नहीं होता। हम जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्तिको, बाल्यावस्था आदि अवस्थाओंको, प्रलयको तथा सृष्टिको जानते हैं। ब्रह्माजीकी आयुको जानते हैं। जाननेवाला अलग होता है और जाननेमें आनेवाला अलग होता है। जाननेवाला सत् है, जाननेमें आनेवाला असत् है। सत् है, असत् नहीं है—यह तत्त्व है।
है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं॥
जो आता है और चला जाता है, उसमें चिन्ता किस बातकी? रात-दिनकी तरह सुख-दु:ख आते-जाते हैं। बालक जन्मता है तो सब बातोंमें सन्देह रहता है, पर मरनेमें कोई सन्देह नहीं। जो नि:सन्देह बात है, उसे जान लो तो दु:ख नहीं होगा। सच्ची बातको जान ले तो किस बातका दु:ख है? संयोगका वियोग जरूर होगा। वियोग मुख्य है, संयोग मुख्य नहीं है।
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मनुष्यशरीर सत्संगके लिये मिला है। यहाँ जैसे सत्संग करनेके लिये आये हैं, ऐसे ही मनुष्यजन्ममें सत् का संग करनेके लिये आये हैं, रहनेके लिये नहीं। शरीर प्रतिक्षण मर रहा है। हम जी रहे हैं—यह वहम है।
जैसे विवाह हुआ तो हो ही गया, उसमें सोचना नहीं पड़ता, ऐसे ही भगवान्के हो गये तो हो ही गये। आप जहाँ हैं, वहाँ रहते हुए ही यह निश्चय कर लो कि हम भगवान्के हो गये। भगवान्ने किसी भी जीवका त्याग नहीं किया। गलती हमसे ही हुई है। हम ही भगवान्से विमुख हुए हैं।
सेवा करनेके लिये हम सबके हैं, पर लेनेके लिये हम किसीके भी नहीं हैं। लेनेके लिये कोई हमारा नहीं है। सेवा करना और लेना कुछ नहीं—यही संसारके साथ सम्बन्ध रखो।
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ज्ञानके बिना प्रेम आसक्ति है। प्रेमके बिना ज्ञान शून्य है। प्रेमके बिना ज्ञान बिना मल्लाहकी नौका है।
दूसरेके सुखके लिये प्रेम होता है, अपने सुखके लिये ‘काम’ होता है। माँका प्रेम भी मोहपूर्वक, स्वार्थपूर्वक होता है। बिना स्वार्थके दूसरेका हित करना है।
स्त्री परपुरुषका और पुरुष परस्त्रीका स्पर्श न करे तो उनके तेज, शक्तिकी वृद्धि होगी। घरमें माँके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम करे तथा अन्य स्त्रियोंको दूरसे प्रणाम करे। स्त्री पतिके चरण-स्पर्श करे, पर अन्य पुरुषोंको दूरसे प्रणाम करे।
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एक निश्चयवाली बुद्धि होनी चाहिये। हरेक बातमें दृढ़ रहनेका स्वभाव बना लें। जैसा करनेका विचार कर लें, वैसा ही करनेकी आदत बना लें। विचार बदलते रहनेसे स्वभाव वैसा ही बन जाता है। सांसारिक व्यवहारमें जैसी आदत होगी, वही आदत पारमार्थिक मार्गमें भी काम करेगी।
खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ निर्वाहबुद्धिसे करें, स्वाद-शौकीनीसे नहीं।
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अपने बलसे निराश हो जाय, पर भगवत्प्राप्तिसे कभी निराश नहीं होना चाहिये। भगवत्प्राप्ति भावके अधीन है, बलके अधीन नहीं। ‘हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि’—अपने यत्नसे हार गये, पर तत्त्वप्राप्तिसे नहीं—‘जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥’(मानस, बाल० ८१।३)। हमें तत्त्वको प्राप्त करना ही है, चाहे प्राण चले जायँ। इस प्रकार अपने लक्ष्यपर अटल रहना साधकके लिये बहुत लाभदायक है। भोग और संग्रहमें आसक्ति होनेके कारण अटल निश्चय नहीं होता। साधकके मनमें न भोगोंकी गरज (कामना, आसक्ति, राग) हो, न संग्रहकी गरज हो।
मनके लगनेकी अपेक्षा बुद्धिका लगना श्रेष्ठ है। एक निश्चय होना ही बुद्धिका लगना है। मन लगनेसे सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। मनको लगाना कठिन है, पर बुद्धिको लगाना सुगम भी है और श्रेष्ठ भी। मैं अमुकका शिष्य हो गया, मैं अमुक पतिकी हो गयी—यह बुद्धिका लगना है। दृढ़ विचार खुदको ही करना पड़ेगा।
कल्याण तब होगा, जब आपकी खुदकी लगन हो। परमात्मा सब जगह मौजूद है, ग्राहक चाहिये। खम्भे कई हैं, पर प्रह्लाद चाहिये। भोजन तो दूसरा दे देगा, पर भूख खुदकी चाहिये। सत्संग करते-करते भूख भी लग जायगी।
चाहना हमारी होनी चाहिये। बच्चेकी चाहना हो तो माँके स्तनोंमें दूध आ जाता है। हमारा विचार दृढ़ होगा तो सभी हमारे सहायक हो जायँगे।
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हमारा विवेक हरदम जाग्रत् रहना चाहिये। नाशवान् तथा अविनाशीके विभागको भी जानना है, और कर्तव्य-अकर्तव्यके विभागको भी जानना है। अनुकूलता-प्रतिकूलता कल्याणके लिये आती है, सुख-दु:ख भोगनेके लिये नहीं।
जैसे आप अपना दु:ख दूर करनेके लिये पैसे खर्च करते हैं, ऐसे ही दूसरेका दु:ख दूर करनेके लिये भी खर्च करें, तभी आपको पैसे रखनेका हक है।
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अपनेको शुद्ध (अच्छा) बनाना चाहिये। अपनेको शुद्ध बनायें तो लोक-परलोक सब ठीक हो जायँगे। ‘मामका:’ और ‘पाण्डवा:’—यह भेद ही नाश करनेवाला है। अन्तमें विजय उसकी होती है, जो धर्मका ठीक पालन करता है। धर्मका बल ही बल है। न्याययुक्त मनुष्यके भीतर जो बल रहता है, वह अन्यायीके भीतर नहीं रहता।
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जीवन्मुक्ति अभी हो सकती है; क्योंकि वह है। आदर और निरादर—दोनोंके समय आप वही रहते हो, तो फिर आपमें क्या फर्क पड़ा? हरा और पीला दोनों अलग-अलग हैं, पर उनको देखनेवाली आँखमें क्या फर्क पड़ा? राजी और नाराजीके समय आप एक हुए कि दो हुए? जब जाननेमें फर्क नहीं पड़ा तो फिर जाननेवालेमें क्या फर्क पड़ा? मेरी बातकी तरफ ध्यान दो तो आप सब-के-सब अभी तत्काल जीवन्मुक्त हो सकते हो।
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आजकल गुरु और शिष्य दोनोंका ही मिलना दुर्लभ है। आजकल गुरुभक्ति तो है नहीं, गुरु बनाना केवल तमाशा है।
संसारसे लाभ लेना चाहो तो यह नाशवान् है और सेवा करना चाहो तो यह ‘वासुदेव: सर्वम्’ है। संसारसे सुख लेना चाहो तो यह दु:खालय है।
मैं यहाँ (गीताभवन, स्वर्गाश्रममें) संवत् १९८९ से आता हूँ, पर अभीतक मैंने नीलकण्ठ नहीं देखा; क्योंकि मैं वहाँ गया ही नहीं! ऐसे ही आप कहते हो कि इतने वर्ष सत्संग करते हो गये, लाभ नहीं दीखता तो आपने माना ही नहीं, फिर दीखे कैसे? जिससे पतन हो जाय, वह न भी दीखे, फिर भी आप उसे मान लेते हो, पर जिससे उद्धार हो जाय, उसे मानते ही नहीं! समझमें न आये तो भी मान लो कि सब कुछ परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’। आपकी समझ ठीक है कि गीताकी? मनसे सबको परमात्माका स्वरूप देखो। शरीरसे सबका आदर करो। कम-से-कम किसीका अहित मत करो, किसीको दु:ख मत दो। किसीका बुरा नहीं करोगे तो दुनियामात्रकी सेवा हो जायगी। किसीकी मौतपर राजी होना उसको मारनेमें सहमत होना है। किसीको दु:ख न दें और किसीके दु:खमें राजी न हों।
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संसारका वियोग ही सत्य है। संयोगका वियोग तो अवश्यम्भावी है, पर वियोगका संयोग अवश्यम्भावी नहीं है। परमात्माके साथ एकता ‘योग’ है। यह योग नित्य है। संसारका वियोग नित्य है। संसारका ज्ञान संसारके वियोगसे होगा और परमात्माका ज्ञान परमात्माके योगसे होगा। कारण कि संसार अलग है, परमात्मा अलग नहीं हैं।
जीना अनित्य है, मरना नित्य है। जिसका वियोग अवश्यम्भावी है, उसकी सेवा करो। जिसका संयोग अवश्यम्भावी है, उससे प्रेम करो। जो अवश्यम्भावी है, उसे पहलेसे ही स्वीकार कर लेना चाहिये।
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हमारा जीवन ऐसा होना चाहिये कि किसीको भी हमारे द्वारा तकलीफ न हो। ऐसा हो जाय तो दुनियाका भला हो गया! किसीका बुरा न करना सबसे बड़ी सेवा है।
संसारका संयोग अनित्य और असत् है, पर संसारका वियोग नित्य और सत् है। परमात्माके साथ सबका नित्ययोग है। संसारके साथ सबका नित्यवियोग है। यह स्वीकार कर लो। जो आपको छोड़ रहा है, उसको छोड़ दो और जो कभी नहीं छोड़ता, उसको पकड़ लो, जो हमारा नहीं है, उसकी सेवा कर दो। जो हमारा है, उसको अपना मान लो।
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निषेधात्मक साधन बहुत ऊँचा है। करनेकी अपेक्षा न करना श्रेष्ठ है। कारण कि संसारका नित्यवियोग है। श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि ऊँचे साधन नहीं हैं; ये विध्यात्मक साधन हैं। विध्यात्मक साधनमें प्रकृतिका सम्बन्ध रहेगा ही। संसारसे नित्यवियोग स्वीकार करते ही योगकी प्राप्ति हो जायगी। निषेधात्मक साधनमें स्वत: सिद्धि होती है। परमात्मामें विधि नहीं है, प्रत्युत सब चीजोंका निषेध है। विहित कार्य सब नहीं कर सकते, पर निषिद्धका त्याग सब कर सकते हैं। विहितको देखें तो सातों वारोंके व्रत कौन रख सकेगा?
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आने-जानेवाली चीजोंसे समताका नाश नहीं होता। समता ज्यों-की-त्यों रहती है।
सुखी-दु:खी होनेमें मूर्खता कारण है, प्रारब्ध कारण नहीं है। बालकको कितनी ही अनुकूलता दे दो, फिर भी वह रो देगा; क्योंकि मूर्खता है। ऐसे ही जो रोते हैं, वे बालक हैं।
जो कर्म कामनाको लेकर किये जायँ, वे सब अशुभकर्म हैं। उनसे जन्म-मरण नहीं मिटेगा; ब्रह्मलोकतक जाकर भी पीछे लौटना पड़ेगा। कामनासे बन्धन है, निष्कामतासे मुक्ति है।
किसी भी योगसे चलो, निर्मम और निरहंकार होना ही पड़ेगा। शरीर आदिका त्याग ‘त्याग’ नहीं है, प्रत्युत मैं-मेरेका त्याग ही ‘त्याग’ है।
कर्तृत्वाभिमान और कामना न हो तो सब कर्म ‘अकर्म’ हो जाते हैं अर्थात् कर्म जली हुई मूँजकी रस्सीकी तरह हो जाते हैं, बन्धनकारक नहीं होते। कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा—इन दोसे कर्म बन्धनकारक होते हैं। फलेच्छा नहीं रहे तो कर्तृत्वाभिमान भी नहीं रहेगा। कर्मयोगमें फलेच्छाका और ज्ञानयोगमें कर्तृत्वाभिमानका त्याग मुख्य है। दोनोंमें एकका त्याग होनेपर दोनोंका त्याग हो जायगा। मेरा और दूसरोंका, अभी और परिणाममें सबका हित हो, वही कार्य करना चाहिये।
कामनाको मिटानेके लिये ऐसा विचार करना चाहिये कि कामनाकी पूर्ति होनेपर मिला क्या? जहाँ थे, वहीं लौटकर आ गये, फायदा क्या हुआ? सौ रुपयेकी कामना पूरी हो गयी तो हजार रुपयोंकी कामना हो गयी, फायदा क्या हुआ?
साधु, गृहस्थ, राजा, निर्धन आदि सभीके लिये वैराग्य बड़े कामकी चीज है। राग मूर्खताकी पहचान है—‘रागो लिङ्गमबोधस्य’।
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नाशवान्की सत्ता विद्यमान नहीं है और जो इसको जाननेवाला है, उसका अभाव विद्यमान नहीं है। दोनोंका तत्त्व है—भावरूपसे रहनेवाला चेतन। जो है ही नहीं, उसको क्या जानना? शरीरके नाशसे अपना नाश मानना गलती है। शरीरका वियोग ही सत्य है और नित्य है। अपनेको जानेवालेके साथ मानना बन्धन है और नित्य रहनेवालेके साथ मानना मुक्ति है। शरीर और संसार अनित्य-विभागमें हैं। आत्मा और परमात्मा नित्य-विभागमें हैं।
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संसारकी चीजोंपर तो हमारा थोड़ा-थोड़ा अधिकार है, पर भगवान् पर जीवमात्रका पूरा अधिकार है। माँकी गोदीमें जानेका सब बालकोंका पूरा अधिकार है।
संसारके साथ सम्बन्ध रखना है केवल सेवाके लिये। सेवा करो और पिण्ड छुड़ाओ! सेवा सबकी कर दो, पर लेनेकी आशा किसीसे भी मत रखो। भगवान्से भी लेनेकी आशा मत रखो। संसारकी आशा रखनेवाला कभी सुखी नहीं होता। एक सन्त बीमार हुए तो जिनसे सेवाकी आशा थी, उनमेंसे किसीने भी उनकी सेवा नहीं की। एक अपरिचित व्यक्तिने उनकी सेवा की और जब सन्त स्वस्थ हो गये तो उसने ब्राह्मणभोजन भी किया!
ठाकुरजीके प्रसादमें मीठा भी होता है और करेला भी होता है। दोनों ही प्रसाद हैं। ऐसे ही कड़वा-मीठा (सुख-दु:ख) जो आये, सब भगवान्का प्रसाद है। जो हम बुद्धिमें नहीं ला सकते, वह काम भी भगवान् कर देते हैं, फिर हम चिन्ता क्यों करें?
जो जिस परिस्थितिका तिरस्कार करता है, उसको वह परिस्थिति पुन: मिलती नहीं। अत: जो मिले, उसका सदुपयोग करो।
ठीक-बेठीक हमारी दृष्टिमें होता है। भगवान्की दृष्टिमें सब ठीक-ही-ठीक होता है।
भगवान्ने कृपा करके हमें दुनियाभरमें सबसे बढ़िया जगह (इस सत्संगमें) पहुँचा दिया! नहीं तो ऐसी जगहकी हम खुद खोज नहीं कर सकते। विचार करें, हम कहाँ जन्मे, कहाँ पढ़े, कहाँ रहे और कहाँ पहुँच गये!
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सुखी-दु:खी स्वयं ही होता है। स्वयं सुखी-दु:खी नहीं होता—यह बात तो सुनी हुई और सीखी हुई है, पर हम स्वयं सुखी-दु:खी होते हैं—यह हमारा अनुभव है।
दु:ख मैं-मेरेपनसे होता है। जबतक मैं-मेरेकी मान्यता है, तबतक कितना ही सीख लो, दु:ख नहीं मिटेगा। जिस मकानको हम अपना मानते हैं, उसमें कोई कोयलेकी लकीर भी खींच दे तो दु:ख होता है। उसी मकानको जब हम बेच देते हैं, तब उसके टूटनेका भी हमें दु:ख नहीं होता। अत: जिनमें हमारा अपनापन नहीं है, उनसे हम मुक्त ही हैं। इस दृष्टिसे अधिक मुक्ति तो हो गयी है, थोड़ी-सी बाकी है! संसारमें कई मकान नष्ट होते हैं, कई मनुष्य मरते हैं, पर उनका हमारेपर असर नहीं पड़ता। जिसमें हमारा मैं-मेरापन होता है, उसीका असर पड़ता है।
जहाँ ममता नहीं होती, वहाँ व्यवहार बढ़िया होता है। जहाँ ममता होती है, वहाँ इलाज भी बढ़िया नहीं होता! डॉक्टरके घरमें कोई बीमार होता है तो वह दूसरे डॉक्टरको बुलाता है। घरवालोंकी सेवा करनेका पुण्य नहीं होता; क्योंकि पुण्यको ममता खा जाती है। अगर आप शरीरको मैं-मेरा नहीं मानो तो शरीरको अन्न देनेका भी पुण्य होगा। मेरापन ही आपके पुण्यका, धर्मका नाश करनेवाला है।
संसारसे सम्बन्ध जोड़ो तो दु:खोंका पार ही नहीं है, और भगवान्से सम्बन्ध जोड़ो तो सुखोंका पार ही नहीं है।
सेवा करनेके लिये दुनिया हमारी है और लेनेके लिये कोई हमारा नहीं है।
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शरीर-संसार निरन्तर बदलते हैं, परमात्मा कभी नहीं बदलते। परमात्माकी प्राप्ति चाहनामात्रसे होती है। उसकी प्राप्तिमें संसारकी चाहना ही बाधक है। मनुष्य भोगोंमें कितना ही रच-पच जाय तो भी परमात्माकी चाहना मिटती नहीं, प्रत्युत दब जाती है; क्योंकि वह सत्य है।
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जैसे आप हरेक बातमें यह सोचते हैं कि अधिक लाभ कैसे लें, ऐसे ही मानवशरीर, सत्संग, गीता, संत-महात्मा आदि जो मिले, उससे अधिक लाभ कैसे लें—ऐसा विचार करें। सत्संगमें जो-जो सुगम बातें दीखें, उन्हें चुन लो और अपने जीवनमें उतारो। फिर कठिन बातें भी सुगम हो जायँगी और परिणाममें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी। जो सन्त मिले हैं, उनसे पूरा लाभ ले लो तो आगे और मिल जायँगे। जो मिला है, उससे अधिक-से-अधिक लाभ उठा लो। मोटरके प्रकाशसे जितना मार्ग दीखता है, उतना तय कर लो तो आगे बढ़ जाओगे और ठीक लक्ष्यतक पहुँच जाओगे।
परमात्मप्राप्तिके लिये सामग्रीकी कमी नहीं है, केवल उसकी चाहना होनी चाहिये। पारमार्थिक मार्गमें भगवान् कभी रखते ही नहीं। बछड़ा तो एक थनसे दूध पीता है, पर भगवान् चारों थनोंसे दूध देते हैं! बालककी चिन्ता माँ करती है, बालक नहीं। भगवान् सदासे हमारी माँ हैं। ‘रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥’ (मानस, बाल० २९।३)—ऐसा आदर करनेवाला संसारमें कोई नहीं है! ‘उमा राम सम हित जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥’ (मानस, किष्किन्धा० १२।१)।
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परमात्माकी दो प्रकृतियाँ हैं—क्षर (जड़) और अक्षर (चेतन)। क्षरकी साधना कर्मयोग है, अक्षरकी साधना ज्ञानयोग है और पुरुषोत्तम (परमात्मा)-की साधना भक्तियोग है। कर्मयोग तथा ज्ञानयोग संसारसे असंग करते हैं और भक्तियोग भगवान्से अभिन्न करता है।
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दोषदृष्टिसे रहित होना साधकके लिये बहुत आवश्यक है। श्रद्धा भी हो और दोषदृष्टि भी न हो—‘श्रद्धावन्तोऽनसूयन्त:’ (गीता ३।३१), ‘श्रद्धावाननसूयश्च’ (गीता १८।७१)। दोषदृष्टि होनेसे श्रद्धा कमजोर होती है। प्रेम भी नहीं होता। अगर कहीं दोष दीखे तो वहाँ अपनी कमी समझनी चाहिये। हमें अपनी कमी देखनेका अधिकार है।
अगर किसीमें ज्यादा दोष दीख ही जायँ तो उसका संग मत करो। जैसा संग, वैसा रंग! ईश्वर, धर्म और परलोकको न माननेवाले नास्तिकका संग सबसे अधिक पतनकारक है। ऐसे ही मदिरा सबसे अधिक पतन करनेवाली है। वह मनुष्यके अन्त:करणमें स्थित धार्मिक भावोंके परमाणुओंको, अंकुरोंको नष्ट कर देती है। परस्त्रीगमन भी आस्तिकभावको नष्ट कर देता है।
दूसरा आदमी खराब हो अथवा नहीं, पर ‘वह खराब है’—यह वृत्ति तो खराब हो ही गयी! दोषदृष्टि करनेसे मुफ्तमें पाप हो जाता है। निन्दा करनेसे मुफ्तमें पाप लगता है। सत्संगसे मुफ्तमें उद्धार होता है और कुसंगसे मुफ्तमें पतन होता है। जैसे, पत्थर गंगाजीके प्रवाहमें पड़े-पड़े स्वत: गोल एवं सुन्दर हो जाते हैं।
सब भगवान्के हैं। जो ठीक नहीं हैं, वे भगवान्के लाड़ले बेटे हैं, जो लाड़से बिगड़ गये! सत्संग करनेवाले भी ऐसी गलती करते हैं, कितनी बुरी बात है—यह न देखकर ऐसा देखो कि गलती करनेवाले भी सत्संग करते हैं, कितनी अच्छी बात है!
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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्॥
—यह भाव हमारे भीतर हर समय रहे तो बड़े लाभकी बात है। जैसे हनुमान्जीके लिये कहा है—‘राम काज करिबे को आतुर’, ऐसे ही हम सबके हितके लिये आतुर हो जायँ। सबके हितका स्वभाव बन जाय। ऐसी सावधानी रखें कि हमारे द्वारा किसीको दु:ख न पहुँचे। सबका कल्याण हो, सब जीवन्मुक्त बनें—यह भाव बनानेकी आवश्यकता सभी साधकोंको है। अपनेको ऊँचा बनानेका भाव राक्षसी, आसुरी भाव है। दूसरोंको ऊँचा बनानेका भाव दैवी भाव है। सबका हित चाहनेवाले साधकका भगवान् और सन्त-महात्माओंसे तार मिल जाता है।
तत्त्व करणसे अतीत है। उसकी प्राप्ति करणसे नहीं होती। परन्तु मन-बुद्धि-इन्द्रियोंको लगानेकी बात ही पढ़ाईमें ज्यादा आती है, स्वयंको लगानेकी बात नहीं। वास्तवमें स्वयंको ही लगाना है।
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ज्ञान अटल है। ज्ञानके अन्तर्गत उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय होते हैं, पर ज्ञानमें कोई फर्क नहीं पड़ता। वह ज्यों-का-त्यों रहता है। अन्त:करण शुद्ध हो या अशुद्ध, ज्ञानमें कोई बाधा नहीं लगती। अन्त:करण प्रकृतिका कार्य है, तत्त्व प्रकृतिसे अतीत है। अन्त:करण शुद्ध होनेसे क्रिया शुद्ध होगी, तत्त्वज्ञान कैसे हो जायगा? ज्ञान अपार, असीम है। प्रकृति भी उसके आगे छोटी-सी है।
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परमात्मा सर्वोपरि हैं। उनको जानने-पानेके बाद फिर कुछ भी करना-जानना-पाना बाकी नहीं रहता। उस तत्त्वकी प्राप्तिके सब अधिकारी हैं, कोई अनधिकारी, अयोग्य, निर्बल, असमर्थ नहीं है। कोई जानना चाहे तो उसके समान सुगम कोई वस्तु नहीं। परन्तु जानना चाहते ही नहीं—यह बड़े आश्चर्यकी बात है! उसकी प्राप्तिके लिये केवल चाहनाकी जरूरत है, योग्यताकी जरूरत नहीं। वह सर्वोपरि है, इसलिये उसकी चाहना भी सर्वोपरि होनी चाहिये।
निर्जीवकी अपेक्षा सजीव मुख्य है। उनमें भी स्थावरकी अपेक्षा जंगम मुख्य है। जंगममें गाय मुख्य है। उससे भी मनुष्य मुख्य है। मनुष्यमें विवेक मुख्य है। महिमा मनुष्यशरीरकी नहीं है, प्रत्युत विवेककी है। विवेकसे भी श्रेष्ठ सत्-तत्त्व है। विवेक अनादि है, कर्मोंका फल नहीं है। विवेक भगवान्ने दिया है। विवेक देना ही भगवान्की विलक्षण कृपा है। विवेककी अपेक्षा भी विवेकका सदुपयोग मुख्य है। विवेकका सदुपयोग किया जाय तो सब परिस्थिति कल्याणकारक हो जायगी। वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जायगा। जिससे अभी और परिणाममें, हमारा और दूसरोंका हित हो, वह काम करना विवेकका सदुपयोग है।
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व्यवहार बिगड़ा है, परमार्थ नहीं बिगड़ा है। जिसका स्वभाव सुधरा हुआ है, उसकी दुर्गति नहीं हो सकती। जिसका स्वभाव दयालु है, उसे भगवान् सिंह, सर्प आदि कैसे बनायेंगे? अपने स्वभावका सुधार करनेमें सब स्वतन्त्र और समर्थ हैं। स्वभाव त्यागसे शुद्ध होता है, भोग भोगनेसे नहीं। देवतालोग भोग भोगते हैं; अत: वहाँ स्वभाव-सुधार नहीं हो सकता। यह मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है।
कामनासे भविष्यमें बन्धन होता है, भोग भोगनेसे वर्तमानमें बन्धन होता है।
हमारा और सब काम हो चुका है, केवल एक निश्चयकी कमी है कि अब हमें एक भगवान्को ही प्राप्त करना है। जो यहाँ आये हैं, वे सबसे अधिक पापी (‘पापकृत्तम:’ गीता ४।३६, ‘सुदुराचार:’ गीता ९।३०) तो हैं नहीं, केवल एक निश्चयकी कमी है—‘सम्यग्व्यवसितो हि स:’ (गीता ९।३०)।
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संसारके सब पदार्थ मेढककी तरह फुदकनेवाले हैं, टिकनेवाले नहीं हैं। रहनेवालेको आप लेते नहीं, न रहनेवालेको लेते हो तो शान्ति कैसे मिलेगी? परमात्मा नित्यप्राप्त हैं, उनके लिये परिश्रम कैसा? भीतरमें संसार भरा है, केवल उसीको निकालना है।
शास्त्रोंके अध्ययनसे जिज्ञासुको लाभ होता है, नहीं तो अभिमान आ जाता है। अभिमान पतन करनेवाला होता है।
नाशवान्से सुख मत चाहो तो अन्त:करण शुद्ध हो जायगा। मल-विक्षेप-आवरण आदिकी बातें केवल सीखनेके लिये हैं, और यह लम्बा रास्ता है।
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अनुभवी पुरुषोंसे सुननेपर सहजावस्था तत्काल प्राप्त हो जाती है। शास्त्र-चिन्तनसे देरी लगती है; क्योंकि उसमें केवल हमारी बुद्धि काम करती है।
जो साधन हमें निर्विवाद और सुगम लगे, उसमें तत्परतापूर्वक लग जाना चाहिये।
सगुण-निर्गुण हमारी मान्यता है। परमात्मा सगुण-निर्गुणसे विलक्षण हैं। यदि हमने परमात्माको सगुण अथवा निर्गुण ही जान लिया तो फिर परमात्माकी प्राप्ति हो गयी! अब उपासना करनेकी क्या जरूरत? गजेन्द्रने कहा—‘य: कश्चनेशो बलिनोऽन्तकोरगात्’ (श्रीमद्भा० ८।२।३३)। इसलिये सबसे सीधा-सरल मार्ग यह है कि ‘परमात्मा है और वह हमारा है’—ऐसा मान लो। भगवान् भावग्राही हैं। वे हमारे भावको जानते ही हैं, हम चाहे उनको न जानें।
जैसे बालक माँ-माँ पुकारता है तो सभी माताएँ दौड़कर नहीं आतीं, प्रत्युत वह जिस माँका होकर पुकारता है, वही माँ दौड़कर आती है। ऐसे ही आप भगवान्के होकर भगवान्को पुकारो तो—
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥
(दोहावली २२)
जो भगवान्के परायण हो जाते हैं, भगवान् उनके परायण हो जाते हैं! हम संसारके लिये रोते हैं, तभी दु:खी रहते हैं। यदि हम भगवान्के लिये रोयें तो दु:खी नहीं रहेंगे। भगवान् सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ और सर्वसुहृद् हैं, फिर देरी किस बातकी?
अर्जुन कहता है कि युद्ध करनेसे पाप लगेगा, पर भगवान् कहते हैं कि युद्ध न करनेसे पाप लगेगा! इसका तात्पर्य है कि पाप राग-द्वेषमें भरे हैं, क्रियामें नहीं।
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साधककी प्राय: यह शिकायत रहती है कि हमारी वृत्ति एक समान नहीं रहती, क्या करें? वास्तवमें वृत्ति किसीकी भी एक समान नहीं रहती, ज्ञानीकी भी नहीं—
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥
(गीता १४।२२)
‘हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृत्ति तथा मोह—ये सभी अच्छी तरहसे प्रवृत्त हो जायँ तो भी गुणातीत मनुष्य इनसे द्वेष नहीं करता और ये सभी निवृत्त हो जायँ तो इनकी इच्छा नहीं करता।’
साधकका काम है—वृत्तिसे अपनेको अलग अनुभव करना। वह अपने स्वरूपकी तरफ खयाल रखे कि स्वरूप तो वही रहा। वह यह सावधानी रखे कि ‘मैं साधक हूँ’। वह वृत्तियोंमें बहे नहीं—‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (गीता ३।३४)। वह राग-द्वेषको सामने रखकर कोई कार्य न करे।
भोगोंका राग मिटानेके लिये भोग भोगना है। उद्देश्य सुखके त्यागका हो, सुख लेनेका नहीं।
अपने सिद्धान्तमें प्रेम होना चाहिये, राग नहीं। जैसे, कोई सत्संगमें न जाने दे तो ‘प्रेम’ होनेपर रोना आयेगा और ‘राग’ होनेपर क्रोध आयेगा।
साधकका काम है—अपने मतका अनुसरण करना तथा दूसरेके मतका आदर करना।
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सबसे पहले यह भाव होना चाहिये कि ‘मैं साधक हूँ’। अत: साधनविरुद्ध काम मेरेको नहीं करना है। ‘मैं साधक हूँ’—इसमें ‘हूँ’-भागकी मुख्यता और ‘मैं’-भागकी गौणता है। ‘मैं संसारी हूँ’—इसमें ‘मैं’-भागकी मुख्यता और ‘हूँ’-भागकी गौणता है।
कर्मयोगी ‘सेवा’ के द्वारा (परहितके लिये) त्याग करता है, जो सुगम पड़ता है। ज्ञानयोगी ‘विचार’ के द्वारा त्याग करता है, जो कठिन पड़ता है।
वैराग्यवान् मनुष्यको सुख-सुविधामें आराम नहीं मिलता। उसको स्वाभाविक ही बढ़िया चीज अच्छी नहीं लगती। ज्ञानयोगमें तेजीका वैराग्य होनेसे ही सिद्धि होती है। तेजीका वैराग्य न हो तो सीखना हो जाता है, अनुभव नहीं होता।
वृत्तियोंकी तरफ ध्यान न देकर वृत्तिवालेकी तरफ ध्यान देना चाहिये।
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अनुकूलता-प्रतिकूलतासे राजी-नाराज होना गलती है। अनुकूलता-प्रतिकूलता विचलित करनेके लिये नहीं आती, प्रत्युत अचल बनानेके लिये आती है। अनुकूलता-प्रतिकूलतासे विचलित होते हैं—यहाँ पाप है। गीताका उपदेश समताका है। युद्ध-जैसी परिस्थितिमें भी समता रखना गीताका योग है। जो राजी-नाराज होता है, वह साधु नहीं, स्वादु है!
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मैं साधक हूँ और मेरेको परमात्माकी तरफ चलना है—यह भाव साधकमें स्थायी होता है। साधन और असाधन, अच्छाई और बुराई तो सबमें रहती है, पर साधक वही होता है, जिसमें असाधन नहीं रहता। जड़की तरफ जितना आकर्षण है, उतना ही असाधन है। जितना असाधन है, उतनी ही साधनमें कमी है।
हमें योगी होना है, भोगी नहीं होना है। जो भोग और आराममें लगे हैं, वे सत्संगी नहीं हैं।
काम-क्रोधादि विकार पहलेकी अपेक्षा कम आयें, देरीसे आयें और थोड़ी देर ठहरें—यह अगर न हो तो समझो कि असली सत्संग नहीं मिला है।
कुसंगसे भीतरके दुर्भाव विकसित होते हैं और सत्संगसे भीतरके सद्भाव विकसित होते हैं।
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लोग कहते हैं कि चाहना मिटती नहीं, पर वास्तवमें चाहना टिकती ही नहीं! चाहनाकी पूर्त्ति चाहनाके अधीन (आश्रित) नहीं है। कुछ भी इच्छा न करें तो निर्वाहका प्रबन्ध परमात्माकी तरफसे है। चिता मुरदेको जलाती है, चिन्ता जीवितको जलाती है। सब दु:ख इच्छाके कारण हैं। इच्छा निकाल दो तो दु:ख मिट जायगा। जैसे, घड़ीकी इच्छा हुई। घड़ी मिल गयी तो सुख हुआ। यह सुख घड़ीके मिलनेका नहीं है, प्रत्युत भीतरसे घड़ीके निकलनेका है। इच्छापूर्ति होनेपर हम पुन: उसी अवस्थामें आ गये, जिसमें पहले (इच्छा उत्पन्न होनेसे पूर्व) थे। इच्छा करनेसे केवल आफत ही मिली, नया कुछ नहीं मिला।
बच्चा कोई चाहना नहीं करता तो उसके लिये माँ चाहना करती है। ऐसे ही भक्त कोई चाहना नहीं करता तो उसके लिये भगवान् चाहना करते हैं—
गिरह गाँठ नहिं बाँधते, जब देवे तब खाहिं।
गोबिन्द तिनके पाछे फिरें, मत भूखे रह जाहिं॥
हमारे लेनेकी इच्छासे उतना नहीं मिलेगा, जितना देनेवाले-की इच्छासे मिलेगा। देनेवालेकी इच्छा होती है न लेनेकी इच्छासे। पैसा रखनेसे निर्वाह नहीं होता। निर्वाह करनेकी शक्ति अलग है, उससे स्वत: निर्वाह होता है। अपने-आप जो वस्तु प्राप्त होती है, वह विलक्षण तथा आवश्यक होती है। कुछ भी इच्छा न करें तो जीवन-निर्वाह बढ़िया होता है; जो मिलता है, पथ्य ही मिलता है, कुपथ्य मिलता ही नहीं!
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संसारमें जो स्थायीपना दीखता है, वह परमात्माका है। जो प्रतिक्षण बदलता है, वह स्थायी कैसे हो सकता है? संसारमें परमात्माकी ही सत्ता, आभा झलकती है। जिसको परिवर्तनका ज्ञान है, उसमें परिवर्तन नहीं है। अपरिवर्तनशीलमें स्थिति होनेसे ही परिवर्तनका ज्ञान होता है। वास्तवमें आपकी स्थिति अपरिवर्तनशीलमें है।
काम-क्रोधादिका वेग आ जाय तो ‘आगमापायिनोऽनित्या:’ (गीता २।१४)-का जप शुरू कर दो, वह वेग टिकेगा नहीं।
समझदार वही है, जो सच्ची बातको पहलेसे स्वीकार कर ले।
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आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, तारे-नक्षत्र, वृक्ष, लता, जलचर-नभचर-थलचर, नदियाँ, समुद्र आदि सभी भगवान्के स्वरूप हैं। एक भगवान्के सिवाय कुछ है ही नहीं। सब विराट्रूप भगवान्के ही रूप हैं। जिधर दृष्टि पड़े, वहाँ भगवान्को देखो। यह बहुत बढ़िया साधन है।
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व्यवसायात्मिका बुद्धिकी बड़ी महिमा है। मनके लगनेसे भी श्रेष्ठ है बुद्धिका लगना। एक निश्चय करना ही बुद्धिका लगना है। पतिव्रताका मन नहीं लगता, प्रत्युत बुद्धि लगती है—‘सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं’। व्यवसायात्मिका बुद्धिमें बड़ी ताकत है। पतिव्रताके बलका सामना करनेकी ताकत रावणमें भी नहीं थी!
सुदुराचारी मनुष्य अभी साधु बना नहीं है, पर भगवान्ने शाटीसूत्रन्यायसे उसे साधु माननेके लिये कह दिया; क्योंकि उसकी बुद्धि व्यवसायात्मिका हो गयी—
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९।३०)
‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।’
जो साधन किया जाता है, उसका आदि-अन्त होता है। जो साधन होता है, उसका आदि-अन्त नहीं होता।
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सत्-चित्-आनन्दकी चाहना सबमें है। इसलिये सब चाहते हैं कि हम सदा रहें, कभी अनजान न रहें और सदा सुखी रहें। इससे सिद्ध होता है कि यह चाहना पूरी होनेवाली है, मिटनेवाली नहीं है। सांसारिक वस्तुओंकी प्राप्तिसे पूर्णता नहीं होती। हमारेमें कमीका अनुभव होता है तो इससे सिद्ध होता है कि कोई पूर्ण चीज है। वह पूर्ण चीज परमात्मा है। उसको प्राप्त करनेपर कुछ करना, जानना तथा पाना बाकी नहीं रहता। हम भोग चाहते हैं तो उसकी जातिकी कोई चीज (जड़) हमारेमें है। हम मोक्ष चाहते हैं तो उसकी जातिकी कोई चीज (चेतन) हमारेमें है। हमारेमें दो चीजें हैं—जड़ और चेतन। इसको तादात्म्य अथवा चिज्जड़ग्रन्थि कहते हैं। अनित्यका आकर्षण ही नित्यकी प्राप्तिमें बाधक है।
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यदि आप वैराग्य चाहते हो तो वैराग्यवान्का संग करो। जिस गुणको आप अपनेमें लाना चाहते हैं, उस गुणवालेका संग करो। यह बहुत बढ़िया उपाय है।
एकदेशीयपना, मैंपना जितना दृढ़ होगा, उतना ही पतन होगा।
भगवान्की कृपाकी पहचान है सत्संग मिलना—‘जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये।’ (विनय० १३६।१०)। सूर्य बाहरका अन्धकार दूर करता है, सत्संग भीतरका।
भक्तोंका अपराध करना ‘भागवत-अपराध’ कहलाता है। भागवत-अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं करते। भक्तोंका अपराध करनेवालोंकी बड़ी दुर्दशा होती है।
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अभी भगवत्प्राप्तिका बड़ा सुन्दर, दुर्लभ मौका मिला हुआ है! केवल एक बात याद रखो कि जो सामने आये, उसमें भगवद्भाव करके उसे नमस्कार करो। उससे अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो। बाहरसे सबको दण्डवत् करनेमें शर्म लगती हो तो मन-ही-मन प्रणाम करो। भगवान् हृदयकी बात जानते हैं।
कपटसे बड़ी हानि होती है। कपट अधिक समयतक छिप नहीं सकता। सीधा-सरल स्वभाव रखो। छिपाव करनेसे फजीती होगी। कपट कृत्रिम है, सरलता स्वत:सिद्ध है। छिपानेसे पाप और पुण्य दोनों अधिक फल देनेवाले हो जाते हैं।
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सुषुप्तिमें अहम् अविद्यामें लीन हो जाता है, पर अपना होनापन रहता है—यह विशेष ध्यान देनेकी बात है। सुषुप्तिमें जैसा सुख होता है, वैसा सुख भोग और संग्रहसे नहीं होता। अत: भोग और संग्रहके बिना कैसे जीयेंगे—यह धारणा गलत है। सुषुप्तिमें आप हैं, पर पासमें कुछ नहीं है, फिर भी सुखपूर्वक हैं। अत: ममता-कामनाके बिना हम सुखसे रह सकते हैं। इस अनुभवका हम आदर करेंगे तो हम पराधीन नहीं रहेंगे, स्वाधीन हो जायँगे।
विचार करें, जिसमें हम ममता-कामना करते हैं, उसपर हमारा वश चलता है क्या? उसे सदा साथमें रख सकते हैं क्या? ममता-कामना रखनेवाला मनुष्य सुखपूर्वक नहीं रह सकता। परन्तु ममता-कामनाके बिना हम सुखपूर्वक रह सकते हैं। ममता-कामनारहित सन्त खुद भी सुखी रहते हैं और दूसरोंको भी सुखी करते हैं।
मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये—यह हमारा (ममता-कामनारहित) स्वरूप है। सुषुप्तिका सुख तो परतन्त्रतापूर्वक होता है, पर जाग्रत् में हम ममता-कामनाका त्याग कर दें तो हमें स्वतन्त्रतापूर्वक तथा निरन्तर रहनेवाला सुख मिल जायगा।
मैंपन, ममता और कामना—ये तीनों दु:खके कारण हैं। इनसे रहित हो जाना ‘ब्राह्मी स्थिति’ है—‘एषा ब्राह्मी स्थिति:’ (गीता २।७२)।
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धन, मान-बड़ाई, जमीन-मकान आदि हमारे क्या काम आयेंगे?
अरब खरब लौं द्रव्य है,
उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है,
तो आवहि किहि काज॥
अपनी चीज है, जिसपर अपना अधिकार चले। मिली हुई चीज भी अपनी नहीं है, फिर और मिलनेकी इच्छा क्यों करें? जो मिलेगी, वह अपने पास कैसे रह जायगी? संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। कम-से-कम अनित्यकी इच्छा छोड़ दें। सच्ची बातको स्वीकार करना मनुष्यका धर्म है।
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गीताने कामनाके त्यागपर विशेष जोर दिया है। ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये—यह कामना है। शान्ति स्वत:सिद्ध है। अशान्ति कामनासे ही होती है। सन्तलोग कामना नहीं करते तो उनका निर्वाह दुनिया करती है। कामनाकी पूर्ति करना हाथकी बात नहीं है, पर कामनाका त्याग करना हाथकी बात है। कामनाके त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२।१२)। करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहो।
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सब कुछ परमात्माका स्वरूप है। बीजसे सब पैदा होते हैं, पर कोई भी वैज्ञानिक बीजको नहीं बना सकता। जो बीज बोया जाता है, उसीसे वृक्ष होकर अनेक बीज पैदा होते हैं। परमात्मा संसारमात्रके अव्यय और सनातन बीज हैं। जैसे हवाई जहाज, ट्रेन आदि तो दीखते हैं, पर उनके भीतर बैठे हुए आदमी नहीं दीखते, ऐसे ही सबके भीतर परमात्मा हैं। ‘प्रभुमय जग लखि नयन सफल कर’! समझदार मनुष्य सबमें भगवान्को ही देखते हैं। आप सब रूपोंमें परमात्माको देखने लग जाओ तो फिर वैसा ही अनुभव होने लग जायगा। ‘है’-जैसा दीखने लग जाय—इसका नाम है ‘ज्ञान’। परमात्मस्वरूप संसारकी सेवा करो, उससे सुख मत चाहो।
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मुक्तिके सब साधनोंमें भक्ति सर्वश्रेष्ठ है—‘मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी’ (विवेक० ३२)। भक्ति नाम भजनका है। भजन है—प्रेम। ‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन। यह बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान॥’ (मानस, अरण्य० १० में पाठभेद)। इसका तात्पर्य है कि भगवान्का गुणगान करनेसे प्रेम होता है।
नवधा भक्तिके तीन भाग हैं। श्रवण, कीर्तन और स्मरण—ये अपनेको भगवान्से दूर समझनेसे हैं। पादपूजन, अर्चन और वन्दन—ये भगवान्को नजदीक समझनेसे हैं। दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन—ये सबसे अधिक भगवान्के नजदीक हैं।
भगवान् भक्तोंकी कथामें भी खिंच जाते हैं और अपनी कथामें भी खिंच जाते हैं!
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जो हम मन-बुद्धि-इन्द्रियोंसे जानते हैं, वह मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय है। परमात्मा मन-बुद्धि-इन्द्रियोंका विषय नहीं है। परमात्माको स्वयंसे ही जाना जा सकता है। कारण कि स्वयं परमात्माका अंश है। स्वयंसे जानना हो तो पहले स्वयंको जानो कि स्वयं क्या है? अपने होनेपनका अनुभव सबको है। जैसे अपना होनापन है, ऐसे ही परमात्माका होनापन है। परमात्माके होनेपनके अन्तर्गत यह सब संसार है। शरीर तथा संसार एक हैं। ‘हूँ’ तथा ‘है’ एक हैं। अपनी सत्तासे ही समष्टि सत्ताको जाना जा सकता है।
जैसे सज्जन पुरुष दुष्टोंके साथ भी सज्जनता करता है, ऐसे ही सत् असत् को भी सत्ता देता है—‘जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥’ (मानस, बाल० ११७।४)। तात्पर्य है कि सत् असत् का विरोधी नहीं है, प्रत्युत उसका प्रकाशक है। सत् की जिज्ञासा ही असत् की विरोधी है। सत् की जिज्ञासा असत् को निवृत्त कर देती है।
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परिवर्तनका नाम ही जन्म और मृत्यु है। परिवर्तनके प्रवाहको ही साधारण लोग जीवन कहते हैं। गर्भमें आते ही मरना शुरू हो जाता है। असत् अभावरूप है। संसारमें अवगुण है ही नहीं, गुणोंकी कमी ही अवगुण-रूपसे दीखती है। अवगुणकी सत्ता है ही नहीं। नित्यनिवृत्तकी ही निवृत्ति होती है। केवल उधर दृष्टि करनी है।
ज्ञान अज्ञानका नाशक नहीं है, प्रत्युत जिज्ञासापूर्वक जो ज्ञान है, वही अज्ञानका नाशक है। गायके शरीरमें रहनेवाले घीकी तरह ज्ञान तो सबमें रहता ही है। गुरु उसी ज्ञानको जाग्रत् करता है, कोई नया ज्ञान नहीं देता। जिज्ञासाके बिना आपमें रहनेवाला ज्ञान आपके काम नहीं आता।
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सुख चाहनेवालेको कभी शान्ति नहीं मिलती। ‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर’ (मानस, उत्तर० ३८।१)। दूसरेके दु:खसे दु:खी और सुखसे सुखी होना—यह संसारमें रहनेका तरीका है। दु:ख आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करो और सुख आनेपर सेवा करो। संसारका अंश संसारके अर्पित कर दो और परमात्माका अंश परमात्माके अर्पित कर दो।
एक सन्त कहते थे कि जितनी बढ़िया चीजें हैं, वे भगवान्ने अपने प्यारे भक्तोंके लिये ही बनायी हैं, पर बीचमें धनी, भोगी लोग उनको लूट लेते हैं, इसीलिये दु:ख पाते हैं!
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जैसे स्त्रियाँ पतिके लिये ‘वह’ भी कहती हैं और ‘यह’ भी कहती हैं, ऐसे ही परमात्माको ‘वह’ (तत्) भी कहा जाता है और ‘यह’ (अस्य) भी कहा जाता है—‘अविनाशि तु तद्विद्धि.......विनाशमव्ययस्यास्य’ (गीता २।१७)। उस परमात्मामें सबकी स्थिति स्वत:सिद्ध है। निरन्तर बहते हुए संसारमें जो है-पना दीखता है, वह परमात्माका ही है। प्रकृतिके कार्यसे प्रकृति ही दीखती है।
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चुप वहाँ होते हैं, जहाँ हल्ला हो। स्वरूपमें हल्ला है ही नहीं, फिर चुप क्या हों? चुप स्वत:सिद्ध है। मन-बुद्धिका हल्ला हो रहा है, इसलिये स्वरूपका पता नहीं चलता।
पहले सिद्धान्तसे यह बात मान लेनी चाहिये कि तत्त्व निष्क्रिय है। सुषुप्तिमें भी क्रिया है, समाधिकी निष्क्रियतामें भी क्रिया है, पर स्वरूपमें (सहजावस्थामें) क्रिया नहीं है। क्रिया आरम्भ और समाप्त होनेवाली होती है—यह नियम है। तत्त्व न उत्पन्न होता है, न नष्ट।
मेरा मन लग जाय—यह भाव होनेसे मन नहीं लगेगा; क्योंकि मन ‘मेरा’ होनेसे वह ठीक नहीं होगा। जैसे कुत्तेका मन मेरा नहीं है, ऐसे ही यह मन भी मेरा नहीं है।
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स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर संसारका। शरीरकी संसारके साथ एकता है। अत: शरीरको संसारका मानकर उसकी सेवामें लगा दो। शरीरको लेकर आप कभी सुखी नहीं हो सकते। शरीरके द्वारा दूसरोंको सुख दो, दूसरोंको मान-आदर दो। आप परमात्माके हो, संसारके हो ही नहीं। आपके पास जितनी सामग्री है, सब संसारके लिये है। सब संसार मिलकर भी असत् है। आप सत् हैं। असत् से सत् को क्या सहायता मिलेगी?
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परमात्मप्राप्तिमें देरीकी धारणा आपने कर ली—यह महान् बाधक है। तत्काल प्राप्त होनेवाला ज्ञान ही ‘ज्ञान’ है। ज्ञानप्राप्तिके सब अधिकारी हैं। ज्ञान सबकी अपनी चीज है। अपनी चीजको प्राप्त करनेमें कौन अनधिकारी है? ‘मैं हूँ’—इस अपने होनेपनमें किसीको सन्देह नहीं है। मैं नहीं हूँ अथवा मैं हूँ या नहीं—ये दोनों ही बातें नहीं हैं। यह अपने होनेपनका ज्ञान कभी लुप्त नहीं होता। यह अलुप्त ज्ञान है। महाप्रलयमें भी यह लुप्त नहीं होता—‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८।१९)। होनेपनके ज्ञानका नाम ही ‘ज्ञान’ है। गलती यह होती है कि होनेपनके साथमें मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ आदिको मिला लेते हो। जो नहीं बदलता, वह मेरा स्वरूप है; जो बदलता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है—इतनी ही बात है! मैं पिता हूँ, माता हूँ, सास हूँ, ननद हूँ आदि ऊपरके चोले हैं, भीतरमें एक ‘है’ है!
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जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ तर्क नहीं होता। श्वेतकेतुको केवल आज्ञापालनसे तत्त्वज्ञान हो गया—
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३।२५)
‘दूसरे मनुष्य इस प्रकार (ध्यानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग आदि साधनोंको) नहीं जानते, पर दूसरोंसे (जीवन्मुक्त महापुरुषोंसे) सुनकर ही उपासना करते हैं, ऐसे वे सुननेके अनुसार आचरण करनेवाले मनुष्य भी मृत्युको तर जाते हैं।’
जैसे कोई धनी आदमीका कहना करे तो उसे धन मिलेगा, ऐसे ही तत्त्वज्ञानीका कहना करे तो तत्त्वज्ञान मिलेगा। गुरु ज्ञानी न भी हो तो भी उनकी आज्ञासे ज्ञान हो जायगा। जैसे, पतिके आज्ञापालनसे मन्दोदरीको वह ज्ञान हो गया, जो रावणको नहीं था। वास्तवमें वह पतिकी आज्ञाका पालन नहीं, प्रत्युत भगवान् की, शास्त्रकी आज्ञाका पालन है। तात्पर्य यह हुआ कि साधककी निष्ठा ही कल्याण करनेवाली है।
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हमारे सभी व्याख्यान आधे श्लोकके अन्तर्गत हैं—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। वस्तुएँ पैदा होती और नष्ट होती हैं, पर परमात्मतत्त्व निरन्तर रहता है। हमारी दृष्टि हर समय उस ‘है’ पर ही रहनी चाहिये। शरीरादिको ‘है’ मानना बहुत बड़ी भूल है।
परमात्मा इन्द्रियाँ-अन्त:करणसे सर्वथा अतीत होते हुए भी इन्द्रियों-अन्त:करणके समक्ष प्रकट हो सकते हैं। वे सर्वसमर्थ हैं। हम परमात्माको पकड़ तो नहीं सकते, पर उनको स्वीकार कर सकते हैं।
जो सबका अपना है, वह परमात्मा है।
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अपने हृदयसे किसीको बुरा न समझें, किसीका बुरा न चाहें और किसीका बुरा न करें। यह नियम ले लें तो आपकी सब बुराई मिट जायगी और बड़ा भारी लाभ होगा। सबके भीतर (जीवात्मा) ईश्वरका अंश है। ईश्वरका अंश बुरा नहीं हो सकता। ऊपरके चोले शरीरमें अहंता-ममता करनेसे बुराई आती है। बुराई पैदा और नष्ट होनेवाली है, आगन्तुक है। भलाई स्वत: है, स्वाभाविक है। सर्वथा बुरा कोई हो सकता ही नहीं। किसीमें सर्वथा सद्गुण-सदाचार तो हो सकते हैं, पर सर्वथा दुर्गुण-दुराचार नहीं हो सकते। मनुष्य सर्वथा सत्यवादी तो हो सकता है, पर सर्वथा मिथ्यावादी नहीं हो सकता।
नाशवान्की इच्छा ही पाप करवाती है। अविनाशीकी इच्छा पाप नहीं करवाती।
करनेसे पूरी भलाई नहीं होती। बुराई छोड़नेपर भलाई स्वत: होती है।
प्रारब्ध चिन्ता मिटानेके लिये है। प्रारब्धके भरोसे निकम्मा रहे—यह सिद्धान्त बिलकुल नहीं है।
न प्रकृति अशुद्ध है, न पुरुष अशुद्ध है। अशुद्धि सम्बन्ध जोड़नेसे, ममतासे आती है।
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मनुष्यमें तीन शक्तियाँ हैं—करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति। करनेकी शक्ति दूसरोंकी सेवामें लगानी चाहिये। जाननेकी शक्ति स्वरूपमें लगानी चाहिये। माननेकी शक्ति भगवान्में लगानी चाहिये। जानना चाहें तो स्वरूपका बोध बहुत सुगम है। सबका अनुभव है कि ‘मैं हूँ’। ‘मैं’ प्रकृति है और ‘हूँ’ परमात्माका अंश है। ‘मैं’ एकदेशीय है। ‘मैं’ स्वरूप नहीं है। ‘मैं’ के कारण ही ‘हूँ’ है, अन्यथा ‘है’ ही है। ‘हूँ’ को ‘है’ के अर्पण कर दो—यह ज्ञानमें भक्ति है।
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भगवत्कृपा सबपर समान रूपसे बरस रही है, केवल उनके सम्मुख होनेकी जरूरत है। ‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’ (मानस, सुन्दर० ४४।१)। सम्मुख होना क्या है? भोग और संग्रहका उद्देश्य न होना ही सम्मुख होना है।
निर्गुण (गुणरहित) कहो या सगुण (गुणसहित) कहो, तत्त्व तो एक ही है। श्रीस्वयंज्योतिजी महाराज कहते थे कि केवल निर्गुणको माननेवाले राक्षस होते हैं! इतिहासको देखें तो राक्षसलोग निर्गुणको तो मानते थे, पर सगुणके बैरी होते थे।
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संसार प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है। उसमें खिंचावका नाम ही बन्धन है। जैसे व्यापारी वस्तु खरीदे या बेचे, उसकी दृष्टि रुपयोंपर ही रहती है, ऐसे ही साधककी दृष्टि अविनाशी तत्त्वपर ही रहनी चाहिये। जो ‘है’ को देखते हैं, वे साधक होते हैं। जो ‘नहीं’ को देखते हैं, वे संसारी होते हैं। सत्संगका प्रयोजन है—‘नहीं’ की तरफसे दृष्टि हटाकर ‘है’ की तरफ ले जाना।
संसारके सम्बन्धसे होनेवाला आनन्द दु:ख पैदा करता है। नाशवान्में प्रियता करनेवालेको रोना पड़ेगा।
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अपनेमें अपवित्रता (अशुद्धि) है—कामना और अभिमान।
‘यत्तदग्रे विषमिव’ (गीता १८।३७)—सात्त्विक सुखके आरम्भमें जो दु:ख होता है, वह राजस-तामस सुखके त्यागका दु:ख है। जैसे—बीड़ी-सिगरेट आदि छुड़ाई जाय अथवा नींदसे जगाया जाय तो दु:ख होता है।
दुर्गुण-दुराचार, व्यसन आदि दुष्ट व्यक्तिके समान हैं, जो जबर्दस्ती पकड़ते हैं। परन्तु सद्गुण-सदाचार सज्जन व्यक्तिके समान हैं, इसलिये वे जबर्दस्ती नहीं पकड़ते, छूट जाते हैं। जब सत्संगमें रस, आनन्द आने लग जाता है, तब सत्संग छूटता नहीं।
नामजप और सत्संग—दोनोंमें मैं सत्संगको अच्छा मानता हूँ। जप, कीर्तन, भजन-ध्यान, योगाभ्यास करना कमाकर धनी बनना है और सत्संग करना धनीकी गोद जाना है। सत्संगमें बैठनेवाला स्वाभाविक शुद्ध हो जाता है; जैसे—गंगाजीमें पड़ा हुआ पत्थर स्वाभाविक गोल, सुन्दर हो जाता है।
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जिसमें राग-द्वेष हैं, उसने अभीतक ‘वासुदेव: सर्वम्’ को जाना ही नहीं।
भक्तोंका ‘राम-राम’ है, योगियोंका ‘सोऽहम्’ है और ज्ञानियोंका ‘ॐ’ है।
साधकका जीवन ऐसा होना चाहिये कि उसे देखनेसे सब प्रसन्न हो जायँ। जैसे, भगवान्को देखनेसे सभी प्रसन्न हो जाते हैं।
सेठजीने कहा था कि मेरी बात आकाशमें रहेगी, आगे जो जिज्ञासु होगा, उसे मिल जायगी। बुरी बात भी स्थायी रहती है; परन्तु उसकी अधिक आयु नहीं होती। वह नाशवान् होती है। सच्ची बात सदा रहती है।
‘हूँ’—यह सत्ता है। सत्ता परमात्माका स्वरूप है। गलती यह हुई कि ‘मैं’ को पकड़ लिया। ‘मैं’ को न पकड़ें तो ‘हूँ’ ‘है’ ही है। ‘मैं’ को मुख्य मानकर ‘है’ से विमुख होना ही प्रमाद है। प्रमाद ही मृत्यु है। ‘मैं’ ने ही जगत्को धारण कर रखा है। हमारे साथ ‘मैं’ का सम्बन्ध नहीं है, तभी ‘मैं’ छूटता है। सुषुप्तिमें ‘मैं’ का भास नहीं होता—यह सबके अनुभवकी बात है।
जो दुनियाका गुरु बनता है, वह दुनियाका गुलाम हो जाता है। जो अपना गुरु बनता है, वह दुनियाका गुरु हो जाता है।
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संसारके साथ सम्बन्धकी मान्यता है। वह मान्यता मिटते ही बोध हो जाता है। बोध होनेपर ‘मैं अज्ञानी था, अब ज्ञान हो गया’—ऐसा होता ही नहीं। जैसा था, वैसा हो गया—इसका नाम स्मृति है। परमात्मा बीज है, संसार खेती है। ‘वासुदेव: सर्वम्’ दीखने लग जाय तो स्मृति हो गयी। पहले भी परमात्मा थे, पीछे भी परमात्मा रहेंगे, फिर बीचमें दूसरी चीज कहाँसे आ गयी? जाननेवालेके लिये सब परमात्मा हैं, न जाननेवालेके लिये संसार है। गीताका शुद्ध ज्ञान ‘वासुदेव: सर्वम्’ है।
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प्रेमका रस ज्ञानके रससे बहुत विलक्षण है। ज्ञानका रस स्थिर, शान्त है, पर प्रेमका रस प्रतिक्षण वर्धमान है। भक्तिकी बड़ी विचित्र महिमा है! भक्तिसे ज्ञान और वैराग्य बिना इच्छाके जबर्दस्ती आ जाते हैं।
प्रेमकी प्राप्ति करनी हो तो सबसे प्रेम करो—‘सर्वभूतहिते रता:’ (गीता ५।२५, १२।४)। जबतक अपने मनकी बात पूरी करना चाहते हैं, तबतक न सगुणमें प्रेम होगा, न निर्गुणमें। किसीके साथ भी द्वेष होगा तो भगवान्में प्रेम नहीं होगा।
कोई भी व्यक्ति हो, उसमें भगवान् हैं—ऐसा मानकर प्रणाम करो। सबको नमस्कार करनेसे सब विकार नष्ट हो जायँगे। घरमें सुबह-शाम सबको नमस्कार करो। इससे परस्पर प्रेम हो जायगा। दूसरी बात, सबका आदर करो। सबके प्रति सद्भाव रखो। सबकी सहायता करो। सबके साथ किया हुआ प्रेम भगवान्की ओर जाता है—‘आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्। सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति॥’
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अपने सुखका जितना त्याग किया जाय, उतने ही कर्मयोग और भक्तियोग तेज होते हैं। जितना अपने सुखका भाव छोड़े, उतना ऊँचा दर्जा होता है। अपने सुखका त्याग करना ही वास्तवमें कल्याण करनेवाला है, चाहे कर्ममार्ग हो, ज्ञानमार्ग हो या भक्तिमार्ग हो। अपने सुखका सर्वथा त्याग होनेपर ही ‘योग’ होगा। योगके बिना मुक्ति नहीं होती।
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जड़ चीजोंको लेकर ‘ममता’ होती है और स्वयंको लेकर ‘आत्मीयता’ होती है। ज्ञानमार्गमें अभेद होता है और प्रेममार्गमें अभिन्नता होती है। प्रेमका अद्वैत बड़ा विलक्षण होता है। प्रेमका आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान होता है। प्रेमके आनन्दमें उबाल आता है, हलचल होती है, जिसमें विशेष मिठास होती है। प्रेमके आँसू शीतल होते हैं और नासिकाके पास नेत्रकोणसे फुहारेकी तरह तेजीसे निकलते हैं।
प्रेममें स्वयंकी स्वीकृति होती है। ‘वासुदेव: सर्वम्’—यह ज्ञानसे होता है, पर यह ज्ञान भी भक्तिसे होता है। गोपिकाओंके प्रेममें ज्ञान भी है—‘न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक्।’ (श्रीमद्भा० १०।३१।४)। जैसे लाल रंगका चश्मा लगानेपर सब लाल-ही-लाल दीखता है, ऐसे ही गोपिकाओंको नेत्रोंसे सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण दीखते थे। कारण कि गोपिकाओंके नेत्रोंकी कनीनिकामें कृष्णकी मूर्त्ति छप गयी थी।
बोधाद्वैतमें एकता होती है, प्रेमाद्वैतमें अभिन्नता होती है।
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अभी परमात्मप्राप्तिका बहुत बढ़िया मौका है! इसलिये जल्दी-से-जल्दी परमात्मप्राप्ति कर लेनी चाहिये। आगे कैसा भयंकर समय आयेगा—इसका पता नहीं। अभी तत्परतासे भगवान्में लग जाओ।
दो चीज खास हैं—भगवान्को याद करना और सेवा करना। दिनमें कई बार ठहरकर विचार करो कि क्या कर रहे हैं? क्या करना चाहिये?
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संसारमें अपना कोई नहीं है। अपने भगवान् हैं। संसारमें मेरापन महान् पतन करनेवाला है।
जिनमें त्यागका अभिमान है, वे त्यागी नहीं हैं, प्रत्युत महाभोगी हैं। क्या मल-मूत्रके त्यागका अभिमान आता है? मैं धनी हूँ और मैं त्यागी हूँ—दोनोंमें कोई फर्क नहीं है।
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परिवार-नियोजनसे कितना अनर्थ हुआ है और कितना अनर्थ होगा, इसका कोई पारावार नहीं है। हिन्दू और गाय—इन दोको नष्ट करनेका विदेशियोंका षड्यन्त्र है। इससे केवल भारतका ही नहीं, विश्वमात्रका बड़ा अहित होगा! ऐसे ही आधुनिक वेदान्तसे बड़ी हानि हो रही है!
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मनुष्यशरीरकी सफलता परमात्माकी प्राप्ति करनेसे ही है—यह एकदम पक्की बात है। आप जहाँ हैं, जिस वर्ण-आश्रममें हैं, वहीं सीधे मुक्ति हो सकती है। युद्धरूपी क्रियासे भी कल्याण हो जाय, फिर उससे सुगम क्या होगा? गीता व्यवहारमें परमार्थ, तत्त्वप्राप्तिकी कला सिखाती है।
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तत्त्व अक्रिय है। उसका चिन्तन नहीं हो सकता—‘यन्मनसा न मनुते’ (केन० १।५)। वह सम्पूर्ण क्रियाओंका आधार है। वह ‘है’ रूपसे सर्वत्र परिपूर्ण है। उसकी प्राप्तिका साधन है—आत्मीयता।
मनुष्य, पशु, पक्षी, देवता, राक्षस आदि सब बाहरकी चीजें हैं। भीतरमें एक ही तत्त्व है। सबकी स्थिति उस तत्त्वमें स्वत:सिद्ध है। उसमें ‘चुप’ हो जायँ। परिश्रम प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है।
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परमात्मप्राप्तिके लिये मन-बुद्धि लगाना करणसापेक्ष है। स्वयं लगना करणनिरपेक्ष है। शरणागति और कर्मयोग करणनिरपेक्ष साधन हैं।
संसारका निषेध होनेपर शून्य रह जाता है तो वह शून्य आपका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत शून्यका ज्ञाता आपका स्वरूप है। आपने संसारकी सत्ता मानी थी, तभी संसारकी चीज—मन-बुद्धि न रहनेसे शून्य प्रतीत होता है। यदि ‘परमात्मा है’—ऐसा मानें तो वह ‘है’ शून्य कैसे होगा? नहीं होगा।
अभ्यासमें दृढ़-अदृढ़ दो अवस्थाएँ होती हैं, पर विवेकमें दृढ़-अदृढ़ अवस्था नहीं होती।
‘करना’ करणसापेक्ष है, ‘होना’ करणनिरपेक्ष है और ‘है’ करणरहित है। अगर ‘है’ को चाहते हो तो ‘करने’ को ‘होने’ में और ‘होने’ को ‘है’ में बदल दो—‘नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५।८)।
जैसे किसी कारखानेका कोई मालिक न रहे तो उसका संचालन सरकार करती है। काममें फर्क नहीं पड़ता, केवल मालिक बदल जाता है। ऐसे ही शरणागतके सब कार्य भगवान्से होते हैं।
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अपने-आपको सर्वथा निर्दोष मान लें तो दोष मिट जायँगे। काम, क्रोध आदिको अपनेमें नहीं मानें। मूलमें हम सब परमात्माके अंश हैं—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥’ (मानस, उत्तर० ११७।१)। जब परमात्मामें दोष नहीं हैं, तो फिर उसके अंशमें दोष कैसे? परमात्मा और उसका अंश सर्वथा निर्दोष हैं।
वर्तमान निर्दोष है। भूतकालके दोषको लेकर वर्तमानमें अपनेको दोषी न मानें। अपनेमें दोष स्वीकार करके हम दोषी बनते हैं। मनुष्य चोर बनकर फिर चोरी करता है। यदि वह अपनेको चोर न माने तो चोरी नहीं कर सकता। अपनेको परमात्माका अंश स्वीकार करके दोषी न मानें। निर्दोषता स्वीकार करनेसे निर्दोषता स्वत: प्रकट हो जायगी। हमारा वास्तविक स्वरूप निर्दोष है। हम भगवान्के अंश हैं और हम साधक हैं, फिर हमारेमें दोष कैसे आ सकते हैं?
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जितने भी दोष हैं, सब नष्ट होनेवाले हैं। काम-क्रोधादि सब दोष आगन्तुक हैं, स्थायी नहीं हैं। आप ही उन्हें सत्ता और महत्ता देते हैं। दोष अपनेमें नहीं हैं—यह बात साधकोंके लिये बहुत कामकी है। उनको हटानेका प्रयास करना उनकी सत्ताको दृढ़ करना है। अत: उन्हें हटानेका प्रयास न करके उनकी सत्ताको ही न मानें। निर्दोषता स्वीकार करते ही तत्त्वकी प्राप्ति हो गयी! सबका आत्मा निर्दोष है। निर्दोषता स्वत:सिद्ध है। अत: अपनेको और दूसरोंको दोषी मानना गलती है।
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परमात्माके सौन्दर्य, औदार्य, गाम्भीर्य, माधुर्य आदि गुण नित्य-निरन्तर रहते हैं।
दोष अनित्य हैं। जो कभी आते हैं और कभी नहीं आते, वे कभी नहीं आते—यह सिद्धान्त है।
कभी मनमें खटपट हो तो बैठकर पन्द्रह-बीस मिनट राम-राम जप करो अथवा ‘आगमापायिनोऽनित्या:’ (गीता २।१४)- का जप करो, खटपट मिट जायगी।
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परमात्मा ही संसार-रूपसे प्रकट हुए हैं। सब साधनोंमें सबसे श्रेष्ठ साधन यही है कि सब परमात्मा ही हैं। जैसे शरीरके सब अंग समान नहीं होते, पर हम सब अंगोंका सुख चाहते हैं, किसी भी अंगकी पीड़ा नहीं चाहते। ऐसे ही सब संसार ईश्वररूप माननेसे भी दो बातें होंगी—सबको सुख हो और किसीको दु:ख न हो। सबको सुख पहुँचानेवाला ही भगवान्का भक्त होता है। किसीसे भी द्वेष हो तो समझे कि हमारी उपासना ठीक नहीं है।
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हम नित्य रहनेवालेको नहीं मानते और नित्य मौजूद न रहनेवालेको मानते हैं—यह बड़ी भारी भूल है! जैसे हमें पिछले जन्मकी सम्पत्ति, साथी अब यादतक नहीं हैं, ऐसे ही वर्तमानकी सम्पत्ति, साथी आदि भी यादतक नहीं रहेंगे।
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परमात्माका अंश होनेसे जीव स्वत: शुद्ध, अमल है—‘चेतन अमल सहज सुख रासी’ (मानस, उत्तर० ११७।१)। संसारमें नि:स्वार्थभावसे हमारा हित करनेवाले दो ही हैं—भगवान् और उनके भक्त—‘हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥’ (मानस, उत्तर० ४७।३)। दोनों ही कहते हैं कि जीव परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७), ‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर० ११७।१)। परमात्माका अंश होनेसे स्वरूपमें दोष नहीं है। इस बातको आप मान लें, फिर इसका अनुभव हो जायगा। कसाई-से-कसाईका स्वरूप भी शुद्ध है, फिर आपका स्वरूप अशुद्ध है क्या?
कोई भी दोष आपमें हरदम नहीं रहता। काम-क्रोधादि दोष स्वरूपमें नहीं आते, प्रत्युत मन-बुद्धिमें आते हैं। ये आगन्तुक हैं, अपनेमें नहीं हैं। अपनेमें दोष माननेसे वे कभी दूर नहीं होंगे। इनको अपनेमें मानकर हटानेका प्रयत्न करनेसे ये और दृढ़ होते हैं। दोष आते हैं—शरीरको मैं-मेरा माननेसे। अगर इन दोषोंका आना न मिटे तो भगवान्से प्रार्थना करो, ‘हे नाथ! हे नाथ!’ कहकर पुकारो।
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लक्ष्मी उसको चाहती है, जो केवल भगवान्को चाहता है अथवा जो कुछ नहीं चाहता। जो अपने लिये कुछ नहीं चाहता, उसका प्रबन्ध लक्ष्मी करती है। लक्ष्मी तो माँ है। माँको बेटेकी चिन्ता रहती ही है—
गिरह गाँठ नहिं बाँधते, जब देवे तब खाहिं।
नारायन पाछे फिरें, मत भूखे रह जाहिं॥
जो पदार्थोंके दास होते हैं, वे भगवान्के भक्त नहीं हो सकते। जो कोई भी इच्छा नहीं रखते, उनके पास आनेके लिये लक्ष्मी लालायित रहती है।
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मनुष्यशरीरकी महिमा तत्त्वप्राप्तिमें है। तत्त्वप्राप्ति नहीं की तो शरीरकी महिमा क्या? कोई वस्तु अच्छी या बुरी नहीं होती, उसका सदुपयोग अच्छा होता है, दुरुपयोग बुरा।
अपनेको शरीर मानना और शरीरको अपना मानना प्रमाद है। प्रमाद ही मृत्यु है। जानते हुए भी न मानना प्रमाद है।
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तत्त्वबोधके बाद होनेवाला द्वैत अद्वैतसे भी सुन्दर है। तत्त्वबोधके पहले साधन-भक्ति है और तत्त्वबोधके बाद साध्य-भक्ति है। वही साध्य-भक्ति आरम्भसे ही हो सकती है। यदि साधकका भाव विशेष हो तो बोधसे पहले ही साध्य-भक्ति हो जाती है और भक्ति होनेपर फिर ज्ञान हो जाता है। भागवतमें ज्ञान और वैराग्यको भक्तिके बेटे कहा है। वह साध्य-भक्ति भगवान्से माँगनी चाहिये। वह भक्ति भगवान्की कृपासे मिलती है—‘भगवत्कृपालेशाद्वा’ (नारद० ३८)। भक्ति ज्ञानसे भी श्रेष्ठ है।
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संसारके पहले भी परमात्मा थे, पीछे भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें भी परमात्मा ही हैं। इस विषयमें साधकको केवल सावधान रहना है, अनुकूलता-प्रतिकूलताको देखकर राजी-नाराज नहीं होना है। भगवान् संसारमात्रके बीज हैं। जैसे मयूरीके अण्डेमें-से अनेक रंग प्रकट हो जाते हैं, ऐसे ही भगवान् विलक्षण बीज हैं, जिनसे अनेक प्रकारकी सृष्टि पैदा होती है।
गीता अर्जुनको दो बार भी नहीं मिली। दुबारा भगवान्ने ‘अनुगीता’ कही। परन्तु हम कलियुगी जीवोंको वह गीता बार-बार पढ़ने-सुननेको मिल रही है!!
आपके भीतर जाननेकी लगन पैदा हो जाय तो पेड़ोंसे, दीवारोंसे भी शिक्षा मिल जाय! लोग कहते हैं कि गुरु नहीं मिलता, मैं कहता हूँ कि चेले नहीं मिलते!
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भूख व भोजन, प्यास व जलमें एकता है। भूखके बिना भोजनमें रस नहीं आता। भूख भोजनकी सत्ताको और प्यास जलकी सत्ताको सिद्ध करती है। भोजन न हो तो भूख लग ही नहीं सकती। जल न हो तो प्यास लग ही नहीं सकती। भूखकी पूर्ति भूखसे, अभावकी पूर्ति अभावसे कैसे होगी? सत् की चाहना असत् से कैसे पूरी होगी?
संसार अभावरूप है अर्थात् यह भावरूप परमात्माकी भूख है। भावरूपसे अर्थात् सत्तारूपसे एक परमात्मा ही हैं—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। हमारे भीतर परमात्माकी भूख है। ‘है’-रूप परमात्मामें स्थित होनेसे पूर्ति हो जाती है, सब अभाव मिट जाता है।
विचित्र बात है कि हमारी असली भूख खानेसे नहीं मिटेगी, प्रत्युत खिलानेसे अर्थात् सेवा करनेसे मिटेगी! दूसरोंको सुख पहुँचानेसे विलक्षण सुख मिलता है।
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हमारा खास काम है—परमात्माको प्राप्त करना। और काम चाहे बिगड़ जायँ, पर यह काम नहीं बिगड़ना चाहिये।
जीव परमात्माका ही अंश है। स्वरूपसे हम निर्दोष हैं। निर्दोषमें दोष मानना ही गलती है। दोष आगन्तुक हैं, निर्दोषता स्वत: है। निर्दोषता निरन्तर रहती है। दोषके समय भी निर्दोषता ज्यों-की-त्यों रहती है।
दोषका ज्ञान निर्दोषको ही होता है। यह नियम है कि संसारका ज्ञान संसारसे अलग होनेपर ही होता है, और परमात्माका ज्ञान परमात्मासे अभिन्न होनेपर ही होता है।
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जिसकी प्राप्तिके लिये कुछ करना है ही नहीं, उसमें कठिनता-सुगमता क्या? परमात्माकी प्राप्ति भी स्वत:सिद्ध है और संसारकी निवृत्ति भी स्वत:सिद्ध है। ‘संसार है’—इसमें जो ‘है’-पना है, वह संसारका नहीं है, प्रत्युत परमात्माका है—
जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया॥
(मानस, बाल० ११७।४)
संसार निरन्तर बह रहा है, परमात्मतत्त्व निरन्तर रह रहा है। ऐसे ही शरीर बह रहा है, आत्मतत्त्व रह रहा है। शरीर-संसार एक जातिके हैं। आत्मा-परमात्मा एक जातिके हैं अर्थात् उनका एक स्वरूप है।
भोग और संग्रहकी इच्छावाला मनुष्य कभी सेवा नहीं कर सकता। वह लेता अधिक है, देता कम है।
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जो जीना हमें अच्छा लगता है, वह प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। मौत प्रतिक्षण नजदीक आ रही है। संसारकी तरफ हमारी जैसी रुचि हो रही है, वैसी परमात्माकी तरफ नहीं हो रही है। भोग प्यारे लगते हैं। दशा क्या होगी?
मनुष्यशरीर तीनों गुणोंसे अतीत होनेके लिये मिला है। यह भोग भोगनेके लिये नहीं है। भोगोंमें, सुख-सुविधामें दृष्टि रहेगी तो गुणातीत कैसे होंगे?
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हमारा प्रापणीय तत्त्व क्या है? यह विचार करें। जो सबको प्राप्त हो सकता है, वही हमारा प्रापणीय तत्त्व है। परमात्मा सबको मिल सकता है और सदाके लिये मिल सकता है। जो सबको मिले और सदाके लिये मिले, वही तत्त्व हमारा है।
त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्तियोग) सबको प्राप्त हो सकते हैं और सदाके लिये प्राप्त हो सकते हैं।
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एक बड़ी भारी भूल होती है कि हम यहाँके लोगोंको, यहाँकी वस्तुओंको अपना मान लेते हैं। जैसे रोज थोड़े समयके लिये सत्संग मिलता है, ऐसे ही चौरासी लाख योनियोंमें भटकते जीवको थोड़े समयके लिये मनुष्यशरीर मिलता है। इस थोड़े समयमें भी बहुत बड़ा काम (मोक्ष) हो सकता है!
मनुष्यके लिये दो बातें खास हैं—भगवान्को याद करना और सेवा करना। लेनेसे चीज घटती है, देनेसे चीज बढ़ती है। सेवा करनेवालेको कमी नहीं रहती। सूर्यको चन्दन चढ़ाओगे तो आपके ऊपर चन्दन पड़ेगा, धूल फेंकोगे तो आपके ऊपर धूल पड़ेगी।
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लोग ऐसी शंका करते हैं कि जो पाप करते हैं, वे तो सुख पाते हैं, पर जो धर्मपर चलते हैं, वे दु:ख पाते हैं। ऐसी शंका द्रौपदीको भी हो गयी थी। युधिष्ठिरने द्रौपदीको बताया कि धर्मका पालन सुखके लिये नहीं किया जाता। धर्मका पालन करना तो मनुष्यमात्रका कर्तव्य है, मनुष्यपना है। जो सुखके लिये धर्मका पालन करते हैं, वे धर्मके तत्त्वको नहीं जानते। पूर्वकर्मोंके अनुसार सभी सुख भी पाते हैं और दु:ख भी पाते हैं। जो धर्मकी रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है—‘धर्मो रक्षति रक्षित:’ (मनु० ८।१५, महा० वन० ३१३।१२८)।
वस्तु, परिस्थिति आदिमें सुख नहीं है, प्रत्युत उसके सदुपयोगमें सुख है।
सुखमें कम कृपा होती है, पर दु:खमें अधिक कृपा, शुद्ध कृपा होती है।
अन्याय करनेवाला मनुष्य तो अपने पुण्य काट रहा है और पशु अपने पाप काट रहा है।
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संसारका वियोग नित्य है, संयोग अनित्य है। संयोगसे पहले भी वियोग था, पीछे भी वियोग रहेगा और वर्तमानमें (संयोगकालमें) भी प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। परमात्माका योग नित्य है। संसारके संयोगमें राजी होना बहुत बड़ी गलती है; क्योंकि यह संयोग रहनेवाला नहीं है। बालक जन्मके बाद क्या करेगा, क्या नहीं करेगा, सब बातोंमें सन्देह है, पर वह मरेगा—इसमें कोई सन्देह नहीं है।
संसार स्वत: प्रकृतिमें जा रहा है और तत्त्वज्ञ, प्रेमी महापुरुष निरन्तर परमात्मामें जा रहे हैं। भोग और संग्रहको चाहने-वाले लोग पतंगोंकी तरह हैं, जो अग्निमें भस्म होनेके लिये जा रहे हैं—‘यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगा:’ (गीता ११।२९)।
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सबसे पहले वह काम कर लेना चाहिये, जिसके लिये मानवशरीर मिला है। कबतक जीयेंगे—इसका पता नहीं। संसारके सब कामोंमें सन्देह है, पर मरनेमें सन्देह नहीं है। जन्मके बाद मरना अवश्यम्भावी है। वह मृत्यु प्रतिक्षण समीप आ रही है। इसलिये चेत करो, होशमें आओ।
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके सब अधिकारी हैं, कोई अनधिकारी नहीं है। पापी-से-पापी मनुष्यको भी ज्ञान, मोक्ष प्राप्त हो सकता है (गीता ४।३६-३७, ९।३०-३१)। जिसने परमात्माकी प्राप्ति कर ली, उसने सब काम कर लिया। जो भगवान्में लग गया, वह सबसे श्रेष्ठ है। सिवाय भगवान्के कहीं भी शान्ति नहीं है।
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परमात्माकी प्राप्तिका स्थान हृदय है। ज्ञान हृदयमें विराजमान है। गुरुसे जो ज्ञान मिलता है, वह वास्तवमें अपने ही भीतर है। उस ज्ञानके द्वारा हम परमात्माको जान लेते हैं। गुरु ज्ञान देते नहीं हैं, प्रत्युत सबके हृदयमें विराजमान ज्ञानरूप परमात्माकी जागृति करते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण सबके गुरु हैं और उनका मन्त्र अथवा उपदेश है गीता। कोई मनुष्य पंडिताईके जोरसे गीताका अर्थ नहीं समझ सकता। भगवान्के शरण होनेसे ही गीताका अर्थ प्रकट होता है। भगवान् गीतासे बहुत राजी होते हैं। गीतापाठसे वे दर्शन भी दे सकते हैं। गीता-रामायण-ग्रंथ जहाँ पड़े रहते हैं, वहाँ भूत-प्रेत-पिशाच नहीं आते। उन ग्रन्थोंको प्रणाम करनेसे बड़ी शक्ति मिलती है।
गीताका पठन-मनन करनेवाला प्रत्येक प्रश्नका उत्तर दे सकता है। प्रतिदिन गीताका पाठ, विचार करना शुरू कर दें। गीताके अनुसार अपना व्यवहार करें, जीवन बनायें तो दु:ख, सन्ताप, हलचल सब मिट जायगी। एक भी आदमी ऐसा नहीं हुआ, जिसकी भोग तथा संग्रहसे तृप्ति हो गयी हो। अविनाशीकी भूख विनाशीसे कैसे मिटेगी?
भगवान्के श्वाससे वेद प्रकट हुए—‘यस्य निश्वसितं वेदा:’। जब श्वासका इतना प्रभाव है तो फिर वाणी (गीता)-का कितना प्रभाव होगा!
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मनुष्यशरीर केवल परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है, सांसारिक कार्योंके लिये नहीं। परमात्मप्राप्तिका मौका मनुष्यशरीरमें ही है। मनुष्यशरीरमें भी सत्संगका मौका दुर्लभ है! जैसे मनुष्यशरीर बार-बार नहीं मिलता, ऐसे ही सत्संग भी बार-बार नहीं मिलता। यह भगवान्की विशेष कृपासे ही मिलता है। भगवान् अपनी तरफ खींचना चाहते हैं।
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भक्ति सर्वश्रेष्ठ है—‘भक्तिरेव गरीयसी’ (नारदभक्ति० ८१)। प्रेमका नाम भक्ति है—‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’। प्रेम है—भगवान् और उनके गुण, लीला, चरित्र आदि अच्छे लगें। जैसे प्यास लगनेपर जलकी याद आती है, जल अच्छा लगता है, ऐसे भगवान् अच्छे लगें।
भक्तिसे भगवान् वशमें हो जाते हैं। मुक्ति तो पूतनाको भी मिल गयी! मुक्ति तो भगवान्की चरण-रजमें है। भक्ति बड़ी सुगम है। भगवान् प्यारे लगें, मीठे लगें—यह भक्ति है।
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परमात्माकी प्राप्ति कठिन है तो सुगम क्या है? इसीके लिये तो मानवशरीर मिला है। खास काम परमात्माकी प्राप्ति करना है। दूसरा काम करें तो वह नया काम शुरू किया है! जो भी काम करें, भगवान्का ही काम समझकर करें—
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(गीता ९।२७)
‘हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।’
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एक कामना होती है, एक आवश्यकता होती है। भूख लगने-पर अन्नकी आवश्यकता होती है। कामना शरीरकी आवश्यकता नहीं होती।
मिलनेवाली चीज तो अवश्य मिलेगी, पर अपने कर्तव्यका पालन न करनेका दण्ड होगा। प्रारब्धसे मिली चीजमें तो सन्तोष करो, पर नये कार्यमें सन्तोष मत करो। भगवत्सम्बन्धी बातोंमें सन्तोष मत करो; क्योंकि यह हमारी आवश्यकता है। सत्संग, भजन-ध्यान आदिकी आवश्यकता होती है, कामना नहीं।
पत्थर ढोनेवालेको जो मजदूरी मिलती है, वैसी ही सोना ढोनेवालेको भी मिलती है। तात्पर्य है कि सबको अपने प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है।
कोई कार्य अवश्यम्भावी नहीं है, पर मरना अवश्यम्भावी है। जो कार्य अवश्यम्भावी है, उसकी तैयारी सबसे पहले करनी चाहिये।
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जो करना चाहिये और कर सकते हैं, उसे न करना भूल है।
सन्तान पिण्ड-पानी देनेके लिये है। सम्पत्ति तो कोई भी सँभाल सकता है!
भगवान्का होकर भगवान्को पुकारो तो भगवान् पर असर पड़ेगा। संसारका होकर पुकारोगे तो असर नहीं पड़ेगा।
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बहुत जन्मोंके बाद यह मनुष्यशरीर मिलता है। कल्याणमें खुदकी लगन काम आती है। खुदकी लगन, विचार न हो तो गुरु क्या करेगा? उपदेश क्या करेगा? जाननेका विचार ही नहीं हो तो शिक्षा क्या करेगी? साधु हो गये, फिर भी लगन नहीं है! मनमें कुछ भी लालसा हो तो उपाय किया जाय। इसलिये अपनी लालसा बढ़ाओ, भूख बढ़ाओ। भूख न हो तो बढ़िया भोजन किस कामका?
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परमात्माकी प्राप्ति कठिन नहीं है, प्रत्युत उसकी प्राप्तिकी लालसा कठिन है। भोग तथा संग्रहकी इच्छाका त्याग न हो सके तो भी ‘परमात्माकी प्राप्ति कैसे हो!’ यह इच्छा रहनी चाहिये। हमारी तीव्र लालसा न हो तो भी सत्संगसे लाभ होता है, पर अपनी लालसा न होनेसे उतना लाभ दीखता नहीं। जिसको सत्संगका लाभ मालूम पड़ जाय, वह सत्संग छोड़ नहीं सकता। सत्संग करनेसे विवेक जाग्रत् होता है, सत्-असत् तथा कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान होता है, फिर तदनुसार कर्म होते हैं। सत्संगसे बड़ी विलक्षणता आती है, जिसका बाहरसे पता नहीं लगता। अच्छे-अच्छे शास्त्रीय विद्वान् भी जो बात नहीं कहते, वह बात सत्संग करनेवाले कह देते हैं।
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परमात्मामें अनन्त शक्तियाँ हैं। सगुण-निर्गुण उसके विशेषण हैं, स्वरूप नहीं। संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना पड़ता है और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना पड़ता है। संसारका किंचिन्मात्र भी आकर्षण रहेगा तो उसे नहीं जान सकते।
प्रकृतिको साथ लेकर मनुष्य भगवान्के शरण तो हो सकता है, पर तत्त्वबोध नहीं प्राप्त कर सकता।
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संसारकी सत्ता और महत्ताको मानना ही भूल है। संसार न हमारे साथ रहनेवाला है, न हम संसारके साथ रहनेवाले हैं। जो चीज निरन्तर मिट रही है, उसे सत्ता और महत्ता देना कहाँतक उचित है? जिसको आप ‘मेरी वस्तु’ कहते हैं, वह क्या सदा आपके साथ रहेगी? क्या आप उसके साथ सदा रहेंगे? संसारका संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। अन्तमें वियोग ही बचेगा, संयोग नहीं। अत: संयोगमें ही वियोगका दर्शन कर लें।
अरब खरब लौं द्रव्य है,
उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है,
तो आवहि किहि काज॥
उम्र निरन्तर ‘नहीं’ में जा रही है। मृत्यु निरन्तर समीप आ रही है। यह सच्ची बात है। जो सच्ची बातका आदर नहीं करता, उसको दु:ख पाना ही पड़ेगा। आप अच्छा काम करो या बुरा काम, उम्र तो प्रतिक्षण अपने धुनमें जा रही है। वास्तवमें सत्ता और महत्ता तो एकमात्र परमात्माकी ही है। वह बड़े-से-बड़े और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म सभी जीवोंका भरण-पोषण करता है, उनके कर्मोंका फल भुगताता है। उस परमात्माके समान कोई वक्ता, श्रोता, सन्त, धनवान् आदि नहीं है। परमात्माकी शक्ति ही मनुष्यमें आती है। परमात्माके वक्ता हुए बिना मनुष्य वक्ता कैसे हो सकता है? परमात्माके समान कोई वक्ता, श्रोता, सन्त, धनवान् आदि नहीं है। अगर रुपया बढ़िया चीज है तो फिर उसको खर्च क्यों करते हो?
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भोगोंमें प्रियता, रुचि होनेका कारण ‘रस’ है। परमात्माके सच्चे रसके सामने यह झूठा रस निवृत्त हो जाता है। साधनमें भी एक रसबुद्धि होती है, जिससे समाधिमें विघ्न होता है। रसास्वादसे साधक अटक जाता है। आप स्वयं टिक जाओ तो मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ भी टिक जायँगे। स्वयंका टिकना है—रसबुद्धि निवृत्त होना। आप सब छोड़कर सत्संगमें आते हो—यह पारमार्थिक रसका नमूना है।
प्रेमके रसमें समाधिका रस भी छूट जाता है। उस रसमें कभी हँसी आती है, कभी रोना—
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥
(श्रीमद्भा० ११।१४।२४)
‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर (मेरे प्रेममें मग्न हुआ पागलकी भाँति) ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है।’
सांसारिक रस निवृत्त होनेसे पारमार्थिक रस मिलता है। प्रेममें ज्ञानियोंके ‘अभेद’ से भी विलक्षण ‘अभिन्नता’ होती है। प्रेममें एकदेशीयपना (मैं हूँ) मिट जाता है अर्थात् ‘हूँ’ ‘है’ में विलीन हो जाता है।
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जैसे दर्पणमें विपरीत दीखता है, ऐसे ही मायारूप संसार भी विपरीत दीखता है। संसारसे कुछ लेनेकी इच्छा रखनेसे नुकसान होता है और देनेकी इच्छा रखनेसे लाभ होता है। दूसरोंका हित करनेसे हमारा हित होता है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (गीता १२।४)। जैसे, बीज जमीनमें डाल दें तो खेती हो जाती है और खुद खा लें तो रेती हो जाती है! अपनी भूख मिटानेसे पहले दूसरोंकी भूख मिटाओ। दूसरोंका हित कैसे हो—इसको सीखनेके लिये ही हम यहाँ एकत्र हुए हैं। माँ हमें अच्छी क्यों लगती है? कि वह हमारा पालन करती है। जो दूसरेके दु:खसे दु:खी होता है, उसको अपने दु:खसे दु:खी नहीं होना पड़ता।
भगवान्को याद करना और सेवा करना—ये दो काम खास मनुष्योंके लिये हैं। इनके बिना मनुष्यपना नहीं है। जैसे नामजप आदिसे कल्याण होता है, ऐसे ही दूसरोंका हित करनेसे भी कल्याण होता है। यह कर्मयोग है।
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रसबुद्धि किसमें है? रसबुद्धि भोक्तृत्वमें है और भोक्तृत्व होता है प्रकृतिमें स्थित होनेसे—‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्ते प्रकृतिजान्गुणान्’ (गीता १३।२१)। परन्तु इससे भी विलक्षण बात है कि रसबुद्धि स्वयंमें है। सांसारिक रस तो भोक्तृत्वमें है, पर परमात्माका अंश होनेसे पारमार्थिक रस स्वयंमें है।
ज्ञानके अखण्डरसकी अपेक्षा प्रेमका अनन्तरस विलक्षण है।
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खास आवश्यकता व्यवहारके सुधारकी है। परमात्माकी प्राप्तिके बिना जन्मना-मरना बन्द नहीं होगा। जन्म-मरणका चक्र चलता ही रहेगा। लम्बे रास्तेका अन्त आता है, गोल चक्रका अन्त कैसे आयेगा? परमात्माकी प्राप्तिके लिये अपना व्यवहार शुद्ध करना है। स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये चेष्टा करनी है। सबके हितकी भावनावाला सदा सुखी रहता है। जो किसीको भय नहीं देता, वह अभय हो जाता है।
गृहस्थमें स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करनेसे परस्पर प्रेम बढ़ेगा। मोहका बन्धन संसारमें बाँध देता है। प्रेमका बन्धन मुक्त कर देता है।
आजकलके जमानेमें दूसरेको दु:ख न पहुँचाना भी बहुत बड़ा पुण्य है। पहले भलाई करनेपर भलाई होती थी, आज बुराई न करनेसे भलाई हो जाती है! गाड़ीमें चढ़ते समय कोई चढ़नेको अथवा बैठनेको मना न करे तो समझो कि भला आदमी है!
एक भारतीय संस्कृति ऐसी है, जो सबका हित चाहती है—‘अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा’ (मानस २।१८३।३),‘काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥’ (मानस ६।१७।४)। सबका हित मनुष्य ही कर सकता है।
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आकाशात्पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम्।
सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रतिगच्छति॥
(लौगाक्षिस्मृति)
जैसे सभी देवताओंको किया गया नमस्कार भगवान्के पास पहुँचता है, ऐसे ही सबके साथ किया गया प्रेमका बर्ताव भी भगवान्के पास पहुँचता है। भगवान् सबके हृदयमें विराजमान हैं। अत: सबमें भगवान्को देखते हुए सबको नमस्कार करो, सबके साथ आदरका, प्रेमका बर्ताव करो। सब सुखी हो जायँ—यह व्यापक भाव है, जो व्यापक परमात्माको प्रकट करनेवाला है।
नमस्कार करनेसे लाभ-ही-लाभ है। रोजाना बड़ोंको नमस्कार करनेसे आयु, विद्या, यश और बल—ये चारों बढ़ते हैं। नमस्कार करनेसे मार्कण्डेयकी आयु बढ़ गयी, वे चिरंजीवी हो गये!
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गृहस्थाश्रम सबका मूल है। गृहस्थाश्रममें बहनें-माताएँ मुख्य हैं; क्योंकि उनके कारणसे ही गृहस्थ कहलाता है। साधुओंके मठ, आश्रम, धाम आदिको कोई घर नहीं कहता। स्त्रीके कारण ही घर कहलाता है, चाहे वृक्षके नीचे ही क्यों न रहें! ‘न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते’ (महाभारत, शान्ति० १४४।६)। आज स्त्रियोंको केवल भोग-सामग्री बना दिया है! स्त्रीको स्त्रीरूपसे देखना उसका निरादर है। उसको माँरूपसे देखना चाहिये। माँका दर्जा बहुत ऊँचा है—‘सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु० २।१४५)।
बहनोंको चाहिये कि सूई बनें, कतरनी (कैंची) मत बनें। सूई दोको एक कर देती है, कतरनी एकको दो कर देती है। वे ऐसा कोई काम न करें, जिससे कलह पैदा हो। घरमें प्रेम रखें। बालकोंको भोजन करानेमें विषमता मत करें। सासको चाहिये कि बेटी और बहूमें लड़ाई हो तो बहूका पक्ष ले।
गरीब बच्चोंको मिठाई खिलाओ तो शोक-चिन्ता मिट जायँगे।
गृहस्थमें बड़ी सावधानीसे रहो। थोड़ी-सी गलतीसे भी बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। दूसरा कोई गलती भी कर दे तो उसको सह लो। गृहस्थ एक पाठशाला है, जिसमें प्रेमका पाठ पढ़ो।
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मनुष्य भविष्यके लिये अन्न, धन आदिकी चिन्ता करता है। वास्तवमें मृत्युके बादकी चिन्ता करनी चाहिये। इस लोकमें तो अपने निर्वाहके लिये कर्जा भी ले लेंगे, पर परलोकमें क्या करेंगे?
शुद्ध स्वभाववाला नीच योनियोंमें जा ही नहीं सकता।
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साधनका तात्पर्य असाधनका नाश करना है। फलकी इच्छा करेंगे तो उन्नति रुक जायगी। सबसे बड़ा फल यही है कि राग-द्वेष मिट जायँ। राग-द्वेष असाधन है। असाधनके नाशपर साधककी विशेष दृष्टि रहनी चाहिये। परिस्थितिको बदलनेपर उसकी दृष्टि नहीं रहनी चाहिये। जो परिस्थितिके पराधीन है, वह साधन नहीं कर सकता।
सुख-दु:ख भोगते रहना असाधन है। असाधन मिटनेपर साधन स्वत: होगा। अनुकूल परिस्थितिकी इच्छा करना साधन नहीं है। साधन है—परिस्थितियोंका सदुपयोग करना। प्रत्येक परिस्थिति साधन-सामग्री है।
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संसारकी चीजें उद्योगसे मिलती हैं, इच्छामात्रसे नहीं। परन्तु परमात्माकी प्राप्तिमें केवल अभिलाषाकी, तीव्र इच्छाकी जरूरत है।
साधन वह होता है, जिसमें असाधन न हो। भीतरमें दम्भ, पाखण्ड, दुर्गुण-दुराचार होंगे तो न अपनेको शान्ति मिलेगी, न दूसरोंको; न वर्तमानमें शान्ति मिलेगी, न परिणाममें। दुर्गुण-दुराचार रहते हुए साधन किया जायगा तो साधन निरर्थक तो नहीं जायगा, पर वर्तमानमें प्रत्यक्ष लाभ नहीं दीखेगा।
भगवान्के बिना रहा न जाय—यह असली भजन है। जैसे आज वस्तुएँ मँहगी हो गयीं और रुपये सस्ते हो गये, ऐसे ही आज भगवान् बहुत सस्ते हैं!
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भगवान्ने हमें समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य पूरी दी है। अब उसका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करना हमारे हाथमें है। हम अपने विवेकसे वही काम करें, जिससे अपना और दूसरोंका, अभी और भविष्यमें हित हो। यह सावधानी रखनी है।
किया जानेवाला साधन नकली और अनित्य होता है। परन्तु होनेवाला साधन असली और नित्य होता है। असाधनका त्याग करनेपर साधन स्वत: होता है।
असत् वस्तुका त्याग करनेसे अभिमान नहीं होता। यदि अभिमान होता है तो समझना चाहिये कि उस वस्तुको असत् नहीं माना है। त्याज्य वस्तुमें महत्त्वबुद्धि होनेसे ही अभिमान होता है।
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परमात्मप्राप्तिके साधनोंमें भक्तिकी बड़ी महिमा है। ज्ञानसे भी भक्तिकी अधिक महिमा है। ज्ञानके बाद प्रेमाभक्ति होती है। भक्ति आरम्भमें भी सुगम है, अन्तमें भी श्रेष्ठ है। सुगम इसलिये है कि अपने सम्बन्धका आभास मनुष्यमें स्वाभाविक है कि ये मेरे माँ-बाप हैं, ये मेरे पुत्र हैं, आदि। वास्तवमें भगवान् हमारे हैं—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। मीराबाईने भगवान्को पति मान लिया। स्त्री हो या पुरुष, सबके पति भगवान् हैं। जो पालन करनेवाला और मालिक हो, उसे ‘पति’ कहते हैं।
संसारके सभी सम्बन्ध एक-दूसरेकी सेवा करनेके लिये हैं। हमारे पास जो कुछ है, सब सेवाके लिये है। आजकल सेवाका बहुत बढ़िया मौका है; क्योंकि सब सेवा लेना चाहते हैं। आप निष्कामभावसे सेवा करोगे तो दूसरेके मनमें भी सेवावृत्ति जाग्रत् हो जायगी।
कोई वस्तु नहीं मिले तो उसकी इच्छाका त्याग कर दे, और मिल जाय तो उसको दूसरोंकी सेवामें लगा दे।
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भगवान्ने महान् आनन्दकी प्राप्तिके लिये यह मनुष्यशरीर दिया है। सदाके लिये दु:खोंका नाश हो जाय—इसके लिये मनुष्यशरीर दिया है। इसी उद्देश्यकी सिद्धिके लिये हम यहाँ सत्संगमें बैठे हैं। हमारा एक ही लक्ष्य बन जाय कि हमें परमात्माकी प्राप्ति करना है। इस लक्ष्यकी हर समय जागृति रहे। इस बातका खयाल रखें कि हम यहाँ निरन्तर रहनेवाले नहीं हैं। हर समय सावधानी रखें। यहाँ हरदम नहीं रहना है। यहाँ कमानेके लिये आये हैं। जबसे आये हैं, तबसे पारमार्थिक उन्नति कितनी कर ली और कितनी बाकी है—इस विषयमें सावधान रहना चाहिये।
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जो साधन सुगम मालूम देता हो, उसीको शुरू कर दें। लोभ न करके जो मिल जाय, उसका सदुपयोग करें। ऐसे ही साधनमें भी लोभ न करें कि यह भी कर लूँ, वह भी कर लूँ। एक साधनको पूरी तरह करें। अन्य साधन उसमें सहायक हो सकते हैं। सुगम साधन शुरू करनेपर फिर जो कठिन दीखता है, वह भी सुगम दीखने लगेगा।
संयमसे शक्ति पैदा होती है। झूठ बोलनेसे वाणीकी शक्ति नष्ट होती है। सबके साथ मीठा बोलो, आदरसे बोलो। सब जगह अमृत फैलाओ, विष मत फैलाओ। जीभको वशमें रखो। भगवान्ने कान दो दिये हैं और जीभ एक दी है कि सुनो अधिक, बोलो कम।
जिस चीजको आप नहीं खाते अथवा काममें नहीं लेते, उस चीजको देनेका अधिकार नहीं है।
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यदि आपका उद्देश्य चेतन-तत्त्वका है तो ध्यान, भजन, नामजप आदि करनेसे जड़का महत्त्व नहीं होगा। ध्येय परमात्माका होना चाहिये। प्राप्ति चेतनकी करनी है। नामजप जड़ नहीं है। नाम और नामी (भगवान्)-की एकता है। भगवान्का होकर भगवान्का भजन करो, फिर जड़ता कैसे आयेगी? मीराबाईके शरीरकी भी जड़ता नष्ट हो गयी। उस शरीरकी जड़ता नष्ट हो गयी जो कि गन्दी वस्तु है, विष्ठा बनानेकी मशीन है!
मैं ज्ञानकी नहीं, ज्ञानके अभिमानकी निन्दा करता हूँ। ज्ञानका अभिमान नरकोंमें ले जानेवाला है।
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गीतामें भगवान्ने कहा है—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (२।१६) ‘असत् की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है।’ संसारका जितना भी उपदेश है, वह सब इस श्लोकार्धमें आ जाता है! देखनेवाला ‘सत्’ है, दीखने-वाला ‘असत्’ है। जाननेमें आनेवाली सब वस्तुएँ नाशवान् हैं—
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं।
मोह मूल परमारथु नाहीं॥
(मानस, अयोध्या० ९२।४)
जहाँ हमारा लक्ष्य होगा, वहीं हम जायँगे। सांसारिक अथवा पारमार्थिक—दोनों क्रियाएँ तो जड़के द्वारा ही होंगी, पर लक्ष्य चेतन (परमात्मा) होना चाहिये। परमात्माके लिये किया गया जड़ कार्य भी चेतनकी प्राप्ति करानेवाला हो जाता है।
गीतामें आया है—
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
(२।३८)
‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा।’
—युद्धरूपी क्रियासे भी पाप नहीं लगेगा; क्योंकि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख हमारा लक्ष्य नहीं है। लक्ष्य परमात्मा है तो युद्धरूपी क्रिया भी परमात्मप्राप्तिका कारण हो जायगी। लक्ष्य चेतन होनेसे जड़ भी चिन्मय हो जायगा।
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क्रिया भले ही जड़ हो, पर उद्देश्य जड़ नहीं होना चाहिये। करना और न करना—दोनों ही जड़ हैं, तत्त्व दोनोंसे अतीत है—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३।१८)। मुख्यता उद्देश्यकी है।
परमात्मतत्त्वमें जब कर्तृत्व ही नहीं है तो फिर करणकी शुद्धि-अशुद्धिका उसमें क्या मतलब? सब-के-सब कारक प्रकृतिके कार्य हैं। कारक क्रियाकी सिद्धिमें काम आता है, क्रियासे अतीतमें कैसे काम आयेगा?
परमात्मप्राप्तिमें अन्त:करण-शुद्धिकी आवश्यकता नहीं है—ऐसा सुनकर जो निषिद्ध कार्य करता है अर्थात् इस बातका दुरुपयोग करता है, उसे कल्याण करना ही नहीं है, वह तो भोग भोगना चाहता है।
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बुद्धि कर्मानुसारिणी है, विवेक नहीं। विवेक अनादि है और बुद्धिमें आता है। फिर वचनोंमें और विचारमें आता है, फिर व्यवहारमें आता है।
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संसारका संयोग पान्थसंगम है। उनमें ममता करनेसे दु:ख ही पाना पड़ेगा। संसारमें कई मरते हैं, पर उनके मरनेसे हमें दु:ख नहीं होता। हमें उसीके मरनेसे दु:ख होता है, जिसको हम ‘मेरा’ मानते हैं। दु:ख मेरापनसे होता है। मेरापन माना हुआ है, वास्तविक नहीं है। मिलना अनित्य है, बिछुड़ना नित्य है। जैसा है, वैसा जाननेका नाम ‘ज्ञान’ है।
संसारका संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। परमात्माका योग नित्य है। वास्तवमें संसारका संयोग होता ही नहीं। संसारका वियोग ही मुख्य है—ऐसा जाननेसे दु:ख नहीं होगा। सूर्यास्त होनेसे लोग रोते हैं क्या? हर कार्यमें सन्देह है, पर मरनेमें सन्देह नहीं है। जिसके होनेमें सन्देह नहीं है, जो अवश्यम्भावी है, उसमें चिन्ता क्यों करें? यह मृत्युलोक है, इसमें सब मरने-ही-मरनेवाले रहते हैं। आनेवाला जानेवाला ही होता है—यह नियम है। संयोग होते ही वियोग शुरू हो जाता है। जिस क्षण धनवान् हुआ, उसी क्षण निर्धन होना शुरू हो गया।
शरीरमें साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, नौ छिद्र हैं, उसमें पवन (प्राण) टिका हुआ है—इसमें आश्चर्य है; वह निकल जाय तो क्या आश्चर्य है!
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अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—इन चारोंके अन्तर्गत मनुष्यकी सब इच्छाएँ आ जाती हैं। अर्थ और कामकी प्राप्तिमें ‘प्रारब्ध’ की आवश्यकता है। धर्म और मोक्षकी प्राप्तिमें ‘पुरुषार्थ’ की आवश्यकता है।
सत्संगसे अन्त:करण शुद्ध होता है और स्वभाव ठीक बनता है। शास्त्र पढ़नेसे मनुष्य बहुत बातें जान जायगा, पर स्वभाव नहीं सुधरेगा। स्वभाव सुधरेगा परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे। रावण बहुत विद्वान् था, कई विद्याओंका जानकार था, पर उसका स्वभाव राक्षसी था। वेदोंपर भाष्य लिखनेपर भी उसका स्वभाव सुधरा नहीं। कारण कि उसका उद्देश्य भोग और संग्रह था, परमात्मप्राप्ति नहीं। जैसा स्वभाव होता है, वैसा ही काम करनेकी प्रेरणा होती है।
सत्संग, सच्छास्त्र और सद्विचारसे बहुत लाभ होता है। मैं सत्संगको मुख्य मानता हूँ। सत्संगसे बड़ा लाभ होता है। शास्त्रोंमें, सन्तवाणीमें सत्संग और नामजपकी बड़ी महिमा आती है। दोनोंमें सत्संगसे बहुत जल्दी लाभ होता है। पुस्तकें पढ़नेसे उतना बोध नहीं होता, जितना सत्संगसे होता है।
साधनमें, अपनी स्थितिमें सन्तोष करना बड़ा घातक है।
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संसार निरन्तर जा रहा है। उसको सत्ता-महत्ता देना गलती है। कोई भी चीज सदा साथ रहनेवाली नहीं है—यह सबका अनुभव है। कम-से-कम अपने अनुभवका तो आदर करना चाहिये। हर समय भगवान्को याद करो, नामजप करो। हरदम सावधान रहो, न जाने कब जाना पड़े! सावधान करनेके लिये ही यह सत्संग है।
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ध्रुवजीके प्यारमें धक्का लगा तो उनमें लगन पैदा हुई। जब आशा भंग होती है, तब एक जागृति होती है। नारदजीने उनको जंगलका भय भी दिखाया और लोभ भी दिया, पर ध्रुवजी पक्के रहे। वे ऐसी तत्परतासे भगवान्में लगे कि माँकी भी याद नहीं आयी और छ: मासमें भगवान् मिल गये! ऊपरसे तो तपस्या दीखती थी, पर भीतरमें लगन थी। वे भगवान्से कुछ कह न सके तो भगवान्ने शंख छुआ दिया और उनकी सोयी वाणी जाग्रत् हो गयी। कारण कि सब शक्ति भगवान्से ही आती है। मनुष्य भूलसे उसको अपनी समझ लेता है।
भगवान्के देनेका ढंग ऐसा है कि वे जिसको वस्तु देते हैं, उसको वह वस्तु अपनी ही मालूम देती है! भगवान् कृपा करके मनुष्यशरीर देते हैं, पर हमें शरीर अपना ही मालूम देता है। यह दाताकी विलक्षणता है! यदि शरीर आपका है तो फिर उसको बीमार क्यों होने देते हो? मरने क्यों देते हो? शरीरपर आपका अधिकार चलता है क्या? एक अँगुली कट जाय तो दुबारा नहीं बना सकते, फिर इतना बड़ा शरीर दुबारा कैसे बनेगा? अपनेको बुद्धिमान् मानते हो, पर लकवा मार जाय तो? आँख कमजोर होती है तो चश्मा क्यों लगाते हो? अपने बलका अभिमान करते हो, पर जब पेशाब बन्द हो जाता है, तब?
यह कायदा है कि जब मनुष्य खुद मालिक बन जाता है, तब वह अपने मालिकको भूल जाता है। सत्संगसे जो लाभ होता है, वह सब परमात्मासे ही आता है। सत्संगका मौका भी भगवान् अपनी कृपासे देते हैं।
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शास्त्रोंमें भक्तिकी बड़ी महिमा है। भक्ति सुगम भी है। ‘भगवान् अपने हैं’—इस प्रकार भगवान्के साथ अपना सम्बन्ध माननेमें ‘दूसरे अपने नहीं हैं’—यह मानना आवश्यक है। अपनेपनसे भगवान् बँध जाते हैं। दूसरी बातोंसे भगवान् बँधते नहीं। अपनापन होनेसे माँ स्वत: अच्छी लगती है।
भगवान्की प्रतीक्षा, लगन बहुत जल्दी भगवान्को मिलाती है। कीर्तन करनेसे बहुत लाभ होता है। कीर्तन करनेसे भगवान्में प्रेम होता है। कीर्तनमें आनन्द-रूपसे भगवान् प्रकट होते हैं।
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क्रिया और पदार्थसे ऊँचा उठनेपर ही तत्त्वकी प्राप्ति होगी। क्रिया और पदार्थका उपयोग केवल दूसरोंके लिये किया जाय, निष्कामभावसे किया जाय तो हम क्रिया और पदार्थसे ऊँचा उठ जायँगे। यह कर्मयोग है।
क्रिया और पदार्थ हमारे थे नहीं, हैं नहीं, होंगे नहीं, हो सकते नहीं। ये संसारके हैं। इनको अपना मानना बेईमानी है।
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संसारकी प्राप्ति अप्राप्तकी प्राप्ति है। जो हमारे पासमें नहीं है, उसकी प्राप्ति है। परन्तु परमात्माके विषयमें यह बात नहीं है। वह सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है। तो फिर बाधा क्या है? उनकी प्राप्तिकी जोरदार इच्छा नहीं है। परमात्माके समान दूसरा कोई नहीं है; अत: उनकी चाहनाके समान भी दूसरी कोई चाहना न हो। अनन्यचेता मनुष्यके लिये भगवान् सुलभ हैं—‘अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:। तस्याहं सुलभ:........’ (गीता ८।१४)। ‘अनन्यचेता’ का तात्पर्य है—एक परमात्माके सिवाय अन्य किसीका महत्त्व न हो।
कोई जन्म गया तो अध्याय शुरू हो गया, मर गया तो अध्याय पूरा हो गया। इसमें राजी-नाराज होनेसे क्या लाभ? गीताजीका अध्याय पूरा होनेपर दु:खी होते हैं क्या?
पहले विद्यार्थी पढ़ाईके लिये परीक्षा देते थे, आज परीक्षाके लिये पढ़ाई होती है!
आप छोटोंपर दया नहीं करते तो बड़ोंसे दया माँगनेका आपको अधिकार नहीं है।
जो सेवा करते नहीं, प्रत्युत सेवा लेते हैं, उनके लिये जमाना खराब आया है। सेवा करनेवालेके लिये तो बहुत बढ़िया जमाना आया है!
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गीता और रामायण दोनों बड़े विलक्षण ग्रन्थ हैं। रामायण लिखते समय गोस्वामीजी (श्रीतुलसीदासजी)-ने पहले ‘अयोध्याकाण्ड’ लिखा था; क्योंकि वे अपने लिये भरतजीको आदर्श मानते थे। अयोध्याकाण्डके आरम्भमें गुरु-वन्दना है।
गोस्वामीजी बहुत सावधानीसे लिखते हैं। उन्होंने भरतजी और ब्रह्माजीके चरणोंके लिये कमलकी उपमा कहीं नहीं दी है। कारण कि भरतजीका मनरूपी भ्रमर रामजीके चरण-कमलोंकी तरफ जाता है, अपने चरण-कमलोंकी तरफ नहीं। अपने चरण ज्यादा नजदीक होते हैं। ब्रह्माजी कमलसे उत्पन्न हुए हैं; अत: उनके चरणोंकी भी उपमा कमलसे नहीं दी।
रामायणमें गोस्वामीजी प्राय: रामजीके साथ ही रहते हैं, इसलिये रामजीके लिये ‘इहाँ’ और रावणके लिये ‘उहाँ’ शब्दका प्रयोग करते हैं; जैसे—‘इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा०’ (लंका० ११।१), ‘इहाँ प्रात जागे रघुराई०’ (१७।१), ‘इहाँ राम अंगदहि बोलावा०’ (३८।२), ‘उहाँ दसानन सचिव हँकारे०’ (४८।२), ‘उहाँ दूत एक मरमु जनावा०’ (५६।१)। परन्तु जब भरतजीका प्रसंग आता है, तब वे भरतजीके साथ हो जाते हैं; जैसे—‘उहाँ रामु रजनी अवसेषा०’ (अयोध्या० २२६।२), ‘इहाँ भरतु सब सहित सहाए०’ (२३३।२)। कारण कि भक्त भगवान्से भी बढ़कर है—‘राम ते अधिक राम कर दासा’ (उत्तर० १२०।८)।
रामायणका ‘तापस-प्रकरण’ बड़ी विलक्षण घटना है (अयोध्या० ११०।४ से १११।३)। रामजीने भरद्वाज मुनिसे आगेका मार्ग पूछा तो मुनिने पचास शिष्योंको बुलाया। अठारह पुराण, अठारह उपपुराण, चार वेद, चार उपवेद और छ: शास्त्र—ये एक-एक पढ़े हुए पचास विद्यार्थी थे। उनमेंसे वेद पढ़े हुए चार विद्यार्थियोंको रामजीके साथ मार्ग दिखाने भेजा। फिर रामजीने यमुनाको पार किया। यमुनापार राजापुर गाँव आया। तब गोस्वामीजीके भीतर भाव आया कि यदि मैं उस समय होता तो मैं भी रामजीके दर्शन करता! ऐसा भाव आते ही वे मग्न हो गये। ध्यानावस्थामें वे रामजीसे मिले। कलियुगमें होनेवाले गोस्वामीजी त्रेतायुगमें रामजीसे मिलते हैं—यह विलक्षण घटना है! जब उनका ध्यान टूटा तो उन्होंने चार चौपाई और एक दोहा लिखा हुआ पाया, जिसको हनुमान्जीने लिखा।
भक्त अपनेको सदा छोटा (लघु) ही मानता है, तभी लिखा—‘लघुबयस’ (अयोध्या० ११०।४)। इसकी पहचान विनयपत्रिकामें है। गोस्वामीजी सीताजीकी विनयमें कहते हैं—‘कबहुँक अंब, अवसर पाइ। मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ॥’ भक्तोंका भाव सदा लघु ही रहता है, भगवान्के दर्शन होनेपर भी वे अपनेको बालक ही मानते हैं।
गोस्वामीजी सन्त थे, कवि नहीं।
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सभी साधनोंमें संसारसे उपराम होना आवश्यक है। न राग रहे, न द्वेष—यह उपरामता है। न तो कर्म करनेसे कोई मतलब रहे और न कर्म न करनेसे ही कोई मतलब रहे—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३।१८)। बाहर-भीतरसे उपराम हो जाय।
भीतरके त्यागको वैराग्य कहते हैं। बाहरसे त्याग करे या न करे, पर भीतरसे तो त्याग होना ही चाहिये। वैराग्य सबके कामकी चीज है। वैराग्यसे उदारता आयेगी, जिससे व्यवहार भी उत्तम होगा। वैराग्यसे भी उपरामता श्रेष्ठ है।
जिसका त्याग है, उसीका त्याग करना है। जो प्राप्त है, उसीको प्राप्त करना है। जो आपसे अलग है, उसीका वियोग होगा। जो चीज अपनी नहीं है, उसीसे उपराम होना है।
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अपनेको शरीर माननेसे शरीरोंकी तरफ खिंचाव होता है। भीतरमें रुपयोंका महत्त्व हो तो रुपयोंकी तरफ मन खिंचता है। मूल बात अपनेमें है। कामीको स्त्री प्रिय लगती है। मोहीको परिवार अच्छा लगता है। लोभीको धन प्रिय लगता है। आपसमें स्वभाव मिलनेसे ही खिंचाव होता है—‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’। खराबी हमारे चित्तकी है। अपने भीतरमें जो राग है, उसको हटायें। इसका बढ़िया उपाय है—सत्संग।
जैसे अन्नकी भूख लगती है, ऐसे सुगन्धकी भूख नहीं लगती; उसके बिना हमारा काम चल सकता है। फिर भी सुगन्ध अच्छी लगती है तो हमारी वृत्ति बहुत नीची है!
जब वैराग्य हो जाता है, तब सिद्धियोंमें मन नहीं खिंचता। परमात्माके प्रेमके सामने ज्ञान भी फीका पड़ जाता है।
संसारका आकर्षण मिटानेका उपाय है—दूसरोंको सुख देना। दूसरोंको सुख देनेसे अपने सुखकी वृत्ति मिट जाती है।
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वृत्तियोंके भाव और अभाव, आने और जाने—दोनोंको आप जानते हैं। आपमें न वृत्तिका भाव है, न अभाव है। नफा और नुकसानमें फर्क है, पर उसके ज्ञानमें क्या फर्क है? ज्ञान तो एक ही है। उस ज्ञानमें आप स्थित रहो तो तत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी। उपरति और वृत्तिमें फर्क है, पर उसके ज्ञानमें क्या फर्क है? आदमी आयें या चले जायँ, प्रकाशमें क्या फर्क पड़ता है?
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निश्चय एक होना चाहिये। अनेक निश्चय होनेपर कोई भी काम सिद्ध नहीं होता और उम्र खत्म हो जाती है। कुछ भी करो, उम्र तो उतनी ही रहेगी। भगवान्ने मानवशरीर उन्हींको दिया है, जिनको अपनी प्राप्ति (परमात्मप्राप्ति)-के योग्य समझा है। भोग तो प्रारब्धसे कुत्तेको भी मिल सकते हैं, पर भगवत्प्राप्तिरूप महान् लाभकी प्राप्ति मनुष्यशरीरमें ही हो सकती है।
जैसे यह पण्डाल सत्संगके लिये है, रहनेके लिये नहीं है, ऐसे ही यह मनुष्यशरीर रहनेकी जगह है ही नहीं। यहाँ रहनेकी रिवाज ही नहीं है।
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खास बात है—अपने-आपको भगवान्का मान ले। अपने-आपको भगवान्का माननेसे मनुष्य सब काम भगवान्के लिये ही करेगा। वह संसारका काम कर्तव्यरूपसे करेगा। उसका व्यवहार भी परमार्थ हो जायगा। परन्तु अपनेको संसारका माननेसे परमार्थका काम भी व्यवहारके लिये (सकामभावसे) होगा।
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भगवत्प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये एक खास बात बतायी जाती है। सभी प्राणियोंके भीतर भगवान् विराजमान हैं—‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’ (गीता ९।४)। सब भगवान्के मन्दिर हैं, कोई दो खम्भोंवाला है, कोई चार खम्भोंवाला। ‘मया ततमिदं सर्वम्’—यह भगवान्ने अपना पता बताया है। अगर पता जान लें तो फिर भगवान् छिपते नहीं—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)
‘जो भक्त सबमें मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।’
इसलिये सबमें भगवान्को देख-देखकर मस्त होते रहो! हिरण्यकशिपुने कहा कि भगवान् कहाँ हैं? प्रह्लादजीने कहा कि भगवान् कहाँ नहीं हैं? वाल्मीकिजीने भी कहा कि आप कहाँ नहीं हैं? स्याहीमें कौन-सी लिपि नहीं है? जनकजीने विश्वामित्रजीसे पूछा कि ये बालक कौन हैं? क्या ब्रह्म ही दो रूप धरकर आया है? तब भगवान् हँसे कि हमारी पोल मत खोल देना कि हाँ, ब्रह्म ही आया है! हँसी भगवान्की माया है। विश्वामित्रजी समझ गये; अत: बोले—‘रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥’ (मानस, बाल० २१६।४)।
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परमात्मा स्वत:सिद्ध हैं। संसार बनावटी है। करना भी अनित्य है और उससे प्राप्त होनेवाला फल भी अनित्य है। स्वत:सिद्ध तत्त्वमें कुछ करना नहीं है। अपना होनापन स्वत:सिद्ध है। सहजावस्था स्वत:सिद्ध है। स्वत:सिद्ध तत्त्वको प्राप्त करना ही मुक्ति है।
भीतरकी लगनका नाम भजन है।
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गीतामें सबसे बढ़िया बात है—‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८।६६)। शरणागति गीताका सार है। अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं तो सच्चे हृदयसे भगवान्के शरण हो जायँ। मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं—ऐसे शरण हो जायँ। सब चिन्ताएँ छोड़ दें। विवाह होनेपर कन्या चिन्ता नहीं करती कि रोटी-कपड़ा कौन देगा? पति तो मर भी सकता है, साधु-संन्यासी भी हो सकता है, त्याग भी कर सकता है, पर भगवान्में ये तीनों ही बातें नहीं हैं। भगवान्के साथ हमारा सदासे सम्बन्ध है।
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प्रत्येक मनुष्य लाभ चाहता है, हानि नहीं चाहता। पर वह अपने जीवनको देखे तो हानि ज्यादा होती है, लाभ कम। बाहरका लाभ दीखता है, पर भीतरकी हानि हो रही है। बाहरकी चीज साथ चलेगी नहीं, भीतरकी चीज साथ चलेगी। धन कमानेमें झूठ, कपट, ठगी आदि करनेसे जितनी हानि होती है, उतने रुपये नहीं आते। जितने रुपये आते हैं, वे सब आपके काम नहीं आते।
नहिं असत्य सम पातक पुंजा।
गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥
(मानस, अयो० २८।३)
लाभ तिलकी तरह और पाप पहाड़की तरह होता है! भजन-ध्यान, सत्संग आदि तल्लीन होकर नहीं करते, पर पाप तल्लीन होकर करते हैं, फिर लाभ कैसे हो?
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जहाँ लाभ होता न दीखे, वहाँ सच्चा साधक टिक नहीं सकता। काम, क्रोध, लोभ आदि दोष कम हुए हैं, अशान्ति कम हुई है तो समझे कि लाभ हुआ है। भोग और संग्रहमें ज्यादा मन लगता है तो समझे कि हानि हुई है।
रुपयोंके संग्रहसे कोई लाभ नहीं है। रुपये खुद काम नहीं आते, प्रत्युत खर्च करनेसे काम आते हैं। आपके काम खर्च आयेगा, रुपया नहीं। रुपया कामकी चीज नहीं है, खर्चा कामकी चीज है। रुपयोंसे रद्दी कोई चीज नहीं है। जीवनका निर्वाह चार चीजोंसे होता है—अन्न, जल, वस्त्र और मकान। रुपया खर्च करनेके लिये ही है, पर मनुष्य लोभके वशीभूत होकर रुपयोंका संग्रह करता है, खर्च नहीं। ज्यादा संग्रहसे केवल अभिमान ही बढ़ेगा—
संसृत मूल सूलप्रद नाना।
सकल सोक दायक अभिमाना॥
(मानस, उत्तर० ७४।३)
धनका अभिमानी आदमी सत्संगमें नहीं आ सकता। विचार करें, आपके खजानेमें दया, क्षमा, उदारता, त्याग आदि जमा हुए हैं कि नहीं? यह खजाना पूरा आपके साथ चलेगा। यह विचार करो कि लाभ किसमें है और हानि किसमें है?
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एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य हो और ‘परमात्मा हैं’—यह विश्वास हो। ज्ञानमें विवेक मुख्य है और भक्तिमें विश्वास मुख्य है—‘बिनु बिस्वास भगति नहिं’ (मानस, उत्तर० ९० क)। विश्वाससे ही भक्ति होती है कि भगवान् हैं और वे मेरे हैं। दूसरेसे भय होता है—‘द्वितीयाद्वै भयं भवति’ (बृहदा० १।४।२)। भगवान् अपने हैं, दूसरे नहीं। अपनेसे भय नहीं होता। क्या माँसे किसीको भय होता है? केवल पालन करनेकी शक्तिका नाम भगवान् है।
भगवान् हैं, वे मिलते हैं और मेरेको मिलेंगे—यह विश्वास होना चाहिये।
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गृहस्थाश्रम ब्रह्मविद्याकी, पारमार्थिक उन्नति करनेकी पाठशाला है। केवल अपना उद्देश्य बदल दें, भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य बना लें, फिर व्यवहार भी ठीक हो जायगा।
पारमार्थिक साधन करनेवालोंका व्यवहार भी बड़ा शुद्ध होता है। कारण कि स्वार्थ और अभिमानसे रहित होनेपर व्यवहार अच्छा हो जाता है।
रामराज्यकी सबसे अधिक प्रशंसा होती है; क्योंकि रामजीमें त्यागकी मुख्यता थी। उनमें राज्यका लोभ नहीं था।
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समता स्वत:स्वाभाविक है। राग-द्वेष कृतिसाध्य हैं। विषमता न करें तो समता स्वत:सिद्ध है।
भगवान्के साथ सम्बन्ध माननेका, प्रेम पानेका, तत्त्वज्ञान पानेका मौका मनुष्यशरीरमें ही है। अगर यह मौका खो दिया तो फिर कल्याण कहाँ करोगे? उस मौकेमें भी सुन्दर मौका है—सत्संग।
भगवान्ने अन्य योनियोंको तो कर्मफलभोगके लिये बनाया है, पर मनुष्यको केवल अपने लिये बनाया है। ऐसा विलक्षण शरीर पाकर भी भगवत्प्राप्ति नहीं कर रहे हैं—यह कितने पतनकी बात है!
कोई हिन्दू हो और उसको ‘गीताप्रेस’ का तथा मासिक पत्र ‘कल्याण’ का पता नहीं हो—यह आश्चर्यकी बात है!
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धर्म आदिके प्रचारका काम भगवान्का नहीं है, प्रत्युत मनुष्यका (भक्तोंका) काम है। गीताप्रेसका इतना प्रचार इसलिये हुआ कि उसके पीछे एक महापुरुष (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)- का जीवन था। एक भी व्यक्ति अपना जीवन दे तो बड़ा काम होता है।
सुखदायी-दु:खदायी परिस्थिति सुखी-दु:खी करनेके लिये नहीं आती, प्रत्युत उन्नति करनेके लिये आती है। सुखी-दु:खी होना प्रारब्धका फल नहीं है, प्रत्युत मूर्खताका फल है। हमें दोनों परिस्थितियोंका सदुपयोग करना है, उन्हें साधन बनाना है। प्रतिकूल परिस्थितिमें ही जागृति आती है।
भोग-सामग्रीके रहते हुए जो वैराग्य होता है, वह असली और तेजीका वैराग्य होता है। मारसे वैराग्य तो कुत्तेमें भी होता है। लाठी मारनेसे वह भाग जाता है। यह असली वैराग्य नहीं है।
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शरणागत होनेके बाद पूर्णता हो जाती है, कुछ करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहता। शरण स्वयं होना है, मन-बुद्धिसे नहीं। स्वयंसे शरण होनेपर भूली नहीं होती। जैसे—‘मैं ब्राह्मण हूँ’—यह स्वयंकी स्वीकृति होनेसे इसकी कभी भूली नहीं होती, ब्राह्मणपना निरन्तर रहता है।
भगवान्की कृपामें कभी कमी नहीं होती, कृपा माननेमें कमी होती है।
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शरीरका निर्वाह प्रारब्धसे, पूर्व कर्मोंसे होता है। अर्थ (धन), धर्म, काम (भोग) और मोक्ष—इन चारोंमें अर्थ और कामकी प्राप्तिमें प्रारब्धकी मुख्यता है तथा धर्म और मोक्षमें पुरुषार्थकी मुख्यता है।
नीची जातियोंसे घृणा नहीं करनी है, प्रत्युत अपनी शुद्धि रखनी है। रजस्वला स्त्रीका स्पर्श नहीं करते तो यह शुद्धि है, घृणा नहीं।
आप धर्मकी रक्षा करो तो धर्म आपकी रक्षा करेगा। आप धर्मका नाश करोगे तो धर्म आपका नाश करेगा।
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ममता भगवान्में होनी चाहिये—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। ‘दूसरो न कोई’ के बिना भगवान्में ममता (आत्मीयता) दृढ़ नहीं होती। संसारके साथ ममता तोड़नेका बहुत बढ़िया उपाय है—सेवा करना। सेवा करनेसे व्यवहार भी बढ़िया होगा और ममता भी टूट जायगी। सभी सांसारिक सम्बन्ध सेवाके लिये ही हैं। माँ मेरी है तो सेवाके लिये है। उससे लेनेकी आशा न रखे। सेवा लेना दोष नहीं है, लेनेकी आशा दोष है। आशा रखनेसे ममता बाँधती है।
संसारका सम्बन्ध कच्चा है—थोड़े दिनोंसे है और थोड़े दिनोंतक रहेगा। कच्चे सम्बन्धवालेकी सेवा करो। स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करो। परहितके समान कोई धर्म नहीं है—‘पर हित सरिस धर्म नहिं भाई’ (मानस, उत्तर० ४१।१)। सेवाका भाव कल्याण करनेवाला है।
देनेके लिये ही लेना है और देनेके लिये ही देना है। लेनेका भाव पतन करनेवाला और देनेका भाव कल्याण करनेवाला है।
लोग कहते हैं कि साधु अच्छे नहीं हैं! साधु आकाशसे थोड़े ही आते हैं, वे आप गृहस्थोंसे ही आते हैं। घरमें जो निकम्मे होते हैं, वे साधु बन जाते हैं, फिर अच्छे साधु कहाँसे आयेंगे? यदि अच्छे-अच्छे आदमी साधु हो जायँ तो साधु अच्छे हो जायँगे।
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बिना स्वार्थ महान् हित करनेवाले दो ही हैं—भगवान् और उनके भक्त। जिसका स्वार्थका सम्बन्ध है, जो हमारेसे कुछ भी चाहता है, वह हमारा हित नहीं कर सकता। नि:स्वार्थभावसे सबका पालन-पोषण करना भगवान्का स्वभाव है। कोई भगवान्का कितना ही खण्डन करे, तो भी भगवान् उसपर कृपा करते ही हैं। भगवान् सब कुछ देते हैं, पर अपनेको जनाते नहीं। अपनेको छिपाकर देते हैं। हमें जो चीज मिलती है, उसे हम अपनी ही समझ लेते हैं—ये देनेवाले (भगवान्)-की विलक्षणता है। भगवान्ने हमें विवेक दिया है, जिससे हम दुनियाका उपकार कर सकते हैं, तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे सुहृद् भगवान्को आप अपना मान लें तो इतनेसे वे राजी हो जायँगे!
नामजपकी अपेक्षा भी भगवान्का हो जाना अधिक दामी है। पत्नी पतिका नाम नहीं लेती तो क्या वह पतिकी नहीं हुई?
नहीं रटॺा तो क्या भया, घटॺा न चाहिय हेत।
जैसे नार सुहागणी, पिय को नाम न लेत॥
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समाधि भी कारणशरीरकी होनेसे ‘लौकिक’ है। समाधितक गुणातीत-अवस्था नहीं होती। मुक्तावस्थामें समाधि और व्युत्थान—ये दो अवस्थाएँ नहीं होतीं। वह सहजावस्था है। सहजावस्थामें व्युत्थान नहीं होता। मुक्त होनेके बाद विद्वत्संन्यास लेना पड़े—यह बात है नहीं। जहाँतक अवस्था है, वहाँतक प्रकृति है। भूमिका ज्ञानकी नहीं होती, प्रत्युत अज्ञानकी ही होती है।
मुक्ति शरीरकी नहीं होती, नहीं तो मरनेवाले सब मुक्त हो जायँ। वर्ण और आश्रम शरीरके होते हैं। अत: वर्ण-आश्रमका अभिमान होगा तो मुक्ति कैसे होगी?
कुत्ते, गधे आदि भी स्वाभाविक ही अपने धर्ममें स्थित रहते हैं; क्योंकि उनके शास्त्र नहीं हैं। परन्तु मनुष्य अपने धर्मसे विचलित हो जाता है! मनुष्यको धर्मके बिना मर्यादामें कौन रखेगा? माँ-बापकी आज्ञा मानो—यह धर्म सिखाता है, शासन नहीं।
हमारे साथ शत्रुता रखनेवाला व्यक्ति यदि अधर्मका, झूठका आश्रय ले ले तो उससे डरना नहीं चाहिये। वह अपने-आप नष्ट हो जायगा।
गीतामें आया है—
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
(६।९)
‘सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और सम्बन्धियोंमें तथा साधु-आचरण करनेवालोंमें और पाप-आचरण करनेवालोंमें भी समबुद्धिवाला मनुष्य श्रेष्ठ है।’
जो स्वाभाविक हित करता ही रहे, वह ‘सुहृद्’ है। जो हितके बदले हित करे, वह ‘मित्र’ है। जो स्वाभाविक वैरी हैं (जैसे—बिल्ली-चूहा), वे ‘अरि’ हैं। जो किसी कारणसे वैरी हैं, वे ‘शत्रु’ हैं। शरीर सबके एक (पांचभौतिक) हैं और जीव भी सबमें एक है। पर समबुद्धिका तात्पर्य है कि सबमें परमात्मतत्त्व भी एक है—ऐसा देखना। सब जगह एक परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है—यह तात्त्विक समता ही वास्तवमें समता है। सबमें परमात्मतत्त्वको देखना और हृदयमें राग-द्वेष न होना—यही सार बात है।
व्यवहार विषम होनेपर भी तात्त्विक दृष्टि सम रहनी चाहिये। व्यवहारमें फर्क होनेपर भी हितका भाव एक रहे। साधुको अच्छी तरहसे भोजन कराओ और कसाईको उतना भोजन कराओ, जिससे वह जीता रहे, मरे नहीं—यह व्यवहार है।
गीताका सम्पूर्ण उपदेश समताका है।
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करणनिरपेक्ष साधन बहुत ऊँचा, श्रेष्ठ साधन है। पर अभीतक मैं पूरा समझा नहीं सका हूँ। कोई भी कार्य करें तो करणकी सहायता लेनी पड़ती है। करणके बिना क्रियाकी सिद्धि नहीं होती। परमात्मा क्रियाका विषय नहीं है—यह खास बात है। साधन करणरहित नहीं है, प्रत्युत करणनिरपेक्ष है। परमात्माकी प्राप्तिमें न क्रिया है, न करण है, न कर्ता है। परमात्मा क्रिया और पदार्थसे अतीत है, फिर उसमें कारक कैसे होगा? वहाँ कर्तृत्व भी नहीं है, फिर करण वहाँ कैसे होगा? ‘मैं हूँ’—इसमें करण अथवा कारक क्या करेगा? ‘मैं हूँ’—यह आपकी सत्ता ही करणनिरपेक्ष साधन है। अपनी सत्ता स्वत:सिद्ध है। स्वत:सिद्ध तत्त्वमें कोई कारक नहीं होता। परमात्मतत्त्व भी स्वत:सिद्ध है। वह कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित है।
परमात्माको क्रियाके द्वारा पकड़ नहीं सकते। पत्नीने स्वीकार कर लिया कि ये मेरे पति हैं—इसमें उसने क्या क्रिया की? केवल स्वीकार किया है। स्वीकृतिमें क्रिया नहीं होती। पति आदिकी स्वीकृति तो अन्त:करणकी है, पर भगवान्की स्वीकृति स्वयंकी होती है। ‘मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं’—यह स्वीकृति करणनिरपेक्ष साधन है। स्वीकृतिमें भूली नहीं होती। जैसे, मेरा विवाह हो गया—इसकी क्या एक भी माला फेरी है? कोई अभ्यास किया है? नींदसे भी उठाकर पूछो तो कहेंगे कि विवाह हो गया। करणसापेक्ष साधनमें भूल होती है। करणनिरपेक्षमें भूल होती ही नहीं। जहाँ करनेकी जरूरत होती है, वह सब करणसापेक्ष साधन है।
विवाहमें तो नया सम्बन्ध होता है, पर भगवान्का अंश सदासे है। भगवान्ने तो हमें स्वीकार कर रखा है, केवल हमें भगवान्को स्वीकार करना है। हमारा आधा विवाह तो हो रखा है, आधा बाकी है!
मैं पतिकी हूँ—इसमें कुछ करना नहीं है, पर उम्रभर पतिके घरका काम करना है। ऐसे ही हम भगवान्के हैं—इसमें कुछ करना नहीं है, पर उम्रभर भगवान्का काम करना है। पतिके सम्बन्धके बिना स्त्री बिन्दी भी नहीं लगाती! पति पासमें हो तो और तरहका, दूर चला जाय तो और तरहका, तथा मर जाय तो और तरहका शृंगार होता है। सब पतिके सम्बन्धसे ही है, उसके बिना नहीं।
ज्यों तिरिया पीहर रहै, पति को भूलै नाहिं।
ऐसे जन जग में रहै, हरि को भूलै नाहिं॥
करणनिरपेक्ष साधनसे अहंता शुद्ध होती है, अहंता मिटती है, अहंता बदलती है। कर्मयोगसे अहंता शुद्ध होती है, ज्ञानयोगसे अहंता मिटती है और भक्तियोगसे अहंता बदलती है।
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अगर अपना भला चाहते हो तो कन्याका गर्भ कभी मत गिराओ। यह बड़ा भारी पाप है; क्योंकि कन्या मातृशक्ति है। कन्याको गर्भसे गिराना माताकी हत्या है, जिस माताके सिवाय संसारमें दूसरा कोई नहीं है। रामजीने सीताकी रक्षा की तो स्त्रीकी नहीं, मातृशक्तिकी रक्षा की है।
संसारमें पाँच धर्म मुख्य हैं—हिन्दू, ईसाई, मुसलमान, पारसी और यहूदी। इन पाँचोंमें कल्याणप्राप्ति जितनी हिन्दूधर्ममें सुगम बतायी है, उतनी अन्य किसीमें नहीं।
दु:खमें जो लाभ होता है, वह सुखमें नहीं होता। दु:ख भगवान्के सम्मुख करता है, यदि न करे तो उसका नतीजा भी दु:ख ही होगा। एक दु:खका भोग होता है, एक दु:खका प्रभाव होता है। दु:खी होना दु:खका भोग है। दु:खी न होनेसे दु:खका प्रभाव पड़ता है। प्रभाव पड़नेसे मनुष्य सन्त हो जाता है। दु:ख आनेपर उसके कारणकी खोज करे—यह दु:खका प्रभाव है। दु:खी होते हैं मूर्खतासे, न कि परिस्थितिसे। सुख आया है दूसरोंको सुख देनेके लिये, न कि सुख भोगनेके लिये।
आज्ञा पालन करनेवाला पापका भागी नहीं होता, आज्ञा देनेवाला होता है। शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी ‘परतन्त्रतामें भी स्वतन्त्रता’ है। उनकी बात न मानना, अपने मनके अनुसार काम करना ‘स्वतन्त्रतामें परतन्त्रता’ है। राज्यकी, दुष्टोंकी ‘परतन्त्रतामें भी परतन्त्रता’ है। तत्त्वज्ञ महापुरुषकी ‘स्वतन्त्रतामें स्वतन्त्रता’ है। बड़ा तेलमें तला जाता है, छोटा मौज करता है!
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सत्संग सुननेकी भी विद्या है। श्रोताको चाहिये कि वह वक्ताकी तरफ निरन्तर देखते हुए ध्यानसे सुने, इधर-उधर न देखे। नामजप स्वत: होता हो तो कोई बाधा नहीं है, पर जप भी करे और सत्संग भी सुने—ये दो बातें नहीं होंगी। या जप करो, या सत्संग सुनो। जैसे श्वास चलते हैं, आँखें खोलते-मीचते हैं तो उससे सत्संग सुननेमें कोई बाधा नहीं लगती, ऐसे ही स्वाभाविक जप होता हो तो बाधा नहीं लगती। जो यहाँ सत्संगमें बैठे-बैठे राम-राम लिखते हैं, उन्हें घरमें समय नहीं मिलता, यहाँ निकम्मे बैठे हैं, इसलिये कापी भरते हैं। ऐसे लोग सत्संग नहीं सुन सकते। जो काम करो, मन लगाकर करो। भोजन भी मन लगाकर करो। ऐसी आदत बन जायगी तो हरेक काममें बुद्धि काम करेगी।
एक माला जप मनसे ही करो और मनसे ही उसकी गिनती करो। यह मन लगानेका अचूक उपाय है।
यदि किसीको सत्संग सुनना आ जाय तो वह बड़ा विद्वान् बन जाय! पढ़ा-लिखा उतना विद्वान् नहीं बन सकता। सत्संगसे सब तरहका ज्ञान होता है, जबकि ग्रन्थसे एक ही विषयका ज्ञान होता है। हाँ, यदि कोई व्यक्ति गीताका ठीक तरहसे अध्ययन करेगा तो हरेक विषयमें उसकी बुद्धि प्रवेश करेगी।
भगवान् और उनके भक्तोंका चरित्र पढ़नेसे अन्त:करण जितना शुद्ध होता है, उतना विवेकसे नहीं होता। कारण कि विवेकमें असत् की सत्ता रहती है, पर भगवान्के चरित्रमें केवल सत् रहता है।
अनुभवी पुरुषोंमें भी वक्ता कोई एक ही होता है। तत्त्वज्ञ पुरुषके द्वारा जो तत्त्व मिलता है, वह अभ्याससे नहीं मिलता। वक्ताके अनुभवमें और श्रोताके अनुभवमें बड़ा फर्क है। वक्ताका जो अनुभव है, वह उसकी बुद्धिमें पूरा नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना वाणीमें नहीं आता। वाणीसे निकली हुई बातको श्रोता जितना सुनता है, उतना मनसे मनन नहीं करता। जितना मनन करता है, उतना बुद्धिसे निश्चय नहीं करता। जितना निश्चय करता है, उतना अनुभव नहीं करता।
सुननेमें सुनानेवालेकी बुद्धिकी प्रधानता रहती है, पुस्तक पढ़नेमें अपनी बुद्धिकी। अपनी माँके थनोंसे दूध पीनेसे बछड़ेकी जितनी पुष्टि होती है, उतनी केवल दूध पीनेसे नहीं होती।
तत्त्वज्ञान अन्त:करणसे नहीं होता। वहाँ करण भी नहीं रहता और कर्ता भी नहीं रहता। तत्त्वबोध करणरहित होता है। साधन करणनिरपेक्ष होता है। तत्त्वज्ञानसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत अज्ञानका नाश होता है। अज्ञानका नाश करके तत्त्वज्ञान स्वयं शान्त हो जाता है और स्वरूप (तत्त्व) शेष रह जाता है। इस प्रकार जब तत्त्वज्ञान भी तत्त्वतक नहीं पहुँचता, फिर करण कैसे पहुँचेगा?
ज्ञान स्वत:सिद्ध है। वह उत्पन्न नहीं होता। इसलिये ज्ञान होनेपर ऐसा नहीं होता कि पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया।
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जिस परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, वह मौजूद है। वह अभी है, अपनेमें है, अपना है। वह सबमें है, सब उसमें हैं। शरीर-संसार अपने नहीं हैं, उनकी सेवा करो। शास्त्र, संसारकी मर्यादाके अनुसार चलो। शरीर संसारका है, स्वयं परमात्माका है। शरीर लग जाय सेवामें, आप लग जाओ भगवान् में।
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शास्त्रने स्त्रीके लिये गायत्री-मन्त्रका निषेध करके उसका तिरस्कार नहीं किया है, प्रत्युत उसकी आफत छुड़ाई है! राम-नामका जप गायत्री-मन्त्रसे कम नहीं है।
तत्त्वज्ञानसे निराश नहीं होना चाहिये। तत्त्वज्ञान अज्ञानीको ही होता है, ज्ञानीको नहीं। मैं परमात्माको चाहता हूँ, संसारको नहीं—इतना होनेसे अन्त:करण शुद्ध हो गया! अन्त:करणसे तत्त्वज्ञान नहीं होता। करणसे क्रियाकी सिद्धि होती है। जितने भी कारक हैं, सभी क्रियासिद्धिमें ही हेतु होते हैं। परमात्मतत्त्व क्रियासे अतीत है। इसलिये उसको अन्त:करणके द्वारा नहीं पकड़ सकते। तत्त्वज्ञान अज्ञानका नाश करनेवाला है, स्वरूपको पैदा करनेवाला नहीं है। अत: जब तत्त्वज्ञान भी परमात्मतत्त्वतक नहीं पहुँच सकता, फिर करण कैसे पहुँचेगा?
निष्कामभावसे किसीको एक गिलास पानी पिला दिया, रास्ता बता दिया तो यह थोड़ा-सा कर्म भी नष्ट नहीं होगा, कल्याण ही करेगा। परन्तु लाखों रुपये लगाकर भी सकामभावसे यज्ञ आदि किया जाय तो वह फल देकर नष्ट हो जायगा।
कल्याण चाहते हो तो निरन्तर नामजप करो और प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’। नामजपमें ऐसी शक्ति है कि जिज्ञासा भी जाग्रत् हो जायगी और उसकी पूर्ति भी हो जायगी। पर रात-दिन लगातार जप करो।
खम्भेका अभाव नहीं है। अभाव प्रह्लादके भावका है। परमात्मा मैंपनसे भी नजदीक है। मैंपन प्रकृतिका है। ‘मैं हूँ’—इसमें ‘हूँ’ में ही ‘है’ है!
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संसारमें आसक्त लोगोंके कल्याणके लिये कर्मयोग है—‘कर्मयोगस्तु कामिनाम्’ (श्रीमद्भा० ११।२०।७)। मनुष्यका कर्तव्य-कर्म करनेमें अधिकार है, फलमें नहीं—‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता २।४७)। गृहस्थमें अपने-अपने कर्तव्यका पालन करें। दूसरे मेरी सेवा करें—इसकी इच्छा मत रखें। विवाह होनेपर जिम्मेवारी बढ़ जाती है; माँ-बाप तथा स्त्री-पुत्रोंके पालन-पोषणकी जिम्मेवारी आ जाती है। रामजीने सीताजीको छुड़ानेके लिये भरतजीसे सहायता नहीं माँगी। सुग्रीवसे भी तब सहायता ली, जब उसकी सहायता की। मुफ्तमें सहायता नहीं ली। उसका चार गुना उपकार किया, एक गुना लिया! उसको चार चीजें दीं—राज्य, खजाना, नगर और स्त्री—‘पावा राज कोस पुर नारी’ (मानस, किष्कि० १८।२)।
भाईलोग सब काम रामजीको याद करके करें, बहनें सीताजीको याद करके करें।
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एक क्रिया है, एक पदार्थ। क्रियासे कर्तव्यका पालन होता है। जो कर सकते हैं और जिसे करना चाहिये, वह ‘कर्तव्य’ है। कर्तव्यका पालन करना है, पर पदार्थकी चाह नहीं रखनी है। पदार्थोंकी चाहसे मनुष्यका पतन होता है। यदि वह अपने कर्तव्यका पालन करे और पदार्थोंकी कामना न करे तो उसका कल्याण हो जायगा।
क्रिया और पदार्थका राग ही बाँधनेवाला है। करने और पानेकी कामना, आसक्ति ही आवरण है। आवरण दूर होते ही मुक्ति स्वत:सिद्ध है।
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परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं। जहाँ भक्त चाहे, वहीं वे प्रकट हो जाते हैं। प्रह्लादजीके लिये वे खम्भेसे प्रकट हो गये। केवल विश्वास कर लें कि भगवान् सब जगह परिपूर्ण हैं। भगवान् प्रह्लादके लिये प्रकट हो गये तो क्या हमारे लिये प्रकट नहीं हो सकते? भगवान् सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सब समय हैं तो अभी भी हैं, सबके हैं तो मेरे भी हैं—ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाय तो भगवान् प्रकट हो जायँ! जो सब जगह परिपूर्ण हैं, वे ही भगवान् प्रह्लादके इष्ट थे।
‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)—इस आधे श्लोकमें सम्पूर्ण शास्त्रोंका भाव भरा पड़ा है। इसमें इतना भाव भरा है कि बुद्धि काम नहीं करती! मनुष्यमात्रका यह अनुभव है कि जो दीखता है, वह पहले था नहीं, पीछे रहेगा नहीं और अभी भी हरदम नहींमें जा रहा है। इसमें ‘है’-रूपसे परमात्मा ही है। परमात्मा (है)-के बलसे ही संसार (नहीं) ‘है’ दीखता है—
जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया॥
(मानस, बाल० ११७।४)
जैसे, चीनीके कारण ही बूँदी मीठी लगती है, अन्यथा चनेके आटेमें मिठास कहाँसे आयी? जैसे चीनीके कारण फीका चनेका आटा भी मीठा लगने लगता है, ऐसे ही ‘है’ के कारण ‘नहीं’ भी ‘है’ दीखने लगता है। गुरु कहे कि ‘है’ और चेला मान ले कि हाँ, ‘है’ तो काम हो गया! चाहे विश्वास कर लो, चाहे अनुभव कर लो।
हम भगवान्को नहीं देखते तो क्या भगवान् भी हमारेको नहीं देखते? क्या वे भी सूरदास हैं?
संसारको दु:खालय कहा गया है—‘दु:खालयमशाश्वतम्’ (गीता ८।१५)। दु:खालयमें सुख कैसे मिलेगा? पुस्तकालयमें भोजन कैसे मिलेगा? जो संसारसे सुख चाहता है, उसके लिये यह दु:खालय है और जो सेवा करता है, उसके लिये ‘वासुदेव: सर्वम्’ है। संसारसे सुख चाहनेवाला दु:खसे कभी बच सकता ही नहीं। सुखके भोगीको दु:ख भोगना ही पड़ेगा।
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जो प्रतिक्षण मिट रहा है, उसे ‘है’ मान लेना अज्ञान है। जैसा है, वैसा जाननेका नाम ज्ञान है। संसार प्रतिक्षण मिट रहा है—यह बात मनमें स्वत: रहनी चाहिये। संसारका संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। अनित्यको महत्त्व देनेसे नित्यकी प्राप्ति कैसे होगी? अनुकूलताकी आशा, कामना और भोग ही बन्धन है, असाधन है। सिद्धि साधनसे होती है, असाधनसे नहीं।
त्यागका सुख लेना भी भोग है, जो पतन करनेवाला है। त्यागका सुख अहम् भोगता है। अहम् (मैं-पन) ही संसार है, असत् है। अहम् संसारका, जन्म-मरणका मूल है। एकान्तका सुख भी अहम् भोगता है। अत: त्यागका भी त्याग होना चाहिये। ‘मैं त्याग करता हूँ’—इसका भी त्याग करना है। अहम्का त्याग होनेपर व्यक्तित्व नहीं रहता।
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दो चीजें हैं—बदलनेवाली और न बदलनेवाली। शरीर संसारमात्रका नमूना है। शरीर बदलनेवाला है, आप नहीं बदलनेवाले हैं। इन दोनों विभागोंको ठीक अलग कर लेना मुक्ति है, मिला लेना बन्धन है।
शरीर वह नहीं रहा, पर आप स्वयं वही हैं। स्वयंतक प्रकृति भी नहीं पहुँचती, फिर ‘मैं रोगी हूँ’—यह कैसे? रोग स्वयंतक नहीं पहुँचता। अगर उसका आपपर असर पड़ता है तो आप शरीरसे मिले हुए हो, ज्ञानकी बातें केवल सीख ली हैं। सीखना नहीं है, अनुभव करना है। न तो शरीर रहता है, न आत्मा मरता है, फिर दोनोंकी एकता कैसे? तत्त्वज्ञान होनेपर न शरीर बदलता है, न आत्मा, प्रत्युत स्वभाव बदलता है।
तत्त्वज्ञानमें अभ्यास नहीं है। तत्त्वज्ञान विवेकसे होता है, अभ्याससे नहीं। मन लगानेमें, वृत्तियोंका निरोध करनेमें अभ्यास है। जहाँ बोध है, वहाँ अभ्यास नहीं और जहाँ अभ्यास है, वहाँ बोध नहीं। जहाँ छत है, वहाँ सीढ़ियाँ नहीं और जहाँ सीढ़ियाँ हैं, वहाँ छत नहीं।
मन सब जगह नहीं जाता। जैसे रेलगाड़ी वहीं जाती है, जहाँ पटरी बिछी है, ऐसे ही मन वहीं जाता है, जहाँ हमने राग-द्वेषपूर्वक अपना सम्बन्ध जोड़ा है।
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अहम् (मैं-पन)-का भान होता है। जिसका भान होता है, वह अपना स्वरूप नहीं होता। जो अपना स्वरूप नहीं है, उसका त्याग हो सकता है। जाग्रत् और स्वप्नमें मैं-पन रहता है, पर सुषुप्तिमें मैं-पन नहीं रहता। सुषुप्तिमें मैं-पनके अभावका तथा अपने भावका अनुभव सबको होता है। मैं-पन और आप दो चीज हैं। दोनोंको मिलानेका नाम अज्ञान है।
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प्राणिमात्र शान्ति चाहता है। जैसे भूख यह बात सिद्ध करती है कि खाद्य पदार्थ कोई है, प्यास यह सिद्ध करती है कि पेय पदार्थ कोई है, ऐसे ही शान्तिकी चाहना यह सिद्ध करती है कि शान्ति देनेवाली कोई वस्तु अवश्य है। अगर अन्न न होता तो भूख नहीं लगती। भूख-प्यास तो मिटकर पुन: लग जाती है, पर शान्ति एक बार मिलनेपर फिर कभी नहीं बिछुड़ती। भूख सबकी समान नहीं होती। मनुष्य अन्न चाहता है, पशु घास। परन्तु शान्तिकी भूख प्राणिमात्रमें समान है, चाहे वे जरायुज, अण्डज, स्वेदज अथवा उद्भिज्ज कोई प्राणी क्यों न हो। सब प्राणियोंके भीतर एक अभाव, कमीका अनुभव होता है। इससे सिद्ध होता है कि कोई पूर्ण चीज अवश्य है। वह पूर्ण चीज परमात्मा हैं—
पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
उस परमात्माकी भूख सबको है। जिस वस्तुकी जितनी अधिक भूख (आवश्यकता) होती है, वह वस्तु उतनी ही अधिक व्यापक और सस्ती होती है। जैसे—अन्न, जल और वायु क्रमश: अधिक व्यापक और सस्ते हैं। मनुष्यको सबसे अधिक आवश्यकता परमात्माकी है, इसलिये परमात्मा वायु और आकाशसे भी अधिक व्यापक और सस्ते हैं! उनकी तरफ दृष्टि चली जाय तो सब जगह वे-के-वे ही दीखेंगे—‘वासुदेव: सर्वम्’। उनपर सबका पूरा-का-पूरा अधिकार है।
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर किसी तरहकी किंचिन्मात्र भी अभावकी अनुभूति नहीं होती। दु:खका वहाँ स्पर्श ही नहीं है। उस तत्त्वकी प्राप्तिका खास उपाय है—उसकी लालसा, भूख, जिज्ञासा। एक व्यवसायात्मिका बुद्धि हो कि मेरेको परमात्मप्राप्ति ही करनी है। व्यवहार करते हुए यह भाव रखें कि दूसरोंको सुख कैसे हो? मेरेको सुख कैसे हो—यह पतनकी बात है और दूसरेको सुख कैसे हो—यह उत्थानकी बात है। सब अपना सुख चाहेंगे तो एकको भी सुख नहीं मिलेगा, आपसमें लड़ाई हो जायगी। रोटीके टुकड़ेके लिये कुत्ते आपसमें लड़ पड़ते हैं। दूसरेको सुख हो—यह भाव सबके भीतर होगा तो सभी सुखी हो जायँगे।
ज्यादा वस्तुएँ होनेसे ज्यादा सुख होगा—यह वहमकी बात है। उलटे दु:ख ज्यादा होगा।
देनेवाले सभी सज्जन होते हैं, लेनेवाले सभी सज्जन नहीं होते। खाऊँ-खाऊँ करनेवाले बुरी मौत मरेंगे! भागवतमें आया है—
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति॥
(७।१४।८)
‘मनुष्यका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उसकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये।’
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तीन चीज हैं—परमात्मा, संसार और जीव। जीवके एक तरफ संसार है, एक तरफ परमात्मा हैं। जीव स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर संसारका अंश है। परमात्माके अंशको परमात्माके अर्पित कर दो और संसारके अंशको संसारके अर्पित कर दो। शरीर अपना नहीं है और अपने लिये नहीं है। शरीरसे साधन नहीं होता, प्रत्युत संसारका काम होता है।
ममताकी चीजसे तो वैराग्य हो सकता है, पर अहंताकी चीजसे वैराग्य नहीं होता। अत: ‘मैं ब्रह्म हूँ’—इसमें अहंता साथमें रहनेसे जल्दी वैराग्य नहीं होगा। अहंतासे कैसे वैराग्य हो?
विवेककी अपेक्षा शरणागति श्रेष्ठ है।
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हम संसारको ही चाहते हैं और परमात्माको भी चाहते हैं—यही बाधा है। मनकी चंचलता ध्यानमें बाधक है, परमात्मप्राप्तिमें नहीं। परमात्मप्राप्तिमें अपनी चाहनाकी कमी बाधक है। परमात्मप्राप्तिकी चाहना अन्त:करणकी नहीं है, प्रत्युत स्वयंकी है। अन्त:करणसे किये हुए साधनमें भूली होती है। चिन्मय-तत्त्वकी प्राप्ति जड़के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़के त्यागसे होती है।
‘ऋतु आये फल होय’—यह बात संसारमें लागू होती है। परमात्मप्राप्तिकी ऋतु नहीं आती। केवल लालसाकी जरूरत है। परमात्मप्राप्तिकी लगन नहीं है—यही बाधा है। आपके मनसे नाशवान्का महत्त्व हट गया तो अन्त:करण शुद्ध हो गया।
अभ्याससे नयी अवस्था मिलेगी, तत्त्व नहीं मिलेगा। लगन हो तो तत्त्व दूर नहीं है। तत्त्वसे नजदीक कोई वस्तु आपके पास है ही नहीं। अहम् भी आपसे दूर है।
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चित्तकी एकाग्रतापर जोर योगदर्शनने दिया है, वेदान्तने नहीं। सब दर्शनोंके अलग-अलग विषय हैं। गीताका विषय है—जीवका कल्याण कैसे हो? गीताने शरणागतिको मुख्य बताया है। शरणागति स्वत:सिद्ध है। भगवान्ने सबको अपनी शरणमें ले रखा है। इसलिये यह कोई नहीं कह सकता कि हमने अपनी इच्छासे यह जन्म लिया है। किसका जन्म कहाँ करना है, किसको कहाँ भेजना है—यह निर्णय भगवान् लेते हैं।
‘दूसरो न कोई’—यह माननेके लिये शरणागति है। भगवान् परम स्वतन्त्र हैं, इसलिये उनको परवश होनेमें आनन्द आता है। जीव परतन्त्र है, इसलिये उसको स्वतन्त्र होनेमें आनन्द आता है।
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अपने उद्धारके विषयमें साधकको खुला रहना चाहिये, किसी एक मत, सम्प्रदाय, गुरु आदिमें बँधना नहीं चाहिये। वह गुरुमें निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। साधनकी निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। किसी एकमें बँधनेसे वह दूसरेकी बात नहीं सुनेगा, उसका तिरस्कार करेगा। सबमें सब तरहके आदमी होते हैं। अच्छे-बुरे सबमें होते हैं। अत: तत्त्ववादी बनें, मतवादी न बनें।
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आराम, मान-बड़ाई भी चाहते रहें और तत्त्वप्राप्ति भी हो जाय—यह नहीं हो सकता। बातें सीख जाओगे, पर अनुभव नहीं होगा।
सुखके बाद दु:ख अवश्य आता है—यह नियम है। गीतामें आया है—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५।२२) ‘जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे दु:खके ही कारण हैं।’ किसी वस्तु-व्यक्तिके मिलनेका जितना सुख होगा, उसके बिछुड़नेका उतना ही दु:ख होगा।
आप दूसरोंसे अपमान और निंदा नहीं चाहते, फिर दूसरेका अपमान और निंदा करनेका आपका क्या अधिकार है?
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मैंपन राजा है। जो भाव मैंपनमें भर देते हैं, वह सबमें आ जाता है। मैंपनमें परिवर्तन करनेके लिये ही पहले लोग गुरु बनाते थे। मैंपन ठीक हो जायगा तो सब क्रियाएँ ठीक हो जायँगी। ‘मैं साधक हूँ’—यह भाव निरन्तर रहेगा तो साधन भी ठीक होगा। सांसारिक काम करते हुए भी साधन होगा।
जैसी अहंता (मैंपन) होती है, वैसी ही क्रिया होती है। मनुष्य पहले चोर बनता है, फिर चोरी करता है। चोरी करनेसे चोरपना दृढ़ होता है। जीवन्मुक्त महापुरुषमें व्यष्टि अहंकार मिट जाता है, पर समष्टि अहंकार रहता है। व्यष्टि (चिज्जड़ग्रन्थि-रूप) अहंकारके मिटनेसे ही मुक्ति होती है।
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मैं एक भिक्षा आपसे माँगता हूँ। इस भिक्षाको सभी दे सकते हैं। हम यहाँ आये हुए हैं और जानेवाले हैं—इस भावको आप हर समय जाग्रत् रखें—यह भिक्षा माँगता हूँ! ये दो बातें हर समय याद रहनी चाहिये। यह बातें सबके लिये हैं, चाहे किसी भी वर्ण, आश्रम आदिका कोई क्यों न हो। इनको याद रखना है, इनकी माला नहीं फेरनी है। यह पढ़ाईकी बात नहीं है, अनुभवकी बात है। आ तो गये, पर कब जायँगे, इसका पता नहीं है। जानेमें सन्देह नहीं है। हर बातमें सन्देह है, पर मरनेमें कोई सन्देह नहीं है।
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मनुष्यमें तीन शक्तियाँ हैं—करना, जानना और मानना। इन तीनों शक्तियोंका सदुपयोग करना है। करनेकी शक्तिका सदुपयोग है—सेवा करना। जाननेकी शक्तिका सदुपयोग है—स्वरूपको जानना। माननेकी शक्तिका सदुपयोग है—भगवान्को मानना। भगवान्को मान ही सकते हैं, जान नहीं सकते। जाननेका विषय जीव और जगत् है। जिज्ञासा अधूरे ज्ञानमें होती है। जहाँ कुछ नहीं जानते अथवा पूरा जानते हैं, वहाँ जिज्ञासा नहीं होती।
विश्वास करनेयोग्य भगवान् हैं, संसार नहीं। संसार सेवा करनेयोग्य है। जो कुछ मिला है, संसारसे ही मिला है, इसलिये संसारकी सेवा करनी है। कुन्तीद्वारा सेवा करनेसे दुर्वासा-जैसे क्रोधी ऋषि भी प्रसन्न हो गये! सन्त बढ़िया भोजनसे राजी नहीं होते, प्रत्युत भावसे राजी होते हैं।
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साधनसे जो सुख मिले, उसका तिरस्कार नहीं करे, प्रत्युत उसमें सन्तोष न करे। इतनेसे क्या होगा, तत्त्वप्राप्ति होनी चाहिये—इस तरह सन्तोष न करनेसे साधक आगे बढ़ेगा।
मन तो सब समय भागता है, पर ध्यानके समय यह ज्ञान होता है कि मन भागता है तो समझे कि साधन शुरू हो गया। चंचलता दीखने लग जाय तो समझे कि एकाग्रता शुरू हो गयी।
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संसारसे सम्बन्ध छूटनेपर जो सुख होता है, वह संसारके सम्बन्धसे नहीं होता—यह सबका अनुभव है। सुषुप्तिमें अहंकारके न रहते जितनी शान्ति मिलती है, उतनी अहंकारके रहते मिल सकती ही नहीं। सुषुप्तिमें जितनी शक्ति, नीरोगता, ताजगी आती है, उतनी जाग्रत् में आ सकती ही नहीं।
आप भगवान्को नहीं देख सकते, पर भगवान् आपके देखनेमें आ सकते हैं। भगवान्को मानना है, स्वयंको जानना है और सेवाको करना है। अपनेको जाने बिना जाननेका अन्त नहीं आयेगा। सेवा किये बिना करनेसे पिण्ड नहीं छूटेगा। भगवान्को माने बिना निहाल नहीं हो सकेंगे। कोई एक ठीक हो जाय तो तीनों ठीक हो जायँगे।
आपके माने बिना गुरु या ईश्वर आपका कल्याण कैसे करेंगे?
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भोग और संग्रहमें इतने लग गये कि भोगोंको भी छोड़कर संग्रहमें ही लग गये! उत्तरोत्तर पतन ही हो रहा है। रुपयोंके लिये जमीनको भी बेच देते हैं। रुपयोंसे रद्दी चीज और कोई नहीं है। रुपया खुद किसी काम नहीं आता। हमारा रुपयोंमें जैसा आकर्षण होता है, वैसा आकर्षण भगवान्में होना चाहिये।
प्रेम ही राधा-तत्त्व है। भगवान् प्रेमके भूखे हैं। वे प्रेममें खिंचते हैं। प्रेममें केवल सुख देनेका भाव होता है। प्रेममें नित्ययोग है। मिलन और विरह—दोनों नित्ययोगमें ही हैं। प्रेममें जितना आनन्द है, उतना ज्ञानमें नहीं है। घड़ी मेरी है, मुझे मिल जाय—इस आकर्षणमें जो आनन्द है, वह आनन्द ‘यह घड़ी है’—इस ज्ञानमें नहीं है। प्रेममें ज्ञान फीका हो जाता है। श्रीजीका रागात्मिका प्रेम सभी प्राणियोंको प्राप्त हो सकता है।
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मनुष्यजीवनका समय बहुत कीमती है। इसकी कीमतका कोई पारावार नहीं है। इसलिये समयको व्यर्थ कार्योंमें खर्च न करें। जिस समयसे परमात्माकी प्राप्ति की जा सकती है, उस समयको नरकोंकी प्राप्तिके लिये खर्च न करें। अब जितना समय बचा है, उसे भगवान्में लगाओ।
सत्संगकी अन्तिम बात है कि ‘मैं भगवान्का हूँ’—यह स्वीकार कर लो। भगवान्के तो हम हैं ही, पर आप स्वीकार करेंगे, तभी लाभ होगा। जैसे, घी गायके शरीरमें है ही, पर विधिपूर्वक निकाले बिना वह काम नहीं आयेगा। आप ये पाँच बातें मान लें—हम भगवान्के हैं। हम स्वर्ग, नरक आदि कहीं भी जायँ, भगवान्के ही घरमें रहते हैं। जो कुछ करते हैं, भगवान्का ही काम करते हैं। जो पाते हैं, भगवान्का ही प्रसाद पाते हैं। भगवान्के दिये प्रसादसे भगवान्के ही जनोंकी सेवा करते हैं।
शरीरको मालिकका घर मानकर उसकी सफाई करो, उसको अन्न-जल दो। हर समय प्रसन्न रहो। इसको गीताने मानसिक तप बताया है—‘मन:प्रसाद:............................तपो मानसमुच्यते॥’ (१७।१६)।
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भगवान्की शरणागति सर्वश्रेष्ठ साधन है। गीतामें सबसे अधिक शरणागतिकी महिमा है। गीताका सार शरण होनेमें है। शरण होनेमें कोई परिश्रम या कठिनता नहीं है। अपनेमें बड़प्पनका अभिमान शरणागतिमें बाधक है। भगवान्के शरण होनेपर भक्तका गोत्र बदल जाता है, वह ‘अच्युतगोत्र’ हो जाता है—‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलामको’ (कविता० उत्तर० १०७)।
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भगवत्सम्बन्धी बातोंमें किसीका भी कोई ठेका नहीं है। गुणोंको अपना मानना गलती है। दूसरे हमारे गुण मानते हैं तो यह उनकी सज्जनता है, पर उन गुणोंको अपना मान लेना सज्जनोंकी सज्जनताका दुरुपयोग है।
काम पैसोंसे नहीं होता, प्रत्युत व्यक्तियोंसे होता है। व्यक्ति अच्छे हों तो पैसोंकी कमी नहीं रहती।
सबमें भगवद्बुद्धि रखते हुए कीर्तन करें तो बड़ी शान्ति मिलती है। अपना सम्बन्ध हर समय भगवान्के साथ बनाये रखें। भगवान् मेरे हैं, मैं भगवान्का हूँ—इस तरह भगवान्में अपनापन रखें। संसारकी सेवाके लिये हम संसारके लिये हैं। सेवा करनेके लिये सभी हमारे हैं, पर लेनेके लिये कोई भी हमारा नहीं है।
भगवान्के यहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं होता—‘उदारा: सर्व एवैते’ (गीता ७।१८)। अर्थार्थी संसारकी दृष्टिमें तो ‘मँगता’ है, पर भगवान्की दृष्टिमें ‘उदार’ है!
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अपने जीवनपर विचार करें कि जब-जब अपने बलका अभिमान किया और संसारपर विश्वास किया, तब-तब असफलता पायी। अपने जीवनको देखें कि मैं कहाँ था, कहाँ आ गया! कैसी-कैसी विपत्तियाँ आयीं और भगवान्ने किस तरह रक्षा की! किस तरह भगवान्ने सत्संगमें लगाया! बिना चाहे उन्होंने कितनी कृपा की है! उस कृपाका भरोसा रखें। उस कृपाको देखते रहें—‘तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाण:’। विचार करें कि किस-किस तरहसे भगवान्ने कृपा की है! हम भगवान्को दोष देते हैं, फिर भी वे कृपा करते हैं!
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सीखी हुई बातसे कल्याण नहीं होता। रामायणमें आया है—
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर
कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस
करहिं बिप्र गुर घात॥
(उत्तर० ९९ क)
‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह सीखी हुई बात है। ब्रह्माकी उम्र बीत जायगी तो भी ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह अनुभव नहीं होगा। जब कभी अनुभव होगा, यही होगा कि मैं नहीं हूँ, ब्रह्म है। ‘मैं ब्रह्म हूँ’—यह उपासना है। ज्ञानके आठ अन्तरंग साधनोंके बिना यह उपासना सिद्ध नहीं होती। निदिध्यासनमें यह उपासना काम आती है। विधिपूर्वक किया गया काम ही सिद्ध होता है।
भगवान् पापी-पुण्यात्मा, अच्छे-बुरे सबमें हैं। परन्तु जैसे गायके पूरे शरीरमें घी रहता है, पर वह काम नहीं आता, ऐसे ही भगवान् सब जीवोंमें रहते हैं, पर वे पाप नहीं कराते। पाप कराता है काम अर्थात् कामना—‘काम एष:’ (गीता ३।३७)।
तत्परतापूर्वक, लगनसे नामजप करो तो कुछ वर्षोंमें, दस-बारह-पन्द्रह वर्षोंमें भगवत्प्राप्ति हो सकती है। पर कोरी माला फेरते रहोगे तो उम्रभर फेरते रहो, लाभ नहीं दीखेगा। जबतक जड़ पदार्थोंमें रस लेते रहोगे, तबतक नामकी सिद्धि नहीं होगी। जबतक नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा रहेगी, तबतक पाप छूटेगा नहीं, पाप होता रहेगा।
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सम्बन्धजन्य सब सुख दु:खके कारण हैं। सुख भोगनेवाला दु:खसे बच नहीं सकता। मनुष्य सुख भोगता है अपनी मरजीसे, दु:ख भोगता है दूसरेकी मरजीसे। सम्बन्धजन्य सुख चाहना मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग है। सुखकी चाहना दु:खोंका घर है।
मूलमें इच्छा तो है परमात्माकी, पर इच्छा कर लेते हैं भोगोंकी और संग्रहकी। भोगेच्छाका ही त्याग करना है। हम बाहरी सुख चाहते हैं, इसीसे भीतरका सुख नहीं मिलता। भूख है भीतर, पर संग्रह करते हैं बाहर, फिर भूख कैसे मिटेगी? भूख है पेटमें, हलुवा बाँधते हैं पीठपर!
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भगवान्में अनन्त गुण, प्रभाव, तत्त्व आदि हैं। सृष्टिमें बहुत थोड़ी बात प्रकट हुई है, उसे जाननेवाले बहुत कम हैं। मनुष्य तो रुपयोंमें ही फँस गया! रुपये सबसे रद्दी चीज हैं। रुपयोंसे वस्तु अधिक कीमती है; क्योंकि रुपये खुद काम नहीं आते, जबकि वस्तुएँ खुद काम आती हैं। वस्तुओंसे स्थावर प्राणी श्रेष्ठ हैं। उनसे जंगम प्राणी श्रेष्ठ हैं। जंगम प्राणियोंमें गाय बहुत श्रेष्ठ है। आज रुपयोंके लिये गायको मार देते हैं! गायसे मनुष्य श्रेष्ठ है। आज रुपयोंके लिये मनुष्यका तिरस्कार कर देते हैं। दहेजके लिये स्त्रीको मार देते हैं! बुद्धि कितने पतनकी तरफ चली गयी! मनुष्यसे भी विवेक श्रेष्ठ है, और विवेकसे भी सत्-तत्त्व (परमात्मा) श्रेष्ठ है—‘त्वमेव सर्वं मम देवदेव’।
जो नींद सबको शान्ति, सुख देती है, वही नींद भगवान्का भजन करनेवालेके लिये वैरिन हो जाती है! विघ्न हो जाती है! भजनकी कितनी विलक्षणता है!
जिस ब्रह्मविद्याका पात्र इन्द्र भी नहीं है, वही ब्रह्मविद्या मनुष्यमात्रको मिल सकती है! जिस प्रेमसे भगवान् भी वशमें हो जाते हैं, वह प्रेम हमें मिल सकता है! भगवान् प्रेमसे प्रकट होते हैं, प्रारब्धसे नहीं।
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अपने होनेपनमें कोई क्रिया नहीं है। प्रकाशमें कोई क्रिया नहीं होती, वह तो ज्यों-का-त्यों रहता है। हमारे आने-जानेसे प्रकाशमें कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही अपने होनेपनमें और ज्ञानमें कोई फर्क नहीं पड़ता। जाग्रत् में भावको और सुषुप्तिमें अभावको—दोनोंको आप जानते हैं। सब आ जायँ अथवा सब चले जायँ, प्रकाशमें क्या फर्क पड़ा? जन्मने और मरनेमें फर्क है, पर दोनोंके ज्ञानमें क्या फर्क है? इस बातको मान लो कि यह तो है ही ऐसी बात। फिर राग हो जाय तो अपनेमें क्या फर्क पड़ा? कभी राग हुआ, कभी वैराग्य हुआ, पर स्वयंमें क्या फर्क पड़ा? यही तत्त्वज्ञान है। इसमें स्थित होना ही जीवन्मुक्ति है। भगवान्के दर्शन तो भगवान्के अधीन हैं, पर तत्त्वज्ञान हम सबके हाथकी बात है। तभी कहा है—‘निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।’ (मानस, उत्तर० ७३ ख)। बालकपन और जवानी मर गयी तो क्या आप मर गये? ऐसे ही शरीर मर जाय तो क्या आप मर जायँगे?
चाहे दीवारको देखें, चाहे स्त्री या पुरुषको देखें, दृष्टिमें क्या फर्क पड़ा? देखनेमात्रसे लिप्तता नहीं होती। लिप्तता आसक्तिसे होती है।
प्रेम बहुत सुगम है। मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं—यह प्रेम है। इसमें क्या कठिनता है?
संसारसे सम्बन्ध तोड़ना ‘ज्ञान’ है और भगवान्से सम्बन्ध जोड़ना ‘भक्ति’ है।
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विषयोंकी आसक्तिसे बचनेका बढ़िया उपाय है—इन्द्रियविजयी विरक्त महापुरुषका संग। उनके पास बैठनेमात्रसे लाभ होता है। जीवन्मुक्त, अनुभवी महापुरुष सदा कम होते हैं। पहले भी वे कम थे, आजकल तो कलियुग है!
कलियुगमें साधनसे जल्दी सिद्धि होती है। नामजप करे और प्रार्थना करे कि हे नाथ, बचाओ! इससे लाभ होता है। शास्त्रोंमें नामजप और सत्संगकी बहुत महिमा आती है। सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता। साधकको चाहिये कि वह अकेला न रहे, बड़ोंके संगमें रहे। अपना पक्का विचार बहुत काम देता है। भक्तोंकी कथाएँ पढ़नेसे बड़ा लाभ होता है।
जब भगवान्में मन लग जायगा, तब भोग फीके हो जायँगे। स्तुति-प्रार्थना करते-करते भी मन लग जाता है। पद गानेसे भी मन लग जाता है। स्तुति या पदके जिस स्थलपर मन लग जाय, उसको बार-बार दुहराता रहे।
काम-धंधा करते हुए जिस समय अचानक भगवान्की याद आ जाय, उस समय सब काम छोड़कर भजनमें लग जाय; क्योंकि उस समय भगवान्ने हमें याद किया है।
कामनाके वशीभूत मनुष्यको अच्छी बात भी उलटी जँचती है।
मनुष्य भगवान्की कृपासे ही भोगोंसे बच सकता है, अपनी शक्तिसे नहीं। अत: भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये।
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अपने पास जो भी चीज है, वह मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। उसपर हमारा आधिपत्य नहीं है। उसके सदुपयोगका अधिकार मिला है। जैसे धनवान्में धनके सिवाय कोई विशेषता नहीं है, ऐसे ही संसारमें नाशके सिवाय कोई विशेषता नहीं है। इसमें अपनापन छोड़ दें। ‘मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसीका है दिया’—यह शरीर किसीका दिया हुआ है, अपना नहीं है। इसमें देनेवालेकी विलक्षणता है और लेनेवालेकी बेईमानी है! देनेवाला इस ढंगसे देता है कि लेनेवालेको वह चीज अपनी ही मालूम देती है—यह देनेवालेकी विलक्षणता है। मिली हुई चीजको अपनी ही मान लेना लेनेवालेकी बेईमानी है।
जानेवालेका संग करना कुसंग है।
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मनुष्यमात्रका चरम लक्ष्य है—प्रेम। प्रेमकी प्राप्तिके लिये भगवान्को अपना मान लो। भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध नित्य है। सांसारिक वस्तुओं-व्यक्तियोंको अपना मानना बड़ी भारी बाधा है। उनको अपना न मानकर उनकी सेवा करो। संसारके सभी काम अन्तमें ‘कुछ नहीं किया’ के खातेमें जायगा!
संसारसे सुख लिया है, संसारके ऋणी हैं, इसीलिये संसार याद आता है।
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भगवान् हैं, वे मिलते हैं और मेरेको मिलेंगे—यह बात भीतर बैठ जाय तो भगवान्के दर्शन हो जायँगे। भक्तिमें विश्वास मुख्य है। विश्वासकी कमीके कारण भगवान् होते हुए भी दीखते नहीं। विश्वासकी कमीका कारण है—संसारपर विश्वास करना। संसार प्रतिक्षण जा रहा है, नष्ट हो रहा है, उसपर विश्वास करना भूल है। संसार इतनी तेजीसे बह रहा है कि उसका वर्णन नहीं कर सकते। जिसका निरन्तर अभाव हो रहा है, उसपर विश्वास ही भगवान् पर विश्वास नहीं होने देता। ‘बिनु बिस्वास भगति नहिं’ (मानस, उत्तर० ९० क)।
संसारको स्थायी माने बिना न सुख भोग सकता है, न दु:ख।
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मनुष्यजन्मका ध्येय परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति है। ध्येय पहले बना है, मनुष्यजन्म पीछे हुआ है। हम भगवान्में लग जायँ—इसीका महत्त्व है, अन्य किसीका महत्त्व नहीं है। मानव-जीवन मोक्षका द्वार है। मनुष्यशरीरमें ही जन्म-मरण शुरू हुआ है और मनुष्य-शरीरमें ही समाप्त होगा। इसलिये हृदयमें विचार कर लें कि चाहे कुछ हो जाय, अब मुझे भगवान्की तरफ ही चलना है।
काम-वृत्ति छूटनी बड़ी कठिन है, पर विचार (निश्चय) कर ले कि हम इस मार्गपर नहीं जायँगे तो वह सुगमतासे छूट जायगी। विचार करनेमात्रसे फर्क पड़ जायगा। पक्का विचार करना असली सत्संग है। विचार करनेसे सत् का संग हो जाता है। विचार करके फिर उसको छोड़ो मत। विचार करके फिर उसे छोड़ देनेसे आदत बिगड़ जाती है।
जैसे डालीसे लगा हुआ फल अपने-आप पक जाता है, बालक माँकी गोदीमें पड़ा-पड़ा अपने-आप बड़ा हो जाता है, ऐसे ही सत्संगमें लगा हुआ मनुष्य अपने-आप विलक्षण हो जाता है।
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संसारमें कई तरहके बल हैं; जैसे बुद्धिबल, विद्याबल, धनबल, तनबल आदि। सबसे बढ़कर बल परमात्माका है। दुर्योधनके पास कई बल थे, पर युधिष्ठिरके पास धर्मका बल था। उनके सौमेंसे एक भी नहीं बचा, इनके पाँचमेंसे एक भी नहीं मरा। अत: आप भगवान्का आश्रय रखो।
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बालकपनमें मैं जो था, वही मैं आज हूँ—यह अनुभव करो। माननेसे काम नहीं चलेगा। शरीर वही नहीं है, वह तो प्रतिक्षण बदल जाता है। शरीरमें परिवर्तन हुआ है, स्वरूपमें नहीं। इसका अनुभव करना है। बदलनेको जाननेवाला बदलनेसे अलग होता है। आप और परमात्मा एक हैं। शरीर और संसार एक हैं। जैसे शरीर संसारका अंश है, ऐसे जीव परमात्माका अंश नहीं है।
ज्ञानयोगमें ‘जानना’ और भक्तियोगमें ‘मानना’ होता है। ज्ञानमार्गमें जानकर मान लेते हैं और भक्तिमार्गमें मानकर जान लेते हैं।
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हिन्दुओंको आपसमें एकता रखते हुए भगवान्से प्रार्थना करनी चाहिये। सच्चे हृदयसे भगवान्के भक्त बनो और एकता रखो। धर्मका पालन नहीं है और इष्टमें श्रद्धा नहीं है, इसीलिये आज अराजकता हो रही है, नहीं तो ‘बाल न बाँका कर सके जो जग बैरी होय’!
अन्याय होता नहीं है, प्रत्युत अन्याय करते हैं। जो होता है, वह न्याय ही होता है। करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहो।
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हम कोई चीज देखें तो उसके पीछे कोई कर्ता, बनानेवाला होता है। ऐसे ही इस सृष्टिका कोई कर्ता है। आकाशके तारे अपने-अपने मार्गपर चलते हैं, आपसमें भिड़ते (टकराते) नहीं, सूर्य समयपर उदय-अस्त होता है तो उसका संचालन करनेवाला कोई है।
भगवान्ने मनुष्यको अपने समकक्ष बनाया है। जीव भगवान्का सखा है—‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।’ (मुण्डक० ३।१।१, श्वेता० ४।६)। परन्तु स्वयं चेतन होते हुए भी जीवने अपने-आपको जड़के अर्पण कर दिया! भगवान्के रहते हुए तुच्छ जड़ चीजोंके अधीन हो जाना बड़ी गलती है।
साधकको बनना कुछ नहीं है। जीवन्मुक्त भी नहीं बनना है। बनेगा तो थप्पड़ खायेगा! भगवान्के तो हम पहलेसे ही हैं, फिर बनना क्या है?
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समग्र भगवान्की उपासना गीताकी विशेष उपासना है। भगवान्की दृष्टिमें सब कुछ वे (भगवान्) ही हैं—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९।१९)। महात्माओंकी दृष्टिमें भी सब कुछ भगवान् ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७।१९)। परन्तु जीवकी दृष्टिमें जगत् है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७।५)।
संसारके सम्बन्धसे थकावट होती है। संसारका सम्बन्ध छूटनेपर बड़ा सुख मिलता है। सुषुप्तिमें अहम्के लीन होनेपर बड़ा सुख मिलता है, थकावट मिटती है और ताजगी आती है—यह सबका अनुभव है। अहम् नहीं रहनेसे संसार नहीं रहता और बड़ी शान्ति रहती है। सुखके लिये परिश्रम करते हैं तो थकावट होती है। उस थकावटको भूलसे तृप्ति मान लेते हैं।
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मान्यता करनेका अर्थ स्वीकार करना है, सीखना नहीं। सत्संगके समय जो भाव रहता है, वह अन्य समय नहीं रहता—यह धारणा होनेसे ही ऐसा होता है। अत: ऐसी धारणा नहीं रखनी चाहिये। असली सत्संगसे फर्क पड़े बिना रहता ही नहीं। बेपरवाह होकर सुनोगे तो थोड़ा लाभ होगा। जागृति रखोगे तो ज्यादा लाभ होगा। बेपरवाहसे सुननेपर भी असर पड़ता है। धारण करनेके उद्देश्यसे सुनना चाहिये। सुननेवाला जिज्ञासु हो और सुनानेवाला अनुभवी हो, तब विशेष लाभ होता है।
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कम-से-कम इतनी बात तो याद रखनी ही चाहिये कि हम यहाँ आये हैं और यहाँसे हमें जाना है। जैसे, अभी सत्संगमें यहाँ आये हैं और जाना पड़ेगा। सत्संगसे जानेका समय तो निश्चित है, पर संसारसे जानेका समय निश्चित नहीं है, न जाने कब जाना पड़ जाय! आप यहाँ रहनेवाले नहीं हो। यहाँ डेरा लगाकर बैठ गये, इसीलिये चिन्ता नहीं हो रही है।
अपना कल्याण चाहनेवाले, साधन करनेवाले सत्संगमें नहीं आते तो इस बातपर मेरेको बड़ा आश्चर्य आता है।
जितनी भी अच्छाई है, सब भगवान्की है। जितनी भी विशेषता है, सब भगवान्की है। भगवान्की नहीं हो तो आये कहाँसे?
‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’—यह स्वीकार कर लो तो यह भगवान्के यहाँ बीमा हो गया! फिर हर समय भगवान्को याद करते रहो, नामजप करते रहो—यह उस बीमाकी किश्त भरना है।
मीराबाईने कहा है—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। इसमें ‘दूसरो न कोई’—यह भगवान्की कमजोरी है, जहाँसे भगवान् दब जाते हैं!
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
(मानस, अरण्य० १०।४)
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देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिका ज्ञान होता है। जिनका ज्ञान होता है, वह सब बदलनेवाला है। बदलनेवालेके साथ हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। जो बदलता है, वह अपना स्वरूप नहीं है। बदलनेवालेको जाननेवाला नहीं बदलता। जो नहीं बदलता, वह हमारा स्वरूप है। बदलनेवालेको महत्त्व देना गलती है।
करनेमें सावधान रहें, होनेमें प्रसन्न रहें। करनेमें हमारा हाथ है, होनेमें भगवान्का हाथ है।
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श्रोता—‘निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा’॥ (मानस, लंका० ६१।७)—सुमित्राके दो पुत्र थे—लक्ष्मण और शत्रुघ्न, फिर यहाँ भगवान् रामने एक ही पुत्र होनेकी बात क्यों कही है?
स्वामीजी—उपर्युक्त चौपाईका ऐसा अर्थ लें—अपनी माँ (कौसल्या)-का मैं एक ही पुत्र हूँ और उसके प्राणोंका आधार तुम (लक्ष्मण) हो। ऐसा अर्थ माननेसे शंका नहीं रहती। दूसरी बात, यह भगवान् रामका प्रलाप था। प्रलापमें कही बातका प्रमाण नहीं माना जाता। तीसरी बात, ‘अपनी माँके तुम एक ही भक्त बेटे हो’; क्योंकि—‘पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई’॥ (मानस, अयो० ७५।१)।
यह कलियुगका प्रभाव है कि झूठ-कपटसे धन आता हुआ दीखता है, जिससे मनुष्य झूठ-कपटमें लग जाय! सच्चाईका बड़ा प्रभाव होता है। आश्रय भगवान्का लो, धनका नहीं। ब्याजसे काम चलायेंगे—यह धनका आश्रय है।
आध्यात्मिक मार्गमें केवल लगनकी जरूरत है।
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श्रोता—कामवृत्ति कैसे मिटे?
स्वामीजी—मनुष्यके लिये खास बाधक दोष है—कामना। ऐसा हो जाय, ऐसा न हो—यह कामना है। कामना आये या जाय, आप तटस्थ रहो। न इच्छा करो, न द्वेष। उसके साथ मत मिलो। कामवृत्ति बड़ी प्रबल होती है, पर वह आने-जानेवाली है। आप रहनेवाले हैं। अत: आप एक पक्का विचार कर लें कि मुझे कामके वशीभूत नहीं होना है। दूसरा उपाय है—भगवान्से प्रार्थना करो कि हे नाथ! मुझे बचाओ! तीसरा उपाय है—जिनके काम-क्रोधादि मिट गये हैं अथवा मिट रहे हैं, उनके पास रहो। इससे स्वाभाविक ही कामवृत्ति मिट सकती है। चौथा उपाय है—भक्तोंके चरित्र पढ़ो। पढ़ते-पढ़ते जहाँ गद्गद हो जायँ अथवा चुप, शान्त हो जायँ, वहाँ पढ़ना छोड़ दो। कुछ देर वैसा रहकर पुन: पीछेसे पढ़ना शुरू करो। कीर्तन आदिमें मन लग जाय तो उससे एक बल आयेगा। हर समय भगवान्में लगे रहो। एकान्तमें मत रहो। कामवृत्ति आये तो गीता-पाठ करने लग जाओ। अगर गीता कण्ठस्थ हो तो उलटा पाठ करो।
यह मत मानो कि कामवृत्ति आ रही है। वह तो जा रही है, निकल रही है—यह भाव दृढ़ हो जाय तो वह मिट जायगी। वृत्ति आ जाय तो सिर, अँगुली और जीभ हिलाकर ‘ना’ कहो। सत्संगसे बहुत लाभ होता है। दो-तीन बार फेल भी हो जाओ तो घबराओ नहीं। अन्तमें आपकी ही विजय होगी।
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प्रश्न—गुरुसे लाभ कैसे लें?
उत्तर—जिससे लाभ लेना हो, उसीका हो जाय, उसके शरण हो जाय। जैसे, पत्नी पतिकी हो जाती है। उसका गोत्र भी बदल जाता है। वह उसी घरकी हो जाती है। ऐसे गुरुके शरण हो जाय। फिर गुरुकी कृपा अपने-आप होती है। जैसे, छोटा बालक केवल दूधके ही परायण रहता है तो बीमार पड़नेपर दवा माँको लेनी पड़ती है।
भागवतमें आया है—
अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्॥
(२।३।१०)
‘जो बुद्धिमान् पुरुष है, वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओंसे युक्त हो अथवा मोक्षकी कामनावाला हो, उसे तो तीव्र भक्तियोगसे केवल पुरुषोत्तमभगवान्की ही आराधना करनी चाहिये।’
जैसे लोभीसे एक पैसेका भी नुकसान सहा नहीं जाता, ऐसे भक्तिमें किसी तरहका थोड़ा भी नुकसान न सह सकना ‘तीव्र भक्तियोग’ है। तीव्र भक्तियोगसे सब कामनाएँ मिट जाती हैं।
एक लक्ष्य बन जाय तो बहुत शान्ति मिलती है। एक भगवत्प्राप्ति ही करनी है, और कुछ करना है ही नहीं! कहीं जाना नहीं, कुछ लेना नहीं!
केवल भगवान्में ही प्रेम हो—यह सत्संग है।
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दो विभाग हैं। एक उत्पन्न होनेवाली वस्तुका विभाग है और एक अनुत्पन्न तत्त्वका विभाग है। उत्पन्न होनेवाली वस्तुकी प्राप्तिके लिये क्रियाकी आवश्यकता है। अनुत्पन्न तत्त्वकी प्राप्तिके लिये जानने और माननेकी आवश्यकता है। स्वयंको जानना है और परमात्माको मानना है।
ज्ञानयोगमें विवेककी मुख्यता है। भक्तियोगमें विश्वासकी मुख्यता है। कर्मयोगमें निष्कामभावसे करनेकी मुख्यता है।
क्रियाकी प्रधानता संसारमें है। क्रियासे तत्त्वप्राप्तिमें देरी लगती है। विवेक और भाव तेज हो तो तत्काल प्राप्ति होती है। कारण कि जो पहलेसे विद्यमान है, उसकी प्राप्तिमें देरी क्या?
‘है’ के साथ ‘नहीं’ को मिलानेसे अर्थात् शरीरको मैं-मेरा माननेसे ही मरनेका भय लगता है। शरीरको लेकर ही जीनेकी इच्छा और मृत्युसे भय होता है। इच्छा और भयका त्याग हो तो मुक्त हो जायँ।
इच्छाके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध है। जड़की इच्छा है और परमात्माकी आवश्यकता है। इच्छाओंकी कभी पूर्ति नहीं होती। आवश्यकताकी पूर्ति होती है।
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भक्ति होनेपर ज्ञान-वैराग्य अपने-आप आते हैं—‘राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं। अनइच्छित आवइ बरिआईं’॥ (मानस, उत्तर० ११९।२)। भक्ति तपस्यासे प्राप्त नहीं होती, प्रत्युत भगवान्में अपनापन करनेसे प्राप्त होती है—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। भक्तिमें अनन्यताकी महिमा है—‘दूसरो न कोई’।
भक्तिमार्गपर चलनेवालेको ज्ञान-वैराग्यके लिये परिश्रम नहीं करना पड़ता। विषयोंसे और मान-बड़ाईसे स्वत: वैराग्य हो जायगा। शरीर तो मल-मूत्र पैदा करनेकी मशीन है, इसमें क्या राग हो सकता है? आकर्षण हो सकता है?
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संसारमें जो ‘है’ दीखता है, वह परमात्माका स्वरूप है। वस्तुएँ अनेक हैं, पर ‘है’ एक है। उस ‘है’ के अन्तर्गत ही सब वस्तुएँ हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि एक ‘है’ के ही अन्तर्गत हैं। ‘है’ के अन्तर्गत ही उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय है। वह ‘है’ आपका स्वरूप है। शरीर आपका स्वरूप नहीं है।
सृष्टि निरन्तर प्रलयमें जा रही है। शरीर निरन्तर मौतमें जा रहा है। हम जी नहीं रहे हैं, मर रहे हैं। जानेवालेके साथ प्रेम करोगे तो रोना पड़ेगा। नाश होनेवालोंमें जो अविनाशीको देखता है, वही ठीक देखता है—‘विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति’ (गीता १३।२७)। नित्यका सहारा लो। नित्यसे प्रेम करो। नाशवान्को महत्त्व देना गलती है। जो है ही नहीं, उसमें बढ़िया क्या और घटिया क्या? व्यक्तियोंकी सेवा करो और वस्तुओंका सदुपयोग करो।
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नवधा भक्तिसे प्रकट होनेवाली प्रेमलक्षणा भक्ति है। रागात्मिका भक्ति राधाजीकी और रागानुगा भक्ति जीवोंकी मानी जाती है, पर जीवोंकी भी रागात्मिका भक्ति हो सकती है।
ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग—दोनों ही आदरणीय हैं, कल्याण करनेवाले हैं।
कीर्तनमें जो आनन्द आता है, वह विषयोंसे होनेवाला नहीं है।
भगवान् जिस रूपमें आयें, उसी रूपके अनुसार उनकी पूजा करो। भीष्मजीने बाणोंसे भगवान्की पूजा की थी! जैसा देव, वैसी पूजा। भगवान् आततायी-रूपसे आ जायँ तो उनकी पूजा भी वैसी ही करो। इससे भगवान् बड़े प्रसन्न होंगे। हाँ, हृदयमें द्वेष, वैरभाव नहीं होना चाहिये। आततायीको मारनेका पाप नहीं लगता—ऐसा शास्त्रमें आया है। मारना उसको पापसे बचाना है। जैसे, फोड़ेको चीरकर या खराब अंगको काटकर डाक्टर रोगीको ठीक करता है।
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जाग्रत्-अवस्थामें वृत्ति न बाहर हो, न भीतर तो वह ‘जाग्रत् सुषुप्ति’ है। जाग्रत् सुषुप्ति साधन है, जिससे संसारके साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। निरपेक्ष तत्त्वमें न जाग्रत् है, न सुषुप्ति है, प्रत्युत नित्यजागृति है। संसारको सत्ता और महत्ता देनेसे नित्यजागृतिका अनुभव नहीं होता।
परमात्माकी प्राप्ति नित्यप्राप्तकी प्राप्ति है। संसारकी निवृत्ति नित्यनिवृत्तकी निवृत्ति है।
जैसे बर्फके घड़ेको पानीसे भरकर समुद्रमें छोड़ दें तो पानीके सिवाय कुछ नहीं है, ऐसे ही एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है। बाहर-भीतर सब जगह एक परमात्मा ही परिपूर्ण है—‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च’ (गीता १३।१५)। दही और मक्खन अलग-अलग होते हुए भी दीखते नहीं। परन्तु जब मक्खनको दहीसे अलग कर देते हैं, तब फिर वे मिलते नहीं।
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शीघ्र भगवत्प्राप्ति चाहनेवालेको देरीसे प्राप्ति होती है और सुगमतासे भगवत्प्राप्ति चाहनेवालेको कठिनतासे प्राप्ति होती है।
भगवत्प्राप्ति किसी उपाय अथवा साधनसे नहीं होती। भगवान् किसी साधनके वशीभूत नहीं हैं। वस्तु जिस मूल्यसे मिलती है, उससे कम मूल्यकी होती है। भगवान्से अधिक मूल्यवाली कोई वस्तु है ही नहीं, जिससे भगवान् मिल सकें। भगवान्के बिना रह न सकें, ऐसी व्याकुलतासे भगवान् मिलते हैं। बालकके रोनेसे माँ आ जाती है तो माँ रोनेके वशमें नहीं है, प्रत्युत माँसे आये बिना रहा नहीं जाता! यह माँकी दया है। व्याकुलता तभी होगी, जब भगवान्के सिवाय किसी भी चीजकी कामना न हो। बालक केवल माँको ही चाहे, खिलौनेसे भी राजी न हो, तब माँ आती है।
भगवान् अत्यन्त नजदीक हैं। छ: महीनेके बाद ध्रुवजीका जो भाव हुआ, वह पहले होता तो पहले ही भगवान् मिल जाते! भगवान् मैं-पनसे भी अधिक नजदीक हैं। भगवान्से रहित कोई चीज है ही नहीं।
जिन वस्तुओंको आपने अपना मान रखा है, वही बाधक हैं। हमलोग मिश्रीके पहाड़पर बैठे हैं, पर मनमें नमक पकड़ रखा है!
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ज्ञान और भक्तिकी चर्चा तो बहुत होती है, पर कर्मयोगकी नहीं होती। कर्मयोगको जाननेवाले बहुत कम हैं। यह केवल अभीकी बात नहीं है, पहले भी ऐसी बात थी—‘स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप’ (गीता ४।२)।
ज्ञानके बाद जो भक्ति होती है, वह बहुत विलक्षण होती है। ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ (गीता १८।५४) ‘मेरी पराभक्तिको प्राप्त होता है’। नवधाभक्ति तो ‘अपरा’-भक्ति है, साधनभक्ति है। परन्तु पराभक्ति साध्यभक्ति है। यह प्रेमलक्षणा भक्ति है। पर इस तरफ ध्यान कम है। पराभक्तिकी प्राप्ति ज्ञान होनेपर भी होती है, पहले भी होती है। परन्तु साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये, चाहे किसी मार्गसे चले। संसारमें असन्तोष नहीं करना चाहिये। अपनेको ज्ञानी या भक्त न मानकर साधक ही मानना चाहिये। कहीं अटकना नहीं चाहिये। ज्ञान, भक्ति आदि किसी साधनको नीचा नहीं मानना चाहिये। दूसरोंकी निन्दा, तिरस्कार करनेवाला वास्तवमें अपने ही साधनमें बाधा लगाता है। संसारकी भी निन्दा न करे, प्रत्युत उसका त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद) करे।
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मनुष्यमें तीन शक्तियाँ हैं—करनेकी शक्ति, जाननेकी शक्ति और माननेकी शक्ति। इसलिये योग भी तीन हैं—कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग। तीनों योगमार्गोंसे कृतकृत्यता, ज्ञातज्ञातव्यता और प्राप्तप्राप्तव्यता हो जाती है। तीनों स्वतन्त्र साधन हैं।
स्वर्गमें भी दु:ख मिलता है और नरकमें भी सुख मिलता है। स्वर्ग और नरकमें सब कर्म नहीं कटते, सब पाप-पुण्योंका क्षय नहीं होता।
रूपमें सुन्दरताकी और नाममें संख्याकी मुख्यता होती है। भगवान्का नाम और रूप दोनों ही विलक्षण हैं। इसलिये गोस्वामीजीने कहा है—
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर
प्रिय लागहु मोहि राम॥
(मानस, उत्तर० १३० ख)
परमात्मप्राप्तिके एक निश्चयमें बड़ी भारी शक्ति है—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति’ (गीता ९।३१)। निश्चय करनेमात्रसे बहुत पापोंका नाश हो जाता है। परन्तु भोग और संग्रहमें आसक्ति होनेके कारण एक निश्चय नहीं होता।
पराभक्ति (प्रेमाभक्ति) होनेपर कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद है—इसका पता ही नहीं लगता।
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खास ज्ञान है—विवेकज्ञान। यह विवेकज्ञान केवल तत्त्वप्राप्तिके लिये हो तो यह साधनज्ञान है। शरीर-संसार एक हैं और आत्मा-परमात्मा एक हैं। शरीरको संसारसे अलग मानना और संसारको शरीरसे अलग मानना अज्ञान है। संसारसे मिली वस्तुसे संसारकी सेवा करनी है। पदार्थोंसे सेवा करनेसे ममता मिटती है और शरीरसे सेवा करनेसे अहंता मिटती है।
विवेकज्ञान ‘साधनज्ञान’ है और तत्त्वबोध ‘साध्यज्ञान’ है। मोटरके प्रकाशकी तरह प्रत्येक कार्यमें विवेक आगे रहता है। यदि विवेकके अनुसार कार्य किया जाय तो वह विवेक तत्त्वबोधतक पहुँचा देता है। सत्संग और सच्छास्त्रसे विवेक बढ़ता है, पर उसके अनुसार आचरण करनेसे वह ठोस बढ़ता है। विवेक ही गुरु है। जिसके द्वारा विवेक मिलता है, वह भी गुरु हो जाता है।
अपनी जानकारी दूसरोंके काम तो आये, पर अपने काम न आये—यह गलती है।
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वेदोंमें, शास्त्रोंमें गायकी बड़ी महिमा आयी है। उसका गोबर-गोमूत्र भी पवित्र है। गोबरमें लक्ष्मीका और गोमूत्रमें गंगाका निवास माना गया है। गोबर-गोमूत्रसे ही शुद्धि की जाती है। जनेऊ-संस्कारके समय पंचगव्य काम आता है। आयुर्वेदमें कई दवाएँ भी गोमूत्र, छाछ आदिसे बनती हैं। गोमूत्रसे दमा आदि कई रोग शान्त होते हैं। दूध पीनेवाली बछड़ीका मूत्र लेना चाहिये। गोबर और मिट्टीमें जहर खींचनेकी शक्ति है।
भैंसेपर यमराज चढ़ते हैं और बैलपर शंकर चढ़ते हैं। गोधूलिका समय बड़ा मांगलिक होता है। विवाहका लग्न और न मिले तो गोधूलिके समय विवाह करते हैं। गोरक्षाके लिये अर्जुनने बारह वर्षका वनवास सह लिया!
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मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं—इसके लिये कोई उपाय नहीं होता। यह बात स्वयंसे माननेकी, स्वीकार करनेकी है।
जो कभी योगी, कभी भोगी बनता है, वह भोगी ही रहता है। योगीकी खास बात है—सुखभोगका उद्देश्य न होना। पक्का निश्चय हो जाय कि मुझे परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है तो वह योगी हो जाता है। जितनी दृढ़ता होगी, उतनी जल्दी योगी होगा।
अनुकूलता-प्रतिकूलतामें राजी-नाराज होना साधकके लिये खास बाधक है। राग-द्वेष ही हमारे असली शत्रु हैं—‘तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ’ (गीता ३।३४)। राग ठण्डक है, द्वेष गरमी है, दोनोंसे ही खेती जल जाती है।
भोगी योगी नहीं होता, प्रत्युत रोगी होता है—‘भोगे रोगभयम्’। जो हर समय सावधान रहता है, वही साधक होता है। गीताका योग सबसे श्रेष्ठ है—‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २।४८)।
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‘मेरे तो गिरधर गोपाल’—यह शरणागतिका साधन है। इसकी दृढ़ताके लिये ‘दूसरो न कोई’ है। एक भगवान्की तरफ वृत्ति रहे—यह अनन्यता है। भगवान्के किसी भी रूपका आश्रय भगवान्का ही आश्रय है, अन्यका आश्रय नहीं है। संसारका आश्रय ही अन्यका आश्रय है। इस अन्यके आश्रयके त्यागकी आवश्यकता है।
ज्ञान होना दोषी नहीं है, उसमें आकर्षण होना दोषी है। अच्छे-बुरेका ज्ञान होना दोषी नहीं है, उसमें राग-द्वेष होना दोषी है। मनका लगाव दोषी है। ‘न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्’ (गीता ५।२०)—यहाँ प्रिय-अप्रियका तात्पर्य ज्ञान होना है अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञानमात्र। अनुकूलता-प्रतिकूलतामें हर्षित और उद्विग्न होनेसे हम फँस जाते हैं।
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गीतामें आया है—
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥
(३।६)
‘जो कर्मेन्द्रियों (सम्पूर्ण इन्द्रियों)-को (हठपूर्वक) रोककर मनसे इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए बैठता है, वह मूढ़ बुद्धिवाला मनुष्य मिथ्याचारी (मिथ्या आचरण करनेवाला) कहा जाता है।’
मिथ्याचारीकी जो स्थिति है, वही स्थिति आरम्भमें साधककी भी होती है; परन्तु साधकका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका होनेसे वह मिथ्याचारी नहीं है। मिथ्याचारी तो विषयोंका चिन्तन करता है, पर साधकके द्वारा न चाहते हुए भी विषयोंका चिन्तन होता है। विषयोंका चिन्तन करना दोषी है, होना तो परवशता है। क्रिया एक दीखनेपर भी भावमें भेद है। एक चिन्तन करता है, एकका चिन्तन होता है। एकका उद्देश्य मान-बड़ाई आदिका है, एकका उद्देश्य भगवान्का है। भगवान् भाव देखते हैं। नीयत ठीक होनी चाहिये।
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संन्यासीके लिये कनक-कामिनी (धन और स्त्री)-का त्याग मुख्य है। गृहस्थके लिये परधन-परस्त्रीका त्याग मुख्य है। सब विकारोंके नाशका उपाय है—सबमें भगवद्भाव करना।
नरेष्वभीक्ष्णं मद्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धाऽसूयातिरस्कारा: साहङ्कारा वियन्ति हि॥
(श्रीमद्भा० ११।२९।१५)
‘जब भक्तका सम्पूर्ण स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर मेरा ही भाव हो जाता है अर्थात् उनमें मुझे ही देखता है, तब शीघ्र ही उसके चित्तसे ईर्ष्या, दोषदृष्टि, तिरस्कार आदि दोष अहंकार-सहित सर्वथा दूर हो जाते हैं।’
विकारोंके नाशका दूसरा उपाय है—
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥
(दोहावली २२)
श्रोता—जीवन्मुक्तमें भी दोष देखे जाते हैं—इसका खास कारण क्या है?
स्वामीजी—आपने उसको जीवन्मुक्त मान लिया—यही खास कारण है! दूसरा कैसा ही हो, आप अपने जीवनको निर्दोष बनायें।
‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’—यह मीराबाईका बहुत बढ़िया मंत्र है! भगवान्का होकर भगवान्का भजन करो, संसारका होकर नहीं। भगवान् ही हमारे हैं। हमने अपनी मरजीसे जन्म नहीं लिया है, भगवान्ने जन्म दिया है।
आपके सामने छोटे भी चले गये, बड़े भी चले गये और समान अवस्थावाले भी चले गये। अत: आप तो मुफ्तमें ही जी रहे हो! वह जीना भगवान्के लिये कर दो।
जो चीज कम होती है, वह नष्ट होनेवाली होती है। सच्ची चीज कम नहीं होती। विकार कम होते हैं तो वे मिटनेवाले हैं।
कन्हैया तो बहुत चतुर है, पर किशोरीजी बहुत भोली हैं।
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जो नित्य-निरन्तर प्राप्त है, उसीको प्राप्त करना है। जो निरन्तर जा रहा है, उसीका त्याग करना है। संसार निरन्तर अभावमें जा रहा है। उसका त्याग करनेका अर्थ है—उसकी इच्छा न रखना, उससे सुख न लेना। संसार नदीके प्रवाहकी तरह निरन्तर जा रहा है। जो निरन्तर जा रहा है, मिट रहा है, उससे हमारा क्या मतलब सिद्ध होगा? ‘देखो निरपक होय तमाशा’!
सम्पूर्ण संसार जाननेके अन्तर्गत आ रहा है। वह ज्ञान संसारके भाव और अभाव—दोनोंका प्रकाशक है। उसमें हमारी स्वत:सिद्ध स्थिति है। ‘नहीं’ को ‘है’ माननेका नाम ही अज्ञान है। ज्ञानके अभावका नाम अज्ञान नहीं है। यह मिट रहा है—इस मिटनेको जो जानता है, वह टिक रहा है।
श्रोता—यह सब जानते हुए भी संसारका आकर्षण न मिटनेका क्या कारण है?
स्वामीजी—संसारका आकर्षण न मिटनेका कारण है—नाशवान्-से सुख लेना। इसके लिये खास उपाय है—दूसरोंको सुख देना।
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बालकमें साढ़े तीन अंगुल (जीभ)-का ज्ञान होता है। इससे आगे साढ़े तीन हाथ (शरीर)-का ज्ञान होता है। इससे आगे तीन जन्मोंका ज्ञान होता है।
भगवान् सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करते हुए भी निर्गुण ही रहते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शंकर अपना कार्य करते हुए भी निर्गुण हैं। जीवन्मुक्त महापुरुष भी निर्गुण रहता है—‘गुणातीत: स उच्यते’ (गीता १४।२५)।
मनुष्यमें विवेकशक्ति विलक्षण है। जो मुक्ति काशीमें मरनेसे होती है, वह मुक्ति हरेक मनुष्य कहीं भी कर सकता है। शंकर भी जिसको जपते हैं, वह रामनाम हम कलियुगी जीवोंको मिल गया—यह कितने आनन्दकी बात है! ‘अवध तहाँ जहँ राम निवासू’ (मानस, अयो० ७४।२)—जैसे जहाँ राम हैं, वहीं अयोध्या है, ऐसे ही जहाँ कृष्ण हैं, वहीं वृन्दावन है।
तीर्थमें बड़ी सावधानीसे रहना चाहिये। यहाँ पुण्य भी बहुत होता है और पाप भी भयंकर होता है। इसलिये पहले लोग तीर्थमें दुकान नहीं करते थे। दुकानदारकी हर समय यह भावना रहती है कि अनाज महँगा हो जाय!
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दूसरोंके हितके लिये कर्म करनेसे, ज्ञानसे और शरणागतिसे—तीनोंसे सब पाप सर्वथा नष्ट हो जाते हैं*।
* (१) यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।
(गीता ४।२३)
(२) अपि चेदसि पापेभ्य: सर्वेभ्य: पापकृत्तम:।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥
(गीता ४।३६)
(३) सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८।६६)
सत्संग करनेसे, पुस्तकें पढ़नेसे नित्य नयी-नयी बातें मिलती हैं। जैसे रोजाना भोजन करते हैं, ऐसे ही सत्संग भी रोजाना करना चाहिये। पुस्तक पढ़नेकी अपेक्षा सुननेकी अधिक महिमा है। पुस्तक पढ़नेसे अपनी बुद्धि काम करती है, सुननेसे दूसरेकी बुद्धि काम करती है। आध्यात्मिक मार्गमें उन्नतिकी कोई सीमा नहीं है। सत्संगकी बातें सुननेवालेको भी लाभ होता है और सुनानेवालेको भी—‘परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ’ (गीता ३।११)।
सन्त-महात्मा, बड़े-बूढ़े और दीन-दु:खी—ये भगवान्के रहनेके स्थान हैं, इनकी सेवा करो।
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हम कल्याण, मुक्ति, तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति आदि जो भी चाहते हैं, वह स्वत: प्राप्त है। उसे बनाना नहीं है। वह तत्त्व नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों है। केवल संसारकी आसक्तिके कारण उसका अनुभव नहीं हो रहा है। उसको हमने दूर, क्रियासाध्य और समयसाध्य मान लिया—यह मान्यता बाधक हो रही है।
शरीर प्रतिक्षण बदल रहा है—यह आपका प्रत्यक्ष अनुभव है। जो बदलनेवालेको जानता है, वह न बदलनेवाला होता है। उस ‘है’ में ही रहना ‘चुप साधन’ है।
सत्संगकी ये बातें किसी जन्ममें नहीं मिलीं, यदि मिलतीं तो यह दशा क्यों होती! करोड़ों रुपये देनेपर भी ये बातें नहीं मिलतीं।
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सब जगह परमात्मा ही हैं—यह भगवद्भाव विश्वाससे ही होगा। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो विश्वास न करता हो, पर परहेज भगवान्के विश्वाससे है! संसारपर विश्वास करते हैं और धोखा खाते हैं। साधुओंपर भी विश्वास करते हैं और धोखा खाते हैं।
करने और होनेका विभाग अलग-अलग है। करनेमें सावधान, होनेमें प्रसन्न—यह बहुत बढ़िया मन्त्र है।
हरेक परिस्थितिमें भगवान्की कृपाको देखो, कृपाको ढूँढ़ो, खोज करो। कृपा न दीखे तो भी मान लो। विश्वास करनेसे कृपाका अनुभव हो जायगा।
पुरुषमात्रको कृष्ण और स्त्रीमात्रको राधा मानकर नमस्कार करो। जड़-चेतन सबको दण्डवत् प्रणाम करो, न करो तो हाथसे नमस्कार करो। स्त्री-पुरुष, गधा, कुत्ता, कंकड़-पत्थर, मकान, वृक्ष आदि जो दीखे, उसे नमस्कार करना शुरू कर दो।
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जैसे मकानमें रहते हुए भी हम मकानसे अलग हैं, ऐसे ही हम शरीरमें रहते हुए भी शरीरसे अलग हैं। फर्क यह है कि मकानसे हम अलग होते हैं, पर शरीर हमारेसे अलग हो रहा है, प्रतिक्षण जा रहा है। शरीर हमारेसे अलग है—यह जान लेनेपर भोगोंमें, रुपयोंमें आकर्षण नहीं होगा।
भूख-प्यास प्राणोंकी, शोक-मोह मनका और जन्म-मरण शरीरका होता है, पर आप भूलसे इनको अपना मान लेते हो।*
* क्षुधा पिपासा प्राणस्य मनस: शोकमोहकौ।
जन्ममृत्यू शरीरस्य षडूर्मिरहित: स्वयम्॥
ये आते-जाते हैं, आप रहते हो। ये आपमें नहीं हैं। आदर-निरादर शरीरका और निन्दा-प्रशंसा नामकी होती है। आप इनसे अलग हैं।
असत् से असंग होनेपर सत्संग होता है। यदि असत् से असंग नहीं हुए तो कोरी बातें सीखी हैं।
जो परमात्माकी तरफ ले जाता है, वह ‘प्रेम’ होता है। जो संसारकी तरफ ले जाता है, वह ‘मोह’ होता है।
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परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें अन्त:करणकी शुद्धि कारण नहीं है। करण शुद्ध होनेसे क्रिया शुद्ध होती है, कर्ता नहीं। क्रियासे अतीत विषयके लिये करणकी जरूरत नहीं है। सभी कारक क्रियामें हेतु होते हैं। परमात्मप्राप्तिमें देरीका कारण जिज्ञासाकी कमी है, अन्त:करणकी शुद्धि-अशुद्धि नहीं।
संसार प्रतिक्षण जा रहा है—इसको जाननेमें अन्त:करणकी शुद्धिकी क्या जरूरत है? शरीर बदल गया, पर मैं वही हूँ—यह विवेक है, क्रिया नहीं। विवेक सबको प्राप्त है।
मूर्ख और गधा—दोनों सुखी (निश्चिन्त) रहते हैं; क्योंकि उनको पता ही नहीं कि क्या होगा, क्या नहीं होगा?
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हमारे मनके प्रतिकूल जो परिस्थिति आती है, उसमें भगवान्की कृपा रहती है। भगवान्का विधान हमारे लिये मंगलमय होता है, चाहे हम समझें या न समझें। माँकी प्रत्येक चेष्टा बालकके हितके लिये ही होती है।
भगवान्के शरणागतको अपने मनके अनुकूलकी इच्छा करनी ही नहीं चाहिये। भगवान्के शरण हो गये तो वे जो चाहें सो करें। उनसे हमारा बुरा नहीं हो सकता। संसारसे भी हमारा बुरा नहीं हो सकता। भगवान् और संसार दोनोंको खुली छूट दे दो। गीतामें आया है—
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥
(६।४०)
‘हे प्यारे! कल्याणकारी काम करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको नहीं जाता।’
भक्त सुखभोगके लिये भगवान्के शरण नहीं होता। यदि सुख चाहता है तो वह शरीरके शरण है, भगवान्के नहीं। प्रारब्धके भोगसे प्रारब्ध नष्ट होता है और हमारा ऋण उतरता है। यदि प्रतिकूलता, बुखार, निन्दा, अपमान आदिमें आनन्द आये, तब समझना चाहिये कि हम भगवान्के शरण हुए हैं। अनुकूल परिस्थितिमें तो खतरा है, पर प्रतिकूल परिस्थितिमें कोई खतरा है ही नहीं। माँ लड्डू तो सब बच्चोंको देती है, पर थप्पड़ अपने बच्चेको ही लगाती है। अपनेपनमें जितना सुख है, मारमें उतना दु:ख नहीं है। वैद्य उसीको जुलाब देता है, जो रोगी हो। वह चाहे जुलाब दे, चाहे हलवा दे, दोनोंमें उसकी दृष्टि हितकी है। ऐसे ही भगवान् सदा मंगल ही करते हैं। पर पात्रके अनुसार मंगल करनेका तरीका अलग-अलग होता है।
सुख चाहनेवालेके लिये संसार दु:खालय है और सेवा करनेवालेके लिये भगवत्स्वरूप है।
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संसार प्रतिक्षण जा रहा है। ‘गति’ निरन्तर नहीं रहती, पर ‘स्थिति’ निरन्तर रह सकती है। संसारका परिवर्तन किसी स्थायी तत्त्वके अधीन है। स्थायी तत्त्व परिवर्तनके अधीन नहीं है। गति अनित्य है, स्थिति नित्य है। संसारका संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। अन्तिम साधन है—गतिरहित होना अर्थात् कुछ नहीं करना।
सम्पूर्ण परिवर्तन कालके अधीन है। तत्त्वज्ञान होनेपर मौतकी भी मौत हो जाती है। जो करने-न-करने, गति-स्थिति आदि सबको प्रकाशित करता है, वह तत्त्व स्वत:सिद्ध है। उसमें स्थिति ही मुक्ति है। वह सबका प्रकाशक है, पर उसका प्रकाशक कोई नहीं है—‘सा काष्ठा सा परा गति:’ (कठ० १।३।११)। वह सबका आश्रय, आधार, अधिष्ठान और प्रकाशक है।
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प्रत्येक विचारमें पक्का रहनेका स्वभाव बनाना चाहिये। छोटी-छोटी बातमें पक्का रहनेका स्वभाव बनाये तो यही स्वभाव पारमार्थिक उन्नतिमें भी काम आयेगा। भगवान् रामके लिये आया है कि वे दो बार नहीं बोलते अर्थात् दो तरहकी बात नहीं करते—‘रामो द्विर्नाभिभाषते’ (वाल्मीकि०, अयो० १८।३०)।
पुरानी रीति मिटाना कलियुगका खास लक्षण है। अपने रीति-रिवाज बदलोगे तो वे बदलते-बदलते मिट जायँगे अर्थात् उनको बदलना उनको मिटाना है।
जो अपनी बातपर पक्का रहता है, उसकी स्वाभाविक बहुत उन्नति होती है—‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन’ (गीता २।४१), ‘सम्यग्व्यवसितो हि स:’ (गीता ९।३०)।
जबसे मनुष्यने मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया, तभीसे जन्म-मरण आरम्भ हुआ।
मनुष्य बुरा होकर ही बुराई करता है और बुराई करनेसे बुरा होना दृढ़ होता है।
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संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। आपका-हमारा पहले वियोग था, अन्तमें भी वियोग ही होगा। परमात्माका योग नित्य है; क्योंकि वे सदा रहते हैं। परमात्माका वियोग सम्भव ही नहीं है। परमात्मा नित्यप्राप्त हैं और संसार नित्यनिवृत्त है। संसारके वियोगको वर्तमानमें ही स्वीकार कर लें—‘अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते’।
संसारका नित्यवियोग अनुभवमें आता है। परमात्माके नित्ययोगकी बात सन्त और शास्त्र कहते हैं। संसारकी सेवा करो और परमात्मासे मित्रता करो—‘नारायन ब्रजराज-कुँवर सों बेगहि करि पहिचान’। परमात्मासे प्रार्थना करो कि हे नाथ! आप हमें अच्छे लगो, प्यारे लगो। जिसका वियोग हो रहा है, उसका संयोग चाहते हैं—यही संसारका आकर्षण है।
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जैसे बालक माँकी गोदमें जाता है, ऐसे ही हमें भगवान्के शरण होना है। यह शरणागति अत्यन्त सुगम है। माँकी गोदमें जानेमें क्या कठिनता? मुख्य बात है—मालिकका स्वीकार करना। भगवान्ने तो हमें अपने शरणमें स्वीकार कर रखा है—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर० ८६।२)। केवल अपनी तरफसे हमें ‘हाँ’ कहनी है। कारण कि भगवान्से विमुख हम ही हुए हैं। ‘हे नाथ! मैं आपके शरण हूँ’—ऐसा कहकर शरण हो जायँ। शरण होनेमें जाति, वर्ण, आश्रम, गोत्र आदि नहीं देखा जाता। भक्त अच्युतगोत्र हो जाता है। भगवान्के साथ जीवमात्रका नित्य-सम्बन्ध है।
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जिसको प्राप्त करना है, उसमें हमारी स्वत: स्थिति है। शरीर-संसारका त्याग स्वाभाविक हो रहा है। परमात्मतत्त्व नित्य-निरन्तर प्राप्त है। वह कभी अप्राप्त नहीं हो सकता। केवल उसकी अप्राप्तिका वहम मिटाना है। वहम मिटानेमें ही देरी लगती है। नित्यप्राप्तको अप्राप्त और अप्राप्तको प्राप्त मान लिया—यह वहम है।
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जो शिष्यका उद्धार कर दे, वही गुरु होता है। धन लेनेवाले गुरु तो बहुत हैं, पर हृदयका ताप हरनेवाले गुरु दुर्लभ हैं। हमने देखा है कि गुरु बनानेवाले और गुरु नहीं बनानेवाले—दोनोंका व्यवहार एक-जैसा है, उनके मनके विकार एक-जैसे हैं, फर्क कोई नहीं! आजकल गुरुका सम्बन्ध पारिवारिक सम्बन्ध-जैसा ही है। गुरु-शिष्यका सम्बन्ध अंध-बधिरके सम्बन्ध-जैसा है—
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥
(मानस, उत्तर० ९९।३)
अच्छे महापुरुष किसीको शिष्य नहीं बनाते, अगर बनाते हैं तो उसका उद्धार करना पड़ता है; क्योंकि उसको अपने यहाँ रोक लिया, नहीं तो वह कहीं और शिष्य बनता। अत: जो शिष्यका उद्धार कर सके, उसीको शिष्य बनाना चाहिये, अन्यथा नहीं बनाना चाहिये। जैसे बिना बेटेके बाप हो ही नहीं सकता, ऐसे ही उद्धार किये बिना गुरु हो ही नहीं सकता।
‘पाणी पीजै छाणियो, गुरु कीजै जाणियो’—पानी छानकर पीना चाहिये और गुरु जानकर करना चाहिये। भगवान् सबके गुरु हैं—‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’—उनका मन्त्र है—गीता। गीता सुननेसे अर्जुनका मोह नष्ट हो गया। अर्जुन भगवत्कृपासे ही मोहनाश मानते हैं—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (गीता १८।७३)। आप भगवान्को गुरु मान लो तो काम हो जायगा! गुरु तो किसी एक सम्प्रदायका होता है, पर भगवान्में आपको अपनी योग्यताके अनुसार सब कुछ मिल जायगा।
गुरु तत्त्व होता है, मनुष्य नहीं होता। इसलिये कहा गया है कि गुरुमें मनुष्यबुद्धि और मनुष्यमें गुरुबुद्धि करना अपराध है। कल्याण गुरु नहीं करता, प्रत्युत गुरुभक्तिसे कल्याण होता है। आप गुरुको नहीं मानोगे तो क्या वह कल्याण कर देगा? कल्याण शिष्यके अधीन है।
गुरु तो मुझे बहुत मिलते हैं, पर चेला कोई नहीं मिलता! शिष्य दुर्लभ है, गुरु नहीं। जिज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं। भगवत्प्राप्ति चाहनेवाला दुर्लभ है, भगवान् नहीं। जैसे फल पक जाय तो तोता स्वयं उसके पास आता है, ऐसे ही योग्य शिष्यके पास गुरु स्वत: आता है। स्वयंज्योतिजी महाराज कहते थे कि भगवान् भूखेको मिलते हैं।
जो कहते हैं कि चेला बन जाओ तो ज्ञान देंगे, उनके पास ज्ञान नहीं है। जिसके भीतर चेला बनानेकी चाह है, वह तो चेलादास है, वह गुरु कैसे बनेगा? गुरु वही होता है, जिसमें किंचिन्मात्र भी कोई चाह नहीं होती।
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स्वत: एक शान्ति विद्यमान है। उसमें चुप हो जायँ तो स्वत: उसका अनुभव हो जायगा। भजन-कीर्तन आदिसे जो शान्ति मिलती है, वह सांसारिक पदार्थोंकी नहीं है, प्रत्युत संसारका सम्बन्ध छूटनेकी है। सुख वस्तुके मिलनेसे नहीं होता, प्रत्युत भीतरसे उस वस्तुकी इच्छा निकलनेसे होता है। शान्ति स्वत:सिद्ध है, किसीके अधीन नहीं है। वास्तवमें सुख संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे होता है, पर वहम हो गया कि संसारके सम्बन्धसे होता है! यदि सांसारिक वस्तुके मिलनेसे सुख होता है तो फिर वस्तुके रहते-रहते दु:ख क्यों आ जाता है?
त्यागीके चेहरेपर जैसी प्रसन्नता देखी जाती है, वैसी धनीके चेहरेपर नहीं।
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हम यहाँ नित्य रहनेके लिये नहीं आये हैं। यहाँसे जानेका कोई निश्चित समय नहीं है। अचानक जाना पड़ेगा। इस विषयमें निश्चिन्त रहना गलती है। यहाँ जिस कामके लिये आये हैं, वही काम करना है। यहाँ भोग भोगनेके लिये नहीं आये हैं, प्रत्युत भजन करनेके लिये आये हैं।
जब मनुष्यकी दृष्टि भगवान् पर हो जाती है, वह भगवान्के सम्मुख हो जाता है, भजनमें लग जाता है, तब वह साधारण मनुष्य नहीं रहता—‘सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥’
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हम समयके बलपर जी रहे हैं। समय सीमित है। यह बढ़ता नहीं, केवल खर्च होता है। जीनेका समय कितना बाकी है, इसका पता नहीं। इसलिये इसको बड़ी सावधानीसे खर्च करें।
वस्तु, सामग्री तो रहेगी, हम पहले मरेंगे। कम पैसे छोड़कर मरें या ज्यादा छोड़कर मरें, फर्क क्या हुआ? खर्च न करो तो रुपये और रद्दी कागजमें, सोने और पत्थरमें क्या फर्क है? पैसा होना बड़ी बात नहीं है, उसका खर्च बड़ी बात है। पैसा तो यहीं रह जायगा, पर कंजूसी साथ चलेगी।
समय देनेसे रुपये मिलते हैं, पर रुपये देनेसे समय नहीं मिलता। समय देनेसे भगवान् मिल सकते हैं!
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भगवान्की कृपा तो सबपर सामान्यरूपसे है ही, पर जो उनके सम्मुख होता है, उसपर विशेष कृपा होती है।
जिसके मनमें भगवान् हैं, वहीं अयोध्या है, वृन्दावन है। ‘अवध तहाँ जहँ राम निवासू’ (मानस, अयो० ७४।२)—जहाँ राम हैं, वहीं अयोध्या है, शेष सब जंगल है। इसलिये रामायणमें आया है—
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ
चरन बन परबस गईं।
दिन अंत पुर रुख स्रवत थन
हुंकार करि धावत भईं॥
(उत्तर० ६)
कौसल्या आदि माताएँ जंगलसे आयी हुई गायोंके समान हैं, जो रामरूपी बछड़ेसे मिलनेके लिये दौड़ीं। कारण कि रामके न होनेसे अयोध्या जंगल थी!
सन्त-महात्माओंके आनेसे सभा और तरहकी हो जाती है। इसलिये कहा है—‘न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:’ अर्थात् वह सभा सभा नहीं है, यदि उसमें वृद्ध पुरुष न हों। वृद्ध कई हैं, पर ज्ञानवृद्ध सबसे बड़ा है।
भगवान्की कृपा सबपर समान है। जैसे, सूर्यकी किरणें सबपर समान पड़ती हैं, पर कोई आड़ लगा दे अथवा आतशी शीशा लगा दे तो? भक्तोंका अन्त:करण आतशी शीशेकी तरह विलक्षण होता है, जो भगवान्को खींचकर प्रकट कर देते हैं—‘प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े’(कवितावली ७।१२७)।
भगवान् कृपासाध्य और साधनसाध्य दोनों हैं। विचार करें, खेतमें काम करनेसे पैसे खेतसे मिलते हैं या मालिकसे मिलते हैं? पैसे मिलते हैं काम करनेसे, और काम करनेसे मिलते हैं मालिककी आज्ञाका पालन करनेसे। यदि केवल काम करनेसे ही पैसे मिलते तो जंगलमें जाकर काम करनेसे मिल जाते! इसलिये भगवान्ने कहा है—‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ (गीता ११।३३) ‘हे सव्यसाचिन् अर्थात् दोनों हाथोंसे बाण चलानेवाले अर्जुन! तुम निमित्तमात्र बन जाओ।’ भगवान् कामके अनुसार नहीं देते—‘जन चाले इक पाँवड़ो, हरि चाले सौ कोस’। उनके सम्मुख हो जायँ, इतना ही हमारा काम है—
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
(मानस, सुन्दर० ४४।१)
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भागवतमें धन देनेवालोंको सबसे बड़े दाता नहीं कहा है, प्रत्युत उनको पृथ्वीके सबसे बड़े दाता कहा है, जो दूसरोंको भगवान्में लगाते हैं—‘भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जना:’ (१०।३१।९)। धनके द्वारा जो उपकार होता है, उससे भी अधिक उपकार दूसरोंको भगवान्की तरफ लगानेसे होता है। अन्त:करणमें जड़ताका महत्त्व होनेसे ही लौकिक उपकार बड़ा दीखता है। जिसका पैसा ही लक्ष्य है, वह पारमार्थिक बातको नहीं समझ सकता।
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥
(महाभारत, वन० २।४९)
‘जो मनुष्य धर्मके लिये धनकी इच्छा करता हो, उसके लिये (धनकी इच्छा त्यागकर) निरीह बने रहना ही उत्तम है; क्योंकि कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है।’
विचार करें, पैसे संग्रह करनेसे काम आयेंगे या खर्च करनेसे? रुपयोंके संग्रहसे उनका खर्च बढ़िया है और खर्चसे उनका त्याग बढ़िया है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२।१२)।
धनी आदमी सबका शिकार होता है; जैसे गुड़को सब जगह खाया जाता है!
लोभी आदमी धनका सदुपयोग नहीं कर सकता।
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आठों पहर भगवान्में लगे रहो—यह ‘अष्टयाम सेवा’ है। इस तरह सारी उम्र बीत जाय! गोपीभाव प्राप्त करनेके लिये त्यागकी जरूरत है। पति-पुत्रोंके साथ भी गोपियोंका राग नहीं था। कुटुम्बका मोह छूटे बिना गोपीभाव प्राप्त नहीं होता। कुटुम्बियोंके जीने-मरनेका अपनेपर असर नहीं पड़े। कन्या ससुरालमें जाती है तो उसका कुटुम्ब-मोह सर्वथा छूट जाता है। भोग और संग्रहमें आसक्ति होनेसे धार्मिक प्रवृत्ति भी नहीं होती, फिर गोपीभाव तो धार्मिक प्रवृत्तिसे भी बहुत ऊँचा है! उद्धवजी-जैसे ज्ञानी भक्त भी गोपियोंकी चरण-रज चाहते हैं।
मरनेके बाद जैसी वासना होती है, वैसी ही गति होती है। जैसे, यहाँ सत्संगसे उठनेके बाद सब कहाँ जाते हैं? सब एक ही जगह जाते हैं क्या?
दान-पुण्य करनेके लिये रुपये कमानेकी आवश्यकता नहीं है। जैसे, कोई व्यक्ति टैक्स देनेके लिये नहीं कमाता। दान-पुण्य भी टैक्स है। पैसा है तो दान-पुण्यमें लगाओ। पैसा है, पर दान-पुण्य नहीं करते तो दण्ड होगा।
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परमात्मा सबको सहज ही प्राप्त हैं, पर उस तरफ हमारी दृष्टि नहीं है। जैसे हम हाथ देखते हैं तो हमारी दृष्टि हाथपर ही जाती है, प्रकाशपर नहीं, जबकि वास्तवमें प्रकाश पहले दीखता है, हाथ पीछे दीखते हैं। सब वस्तुएँ प्रकाशके अन्तर्गत दीखती हैं। वस्तुओंके आने-जानेका प्रकाशपर फर्क पड़ता ही नहीं। इसी तरह ज्ञान ज्यों-का-त्यों रहता है। जन्मने और मरनेमें फर्क है, खम्भे और मनुष्यमें फर्क है, पर इनके ज्ञानमें क्या फर्क है? हम वस्तुओंको ही महत्त्व देते हैं, इसलिये ज्ञानकी तरफ दृष्टि नहीं जाती।
रुपयोंका संग्रह और संख्या केवल अभिमान बढ़ाती है। खर्च करनेसे ही रुपये अपने और दूसरोंके काम आते हैं, अन्यथा संग्रह पड़ा रहता है और मर जाते हैं! समय और सिक्का—दोनोंका सदुपयोग करना चाहिये। संग्रह करनेवाला सन्त नहीं होता।
जब बड़ा समुद्री जहाज डूबता है, तब छोटी-छोटी नावोंमें माल पार कर देते हैं। ऐसे ही धनका संग्रह छोटी-छोटी नावोंमें दीन-दु:खियोंके यहाँ पहुँचा दो तो वह फिर आगे मिल जायगा, नहीं तो सब-का-सब डूब जायगा!
पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम॥
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विकारोंका नाश होनेपर भगवत्प्राप्ति हो जाती है और भगवत्प्राप्ति होनेपर विकार सर्वथा मिट जाते हैं—ये दोनों बातें गीतामें आती हैं; जैसे—
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(२।६४)
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥
(५।२६)
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
(२।५९)
न तो रागपूर्वक ग्रहण करे और न द्वेषपूर्वक त्याग ही करे, प्रत्युत शास्त्रके आज्ञानुसार ग्रहण और त्याग करे। राग-द्वेषपूर्वक ग्रहण और त्याग करनेसे राग-द्वेष पुष्ट, बलवान् हो जाते हैं।
साधकको राग-द्वेष सुहायें नहीं, पर इनसे घबराये भी नहीं, भयभीत भी न हो। भगवान्को पुकारे और विश्वास रखे कि भगवान्की कृपासे सब कुछ हो सकता है—
हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि
अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब
प्रेरक प्रभु बरजै॥
(विनय० ८९)
भगवान् सब कुछ करनेमें समर्थ हैं—‘कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ:’।
साधन करनेसे विकार उतनी तेजीसे नहीं आता, उतनी देरतक नहीं ठहरता और उतनी बार (जल्दी) नहीं आता—ये तीन बातें होती हैं। कम होनेवाली चीज नष्ट होनेवाली होती है।
अपने बलसे निर्बल होकर भगवान्को पुकारे। अपने बलका भरोसा छोड़कर भगवान्के बलका भरोसा रखे। हमारे बलसे तो नहीं होगा, पर कृपाके बलसे होगा।
सभी विकार सांसारिक सुखकी आसक्तिपर टिके हुए हैं।
वीतराग सन्तोंके संगसे बहुत लाभ होता है। उतना लाभ अपने बलसे नहीं होता।
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धनमें जमीनके समान कोई धन नहीं है। जमीन असली धन, सम्पत्ति है। रुपये ज्यादा होनेसे आप बड़े नहीं होते। कभी भी राज्य बदलनेपर वह मिट सकता है, पर जमीनका मूल्य रहेगा। बलोंमें जनबल अधिक है। जनबल कम होगा तो जमीन, सम्पत्ति भी कुछ नहीं कर सकेंगे। आप मजबूत तब होंगे, जब आपकी संख्या अधिक होगी।
संसारमें हिन्दू-संस्कृतिका साहित्य सबसे श्रेष्ठ है। संस्कृत-साहित्य जितना गहरा है, उतना अन्य कोई भी नहीं है। हमारी वर्णमाला-जितनी श्रेष्ठ वर्णमाला भी किसीकी नहीं है। अड़तालीस अक्षर किसी भाषामें नहीं हैं। हिन्दू-संस्कृतिकी एक-एक चीज विलक्षण है।
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श्रोता—सरकार अनुचित रूपसे टैक्स लेती है। यदि टैक्स न दें तो पाप लगेगा क्या?
स्वामीजी—सरकारको टैक्स न देनेसे पाप नहीं लगता, प्रत्युत (टैक्ससे बचनेके लिये) झूठ बोलनेसे पाप लगता है—‘नहिं असत्य सम पातक पुंजा। गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा॥’ (मानस, अयोध्या० २८।३)। कम-से-कम अन्न और वस्त्र तो शुद्ध कमाईका ही लेना चाहिये।
मौनकी अपेक्षा भी सत्य बोलनेका अधिक माहात्म्य है। मौन रहनेवालेकी अपेक्षा सत्य बोलनेवाला श्रेष्ठ है।
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जीव परमात्माका अंश है, ‘चेतन अमल सहज सुख रासी’ है। इसको दु:ख सुहाता नहीं। परन्तु इसको यह वहम हो गया कि सुख दूसरेसे होता है। यह पराधीनता है। अगर यह स्वयंमें स्थित हो जाय तो यह पराधीनता मिट जाय। अमुक वस्तु चाहिये—यह पराधीनता है। अनुकूलता-प्रतिकूलताकी प्राप्तिमें राजी-नाराज होना पराधीनता है। मुक्ति स्वत:सिद्ध है। बन्धन पराधीनतासे है।
शरीर संसारकी जातिका है। मनुष्यका खास काम है—सेवा करना और प्रभुको याद करना। सुखी-दु:खी नहीं होना है। जड़का संग ही कुसंग है। हमें कुछ चाहिये ही नहीं—इस भावसे बड़ी मस्ती आती है।
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यह संसार भगवान्का विराट् रूप है। भगवान्का एकान्तमें मन नहीं लगा तो वे प्रेमके लिये अनेक रूपोंमें प्रकट हो गये। जैसे गेहूँकी खेतीके आरम्भमें भी गेहूँ होता है और अन्तमें भी गेहूँ ही रहता है, ऐसे ही संसारके लीन होनेपर भी परमात्मा ही रहते हैं—‘शिष्यते शेषसंज्ञ:’ (श्रीमद्भा० १०।३।२५)।
जड़-चेतन, स्थावर-जंगम सब एक ही हैं। शरीरसे केश, नख निकलते हैं, ऐसे ही चेतनसे जड़ पैदा होता है। केश और नखमें भी प्राण हैं, यदि प्राण न होते तो फिर बढ़ते कैसे?
सोनेका विष्णु बना हो अथवा सोनेका कुत्ता बना हो, सोनेकी दृष्टिसे देखें तो दोनोंका एक ही भाव है। इसी तरह तत्त्वसे एक ही परमात्मा अनेक रूपोंमें दीखता है—‘वासुदेव: सर्वम्’ (गीता ७।१९), ‘अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे’।
सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय॥
—इस भावसे सबको नमस्कार करना चाहिये।
संसारी मनुष्य तो जन्म रहा है और मर रहा है। वह न जाने कितनी बार जन्मेगा और मरेगा! मरा तो मुक्त पुरुष है, जो फिर कभी जन्मता-मरता ही नहीं!
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भगवान्ने उद्धारके लिये मनुष्यको विवेकशक्ति, क्रियाशक्ति और माननेकी शक्ति दी है। विवेकशक्ति मनुष्यका गुरु है। अपने-आपको जानना है, दूसरोंकी सेवा करना है और ईश्वरको मानना है। ये तीनों क्रमश: ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग हैं। साथमें योग (समता)-का होना आवश्यक है। जबतक समता नहीं आयेगी, तबतक पूर्णता नहीं होगी। तात्पर्य है कि योगके बिना करना, जानना और मानना पूरा नहीं होगा।
लेनेकी इच्छा पतन करनेवाली है। अत: निष्कामभावसे सेवा करनी है। जैसे माता-पिता, जाति, वर्ण, आश्रम आदिको मानना पड़ता है, ऐसे ही गुरु और ईश्वरको भी मानना पड़ता है। आप नहीं मानोगे, स्वीकार नहीं करोगे तो गुरु क्या करेगा? दत्तात्रेयजीने स्वयं ही चौबीस गुरुओंको स्वीकार किया और उनसे शिक्षा ली।
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भगवान्ने अर्जुनसे कहा कि तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर—‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ (गीता ८।७)। जब युद्ध-जैसी स्थितिमें भी स्मरण हो सकता है, जिसमें बड़ी सावधानीकी जरूरत रहती है, फिर अन्य काम करते हुए स्मरण क्यों नहीं हो सकता? तीन प्रकार हैं—(१) सेवा करते हुए स्मरण करना, (२) स्मरण करते हुए सेवा करना और (३) भगवान्का काम समझकर ही सेवा करना। विवाह आदि सब काम करते हुए क्या आप कन्याको भूल जाते हैं? बिना याद किये उसकी याद रहती है। ऐसे ही यह भाव रखें कि हम भगवान्की ही सेवा करते हैं। परमात्मा अनेक रूपोंमें हैं। गहना बनाते समय सोनेको कैसे भूल सकते हैं? सबमें परमात्मा ही परिपूर्ण हैं—ऐसा देखते हुए सेवा करें तो फिर विस्मृति नहीं होगी। बिना याद किये ‘मैं ब्राह्मण हूँ’—यह याद रहता है। यह अहंताको बदलना है। मैं भगवान्का हूँ और भगवान्का ही काम करता हूँ—ऐसा मानकर सेवा करें।
आरम्भमें ही अपने-आपको भगवान्का समझ लें। मैं संसारका हूँ—ऐसा मानोगे तो संसारका काम दूर रहा, भगवान्का भजन करते हुए भी भगवान्को भूल जाओगे! भगवान् कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५।७)। गोस्वामीजी कहते हैं—‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर० ११७।१)। भगवान् और उनके भक्तोंकी बात नहीं मानोगे तो किसकी मानोगे? इनसे बढ़कर और कौन मिलेगा? ‘हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥’ (मानस, उत्तर० ४७।३)। दोनोंकी बातसे सिद्ध होता है कि हम भगवान्के हैं। हमने अपनेको भगवान्का नहीं माना—यह मूलमें ही भूल हो गयी, तभी हम भगवान्को भूल जाते हैं। जैसे हम रसोई कुत्तेके लिये नहीं बनाते, पर उसे भी रोटी दे देते हैं, ऐसे ही भगवान्का भी कुछ काम कर दिया, माला फेर ली तो कल्याण कैसे होगा?
सत्संग भूल मिटानेके लिये है, नयी बात सिखानेके लिये नहीं।
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जो वस्तु अभी सस्ती है, फिर महँगी होनेवाली है, उसे व्यापारी अधिक संग्रह कर लेता है। ऐसे ही सद्गुण-सदाचार भी महँगे होनेवाले हैं, उनका अभीसे ही संग्रह कर लें। आजकल जो रीत है, वह भोग और संग्रहमें लगानेवाली है। पैसे मिलते हों तो सत्संग छोड़ देंगे कि सत्संग तो फिर मिल जायगा, पर पैसे फिर नहीं मिलेंगे—यह कलियुगी बुद्धि है। कलियुगके प्रभावसे सत्संगकी बातें, कथाएँ आदि कम होती चली जायँगी। हमारे देखते-देखते कम हो गयीं। सत्संग, कथा आदिमें लोगोंकी रुचि कम हो रही है। आगे चलकर ये बातें मिलेंगी नहीं। अभी कलियुगका बड़ा भयंकर समय आ रहा है, सावधान हो जाओ! भजन-ध्यानमें विशेषतासे लगो और दूसरोंको भी लगाओ।
जैसे व्यापार वह बढ़िया होता है, जिसमें पैसे ज्यादा मिलें, ऐसे ही साधन वह बढ़िया होता है, जिसमें मन भगवान्में ज्यादा लगे।
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भगवान्के अमुक नामका जप करनेसे कल्याण होगा—यह बात है ही नहीं। नाम कोई भी जपो, मन भगवान्में तल्लीन होना चाहिये। प्रेमभावमें ताकत है—‘भावग्राही जनार्दन:।’ अलग-अलग सम्प्रदायवाले ही अलग-अलग नाम बताते हैं, पर उससे अधिक लाभ होता हो, अन्यसे लाभ न होता हो—यह बात है ही नहीं। परमात्मतत्त्व अपने भावमें है। शक्ति भावमें, आज्ञापालनमें है, क्रियामें नहीं।
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संयोगजन्य सुखकी इच्छा खास बाधक है। दूसरोंको सुख कैसे हो? दूसरोंका मतलब कैसे सिद्ध हो?—यह बात हमारे हृदयमें बैठ जाय तो ठीक हो जायगा। अपने स्वार्थकी बात छोड़कर दूसरेका स्वार्थ (हित) सिद्ध करें तो अपना स्वार्थ मिट जायगा।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
(मानस, उत्तर० ४१।१)
खुद सुख लेंगे तो नाशवान् सुख मिलेगा और दूसरोंको सुख देंगे तो अविनाशी सुख मिलेगा। दूसरोंके सुखके लिये लौकिक सुखका त्याग करनेसे अलौकिक सुख मिलता है। दानसे तो सहस्रगुना मिलता है, पर त्यागसे अनन्तगुना मिलता है! असत् के त्यागसे सत् की प्राप्ति होती है। गीतामें वर्णित दान वास्तवमें ‘त्याग’ है।
ठण्डीके दिनोंमें दुकानदार सैकड़ों कम्बल बिक्री करता है, पर उसको पुण्य नहीं होता; क्योंकि उसमें उसका स्वार्थ (पैसे कमाना) है।
निर्वाहमात्र करनेमें दोष नहीं है, प्रत्युत संग्रह करनेमें दोष है। संग्रहमें मनुष्य दूसरोंका हक छीनता है।
ब्रह्माजीने देवता, मनुष्य और असुर—तीनोंकी रचना करके उनको ‘द’ अक्षरका उपदेश दिया। देवताओंने ‘द’ का अर्थ ‘दम’ समझा, मनुष्योंने ‘दान’ समझा और असुरोंने ‘दया’ समझा। वास्तवमें मनुष्यको दम, दान और दया—तीनों करने चाहिये।
भोगीके द्वारा दुनियाको दु:ख मिलता है और योगीके द्वारा दुनियाको सुख मिलता है। देनेमें जो सुख है, वह लेनेमें नहीं है। पर देनेके सुखको लोग जानते नहीं।
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धर्म है—अपने कर्तव्यका पालन करना। अपने कर्तव्यका पालन न करनेसे मनुष्य पशुसे भी नीचा हो जाता है। वास्तवमें धर्मसे सर्वथा रहित कोई हो ही नहीं सकता। सब चाहते हैं कि दूसरा मेरी आज्ञाका पालन करे, तो धर्मको आप चाहते ही हो।
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अनादिकालसे यह संस्कार पड़ा है कि संसार है। परन्तु यह नहीं रहेगा, जानेवाला है—इस ज्ञानका आदर नहीं करते। हम यहाँ रहनेवाले (यहाँके निवासी) नहीं हैं। जो आया है, उसको जाना पड़ेगा। इसका संयोग अनित्य है, वियोग नित्य है। संसारके संयोगमें भी वियोग है और वियोगमें भी वियोग है। परमात्माके साथ नित्ययोग है।
यह बना रहे—ऐसी इच्छाका त्याग कर दें। जो छूट जायगा, उसकी इच्छासे क्या लाभ? संसारके वियोगको स्वीकार कर लेनेका नाम ‘योग’ है।
यह पाठशाला (सत्संग) मोह मिटानेके लिये है। यदि मोह कम नहीं हुआ तो क्या सत्संग किया?
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आधुनिक वेदान्तसे बड़ी हानि होती है। वेदान्तकी असली बातें जाननेवाले अनुभवी पुरुष बहुत कम हैं, मिलते नहीं। वेदान्तकी, कुण्डलिनी-जागरण आदिकी बातें साधकको नहीं सुननी चाहिये। वेदान्तकी बातें सीखकर ‘मैं ज्ञानी हो गया’—यह वहम हो जाता है।
आजकल सम्प्रदायोंमें भी पार्टीबाजी हो रही है—इससे बड़ा नुकसान है! जो अपने सम्प्रदायमें आनेके लिये कहते हैं, वहाँ तत्त्व नहीं होता। वहाँ तो टोली बनती है। अगर कोई साधन करना चाहे तो वह सम्प्रदायके झमेलेमें कभी मत पड़े। दूसरेकी निन्दा भी कभी न करे। पक्षी (पक्षपाती) नहीं बने, प्रत्युत मनुष्य बने। एक साधकको मैंने कहा कि अपने पास रखी वेदान्तकी पोथियोंको बाँधकर गंगाजीमें फेंक दो। उनको जलाओ नहीं; क्योंकि मैं तिरस्कार नहीं चाहता। वेदान्तकी असली बात जाननी हो तो गीता पढ़ो। तीर्थोंमें घूमनेकी, वेदान्त-श्रवणकी जरूरत नहीं है।
निरन्तर नाम-जप करते रहो और ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’—ऐसे बारंबार प्रार्थना करते रहो। एकान्तमें भगवान्के आगे रोओ। इससे अन्त:करण बहुत शुद्ध होता है।
मीराबाईका शरीर भी चिन्मय हो गया! यह विशेषता भक्तिमें ही है, ज्ञान और योगमें नहीं है।
जिसमें भगवान्में मन ज्यादा लगे, भगवान्में प्रेम हो जाय, वही साधन सबसे तेज है।
अपनी बात दूसरोंको मत सुनाओ, शेखी मत बघारो, इससे बड़ा नुकसान होता है।
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शास्त्रों और सन्तोंपर विश्वास हो जाय तो उनके कहनेसे भगवान् पर विश्वास हो जायगा और भगवान् पर विश्वास होनेसे भक्ति हो जायगी। परन्तु आजकल लोगोंका विश्वास धनपर हो गया! न तो खुद विचार करते हैं, न दूसरोंकी मानते हैं—यह दशा आज हो रही है! गीतामें आया है—‘अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति’ (४।४०) ‘विवेकहीन और श्रद्धारहित संशयात्मा मनुष्यका पतन हो जाता है।’
जो केवल अपने काम आये, वह धन धन नहीं है। धन वह है, जो दूसरोंके काम आये।
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भगवान् हमारे हैं, पर मिली हुई वस्तु हमारी नहीं है, प्रत्युत भगवान्की है। जो मिला हुआ है, वह सब बिछुड़ जायगा। जो पहले हमारे नहीं थे, पीछे हमारे नहीं रहेंगे, वे अभी हमारे कैसे हो गये? भगवान् सब समय हमारे हैं।
जितने वर्ष बीत गये हैं, उतना शरीर बिछुड़ गया। हम निरन्तर मर रहे हैं। परन्तु ‘हम जी रहे हैं’—यह बात पकड़ी हुई होनेसे ही ‘हम मर रहे हैं’—यह बात समझमें नहीं आती। मिला हुआ निरन्तर बिछुड़ रहा है। न जन्म दिया हुआ बच्चा साथ रहेगा, न गोद लिया हुआ—सब बिछुड़नेवाले हैं। घरसे, मकानसे, कुटुम्बसे, शरीरसे—सबसे वियोगका समय नजदीक आ रहा है। सन्निपातमें, नशेमें अथवा पागलपनमें ही मनुष्य बोलता है कि यह मेरा है! बिछुड़नेवालेको अपना मानना पागलपनकी दशा है। जो किसी एकका होता है, वह सबका नहीं हो सकता। जो किसीका नहीं होता, वह सबका होता है। अपना कोई नहीं है तो सभी अपने हैं, और सभी अपने हैं तो कोई अपना नहीं है।
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‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’—ऐसा मानकर निश्चिन्त, निर्भय, नि:शोक और नि:शंक हो जाय। मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं—ऐसे शरण हो जाय। मिला हुआ सब उसीका है और हम भी उसीके हैं। उसीका हो जाना है और उसीका होकर रहना है। सब कुछ मालिकका है, फिर हम चिन्ता क्यों करें?
चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा आनन्द।
जायो सो प्रतिपालसी, रामदास गोबिन्द॥
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किसी भी उपायसे मन भगवान्में लग जाय तो मनुष्य निहाल हो जायगा। मनुष्यशरीर काम करनेके लिये नहीं मिला है, प्रत्युत भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेके लिये मिला है।
अचानक भगवान्की याद आये तो समझो कि भगवान्ने याद किया है! उस समय सब काम छोड़कर भगवान्के स्मरणमें लग जाओ। अपने-आपको भगवान्के अर्पित कर दो। अपना अलग मैंपन रहे ही नहीं।
जिस समय काम, क्रोध आदिकी खराब वृत्तियाँ आ जायँ, उस समय होश नहीं रहता। अत: उस समय विवेक उतना काम नहीं देता, जितना ‘हे नाथ! हे नाथ!!’ पुकारनेसे लाभ होता है।
यह भगवान्की बड़ी विशेष कृपा है जो हमें भगवान्की बातें करनेका अवसर मिला है!
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हम परमात्माके अंश हैं, संसारके नहीं। इसलिये संसारकी वस्तु (शरीर) संसारकी सेवामें लगा देनी चाहिये। संसारके साथ अपनी अभिन्नता और परमात्माके साथ भिन्नता मानी हुई है, वास्तविक नहीं है। मानी हुई चीज न माननेसे मिट जाती है। नाशवान् चीज संसारकी है, उसे संसारकी सेवामें लगा दो और अपने-आपको भगवान्में लगा दो कि मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं।
जो वस्तु अपनी नहीं है और आपके पास आयी है, उसे संसारमें लगा दो—यह ईमानदारी है। सेवाका, दानका फल है—बेईमानीसे बचना। दान देना बड़ी बात नहीं है, यह तो टैक्स है। बड़ी बात है—भगवान्में लगना। जब कोई चीज अपनी नहीं है तो फिर उसकी चाह करना बेईमानी ही है।
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
(मानस, किष्कि० ११।२)
यह शरीर पंचोंकी धर्मशाला है, इसपर अपना हक मत जमाओ।
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हम यहाँ आये हैं, रहनेवाले नहीं हैं। यहाँ रहनेवाले मान लेते हैं, इसीसे अनर्थ होता है। हम आये हुए हैं और जानेवाले हैं—यह एक बात आप कृपा करके मान लें। जैसे यहाँ सत्संगमें आप आये हैं और चले जायँगे, ठीक इसी तरहसे घरमें रहते हुए मान लें कि हम आये हैं और चले जायँगे। कोई भी आदमी यहाँ रहनेवाला है क्या? हमें मनुष्यशरीरमें आकर दो काम करने हैं—सेवा करना और भगवान्को याद रखना।
शास्त्रमर्यादा, लोकमर्यादाको रखते हुए सेवा करो। भगवान्की याद न आये तो कम-से-कम, कम-से-कम भगवान्के नामका जप करो। कोई भी नाम लो, मेरा किसीका आग्रह नहीं है। प्रार्थना करते रहो कि हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं। मनुष्यशरीर सेवा करनेके लिये मिला है, भोग भोगने और संग्रह करनेके लिये नहीं।
जन्मनेके बाद मरनेके सिवाय कोई अनिवार्य कार्य नहीं है। मरनेसे भय लगता है जीनेकी इच्छासे।
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आश्रय भगवान्का ही लेना चाहिये। नाशवान्का आश्रय लेनेसे धोखा ही होगा। वहम पड़ा है कि हम बड़े हो रहे हैं, जी रहे हैं, पर वास्तवमें हम छोटे हो रहे हैं, मर रहे हैं। प्रत्येक क्षण मौतके नजदीक जा रहे हैं। अत: वह असली कार्य कर लेना चाहिये, जो इस मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है। मनुष्यशरीरमें दो विशेष कार्य हो सकते हैं—भगवान्को याद करना और दूसरोंकी सेवा करना। ये काम पशु-पक्षी नहीं कर सकते।
अगर ब्रह्मलोकतक जाकर वापिस आ गये तो मिला क्या? ‘आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन’ (गीता ८।१६)। गया समय फिर हाथ आयेगा नहीं। आप भजन करो या न करो, समय तो जा रहा है। अत: हर समय सावधान रहो कि भगवान्के भजनके बिना कोई समय निरर्थक न जाय—‘दिलमें जाग्रत रहियै बंदा’। बाहर जानेवाले श्वासका क्या भरोसा?
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एक भी आदमीको परमात्माकी तरफ लगा दें तो इसके बराबर कोई पुण्य नहीं है, कोई दान नहीं है। किसी तरहसे उसे परमात्माके सम्मुख कर देना बड़ा भारी पुण्य है।
जबतक किसी महापुरुषका शरीर रहता है, तबतक उसका भाव भी कुछ संकुचित रहता है। शरीर छूटनेपर उसका भाव बहुत विस्तृत हो जाता है। गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) निष्कामभावके आचार्य थे। उनके समय सत्संगका जैसा प्रचार था, उससे आज बहुत अधिक है।
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ज्ञानसे भक्तिकी महिमा ज्यादा है। ज्ञानमें अखण्डरस और भक्तिमें अनन्तरस है। ज्ञान अज्ञानको मिटाता है। अज्ञानके मिटनेसे दु:ख मिट जाता है। जैसे, पण्डालमें अँधेरेमें चलेंगे तो धीरेसे चलेंगे, पर प्रकाश होनेपर भाग सकते हैं। परन्तु भक्तिमें आकर्षण है, प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम है। भक्तिमें रस बढ़ता ही रहता है; जैसे—‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’। प्रेममें एक विलक्षण आनन्द आता है। उसमें नित्यविरह और नित्यमिलन है। ज्ञानमें आत्मस्वरूपका बोध होता है और प्रेममें भगवान्की तरफ खिंचाव होता है। ज्ञानमें जन्म-मरणसे छुटकारा (मोक्ष) हो जाता है। प्रेममें नया रस मिलता है। ज्ञानमें प्रकृति और पुरुष दो हैं, पर भक्तिमें दो नहीं हैं, एक भगवान् ही हैं। ज्ञानमें प्रकृति त्याज्य होती है, पर प्रेममें त्याज्य वस्तु कोई है ही नहीं—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९।१९)। ज्ञानमें अखण्डरस है, पर प्रेममें आनन्दके हिलौरे आते हैं। भगवान् प्रेमीके वशमें होते हैं, ज्ञानीके नहीं।
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सभी भाई-बहन भगवान्को हृदयसे प्रणाम करें। प्रणाम करनेवालेका पुनर्जन्म नहीं होता।
एकोऽपि कृष्णस्य कृत: प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्य:।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म
कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय॥
(महाभारत, शान्ति० ४७।९२)
‘भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेधयज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है। इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है—दस अश्वमेध करनेवाले मनुष्यका तो पुन: इस संसारमें जन्म होता है, पर श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।’
ज्ञानमें तो सब कर्मोंके त्यागकी बात आती है, पर भगवान् शरणागत भक्तके लिये कहते हैं—
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
(गीता १८।५६)
‘मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।’
भगवान्के चरणोंका आश्रय बहुत सुगमतासे कल्याण कर देता है। सब कर्म करते हुए भी कल्याण कैसे होता है? इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं—‘मत्प्रसादात्’ ‘मेरी कृपासे’। सब आश्रय नष्ट होनेवाले हैं, एक भगवान्का आश्रय ही रहनेवाला है। आप सच्चे हृदयसे कहें कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’। एक बार ‘मैं आपका हूँ’ कह दिया तो अब दुबारा क्या कहना बाकी रहा? एक बार अपनेको दे दिया तो बस, दे ही दिया—‘बार बार चढ़त न त्रिया कौ सौ तेल है’ (सुन्दर० २।१३)। शरणागत भक्तका अच्युत गोत्र हो जाता है! इस शरणागतिको भगवान्ने गीतामें ‘सर्वगुह्यतम वचन’ कहा है (१८।६४)।
भगवान्ने तो सभीको अपने शरण ले रखा है। भाई हो या बहन, ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’—ऐसे भगवान्के शरण हो जाय तो वह साक्षात् मीराबाई हो गया! मीराबाई भाव है, शरीर नहीं। शरीर तो बदलनेवाला है। ‘मैं भगवान्का हूँ, और किसीका नहीं हूँ’—इसका तात्पर्य है कि सेवा करनेके लिये तो मैं सबका हूँ, पर लेनेके लिये किसीका नहीं हूँ। किसीसे कोई आशा नहीं रखनी है।
भगवान्ने अपनेको सुलभ बताया है—‘तस्याहं सुलभ:’ (गीता ८।१४), पर महात्माको दुर्लभ बताया है—‘स महात्मा सुदुर्लभ:’ (गीता७।१९)। भगवान्के दिये शरीरसे जीव नरकोंमें भी जा सकता है, पर महात्माकी दी चीजसे नरकोंमें नहीं जा सकता!
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संसार परिवर्तनशील है—यह सबके प्रत्यक्ष अनुभवकी बात (प्रत्यक्ष ज्ञान) है। बदलनेवालेको ही संसार कहते हैं। बदलते हुए संसार निरन्तर अभावमें, मौतमें जा रहा है। परिवर्तनशीलको जानने-वाला अपरिवर्तनशील होता है—यह खास बात है। मैं बचपनमें जो था, वही मैं आज हूँ—यह सबका अनुभव है। शरीर और संसार बदलते हैं। स्वयं (आत्मा) और परमात्मा कभी बदलते नहीं। शरीर और संसार एक हैं। स्वयं और परमात्मा एक हैं।
नहीं बदलनेवाला बदलनेवालेसे सुखकी चाहना करे—यह कितनी भूल है! जो बदलनेवालेसे सुख लेता है, बदलनेवालेकी इच्छा करता है, वह भी बदलता अर्थात् जन्म-मरणमें जाता रहता है। मनुष्यने बदलनेवालेका संग कर लिया, उसको सत्ता देकर फिर महत्ता दे दी और फँस गया!
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शास्त्रोंने मनुष्यशरीरकी बड़ी महिमा गायी है। वह महिमा हाड़-मांसवाले शरीरकी नहीं है, प्रत्युत विवेककी है। शरीरकी तो निन्दा की गयी है—‘पंच रचित अति अधम सरीरा’ (मानस, किष्किंधा० ११।२)। वास्तवमें मनुष्यता है विवेकशक्ति अर्थात् नित्य-अनित्य, कर्तव्य-अकर्तव्य, सार-असार, ग्राह्य-त्याज्यका ज्ञान। यह विवेक एक प्रकाशकी तरह है, जिससे व्यावहारिक और पारमार्थिक सब कार्य ठीक होते हैं। मनुष्यशरीरकी महिमा वास्तवमें इसी विवेकशक्तिके सदुपयोगकी महिमा है। विवेकशक्तिके दुरुपयोगसे महान् पतन हो सकता है। बुद्धि विवेकशक्तिको प्रकट करनेका यन्त्र है। ऐसा यन्त्र अन्य योनियोंमें नहीं है। मनुष्यशरीरमें बुद्धिका स्थान ज्यादा है, जिसमें ज्ञानके तन्तु अधिक हैं। ग्रीवासे दस अंगुल नीचे और नाभिसे दस अंगुल ऊँचा हृदय है। इस हृदयमें बुद्धि रहती है और उसका काम करनेका स्थान मस्तिष्क है। विवेक बुद्धिमें आता है, बुद्धिका गुण नहीं है। बुद्धि तो जड़ प्रकृतिका कार्य है। बुद्धि आतशी शीशेकी तरह है। आतशी शीशा सूर्यकी किरणोंको केन्द्रित कर देता है। आतशी शीशा दाहिका शक्तिको और दर्पण प्रकाशिका शक्तिको केन्द्रित करता है। भोग और संग्रहकी आसक्ति ज्यादा होनेसे पारमार्थिक बातें सुननेपर भी मनुष्य परमात्माकी तरफ नहीं चल सकता।
चोरी, विश्वासघात आदि करना विवेकशक्तिका दुरुपयोग है। ‘नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी’ (मानस, उत्तर० १२१।५)—यह शरीर स्वर्ग, नरक और मोक्षकी सीढ़ी है, और मोक्षका द्वार है—‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’ (मानस, उत्तर० ४३।४)। इस शरीरमें आकर भगवत्प्रदत्त विवेकका दुरुपयोग करके हम नरकोंमें भी जा सकते हैं और विवेकका सदुपयोग करके मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। परमाणु बम आदि बनाना विवेकशक्तिका महान् दुरुपयोग है। सूर्यके प्रकाशमें मनुष्य वेदोंका स्वाध्याय भी कर सकता है और शिकार भी।
जैसे भोगोंमें आसक्त धनीलोग प्राय: सत्संगमें नहीं आते, ऐसे ही देवता भी भोगोंमें आसक्त रहनेके कारण भगवान्में नहीं लगते। पर वे आयें तो मना नहीं है। अम्बरीष, जनक आदि राजा भी भगवान्के भक्त हुए हैं। पापी मनुष्य भी भगवान्के भक्त हुए हैं। कारण कि मूलमें सभी जीव परमात्माके अंश हैं। अत: परमात्माकी तरफ चलनेके लिये किसीको मना नहीं है।
मनुष्यशरीरमें तोलाभर भी शुद्ध चीज नहीं है। यह मल-मूत्र बनानेकी फैक्ट्री है। अत: मनुष्यशरीरकी महिमा नहीं है, प्रत्युत इसके सदुपयोगकी महिमा है।
जो परमात्माको प्राप्त हो गये हैं, वे जागते हैं। जो साधनमें लगे हैं, वे सोते हैं। जो भगवान्में नहीं लगे हैं, वे मुर्दा हैं। जो सोता है, वह तो जाग सकता है, पर मुर्दा कैसे जागेगा?
रुपये कमाना हाथकी बात नहीं है, पर उसमें रात-दिन लगे रहते हैं। भजन करना हाथकी बात है, पर उसे करते नहीं! उम्रभर काम करके लाख रुपये कमा लेना भी हाथकी बात नहीं है; परन्तु लाख-तीन लाख भगवन्नाम रोजाना ले सकते हैं। जो चीज साथ चलनेवाली है, उसका संग्रह तो करते नहीं, पर जो चीज यहीं रह जायगी, उसीका संग्रह कर लिया!
न्यायपूर्वक कमाये गये धनसे ही परोपकार होता है। अन्यायपूर्वक कमाये गये धनसे बनाया कुआँ आदि किसीके काम नहीं आता; जैसे बीकानेरमें ‘मोदीका कुआँ’।
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संयोग-वियोगमें संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। जो अनित्य है, उसकी इच्छा करेंगे तो रोना पड़ेगा। पहले भी वियोग था, पीछे भी वियोग होगा और अभी जो संयोग है, वह भी निरन्तर वियोगमें जा रहा है। यदि संयोग-अवस्थामें ही वियोगका अनुभव कर लें तो निहाल हो जायँ!
सुख देनेसे अविनाशी सुख मिलता है और सुख लेनेसे नाशवान् सुख मिलता है। सुख दे दो तो वह अक्षय हो जायगा और सुख ले लो तो वह नष्ट हो जायगा।
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हम जी रहे हैं—यह धारणा सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि हम मर रहे हैं। जितने वर्ष चले गये, उतने हम मर गये। हम निरन्तर मर रहे हैं, जीवनसे दूर जा रहे हैं, पर वहम होता है कि हम जी रहे हैं।
यह संसार ‘मृत्युसंसारसागर’ है। इसमें हर चीज मर रही है। इसलिये सावधान हो जाओ। सिवाय भगवान्के कोई आपकी रक्षा करनेवाला नहीं है। जो सम्पूर्ण दोषोंका खजाना है, वह कलियुग बड़ी तेजीसे आ रहा है। अत: निरन्तर नामजप करते रहें। यह नामरूपी धन आप निरन्तर संग्रह करते रहें। जीवनका कोई भरोसा नहीं है। मरना निश्चित है। सब चीजें महँगी हो रही हैं। भगवान्का भजन भी महँगा हो रहा है! मृत्युका कोई समय निश्चित नहीं है, इसलिये हर समय भजन करते रहो—‘सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर’ (गीता ८।७)। हर समय भजन करना बीमा है। बीमा कराकर निश्चिन्त हो जाओ। भगवान् शंकरके लिये कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं है, फिर भी वे माँगते हैं—
बार बार बर मागउँ हरिष देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥
(मानस, उत्तर० १४ क)
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जैसे वियोग नित्य है, ऐसे ही अक्रियता भी नित्य है। प्रत्येक साधनके अन्तमें अक्रिय-अवस्था आती है। भगवान्के चरणोंमें स्थित होकर कुछ भी चिन्तन न करें, निर्विकल्प हो जायँ तो ठेठ भगवान्के चरणोंमें पहुँच गये, कुछ करना शेष नहीं रहा! भगवान्के चरण कहाँ नहीं हैं? सब जगह भगवान्के चरण हैं—‘सर्वत: पाणिपादम्’ (गीता १३।१३)। स्याहीमें कौन-सी लिपि नहीं है? सोनेमें कौन-सा गहना नहीं है? पत्थरमें कौन-सी मूर्ति नहीं है? जहाँ निश्चय करो, वहीं भगवान् प्रकट हो जाते हैं। प्रह्लादजीके लिये वे खम्भेसे प्रकट हो गये! परमात्मा ‘मैं’-पनसे भी नजदीक हैं। उनके शरण हो जायँ। जहाँ शरण हुए, वहीं भगवान् हैं।
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नेत्रों (इन्द्रियों)-की दृष्टि सीमित है, उनसे बुद्धिकी दृष्टि तेज है और उससे भी विवेकदृष्टि तेज है। विवेकदृष्टिसे मनुष्य बहुत दूरतक देख सकता है।
कानोंसे लौकिक और पारमार्थिक सभी विषयोंका ज्ञान हो सकता है। इसलिये ‘श्रवण’ की मुख्यता है। शास्त्रों और सन्तोंसे सुनकर ही हम मानते हैं कि ‘परमात्मा हैं’। परन्तु शास्त्रों और सन्तोंमें श्रद्धा होगी, तभी मानेंगे। परमात्मा माननेका विषय हैं। आजकल जिनसे पतन, बन्धन हो, उनको तो मानते हैं, पर जिनसे कल्याण हो, उनको नहीं मानते, उनसे परहेज करते हैं!
जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—तीनों अवस्थाओंके भाव और अभावका अनुभव सबको होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता—यह आध्यात्मिक विषय है। अपना होनापन निरन्तर मौजूद है। इस आध्यात्मिक विषयको ठीक जान जायँ तो दु:ख, अभाव सब मिट जाते हैं। इस विषयको हम कानोंसे सुनकर जान सकते हैं। जो किसी इन्द्रियका विषय नहीं है, उस आत्माको कानोंसे सुनकर जान सकते हैं। इसलिये सत्संग सुननेकी बड़ी महिमा है। आत्मा जिसका अंश है, वह परमात्मा है।
अब परमात्मज्ञान कहते हैं। कोई ईश्वरको मानता है, कोई नहीं मानता। अगर मूलमें ईश्वर नहीं है तो ईश्वर माननेवाले झूठे हुए, पर उनका नुकसान क्या हुआ? अगर ईश्वर है तो ईश्वरको न माननेवाला रीता रह जायगा! अत: ईश्वरको न माननेवालेकी अपेक्षा माननेवाला लाभमें रहता है। ईश्वरको माननेवालेके हृदयमें हलचल नहीं रहती।
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अपने लिये करनेसे मनुष्य कभी कृतकृत्य नहीं होता। निष्कामभावसे दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे वह कृतकृत्य हो जाता है। अपने-आपको जाननेसे वह ज्ञात-ज्ञातव्य हो जाता है। परमात्माके मिलनेसे भी प्राप्त-प्राप्तव्यता बाकी रहती है; क्योंकि प्रेम बाकी रहा! ज्ञान होनेसे तो अज्ञान निवृत्त होता है, नया कुछ नहीं मिलता, पर प्रेममें नयी चीज मिलती है। वह प्रेम निरन्तर बढ़ता रहता है, उसका कभी अन्त नहीं आता। इस प्रेमके भूखे भगवान् भी हैं और भक्त भी।
ज्ञानमें तो दु:ख, सन्ताप आदि मिट गये, पर मिला क्या? परन्तु भक्तिमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम मिलता है। प्रेममें ‘और मिले, और मिले’—यह भूख निरन्तर बढ़ती ही रहती है। प्रेममें एक रस होता है, जिसकी कभी पूर्ति नहीं होती। जैसे, सत्संग करते-करते तृप्ति नहीं होती। सुननेमें एक रस, आनन्द आता है, जिसकी पूर्ति नहीं होती। अर्जुन कहते हैं कि आपके अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है—‘भूय: कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्’ (गीता १०।१८)। परीक्षित् भी कहते हैं कि सुननेसे तृप्ति नहीं होती, भूख-प्यास भूल गया! तक्षकके काटनेकी बातकी तरफ भी खयाल नहीं है! महाराज पृथु भी सुननेके लिये हजार कान माँगते हैं। इसका नाम प्रेम है। न पेट भरता है, न वस्तु समाप्त होती है। राम-राम करना इतना प्रिय लगता है कि छूटता ही नहीं। प्रेमके विलक्षण रसका कोई पारावार नहीं है। रस, रुचि बढ़ती ही रहती है।
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मनुष्यके पास एक बहुत विलक्षण धन है, जो सबको बराबर मिला हुआ है। यह धन है—मानवजीवनका समय। यह धन भगवान्की अहैतुकी कृपासे मिला है, अपने पुरुषार्थसे नहीं। इस धनसे हम बहुत चीजोंका, विद्याओंका, कलाओंका सम्पादन कर सकते हैं। समयसे सब कुछ खरीदा जा सकता है। समय खर्च करके मनुष्य बुद्धिमान्, बलवान् बन सकता है। देवलोकोंमें, ब्रह्मलोकमें जा सकता है। तत्त्वज्ञान, भक्ति प्राप्त कर सकता है। बात समयके सदुपयोग-दुरुपयोगकी है। नरकोंकी प्राप्तिके लिये भी समय खर्च करना पड़ता है—‘नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी’। बीमारीके सदुपयोगसे भी परमात्माकी प्राप्ति कर सकते हैं। बीमारी भगवान्की दी हुई शुद्ध तपस्या है। उसमें एक आनन्द आता है। ऐसे तपसे बुद्धि भी विकसित होती है।
प्रत्येक परिस्थितिमें हमारी दृष्टि भगवान् पर रहनी चाहिये। विपरीत-से-विपरीत परिस्थितिमें भी भगवान्की कृपा रहती है। जो प्रतिकूल परिस्थितिमें रोते हैं, वे बालक हैं, बेसमझ हैं। माँ बालकको नहलाती है तो वह रोता है। परन्तु बालकके रोनेकी परवाह न करके माँ उसको नहलाकर, नये कपड़े पहनाकर गोदीमें ले लेती है। गोदीमें लेनेपर माँ और बालक—दोनोंको आनन्द होता है। कोई कष्ट आये तो युधिष्ठिरको, द्रौपदीको याद करो। भगवान् रामको, राजा नलको याद करो। उनपर भी कितना कष्ट आया, पर वे अपने धर्मसे विचलित नहीं हुए।
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यह संसार पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा। सब शहर पहले भी जंगल थे, पीछे भी जंगल हो जायँगे। उत्पत्ति-विनाशका प्रवाह बह रहा है। ‘है’ की सत्तासे ही यह ‘नहीं’ भी ‘है’ की तरह दीखता है। है तो परमात्मा, पर दीखता है संसार। जैसे, रज्जु सर्पकी तरह और अभ्रक चाँदीकी तरह दीखता है।
भगवान्को याद करना और सेवा करना—इन दोके बिना मनुष्य नहीं है, पशु है।
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मनुष्यशरीरको अधम भी बताया है और उत्तम भी—‘पंच रचित अति अधम सरीरा’ (मानस, किष्किंधा० ११।२), ‘नर तन सम नहिं कवनिउ देही’ (मानस, उत्तर० १२१।५)। मनुष्यशरीरकी विशेषता विवेकको लेकर है। विवेकके सदुपयोगकी महिमा है। विवेकका सदुपयोग है—अपने जाने हुए असत् का त्याग करना। असत् को जानते हैं, पर उसका त्याग नहीं करते—यह बड़ा भारी अपराध है, गलती है। त्यागका अर्थ है—असत् के आश्रय, भरोसा, विश्वासका त्याग। हमारा लक्ष्य असत् नहीं होना चाहिये। असत् का त्याग होनेपर ज्ञान, भक्ति आदि सबकी सिद्धि स्वत: हो जायगी।
नाशवान्का सदुपयोग करना है। न्याययुक्त धन कमाना है और यथोचित खर्चा करना है। काम वह करना है, जिससे अभी भी हित हो, परिणाममें भी हित हो। अपना भी हित हो, दूसरोंका भी हित हो।
चोर, डाकू, ठग आदि अपना जितना नाश करता है, उतना दूसरेका नहीं कर सकता। कारण कि पहले खुद चोर बने बिना कोई चोरी नहीं कर सकता। खुद हिंसक बने बिना कोई हिंसा नहीं कर सकता। दूसरेका धन तो प्रारब्धके अनुसार जाता है, पर चोरी करनेवाला नया कर्म (पाप) करता है।
दान-पुण्य करना वास्तवमें धनकी रक्षा करना है। तालाबके ऊपर भी जल निकलनेका रास्ता रहता है, जिससे तालाबकी सीमा बनी रहती है, वह समानरूपसे भरा रहता है।
साधु माँगकर रोटी नहीं खाते। वे माँगते नहीं, दूसरा दे या न दे, उसकी मरजी। एक वैज्ञानिक बात है कि माँगनेसे वस्तु नहीं मिलती, प्रत्युत बिना माँगे अपने-आप वस्तु मिलती है। माँगनेसे दूसरेके मनमें देनेकी इच्छा कम अथवा नष्ट हो जाती है। न माँगनेसे देनेकी इच्छा बढ़ती है। वस्तु तो सीमित होती है, पर देनेकी इच्छा असीम होती है। माँगनेकी इच्छा छोड़नेसे अपने-आप दूसरेके हृदयमें देनेकी प्रेरणा होती है। छोटा बच्चा कुछ माँगता नहीं, पर उसकी चिन्ता माँको होती है। बालक बड़ा हो जाता है, तब माँको उतनी चिन्ता नहीं होती। मनुष्य वस्तुओंकी गुलामी करता है। वास्तवमें वस्तुएँ मनुष्यकी गुलामी करती हैं। सदुपयोग करनेसे वस्तु अपने-आप आती है।
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प्रत्येक कार्य विचार और विवेकपूर्वक करना चाहिये। पहले विचार करे, फिर विवेकसे काम करे। विचार न करनेसे मूर्खता आती है। जैसे, लोगोंने रुपयोंको महत्त्व दे रखा है। वास्तवमें रुपयोंसे वस्तु श्रेष्ठ है, वस्तुओंसे स्थावर श्रेष्ठ है, स्थावरसे जंगम श्रेष्ठ है। जंगममें गाय श्रेष्ठ है, गायसे मनुष्य श्रेष्ठ है। मनुष्यमें भी विवेक श्रेष्ठ है और विवेकसे सत्-तत्त्व श्रेष्ठ है। उस सत्-तत्त्वकी तरफ खयाल न करके रुपयोंको श्रेष्ठ माननेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।
मनुष्यकी असली इज्जत, महिमा विवेकसे है। वह विवेकका जितना आदर करेगा, उतना ऊँचा उठ जायगा।
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भजन-ध्यान प्रारब्धसे नहीं होता, यह नया काम है। जो हम करते हैं, वह नया काम है और जो घटना घटती है, वह पुराने कर्मका फल है। प्रारब्ध और पुरुषार्थका विभाग अलग-अलग है। भजन, ध्यान, दान-पुण्य, तप, तीर्थ आदि नये कर्म हैं। धन, पुत्र, आदर-सत्कार, निरादर, निन्दा, प्रशंसा आदि प्रारब्धसे होनेवाले हैं। ‘हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥’ (मानस, अयो० १७१)
कर्म तीन प्रकारके होते हैं—संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। जैसे—अन्नका पुराना संग्रह पड़ा है—यह ‘संचित’ है। नया अन्न पैदा करना ‘क्रियमाण’ है। खानेके लिये निकाल लिया—यह ‘प्रारब्ध’ है। परिस्थिति प्रारब्ध-कर्मसे आती है। उस परिस्थितिका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करना नया कर्म है। रुपये प्रारब्धसे मिलते हैं, पर उनको अच्छे या बुरे काममें लगाना नया कर्म है। निषिद्ध वस्तुओंका व्यापार करना नया पाप-कर्म है, जिसका दण्ड भोगना पड़ेगा; क्योंकि उससे लोगोंका नुकसान होता है, वे व्यसनी बनते हैं। जो पुस्तकों आदिके द्वारा अच्छे भावोंका प्रचार करते हैं, उनको बड़ा भारी पुण्य होता है।
अभी हम अच्छे कर्म करते हैं, फिर भी बीमार हो जाते हैं तो बीमारी आना अच्छे कर्मोंका फल नहीं है। बीमारी पूर्वकृत कर्मोंका फल है, अच्छे कर्मोंका फल तो आगे मिलेगा। बीज पनपकर पीछे फल देता है। कई बीज जल्दी फल देते हैं, कई बहुत देरीसे। इसी तरह कई कर्मोंका फल जल्दी होता है, कई कर्मोंका देरीसे। अत्युग्र पाप-पुण्यका फल यहीं मिल जाता है।
व्यापार आदि कर्म करनेसे एक तो कर्म होता है और एक उसे करनेकी विद्या आती है, स्वभाव बनता है।
शुभ-कर्म करनेमें सन्त-महापुरुष, धर्म, शास्त्र, भगवान् सहायता करते हैं। अशुभ-कर्म करनेमें कुसंग सहायक होता है। अत: संग अच्छा करना चाहिये—‘सतां सङ्गो हि भेषजम्’ (मार्कण्डेयपुराण ३७।२३)।
पाप या पुण्य-कर्म तो फल देकर नष्ट हो जायँगे, पर पाप-पुण्य करनेका स्वभाव जल्दी नष्ट नहीं होगा। स्वभाव ही मनुष्यको ऊँच-नीच योनियोंमें ले जाता है। स्वभाव अच्छा हो तो मनुष्य किसी भी योनिमें जाय, सुख पायेगा।
आजकल बेकारी नहीं बढ़ी है, प्रत्युत बेकार आदमी बढ़े हैं। अपना काम करते नहीं—इसीसे बेकारी बढ़ती है। काम कम न करके खर्चा कम करना चाहिये, अन्यथा देश दरिद्र होगा। छुट्टियाँ अधिक होनेसे देशका पतन होता है। देशका पतन होनेसे प्राणियोंको दु:ख होता है।
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मनुष्य अपने जाने हुए असत् का त्याग कर दे तो वह मुक्त, भक्त आदि सब हो जायगा। कहते हैं कि मन नहीं लगता, विचार करें कि मन आपकी जातिका है क्या? मन प्रकृतिका अंश है—‘मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि’ (गीता १५।७)। आप परमात्माके अंश हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’। प्रकृतिसे बनी चीज (मन) प्रकृतिसे अलग कैसे हो सकती है? मन अपरा प्रकृति है। वह संसारमें ही लगता है; क्योंकि वह परमात्माका अंश नहीं है। आप परमात्माके अंश हैं, इसलिये आप स्वयं ही परमात्मामें लग सकते हैं।
आप मन, बुद्धि, अहम् आदिके भाव और अभाव—दोनोंको जानते हैं, पर अपने या परमात्माके अभावको नहीं जानते। सुषुप्तिमें ये नहीं रहते, पर आप रहते हो। संसारका वियोग ही नित्य है, संयोग नहीं। अत: संसार साथ बना रहे—यह इच्छा छोड़ दो। जाने हुए असत् का त्याग नहीं कर सकते तो फिर क्या त्याग कर सकते हो? जिससे वियोग अवश्यम्भावी है, उसकी सेवा करो, उसको सुख-आराम पहुँचाओ, उसके साथ अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो।
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जबतक अपनेमें कर्तृत्वाभिमान है, अपनेको कुछ करना, जानना और पाना बाकी है, तबतक ‘जैसा भगवान् कराते हैं, वैसा हम करते हैं’—यह बात है ही नहीं! भगवान्ने मनुष्यको कर्तव्य-अकर्तव्यको पहचाननेकी शक्ति दी है। यदि सब काम भगवान् कराते तो शास्त्र, गुरु, शिक्षा, सत्संग आदि सब निरर्थक हो जायगा। मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है, पर फल भोगनेमें स्वतन्त्र नहीं है। कर्म करनेकी यह स्वतन्त्रता सीमित है। जैसे, भारतमें हम जैसे स्वतन्त्र हैं, वैसे अन्य देशोंमें नहीं। फल नाशवान् होता है। अत: फलकी इच्छाका त्याग करके कर्म करना चाहिये।
एक कामना होती है, एक आवश्यकता होती है। उदरपूर्त्तिकी कामना ‘आवश्यकता’ है। इसमें अन्न, जल आदि शरीरकी आवश्यकता है, पर स्वाद-शौकीनीकी इच्छा ‘कामना’ है। सभी पाप कामनासे होते हैं। स्वयंको परमात्माकी आवश्यकता है। भोग और संग्रहकी कामना होती है। शरीर नाशवान् है। नाशवान्की आवश्यकता भी वास्तवमें कामनामें ही भरती होती है। आवश्यकता वास्तवमें परमात्माकी ही है, जिसकी पूर्त्ति एक बार और सदाके लिये होती है।
भोग तो रहते हैं, पर मनुष्य मर जाता है। अत: वास्तवमें मनुष्यने भोगोंको नहीं भोगा, प्रत्युत भोगोंने ही उसको भोग लिया—खत्म कर दिया! भोगोंकी इच्छावालोंको भगवान् भोगयोनि देते हैं। मनुष्य कर्म करता है स्वतन्त्रतासे, पर फल भोगता है परतन्त्रतासे।
मनुष्यकी आयु बढ़ भी सकती है और घट भी सकती है। आयु श्वासोंपर निर्भर है। आयु निश्चित है; क्योंकि श्वास भी निश्चित हैं। परन्तु पाप करनेसे श्वास तेजीसे चलते हैं, जिससे श्वास जल्दी खत्म हो जाते हैं।
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सांसारिक वस्तुकी प्राप्तिके लिये कर्म (परिश्रम) कारण हैं, पर परमात्माकी प्राप्तिके लिये कर्म कारण नहीं हैं, प्रत्युत विवेक तथा विश्वास कारण हैं। विवेक और विश्वाससे करणनिरपेक्ष साधन होता है। परमात्माकी प्राप्ति क्रियाकी सिद्धि नहीं है। उसे जान लो या मान लो। ज्ञानमार्गमें जाननेकी और भक्तिमार्गमें माननेकी मुख्यता है। जो मौजूद है, उसीको प्राप्त करना है। नित्यप्राप्तको प्राप्त करनेमें निराश नहीं होना चाहिये। वह है और हमारा है। केवल आपकी उत्कट अभिलाषा चाहिये। घरखर्चा इतना ही है!
जैसे, आपने हरिद्वारको याद किया तो आपका मन ही जल, पत्थर, घण्टाघर, मनुष्य आदि सब कुछ बन गया। इसमें क्या परिश्रम पड़ा? ऐसे ही अकेले भगवान् ही सब कुछ बन गये, कोई परिश्रम नहीं पड़ा!
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जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें किसी तरहकी इच्छा नहीं है, वे भी भगवान्के गुणोंका गान करते हैं। आत्माराम, मुक्त महापुरुष भी भगवत्प्रेम चाहते हैं, भगवत्कथा कहते-सुनते हैं, कीर्तन करते हैं।*
* आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणोहरि:॥
(श्रीमद्भा० १।७।१०)
गोपियोंके लिये आया ‘काम’ शब्द प्रेमका वाचक है—‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत्प्रथाम्’ (गौतमीय तन्त्र)। कामना तो संसारकी ही होती है।
‘संघे शक्ति: कलौ युगे’—सामूहिक रामायण-पाठमें बड़ी शक्ति है। गीता और रामायणके पाठको सुननेमात्रसे भी एक विलक्षण आनन्द मिलता है। उनका श्रवण भी शान्ति देनेवाला होता है। काम करनेका अधिकार सबका समान नहीं है, पर भगवत्कथा आदिमें सबका समान अधिकार है। कथा चारों वर्णोंका मानो भोजन है और इसके बाद जो कीर्तन होता है, वह मानो दक्षिणा है! अत: सत्संगके बाद कीर्तन सुननेसे पहले नहीं उठना चाहिये। जो सत्संगके बीचमें उठ जाते हैं, वे ‘सभा-बिगाड़’ आदमी होते हैं। उनमें शान्ति नहीं होती। पढ़ाईमें भी कोई बीचमेंसे गुजर जाय तो ‘अनध्याय’ हो जाता है। पाठमें आसन, पुस्तक आदि अपनी रखनी चाहिये, दूसरेकी नहीं—‘स्थिरमासनमात्मन:’ (गीता ६।११)।
पैसा दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत काम करनेवाले पुरुष दुर्लभ हैं। काम करनेवाले हों तो पैसा अपने-आप आता है।
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भगवत्प्राप्तिका अनुभव नहीं होता हो तो संसारकी अप्राप्तिका अनुभव करो। संसार बदल रहा है—यह सबका अनुभव है। इस अनुभवका आदर करो, इसको महत्त्व दो कि यह सब बदलनेवाला है, फिर राग-द्वेष क्यों करें? संसारको स्थायी माननेसे कोई लाभ नहीं होता, पर स्थायी न माननेसे लाभ-ही-लाभ है। बदलनेवालेको जाननेसे नहीं बदलनेवाला तत्त्व शेष रह जायगा। बदलनेवालेका ज्ञान न बदलनेवालेको ही हो सकता है। आप जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—तीनोंसे अलग हैं, तभी तीनोंका ज्ञान होता है।
संसार बदल रहा है—इसको याद नहीं करना है, प्रत्युत इसकी जागृति रहनी चाहिये। संसार नाम ही बदलनेका है—‘सम्यग्रीत्या सरतीति संसार:’। हरदम यह जागृति रखें कि संसार बदल रहा है। इसको स्थायी मानना इसको भूलना है। याद रखनेसे भूल होती है, जागृतिमें भूल नहीं होती। जागृति अभ्यास या क्रिया नहीं है, प्रत्युत स्वीकृति है।
का माँगूँ कुछ थिर न रहाई।
देखत नैंन चल्या जग जाई॥
संसारका ज्ञान होनेसे परमात्माका ज्ञान हो जायगा। आँखें संसारकी हैं, इसलिये इनसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं दीखते। क्या कानोंसे दीखता है? आँखोंसे सुनाई पड़ता है? कारण कि सजातीयता होनेसे ही दीखता है।
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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(गीता ४।७-८)
—यह भगवान्का नैमित्तिक अवतार है। सन्त-महात्माओंका नित्य अवतार होता है। सन्त-महात्माओंका अवतार भी वास्तवमें भगवान्का ही है। विनाश करनेका काम तो भगवान्का है, पर भक्तोंका काम शुद्ध भावोंका प्रचार करना है।
कीर्तन, रामायण-पाठ आदिका होना भी भगवान्का अवतार है। कीर्तन, पाठ आदिसे हृदयमें शान्ति मिलती है, आनन्द होता है—यह अवतार है। कीर्तन करते हैं तो प्रसन्नता होती है और मन करता है कि कीर्तन करते ही जायँ—यह भी भगवान्के प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमका अवतार है।
जब-जब ऐसा सत्संगका मौका मिलता है, तब-तब भगवान् प्रकट होते हैं। ऐसे अवसरका लाभ ले लेना चाहिये।
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परमात्मप्राप्ति अपनी लगनसे होती है। लगन क्या है—
लगन लगन सब ही कहें, लगन कहावै सोय।
‘नारायन’ जा लगन में, तन मन दीजे खोय॥
‘नारायन’ हरि लगन में, यह पाँचों न सुहात।
बिषय-भोग, निद्रा, हँसी, जगत-प्रीति, बहु बात॥
परमात्मा अद्वितीय हैं तो उनकी इच्छा भी अद्वितीय होनी चाहिये। परमात्माकी प्राप्तिमें कठिनता नहीं है। संसारका आकर्षण मिटानेमें कठिनता होती है। ‘है’ की प्राप्ति तो अभी भी है, पर ‘नहीं’ को ‘है’ मान लिया—यह बाधा लग रही है।
जिस साधनमें मन लग जाय, वही साधन तेज हो जाता है।
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यह सामूहिक रामायण-पाठका संयोग भगवान्की बड़ी कृपासे मिलता है। इन्द्र आदि देवता भी अपने बलसे ऐसा संयोग प्राप्त नहीं कर सकते! रामचरितमानसकी महिमा अपार है। जैसे समुद्रपर पुल बनाया जाय तो छोटी-सी चींटी भी सुखपूर्वक समुद्रसे पार हो जाती है, ऐसे ही प्राणिमात्रको संसार-समुद्रसे पार करनेके लिये गोस्वामीजीने यह मानस-पुल बनाया है। ऐसी रामचरितमानसके नवाह्नपारायणका अवसर भगवान्की बड़ी कृपासे मिला है। उनकी कृपाके बलसे ही हम पाठ कर रहे हैं। उनकी कृपाके सिवाय कोई बल नहीं है।
भगवत्सम्बन्धी कार्योंमें समय और धन खर्च करनेका मौका किसी विरलेको ही भगवत्कृपासे मिलता है। जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी सन्तोंकी कृपासे ही यह मौका हमें मिला है। यह एक बहुत विलक्षण अनुष्ठान है। जैसे वर्षा सभी वृक्षोंपर समानरूपसे बरसती है, ऐसे ही भगवान्की कृपा सबपर समानरूपसे बरसती है। ऐसे भगवान्की कृपा अभी सभीपर हो रही है! वे हमारी योग्यता-अयोग्यताको नहीं देखते। भगवान् तो अपनी तरफसे ही कृपा करते हैं, दूसरेको देखकर कृपा नहीं करते।
त्यागकी बड़ी महिमा है। अत: खुद आगे बैठनेका आग्रह छोड़कर दूसरोंको आगे बैठायें। हरेक काममें दूसरोंको आदर देनेकी बहुत महिमा है।
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‘है’ कभी ‘नहीं’ नहीं हो सकता और ‘नहीं’ कभी ‘है’ नहीं हो सकता। ‘है’ स्वयं ही अपनेको जानता है। वह सबका ज्ञाता है।
पदार्थोंका सदुपयोग करना है और व्यक्तियोंकी सेवा करनी है। सबकी सेवा भगवान्की सेवा है, संसाररूप भगवान्की सेवा है, विराट्रूप भगवान्की सेवा है। जहाँ रहो, वहाँ ही दूसरोंकी सेवा करो, सुख पहुँचाओ। सेवा करनेसे पुराना कर्जा उतर जाता है। सेवा करनेसे दूसरे निकम्मे बन जायँगे—यह विचार मत करो। अपना काम सेवा करनेका है। सेवा करो और भगवान्को याद करो। समय खाली मत जाने दो। सच्चे हृदयसे सेवा करोगे तो दूसरेके मनमें भी सेवाका भाव जाग्रत् हो जायगा, यदि ऐसा न हो तो समझो कि आपकी सेवामें कुछ कमी (सकामभाव) है।
यह कलियुग नामजपकी ऋतु है। ऋतुमें खेती की जाय तो बढ़िया होती है। अत: नामजप करो।
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भगवान्को याद करनेसे नारदजीपर दक्षका जो शाप था, वह मिट गया और उनकी समाधि लग गयी। कामदेवने बहुत प्रयत्न किया, पर वह नारदजीको विचलित नहीं कर सका—
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू॥
(मानस, बाल० १२६।४)
विकारोंका नाश भगवत्कृपासे होता है। गुणोंको अपना मान लेनेसे अभिमान होता है। नारदजीने कामदेवपर विजयको अपना गुण मान लिया, जिससे उनमें अभिमान पैदा हो गया। शिवजीने यह बात भगवान् विष्णुको न बतानेकी सलाह दी तो नारदजीने उलटा समझ लिया कि शिवजी अकेले ही काम-विजयी रहना चाहते हैं! जिसके भीतर अभिमान होता है, उसपर अच्छी शिक्षाका भी उलटा असर पड़ता है। वास्तवमें अच्छी बात भगवान्की कृपासे होती है, गलती हमारी होती है।
आछी करै सो रामजी, कै सतगुरु कै संत।
भूंडी बणै सो आपकी, ऐसी उर धारंत॥
वास्तवमें नारदजी भगवान्की लीलाके लिये भूमिका तैयार करते हैं।
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पारमार्थिक मार्गमें विवेक और भावकी आवश्यकता है। भाव है—भगवान्में अपनापन। प्रेम अपनेपनसे होता है, क्रियासे नहीं। ज्ञानयोगमें विवेककी आवश्यकता है। भक्तियोग भगवान्की कृपासे सिद्ध होता है।
त्याग उसीका करना है, जो स्वत: हमारा त्याग कर रहा है और प्राप्त उसीको करना है, जो नित्यप्राप्त है। संसारको अपनी तरफसे छुट्टी दे दो, वह रहे तो मौज, जाय तो मौज!
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भगवान् राम परब्रह्म परमात्मा हैं और सीताजी साक्षात् भक्ति अथवा ब्रह्मविद्या हैं। हमें प्रेम प्रदान करनेके लिये ही भगवान् विवाहकी लीला करते हैं। हम आज उनके विवाहके प्रसंगका पाठ करते हैं। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता।
रामचरितमानसमें तुलसीदासजी बार-बार भगवान्की याद दिलाते हैं। शृंगारका वर्णन करते समय गोस्वामीजी सीताजीके लिये ‘जगज्जननी’ नाम देते हैं।
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करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहें। करना तो अपना है, पर होना भगवान्की कृपासे है। अनुकूलता-प्रतिकूलता दोनोंमें भगवान्की समान कृपा है।
हमारा जन्म-मरण मनुष्यजन्मसे शुरू हुआ है और यहीं उसकी समाप्ति होगी। मनुष्यको भगवान्ने स्वतन्त्रता दी है। भगवान्ने उसे अपने समान (नर) बनाया, जिससे वह मेरेसे भी ऊँचा बन जाय! पर वह उलटे नीचे चला गया! सुख लेनेकी इच्छासे अपार दु:खमें फँस गया! सुखकी इच्छाका नाम ही दु:ख है। मनुष्यको सुखभोगके लिये नहीं बनाया गया है—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर० ४४।१)। भगवान्ने मनुष्यको विवेकशक्ति दी है। उस विवेकशक्तिका दुरुपयोग करके वह ऊँच-नीच गतियोंमें चला गया। मनुष्यशरीर मानो भुसावलका स्टेशन है, जहाँसे मनुष्य कहीं भी जा सकता है। वह नरकोंका कीड़ा भी बन सकता है और भगवान्का मुकुटमणि भी। भागवतमें आया है—
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते
मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीर:।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव-
न्नि:श्रेयसाय विषय: खलु सर्वत: स्यात् ॥
(११।९।२९)
‘अनेक जन्मोंके बाद इस परमपुरुषार्थके साधनरूप मनुष्यशरीरको, जो अनित्य होनेपर भी अत्यन्त दुर्लभ है, पाकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु आनेसे पहले ही अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कर ले। विषयभोग तो सभी योनियोंमें प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रहमें इस अमूल्य जीवनको नहीं खोना चाहिये।’
अगर भगवान् स्वतन्त्रता न देते तो मनुष्यका कोई मूल्य नहीं होता, वह पशुकी तरह ही होता। स्वतन्त्रता कल्याणके लिये दी है, दुरुपयोगके लिये नहीं। एक मनुष्यशरीरमें किये हुए पाप चौरासी लाख योनियाँ भोगनेपर भी बाकी रहते हैं। भगवान्ने परमाणु बम आदि बनानेके लिये, तरह-तरहके पाप करनेके लिये बुद्धि नहीं दी थी। अत: सावधान रहना चाहिये। सावधानी ही साधना है।
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अभी रामायणका पाठ कर रहे हैं तो सबका हृदय अयोध्या बन रहा है—‘अवध तहाँ जहँ राम निवासू’ (मानस, अयोध्या० ७४।२)। ऐसा मौका बड़ी कृपासे मिलता है। पाठ करते हुए सदा रामजीके साथ ही रहें, साथ ही चलें। वनवास हो जायगा तो भी रामजीके साथ ही रहें। रामजीके साथ रहकर निषादराजका प्रेम देखें। इसी तरह आप हर समय भगवान्के साथ रहें—‘ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति’ (गीता १८।६१)। सदा आनन्दित, मस्त रहें। यह मौका अपने बलसे, धनसे नहीं मिलता, प्रत्युत कृपासे मिलता है। यह नौ दिनका बड़ा पवित्र अनुष्ठान है। इससे पाठकी पुस्तक, स्थान आदि ही नहीं, त्रिलोकी पवित्र होती है। इसे सुनकर भगवान् भी आनन्दित हो रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी भी आनन्दित हो रहे हैं। भगवान्के भक्त भी नित्य रहते हैं।
यहाँ बहुत बड़ा तीर्थ है; क्योंकि यहाँ रामकथारूप गंगाजीकी धारा बह रही है। जिस कथाको भगवान् शंकर, काकभुशुण्डि आदि कह रहे हैं, वह आज हम कलियुगी जीवोंको सुननेके लिये मिल रही है—यह भगवान्की कोई अलौकिक कृपा है!
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संसारमें जो इन्द्रियोंसे दीखता है, वह नाशवान् है और जो ‘है’-रूपसे अनुभवमें आता है, वह अविनाशी है। अविनाशी तत्त्व एक ही है, जो नाशवान्में व्याप्त है। सब बदलनेवाला है—इसका ठीक अनुभव हो जाय तो तत्त्वज्ञान हो जायगा; क्योंकि विनाशीको अविनाशी ही देख सकता है।
मैं समझ गया, मैं समझा नहीं और मैं कम समझा—बुद्धिकी इन तीनों अवस्थाओंको आप जानते हैं, बुद्धि नहीं जानती। इस प्रकार शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्से अपनेको अलग करके देखें तो तत्त्वज्ञान हो जायगा।
हमें रुपयों आदिके पराधीन नहीं होना है, प्रत्युत स्वाधीन होना है। स्वाधीन होंगे—भजनसे।
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आप गृहस्थाश्रममें भगवान् श्रीरामकी तरह रहें और यह देखें कि उन्होंने माता, पिता, भाई, पत्नी आदिके साथ कैसा बर्ताव किया है। रामजीने कभी किसीका अहित नहीं किया, सबका हित-ही-हित किया। विवाहके समय पति और पत्नीने एक-दूसरेको जो वचन दिये थे, उनको याद रखो और उनका पालन करो। आपसमें प्रेम रखो।
स्त्री-जातिको दु:ख देना बड़ा भारी पाप है, अपराध है। भीष्मजीके हृदयमें स्त्रीके प्रति कितना आदर था कि उन्होंने मरना स्वीकार कर लिया, पर शिखण्डीपर बाण नहीं चलाया। वे कितनी मर्यादा रखते हैं! स्त्रीपर हाथ चलाना, उसका तिरस्कार करना घोर पाप है। स्त्रीको भी चाहिये कि वह पतिका तिरस्कार, अपमान न करे। पतिको अच्छी सलाह देनेका उसको अधिकार है। बहूके सामने उसके माता-पिताकी निन्दा कभी मत करो। कन्याका गर्भपात बड़ी भारी हत्या (महापाप) है। कन्या वंशकी वृद्धि करनेवाली मातृशक्ति है।
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गीतामें आया है—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (२।१६) ‘असत् की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है।’ सब शास्त्रोंका सार इस आधे श्लोकमें आ गया है। सब शास्त्र इसकी व्याख्या हैं।
संसारमें नाशके सिवाय कुछ नहीं है। सृष्टिमात्रका प्रवाह प्रलयकी ओर जा रहा है। मनुष्यशरीर मृत्युकी ओर जा रहा है। इसका कोई भी क्षण स्थिर नहीं है। वहम हो रहा है कि हम जी रहे हैं, वास्तवमें निरन्तर मर रहे हैं। इसे याद नहीं रखना है, इसकी जागृति रखनी है। जैसे ‘हम कलकत्तेमें हैं’—इसे याद नहीं करना पड़ता, प्रत्युत स्वत: इसकी जागृति रहती है।
हमें जो भी सामग्री मिली है, वह सेवाके लिये मिली है, सुख भोगनेके लिये नहीं। भोगोंकी इच्छा करनेवालेको भोगयोनि मिलेगी। ईमानदारीका नाम है ‘त्याग’ और बेईमानीका नाम है ‘संग्रह’। रुपया निर्मल है। यह चलता रहता है और दूसरोंका काम कराता रहता है। उसे रोककर मैला मत बनाओ, उसको अशुद्ध मत करो। पापीका, कंजूसका धन किसीके काम नहीं आता, व्यर्थ ही जाता है।
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जैसे गरमी अथवा सर्दी आती है तो उससे हम अपनी रक्षा करते हैं। ऐसे ही कलियुगका, विरोधका समय जोरसे आ रहा है। अत: घरमें प्रेम रखें। विरोधको घरमें न आने दें।
सत्संग तीर्थराज प्रयाग है। प्रयाग तो देरसे फल देता है, पर सत्संग तत्काल फल देता है। यहाँ पुरुषोंको रामजीका और स्त्रियोंको माता सीताका रूप देखकर अपने नयन सफल करें।
जैसे सर्दी-गर्मीसे अपनी रक्षा करते हैं, ऐसे ही कलहसे अपने घरकी रक्षा करें, लड़ाई-झगड़ेसे अपनी रक्षा करें। आज पति-पत्नीमें लड़ाई होती है, मानो दो हाथोंमें परस्पर लड़ाई हो रही है! पति-पत्नी दोनों मिलकर गृहस्थ हैं। अत: अपने-अपने घरोंमें सावधान हो जाओ। अपने-अपने कुटुम्बको सँभालो। मनुष्यशरीरमें बनी आदत ही अन्य योनियोंमें साथ जाती है। मनुष्यजन्म सेवा करनेके लिये है, लेनेके लिये नहीं। सेवा और भजन—ये दो खास मनुष्यताके लक्षण हैं।
अगर सभी अपनी-अपनी जगह तत्परतासे कार्य करें तो बेकारी मिट जायगी।
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अभी आपके पास सब कुछ है, फिर भी भविष्यके लिये आप और धन चाहते हैं। यदि आपको भविष्यका विचार करना ही है तो फिर अधूरा विचार क्यों करो? मरनेके बादका भी विचार करो। पूरा विचार करो। मरनेके बाद क्या दशा होगी? वहाँ क्या प्रबन्ध होगा? भविष्यके हरेक काममें सन्देह है, पर मरनेमें कोई सन्देह नहीं है। मृत्यु अनिवार्य है। इसलिये बुद्धिमान् व्यक्तिके लिये विचार करनेकी आवश्यकता है कि मरनेके बाद कहाँ जायँगे? जाना तो अनिवार्य है। अन्य काम हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता—इस तरह अन्य कार्योंमें दो पक्ष हैं, पर मरनेमें दो पक्ष नहीं हैं। मरनेके बादका विचार अब नहीं करोगे तो कब करोगे? नहीं करोगे तो हानि किसकी होगी?
शरीर अनित्य है, पर शरीरको धारण करनेवाला नित्य है। शरीरके मरनेपर हमारी सत्ता नहीं मिटेगी, नहीं तो श्राद्ध-तर्पण आदि क्यों करते हैं? मरनेपर हमारे साथ जानेवाली चीज क्या है—यह कभी सोचा है? कौन सहायता करेगा? दो आदमी एक साथ मर जायँ तो भी वे साथ नहीं रहेंगे। व्यक्ति अकेला ही जायगा। मरना कोई चाहता नहीं, पर मरना पड़ता है। मरनेपर हमारे साथ जाता है—स्वभाव, आदत। अपना स्वभाव ऐसा बना लो, जिसमें पराधीनता न हो। हरेक परिस्थितिमें अपना निर्वाह कर सके—ऐसा स्वभाव बना लो। सन्तोंका सब आदर इसलिये करते हैं कि उनका स्वभाव अच्छा है, वे सबका हित चाहते हैं। अच्छे स्वभाववालेको सब चाहते हैं, पर खराब स्वभाववालेको उसके घरवाले भी नहीं चाहते। बिगड़ा या सुधरा स्वभाव ही साथ चलेगा। इसलिये अपना स्वभाव शुद्ध बनाओ। धन एक कौड़ी साथ नहीं जायगा और भजन एक कौड़ी पीछे नहीं रहेगा।
आपका घर यहाँ नहीं है। आपका घर परमात्माका परमधाम है। यहाँ तो धर्मशाला है। आप स्वयं अविनाशी हो, फिर नाशवान्के भरोसे कबतक बैठोगे?
दो कामोंमें ही मनुष्यता है—सेवा करो और भगवान्को याद करो। ये दोनों बातें आपके स्वभावमें आ जायँ। कम-से-कम बाईस हजार नामजप प्रतिदिन करना ही चाहिये।
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एक भगवान्का ही सहारा हो, दूसरा कोई सहारा न हो—‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। संसारमें कई वस्तुओं और व्यक्तियोंका सहारा लेनेपर भी सब काम सिद्ध नहीं होते, पर एक भगवान्का सहारा लेनेसे सब काम सिद्ध हो जाते हैं। रुपयोंसे सब काम सिद्ध नहीं होते, पर भगवान्की भक्तिसे सब काम सिद्ध हो जाते हैं। कारण कि सब कामनाओंकी पूर्ति भगवान् ही कर सकते हैं—
अकाम: सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधी:।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम्॥
(श्रीमद्भा० २।३।१०)
‘जो बुद्धिमान् मनुष्य है, वह चाहे सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित हो, चाहे सम्पूर्ण कामनाओंसे युक्त हो, चाहे मोक्षकी कामनावाला हो, उसे तो केवल तीव्र भक्तियोगके द्वारा परमपुरुष भगवान्का ही भजन करना चाहिये।’
एक परमात्माकी प्राप्ति होनेपर फिर कुछ भी जानना, करना और पाना बाकी नहीं रहता। संसारके सुखका नमूना तो आपने देख ही लिया है, अब बाकी क्या रहा? अब एक भगवान्में लग जाओ। एक बार अपनेको उनके अर्पण कर दिया, अब दुबारा देनेको क्या बाकी रहा?
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कलियुगमें विशेष सावधान रहनेकी जरूरत है—‘कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा’ (मानस, उत्तर० १०४।३)। सर्दीमें अपने शरीरका ध्यान रखते-रखते सर्दी लग जाती है! अत: सावधान रहते हुए आपसमें विशेष प्रेम रखें। थोड़ी-थोड़ी बातसे ईर्ष्या न करें। सास बहुओंका आदर करें। बहुएँ सासका आदर करें। स्त्रीको विचार करना चाहिये कि पति और उनकी माँ (सास)- को राजी न कर सकी तो त्याग क्या किया? कैकेयीने वनवास दे दिया, फिर भी सीताजी और रामजीने उसकी निन्दा, तिरस्कार नहीं किया। उनमें कैकेयीके प्रति कोई दुर्भाव नहीं आया। रामायणका पाठ करते हो तो वैसी ही शिक्षा लो। घरमें सभी परस्पर प्रेम रखें। जहाँ प्रेम है, वहाँ सत्ययुग है। जहाँ कलह है, वहाँ कलियुग है।
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समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥
(गीता १३।२७)
‘जो नष्ट होते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंमें परमेश्वरको नाशरहित और समरूपसे स्थित देखता है, वही वास्तवमें सही देखता है।’
अविनाशी तत्त्व एक ही है। ‘तिष्ठन्तम्’ पदका तात्पर्य है कि जाते हुए संसारमें वही एक रहनेवाला है। नाशवान्, जाते हुए और विषम संसारमें अविनाशी, रहनेवाले और सम परमात्माको देखे। घोर कर्म (युद्ध)-से भी परमात्माकी प्राप्ति होती है और सौम्य कर्मसे भी। तात्पर्य है कि समता रहे। समता ही साधन है और समता ही साध्य है। जिसमें समता आ गयी, वह सिद्ध हो गया। घोर कर्ममें भी वही तत्त्व है और सौम्य कर्ममें भी वही तत्त्व है। कर्म तो रहेगा नहीं, पर तत्त्व वही रहेगा। अनुकूलतामें भी वही तत्त्व है और प्रतिकूलतामें भी वही तत्त्व है।
‘करेंगे’—यह कच्ची बात है और ‘मरेंगे’—यह सच्ची बात है। पर लोग ‘मरेंगे’ को तो भूल गये, ‘करेंगे’ को पकड़ लिया। शरीर तो प्रतिक्षण मुरदा हो रहा है।
जैसे व्यापारी वस्तुको न देखकर रुपया देखता है और कोयले, लकड़ी आदिके व्यापारसे भी रुपया निकाल लेता है, ऐसे ही सबमें एक ही परमात्मतत्त्वको देखें।
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जैसे चौरासी लाख योनियोंमें कभी मनुष्यजन्म मिलता है, ऐसे ही मनुष्यजन्ममें कभी सत्संगका मौका मिलता है। यह सत्संगका मौका बल, बुद्धि, विद्या, धन, चतुराई आदिसे नहीं मिलता, प्रत्युत केवल भगवत्कृपासे मिलता है। जब मौका मिलता है, तब उसका महत्त्व नहीं समझते, पर पीछे रोते हैं!
सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय॥
जैसे कपड़े अलग-अलग होते हैं, पर शरीर वही रहता है। ऐसे ही शरीर बदलते हैं, पर भीतर एक ही तत्त्व है। सबको सुख पहुँचाओ। सबका उपकार करो। सबकी सेवा करो। मन-ही-मन सबको दण्डवत्-प्रणाम करो। घरोंमें परस्पर प्रेमका, आदरका बर्ताव करो। सबको ईश्वरका रूप समझो। किसीको भी दु:ख पहुँचता है तो वह भगवान्को पहुँचता है। वस्तुओंको तो दूसरोंको दो, काम-धंधा खुद करो।
सत्संगमें स्नान करनेसे मन पवित्र होता है, भीतर प्रकाश होता है, मुफ्तमें आनन्द मिलता है।
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जो कुछ करना है, वह ‘न करने’ के लिये है। सब साधनोंके अन्तमें ‘न करना’ है। करना, होना और ‘है’—ये तीन होते हैं। हमें ‘है’ तक पहुँचना है। अपने लिये करेंगे तो ‘है’ तक नहीं पहुँचेंगे। अपने लिये करनेसे उद्धार नहीं होता। अपने लिये न करनेसे ही मनुष्य योगारूढ़ होता है*।
* यदा हि नेन्द्रियार्थेषुनकर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥
(गीता ६।४)
अपने लिये करना आसुरी सम्पत्ति है। आसुरी सम्पत्ति बाँधनेवाली होती है। अपने लिये करनेसे नित्यतत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत जन्म-मरण होता है; क्योंकि ‘करना’ अनित्य है। अत: चाहे संसारके लिये करो, चाहे प्रकृतिको सौंप दो और चाहे भगवान्के लिये करो, पर अपने लिये मत करो। अपने लिये करनेसे साधन नहीं होता, असाधन होता है। परहित करनेसे अपना हित होता है।
संसारसे सुख न लेना ही संसारके विमुख होना है। अपने लिये करनेसे करनेका राग बढ़ता है। दूसरोंके लिये करनेसे करनेका राग मिटता है। केवल दूसरोंके हितके लिये जीना है।
सेवाका तात्पर्य न समझनेसे ही सेवा करनेसे अहम् बढ़ता है। सेवा करना तो मानो कर्जा उतारना है! संसारसे मिली वस्तु संसारके ही अर्पित कर दी, इसमें अहम् कैसा?
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समय बड़ा विकट है! हरेक क्षेत्रमें पाखण्ड, नकलीपना आ गया है। अत: सावधान हो जायँ।
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु॥
(दोहावली २२)
भगवान्का होकर भगवान्का भजन करो और कुसंगका त्याग करो। धन, मान, बड़ाई आदिमें आसक्त पुरुषोंका संग मत करो। पाखण्डियोंसे सदा बचो। बहनोंको विशेष सावधान रहना चाहिये। ठगाईमें मत आओ। जहाँ कनक-कामिनीकी इच्छा है, वहाँ सावधान हो जाओ। वहाँ भगवान्की प्राप्ति नहीं है, नहीं है, नहीं है! कलियुगका ताण्डव नृत्य हो रहा है। अत: भगवान्को पुकारो। तत्परतासे भगवान्में लग जाओ। बार-बार प्रार्थना करते रहो कि ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’। पाँच-पाँच मिनटमें प्रार्थना करते रहो। प्रात: उठनेसे लेकर रात्रि सोते समयतक भगवान्का नाम जपते हुए प्रार्थना करते रहो। कलियुगमें भगवान्ने सभी साधनोंकी शक्तिको नाममें रख दिया है—
नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमित: स्मरणे न काल:।
एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:॥
(शिक्षाष्टक २)
‘भगवान्ने अपने बहुत प्रकारके नामोंका प्रचार किया है। उन नामोंमें भगवान्ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति भी अर्पित (स्थापित) कर दी है। उन नामोंके स्मरणके विषयमें समय-सम्बन्धी कोई नियम भी नहीं है। हे भगवन्! आपकी तो ऐसी कृपा है, पर मेरा ऐसा दुर्भाग्य है कि आपके ऐसे नाममें भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हुआ!’
कोई कष्ट आये तो रोकर, सब तरफसे निराश होकर, एकान्तमें हृदयसे भगवान्को पुकारो और उनकी कृपाके भरोसे निश्चिन्त हो जाओ। भगवान्का नाम जपते हुए प्रार्थना करते रहो कि ‘हे नाथ! मैं आपको भूलूँ नहीं’। भगवान्का स्मरण समस्त कष्टोंसे मुक्त कर देता है—‘हरिस्मृति: सर्वविपद्विमोक्षणम्’ (श्रीमद्भा० ८।१०।५५)।
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गीताकी सार बात है—शरणागति। ग्वाल-बाल, अर्जुन प्राय: हर समय भगवान्के पास रहते थे, पर भगवान्ने उन्हें कभी उपदेश नहीं दिया, गीता नहीं सुनायी। जब आफत आनेपर अर्जुन शरणागत हुए, तब भगवान्ने उपदेश दिया। गीताका खास उपदेश शरणागतिका है।
शरणागतिका साधन सरल है और महान् है। सरल इतना है कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ।’ भगवान्के शरण होनेपर भक्त संसारका रहता ही नहीं। यदि संसारका रहता है तो असली शरणागति हुई ही नहीं। शरण होनेपर सभी योग स्वत: आ जाते हैं। कारण कि भगवान्में सभी योग, मत, सिद्धान्त आदि आ जाते हैं। अत: शरणागतिके अन्तर्गत सब साधन आ जाते हैं, लौकिक-पारलौकिक सब ज्ञान आ जाते हैं।
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(गीता १०।४२)
‘अथवा हे अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है, जबकि मैं अपने किसी एक अंशसे इस सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त करके स्थित हूँ अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्ड मेरे किसी एक अंशमें हैं।’
शरण होनेपर जानना, करना और पाना—तीनों पूर्ण हो जाते हैं। शरण होनेपर बिना पढ़े-लिखे सब बातें भीतर आने लगती हैं। शरणागति मुख्य होनेसे गीता विश्ववन्द्य है। शरण होनेपर शरण्यकी सब ताकत आ जाती है। अत: अपने-आपको बदल दो कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ।’ सत्संगका यह स्थान तीर्थ बन गया है। इस तीर्थस्नानमें हृदयसे मान लो कि ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ।’ वास्तवमें हम भगवान्के ही हैं। अन्यके तो हम बने हैं। बच्चा माँ-माँ करता है तो वह कोई साधन नहीं करता। उसे ‘माँ’ नाम मीठा लगता है। वह माँको अपना मानता है।
अर्जुन कहता है कि मेरा मोह मेरे विचारसे, साधनसे दूर नहीं हुआ है, प्रत्युत आपकी कृपासे दूर हुआ है—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (गीता १८।७३)। हमारेपर भी कृपा हुई है, तभी यह सत्संग हुआ है! भगवान्ने शरणागत होनेके लिये सब ढंग बैठाया है!
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गीताकी महिमा अनन्त है। एक मनुष्यके भी भावोंका अन्त नहीं आता, फिर अनन्त परमात्माके भावोंका अन्त कैसे आ सकता है? वे भाव भी विशेषरूपसे अर्जुनके सामने प्रकट हुए।
भगवान्के भक्त भी नित्य हैं—‘प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानाम्’ (गीता१०।३०), फिर भगवान् नित्य हों—इसमें क्या आश्चर्य है? उनके भावोंका अन्त कैसे आ सकता है? कोई कहता है कि मैंने जल पी लिया, भोजन कर लिया तो क्या संसारमें जल, भोजन नहीं रहा? ऐसे ही जब हम कहते हैं कि मैंने गीताके अर्थको जान लिया, तो इसका तात्पर्य होता है कि हमारी बुद्धि तृप्त हो गयी, हमारी भूख मिट गयी। गीताके अर्थ अनन्त हैं।
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जैसे बच्चा माँके दूधसे पलता है, तो वह माँके आगे ही रोता है, ऐसे ही मैं आपके अन्नसे पलता हूँ, आप अन्नदाता हैं; अत: अपनी बात आपसे नहीं कहूँगा तो किससे कहूँगा? आपको मेरी बात सुननी चाहिये। मैं बार-बार कहता हूँ कि गर्भपात-जैसे भयंकर पाप मत करो! आबादी तो विधर्मी लोगोंकी बढ़ रही है, पर परिवार-नियोजन कर रहे हैं हिन्दुओंका! यह कैसा न्याय है!
पाप बराबरके पुण्यसे नहीं कटता। एक छटाक कीचड़ कपड़ेमें लगा हो तो वह एक छटाक पानीसे नहीं धुलेगा। सेरों पानी लगानेपर भी तन्तुओंमें थोड़ा कीचड़ रह ही जायगा। आज पैरोंको ऊँचा और सिरको नीचा किया जा रहा है! प्रत्येक क्षेत्रमें, वर्णमें कलियुगका प्रवेश हो रहा है। कहा जाता है कि आज ब्राह्मण पहले-जैसे नहीं रहे, तो क्षत्रिय-वैश्य आदि कौन-से पहले-जैसे हैं! पतन हुआ है तो चारों वर्णोंका पतन हुआ है। कहते हैं कि साधु अच्छे नहीं हैं तो अच्छे-अच्छे आदमी साधु हो जाओ तो साधु अच्छे हो जायँगे। हरेक भाई-बहन खुद सुधर जायँ तो समाज सुधर जायगा। एक राजाने सब आदमियोंको कुण्डमें एक-एक लोटा दूध डालनेको कहा। हरेक आदमीने सोचा कि कुण्डमें हजारों लोटे दूधके पड़ेंगे, मैं एक लोटा पानीका डाल दूँ तो क्या पता लगेगा? ऐसा सबने सोचा तो कुण्ड पानीका भर गया! यह दशा आज हो रही है!
गोहत्याबन्दीके लिये जो सत्याग्रह हो रहा है, वह ऊपरी है, हृदयसे नहीं है। यदि हृदयकी सच्ची लगन होती तो गोहत्या बन्द हो गयी होती। सच्चे आदमी बहुत कम हैं। अधिकतर केवल नाम और पैसा कमानेके लिये हैं।
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संसारकी प्राप्तिमें और परमात्माकी प्राप्तिमें बहुत फर्क है। परमात्मप्राप्ति स्वत:सिद्ध है। उनकी प्राप्तिमें क्रिया मुख्य नहीं है, प्रत्युत भाव और विवेक मुख्य हैं। संसारकी प्राप्तिमें लगन भी हो, प्रयत्न भी हो और प्रारब्ध भी हो। आप संसारकी वस्तुओंको चाहते हैं, पर वस्तुएँ आपको नहीं चाहतीं। परन्तु परमात्मा आपको चाहते हैं—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४।११)। भगवान्में दया है, पर धनादि पदार्थोंमें दया नहीं है; क्योंकि वे जड़ हैं।
परमात्मा अनन्य हैं; अत: उनकी इच्छा भी अनन्य होनी चाहिये। दूसरी कोई इच्छा साथमें न रहे—‘दुविधामें दोनों गये, माया मिली न राम।’ परमात्मा एक हैं तो उनकी इच्छा भी एक चाहिये। अनन्यभावसे भगवान् सुलभ हो जाते हैं।*
* अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८।१४)
संसार उत्पन्न-नष्ट होनेवाला है, पर परमात्मा मौजूद हैं। वे हरेक देश, काल, वस्तु आदिमें ज्यों-के-त्यों रहते हैं। केवल उनकी प्राप्तिकी लगन होनी चाहिये। केवल परमात्माकी तरफ दृष्टि करनी है, पर और तरफ दृष्टि नहीं रहनी चाहिये। एकको चाहनेसे सब मिल जाता है, पर सब चाहनेसे कुछ नहीं मिलेगा। भगवान्में हमसे मिलनेकी बहुत इच्छा है, पर हमारी भी इच्छा हो जाय तो चट काम हो जाय!
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श्रोता—भागवतमें आया है कि भक्तपर कोई ऋण नहीं रहता, फिर कर्मयोगी और ज्ञानयोगीपर ऋण रहता होगा?*
* देवर्षिभूताप्तनृणां पितॄणां
न किङ्करो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मनाय:शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम्॥
(श्रीमद्भा०११।५।४१)
‘राजन्! जो सारे कार्योंको छोड़कर सम्पूर्णरूपसे शरणागतवत्सल भगवान्की शरणमें आ जाता है, वह देव, ऋषि, प्राणी, कुटुम्बीजन और पितृगण—इनमेंसे किसीका भी ऋणी और सेवक नहीं रहता।’
स्वामीजी—भक्तिसे, तत्त्वज्ञान होनेसे और कर्मयोगसे—तीनोंसे मनुष्यपर कोई ऋण नहीं रहता। तीनों ऋणमुक्त हो जाते हैं।
श्रोता—आपके नाममें ‘स्वामी’ और ‘दास’—दोनों परस्पर-विरुद्ध शब्द क्यों?
स्वामीजी—मेरे नाममें ‘स्वामी’ का अर्थ मैं मालिक नहीं मानता। ‘स्वामी’ तो एक जाति है। ‘दास’ इसलिये है कि मुझे दास्यभाव अच्छा लगता है। रामायणमें शंकरजीके लिये भी आया है—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (बाल० १५।२)।
जो फलजनक होता है, वह ‘कर्म’ होता है और जो फलजनक नहीं होता, वह ‘क्रिया’ होती है। कर्तृत्वाभिमान और फलेच्छा—ये दो बाँधनेवाले हैं। यदि ये दोनों न हों तो कर्म बाँधते नहीं—
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८।१७)
‘जिसका अहंकृतभाव (‘मैं कर्ता हूँ’—ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह (युद्धमें) इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है।’
कर्म तीन प्रकारके होते हैं—क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध। क्रियमाणसे संचित होते हैं, संचितसे प्रारब्ध बनता है और प्रारब्धसे जन्म, आयु और भोग—ये तीन होते हैं—‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:’ (योगदर्शन २।१३)।
मनुष्ययोनि भोगोंको भोगनेवालेके लिये भोगयोनि अथवा कर्मयोनि है। परन्तु अपना कल्याण चाहनेवालोंके लिये यह साधनयोनि है।
श्रोता—क्या मनुष्यकी आयु बढ़-घट भी सकती है?
स्वामीजी—मनुष्यकी आयु श्वासोंपर निर्भर है। श्वासोंकी संख्या निश्चित है, पर श्वास तेजीसे अथवा मन्दगतिसे चलनेपर आयु घटती-बढ़ती भी है।
मनुष्यशरीर जन्म-मरणके चक्रसे छूटनेके लिये एक द्वार है। मनुष्यशरीरमें क्रियमाण कर्म बनते हैं, क्रियमाणसे संचित बनता है, संचितसे प्रारब्ध बनता है और प्रारब्धसे मनुष्यशरीर मिलता है—यह चक्र है। इस चक्रसे छुटकारा मनुष्यजन्ममें ही हो सकता है—‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’ (मानस, उत्तर० ४३।४)। सब-के-सब कर्म साधन हैं। प्रत्येक परिस्थिति साधन-सामग्री है।
जन्म-मरणका आरम्भ भी मनुष्यशरीरसे हुआ है और अन्त भी मनुष्यशरीरमें ही होगा। शास्त्रमें जन्म-मरणका मूल कारण अज्ञान माना गया है—‘अज्ञानमेवास्य हि मूलकारणम्’ (अध्यात्म०, उत्तर० ५।९)। ज्ञानके अभावका नाम ‘अज्ञान’ नहीं है। ‘अज्ञान’ नाम अधूरी जानकारीका है। अधूरा ज्ञान बड़ा खतरनाक होता है। आजकल अधूरी जानकारीसे ही अपनेको ज्ञानी कहनेकी रिवाज हो गयी है—‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥’ (मानस, लंका० ७८।१)।
मनुष्यशरीर मिल गया तो मानो मुक्तिका अधिकार मिल गया। सभी योनियाँ मनुष्यशरीरसे किये कर्मोंसे ही मिलती हैं। मनुष्यशरीर सबसे दुर्लभ है। मनुष्यशरीरकी महिमा उसके सदुपयोगकी है। जिस वस्तुका दुरुपयोग करोगे, वह वस्तु पुन: नहीं मिलेगी—यह नियम है। यदि मनुष्यशरीरका दुरुपयोग करोगे तो यह दुबारा नहीं मिलेगा। आपको जो स्वतन्त्रता मिली है, वह कल्याण करनेके लिये मिली है। यदि मनुष्य साधनमें लग जाय तो साधनमें कमी रहनेसे पुन: मनुष्यजन्म मिलता है। उसे गीताने ‘योगभ्रष्ट’ कहा है (६।४०—४५)।
‘प्रारब्ध’ फल भुगताता है और ‘स्वभाव’ नये कर्म करवाता है।
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भगवान् हैं, वे मिलते हैं और वे मेरेको मिलेंगे—ऐसा विश्वास हो जाय तो जल्दी कल्याण हो जाय।
सब कुछ भगवान् ही हैं—इसकी अपेक्षा सब भगवान्के हैं, सबके मालिक भगवान् हैं—यह मानना सुगम है। मालिक होते हुए भी वह बर्फमें जलकी तरह सबमें परिपूर्ण है। केवल भगवान्-ही-भगवान् हैं—यह उनकी कृपासे ही जान सकते हैं। जब वे जनायेंगे, तभी जानेंगे—‘सोइ जानइ जेहि देहु जनाई’(मानस, अयो० १२७।२)। अपनी बुद्धिमानीसे, चतुराईसे उनको नहीं जान सकते। जब अपनेमें कोई भी कामना न हो, एक भगवान्के सिवाय कोई चाह न हो, तब वे जनाते हैं। जबतक दूसरी वस्तुओंकी इच्छा है, तबतक कमजोरी है। चाह होनेसे ही चिन्ता होती है। कोई चाह न हो तो चिन्ता आ नहीं सकती। जीनेकी भी इच्छा न हो। इच्छा होनेसे मनुष्य संसारका गुलाम होता है। जो संसारका गुलाम है, वह भगवान्का गुलाम कैसे होगा?
संसारकी सेवा तो करें, पर उसको अपना न मानें। संसारसे केवल सेवाका सम्बन्ध रखें। संसार खुद तो टिकेगा नहीं, पर आपको परमात्मप्राप्तिसे वंचित कर देगा। मिलेगा कुछ नहीं। आपके बिना भोजन (संसार) बिगड़ जायगा, पर भोजनके बिना आप नहीं बिगड़ते। अत: संसारकी गुलामी मत करो, अपनेको उसके अधीन मत मानो।
जो सबसे दुर्लभ वस्तु है, वह सबके लिये सुलभ है। परमात्मा सबके लिये सुलभ हैं; क्योंकि वे सब जगह परिपूर्ण हैं। जैसे बूँदीमें जो मिठास है, वह चीनीकी है, ऐसे ही संसारमें जो सत्ता प्रतीत होती है, वह परमात्माकी ही है। यह परमात्माकी ही झलक है।
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भक्ति चाहते हैं तो भगवान्में अपनापन करें। किसी क्रियासे भक्ति प्राप्त नहीं होती। शास्त्रोंमें भी क्रियाकी मुख्यता पायी जाती है। परन्तु सम्बन्ध जोड़नेके लिये अभ्यास नहीं करना पड़ता। सम्बन्ध तत्काल होता है और जबतक छोड़ना न चाहें, छूटता नहीं। भक्तिमें अपनापन है। अपनेपनसे प्रियता होती है—‘पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन’। जबतक सम्बन्ध (सगाई) नहीं होता, तभीतक लड़की कइयोंकी बातें सुनती है।
भक्ति करना चाहें तो भगवान्से सम्बन्ध जोड़ लें कि भगवान् ही अपने हैं। हम भगवान्के अंश हैं। शरीर प्रकृतिका अंश है। धन, सम्पत्ति, मकान आदिने आपको अपना नहीं माना है, प्रत्युत आपने ही उन्हें अपना माना है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७।५)। भगवान्का अंश होते हुए भी आपने भगवान्से विमुख होकर जगत्को धारण कर लिया अर्थात् अपना मान लिया। यह सम्बन्ध आपने किया है, अब इसको दूसरा नहीं छुड़ा सकता। आपको ही छोड़ना पड़ेगा।
भक्तिकी खास बात है कि भगवान्को अपना मान लें। हम कैसे ही हों, भगवान्के ही हैं। सपूत हों या कपूत, पूत तो हैं ही! अपनापन होनेसे अपने-आप भक्ति आ जायगी।
दूर वही होता है, जो पहलेसे ही दूर है। शरीर दूर हो जायगा तो अभी भी शरीर आपसे दूर है। मन-बुद्धि भी दूर हैं, तभी उनको आप ‘मेरा’ कहते हैं। ये सब आपसे अलग हैं, पर आप भूलसे शरीरको ‘मैं’ मान लेते हैं। शृंगार करते हैं तो कहते हैं कि मैं सुन्दर हो गया! वास्तवमें सुन्दर आप नहीं हुए, शरीर (हाड़-मांस) सुन्दर हुआ है। शरीर अभी भी मुर्दा है, तभी यह मुर्दा होता है।
सम्बन्ध तत्काल सिद्ध होता है। इसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। जैसे बिजलीसे सम्बन्ध होते ही करेण्ट आ जाता है, ऐसे ही भगवान्से सम्बन्ध जोड़ते ही लाभ होता है। मैं भगवान्का हूँ—यह याद आना ही स्मृतिका प्राप्त होना है—‘स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३)। ‘मैं भगवान्का हूँ’—ऐसा माननेसे अपने-आप सुधार हो जायगा; क्योंकि मैं भगवान्का हूँ तो फिर ऐसा विपरीत काम कैसे कर सकता हूँ!
भगवान् कैसे हैं—यह भगवान् भी नहीं जानते! यदि वे जान जायँ कि मैं ऐसा हूँ तो भगवान् सीमित हो जायँगे।
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मनुष्यकी इच्छा ही बाँधनेवाली है। इच्छा और आवश्यकता—ये दो विभाग हैं। इच्छाकी निवृत्ति होती है तथा आवश्यकताकी पूर्ति होती है। भूख-प्यास लगनेपर शरीरको अन्न-जलकी आवश्यकता होती है तो उसकी पूर्ति होती है, पर इच्छाकी पूर्ति नहीं होती। परमात्माकी आवश्यकता और संसारकी इच्छा होती है। परमात्माकी आवश्यकता स्वयंकी भूख है। परमात्माकी आवश्यकता जिज्ञासामें अथवा प्रेम-पिपासामें बदल जाती है। इच्छा भोगोंकी होती है, जिसकी पूर्ति नहीं होती। ज्यों धन बढ़ता है, त्यों घाटा बढ़ता है, तृष्णा बढ़ती है। भोगोंकी प्राप्ति तो पशु आदिकी योनिमें भी हो जायगी, पर परमात्मप्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है। परमात्मप्राप्तिके सब-के-सब अधिकारी हैं; जैसे—माँकी गोदीमें जानेका अधिकार सब बेटोंका है। अत: किसीको भी परमात्मप्राप्तिसे निराश नहीं होना चाहिये।
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किसी वस्तुको देखनेपर उस वस्तुको बनानेवालेकी तरफ दृष्टि जाना बुद्धिमानी है। कुम्हारके बिना घड़ा, चित्रकारके बिना चित्र नहीं बनता। इसी तरह यह जो संसार दीखता है, इसे बनानेवाला भी कोई है। बीजसे वृक्ष बनता है तो बीजमें शक्ति कहाँसे आयी? हम अँग्रेजीको नहीं जानते तो क्या अँग्रेजी भाषा ही नहीं है? हाँ, यह कह सकते हैं कि हम अँग्रेजी जानते नहीं। ईश्वर नहीं है—ऐसा कहना मूर्खताकी बात है। ईश्वर नहीं है तो क्या आप सब कुछ जानते हो? बोलें तो विचारपूर्वक बोलना चाहिये। पुत्र-पिताकी परम्पराको देखें तो आखिरी पिता कौन है? सबसे आखिरी चीज भगवान् हैं। संसारको देखनेसे संसारके रचयिताका ज्ञान होता है। उस विलक्षण रचयिता (ईश्वर)-की प्राप्तिके बिना मनुष्य-जीवन सफल नहीं होता। भगवान् परिश्रम, उद्योगसे नहीं मिलते, प्रत्युत भीतरकी असली लालसासे मिलते हैं।
आजकलके स्कूल-कालेज मूर्खताके अड्डे हैं, जहाँ ठोस मूर्खता भरी जाती है।
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मनुष्य अपना एक ध्येय, लक्ष्य बना ले तो उसका सम्पूर्ण जीवन उसमें सहायक हो जाता है। उदासीन तथा शत्रु भी उसमें सहायक हो जाते हैं। इस एक निश्चयवाली बुद्धिका बड़ा माहात्म्य है। जिसने परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय कर लिया है, उसकी सिद्धि हो जायगी। अगर दुराचारी व्यक्ति भी परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय कर लेता है तो उसे साधु मान लेना चाहिये—‘साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:’ (गीता ९।३०)। वह शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है और परमशान्तिको प्राप्त हो जाता है—‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति’ (गीता ९।३१)। अत: साधकको चाहिये कि वह एक निश्चय करे, दुविधा न रखे। कोई निन्दा करे या स्तुति, उससे विचलित नहीं हो।
भोग और संग्रहमें लगे हुए मनुष्योंका परमात्मप्राप्तिका एक निश्चय हो ही नहीं सकता।*
* भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते॥
(गीता २।४४)
संग्रह नहीं बाँधता, प्रत्युत उसकी ममता-आसक्ति बाँधती है। मनुष्य अपनेको धनका मालिक मानता है, पर हो जाता है गुलाम! जिसको हम सदा अपने पासमें नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करनेसे क्या लाभ? जो सदा हमारे साथ रह सकता ही नहीं, जिसका वियोग जरूर होनेवाला है, उसकी इच्छा करनेसे सिवाय दु:खके और क्या होगा? ‘अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते’ (विनय० १९८)। हम चाहें कि धन, पद, बल, जवानी, सम्मान आदि बने रहें, पर जब वे चले जायँगे, तब बड़ा सन्ताप होगा। प्रत्येक संयोगका वियोग अवश्यम्भावी है। यदि पहलेसे ही उसका त्याग कर दें तो बड़ी शान्ति, बड़ा आनन्द होगा।
यह सत्संग हो नहीं रहा है, प्रत्युत बीत रहा है। ऐसे ही हम जी नहीं रहे हैं, प्रत्युत मर रहे हैं। वियोग निरन्तर हो रहा है। अत: अपनी शक्तिके अनुसार दूसरोंको सुख पहुँचाओ तो लोक-परलोक दोनों सुधर जायँगे। यह बात पक्की कर लें कि हमें यहाँ नहीं रहना है। जैसे यहाँ हम सत्संगके लिये आये हैं तो यह भाव रहता है कि हम यहाँ सदा नहीं रहेंगे, ठीक ऐसे ही घरमें रहते हुए भी भाव रहे। यह सच्ची बात है। सच्ची बातको स्वीकार कर लेनेका नाम ‘ज्ञान’ है।
यह होना चाहिये, यह नहीं होना चाहिये—इसे भगवान् पर छोड़ दो। सबके साथ जो वियोग अवश्य होनेवाला है, उस वियोगको अभी ही स्वीकार कर लो। संसारके साथ संयोग कभी रह नहीं सकता और परमात्माके साथ कभी वियोग हो नहीं सकता; क्योंकि भगवान् अपने हैं, संसार अपना नहीं है। संसारका वियोग नित्य है, संयोग अनित्य है। अनित्यकी इच्छा करोगे तो दु:ख पाओगे। संसारकी इच्छासे मनुष्य संसारका गुलाम बन जाता है और भगवान्की इच्छासे भगवान्का मुकुटमणि बन जाता है।
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शास्त्रोंमें मनुष्यशरीरकी जो महिमा गायी है, वह वास्तवमें विवेककी महिमा है, शरीरकी नहीं। विवेक कर्मोंका फल नहीं है। कर्मोंका फल है—जन्म, आयु और भोग। विवेकशक्ति भगवान्की दी हुई है। जन्म अन्तिम चिन्तनके अनुसार होता है और सुखदायी-दु:खदायी परिस्थिति कर्मोंका फल है।
हम सुख चाहते हैं—यह दोष है। सुख चाहनेसे सुख नहीं मिलता और दु:ख न चाहनेसे दु:ख नहीं मिटता। अत: चाहनेसे केवल गुलामी होती है। सुखदायी परिस्थितिमें पुण्य कटते हैं और दु:खदायी परिस्थितिमें पाप कटते हैं। आप पुण्य काटना चाहते हैं या पाप? सुख-दु:ख, आदर-निरादर तो सबके जीवनमें आते-जाते रहते हैं, इसमें नयी बात क्या हो गयी?
सुख हरषहिं जड़ दुख बिलखाहीं।
दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
(मानस, अयोध्या० १५०।४)
दु:ख मूर्खतासे होता है। मूर्खता मिटी तो दु:ख मिटा! यह मूर्खता सत्संग और स्वाध्यायसे मिटती है। करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न रहो।
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जीवमात्रमें किसी-न-किसीका सहारा लेनेकी आदत है। अंश अंशीके अधीन होता है, पर गलती यह होती है कि जीव अंशी (भगवान्)-का सहारा न लेकर नाशवान्का सहारा ले लेता है। संसारका सहारा लेनेसे कइयोंका सहारा लेना पड़ता है, तो भी काम बनता नहीं। परन्तु एक भगवान्का सहारा लेनेसे फिर किसीका सहारा नहीं लेना पड़ता।
भगवान्के शरण होनेकी पहचान है—अपनी चिन्ता मिट जाय। जैसे कोई भूला-भटका आदमी अपने घर आ जाय तो सब आफत मिट जाती है, ऐसे ही भगवान्की शरण लेनेपर भय, चिन्ता, शंका, शोक आदि सब मिट जाते हैं। मीराबाईने न ससुरालका आश्रय लिया, न पीहरका आश्रय लिया, प्रत्युत केवल भगवान्का ही आश्रय लिया—‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’। जिसका आश्रय लिया जाता है, सब भार उसीपर आ जाता है—
जो जाको शरणो गहै, ताकहँ ताकी लाज।
उलटे जल मछली चलै, बह्यो जात गजराज॥
भगवान् तो शरण न होनेवालेका भी पालन-पोषण करते हैं, पर उनके शरण होनेपर चिन्ता नहीं रहती। भगवान्ने तो सबको अपनी शरणमें ले रखा है, पर हम अपनी भूलसे शरण नहीं होते तो चिन्ता रहती है। जबतक शरण नहीं होते, तबतक चिन्ता रहती है।
सिवाय भगवान्के कोई रक्षा, सहायता करनेवाला नहीं है। सब कुछ भगवान्का ही दिया हुआ है, पर इतना छिपकर दिया हुआ है कि वह हमें अपना ही मालूम देता है! यदि मिला हुआ अपना होता, तो उसपर हमारा वश चलता, हम शरीरको मरने नहीं देते।
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कल्याण एकनिष्ठ होनेपर होता है। वह निष्ठा चाहे गुरुमें करें, चाहे नाममें करें, चाहे धाम, लीला आदिमें करें।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
(मानस, बाल० १८५।३)
आदि अन्त जन अनँत के, सारे कारज सोय।
जेहि जिव उर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय॥
जैसे रोगोंका संक्रमण होता है, ऐसे ही पापोंका भी संक्रमण होता है। जहाँ श्मशान है, वहाँ बैठकर देखो और जहाँ सन्तोंकी समाधि है, वहाँ बैठकर देखो तो दोनोंमें फर्क दीखेगा। श्मशानमें मनमें हलचल होगी, समाधिमें शान्ति मिलेगी।
पहले मनुष्योंमें पशुता नहीं थी, अब पशुता आ गयी—यह नयी रोशनी आयी है!
गीतामें समदर्शनकी बात आयी है, समवर्तनकी नहीं। समवर्तन तो पशुओंमें होता है। भगवान् सबमें समान हैं, पर मर्यादा समान नहीं है। वर्ण, आश्रम आदिकी मर्यादा अलग-अलग है। घी और शहद—दोनों अच्छे हैं, पर उन्हें समान मात्रामें करनेसे जहर हो जाता है। प्रकृतिकी साम्यावस्थामें प्रलय होता है।
संसार दु:खालय है, पर हम उससे सुख चाहते हैं तो दु:खी होना ही पड़ेगा। संसार नाशवान् है, पर हम बने रहना चाहते हैं तो दु:ख पाना ही पड़ेगा। यदि दु:ख नहीं चाहते हो तो संसारकी सेवा करो। सुख चाहनेसे दु:ख बढ़ता है और सेवा करनेसे सुख मिलता है।
कलकत्ता ‘कलिकांता’ है, मद्रास ‘मद्यराशि’ है और बम्बई ‘मोहमयी’ है। ये तीनों समुद्रके किनारे हैं। समुद्रसे विष निकला था, वह यहाँ है।
जिसके पास बहुत धन है अथवा जिसने बहुत शृंगार कर लिया है, क्या वह दु:खी नहीं होता? सुख तो त्यागसे मिलता है—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२।१२)।
श्रोता—कलियुगमें पाप होनेकी बात शास्त्रोंमें आयी है, फिर जो लोग पाप करते हैं, उनका क्या दोष?
स्वामीजी—शास्त्रोंमें लिखा है कि कलियुगमें ऐसा होगा, यह नहीं लिखा है कि ऐसा करना चाहिये। शास्त्रोंका तात्पर्य है कि कलियुगमें ऐसा होगा; अत: सावधान हो जाओ। यदि समयके अनुसार चलना चाहिये तो सर्दियोंमें गर्म चीज क्यों लेते हो? गर्मीमें ठण्डा पानी क्यों पीते हो?
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योगदर्शनमें चित्तवृत्तिके निरोधका नाम ‘योग’ है। गीतामें परमात्माके साथ नित्य-सम्बन्धका अनुभव करनेका नाम ‘योग’ है। गीताका योग ‘नित्ययोग’ है। संसारके साथ संयोगका वियोग होते ही नित्ययोगकी प्राप्ति हो जाती है। ब्रह्म सम है, उसके साथ अपने नित्य-सम्बन्धकी जागृति हो जाय, इसका नाम ‘योग’ है।
सम्पूर्ण कामनाओंका, अहंता-ममताका त्याग करनेसे अपना स्वरूप शेष रह जाता है। कामना, स्पृहा, शरीरादिमें ममता और अहंता भी मिट जाती है, तो जो ‘है’, वह रह जाता है। इसका नाम ब्राह्मी स्थिति है—‘एषा ब्राह्मी स्थिति:’ (गीता २।७२)। ब्राह्मी स्थितिकी स्मृति हो जाय—यही नित्ययोग है। फिर करना, जानना, पाना कुछ बाकी नहीं रहता।
धनके कारण अपनेको बड़ा मानते हैं तो वास्तवमें अपनी इज्जत गिरी है। यह धनकी गुलामी है। पदार्थोंको लेकर अपनेको बड़ा माननेसे अपने वास्तविक बड़प्पनका अनुभव नहीं होता। वस्तु नहीं रहती, बदलती है, पर स्वयं वही रहता है। मनुष्य वस्तुओंसे जितना सम्बन्ध मानता है, उतना ही वह तुच्छ होता है। वह धनके कारण अपनेको बड़ा मानता है तो वास्तवमें धन ही बड़ा हुआ, खुद तो छोटा हो गया। वस्तुओंसे सम्बन्ध मान लिया, उनको सत्ता देकर महत्ता दे दी, इसीलिये नित्ययोग प्रकट नहीं होता। निरन्तर बदलनेवालेके साथ अपना सम्बन्ध मानकर मनुष्य मुफ्तमें दु:ख पाता है!
जबसे जीव परमात्मासे विमुख हुआ, तबसे पाप होना प्रारम्भ हुआ। इसलिये भगवान् कहते हैं—
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
(मानस, सुन्दर० ४४।१)
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यह संसार सुख चाहनेवालेके लिये दु:खालय है, सेवा करने-वालेके लिये नहीं।
आज श्रीकृष्णको भगवान् माननेवाले जितने ज्यादा हैं, उतने महाभारतके समय नहीं थे। भीष्मपितामह, विदुर, संजय और कुन्ती—ये भगवान् श्रीकृष्णको तत्त्वसे जानते थे। युद्धके समय भीष्मजी अपने बाणोंसे भगवान्का पूजन करते हैं—‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ (गीता १८।४६)। फिर भगवान्के उसी रूपका अन्तसमयमें ध्यान करते हैं—
शितविशिखहतो विशीर्णदंश:
क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे।
प्रसभमभिससार मद्वधार्थं
स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्द:॥
(श्रीमद्भा० १।९।३८)
‘मुझ आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहूलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोकनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी ओर दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलतासे परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति (आश्रय) हों।’
गीता शरणागतिपर विशेष जोर देती है। अर्जुन भगवान्के शरण होता है, तब गीता आरम्भ होती है। गीताकी संस्कृत तो सरल है, पर भाव बड़े गहरे हैं। शरणागति गीताका सार है। शरणागति बड़ा सुगम और ऊँचा साधन है। ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’—ऐसा कहनेसे भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं; वे हमारे द्वारा ऐसा सुनना चाहते हैं!
भगवान् प्रेमसे दिये पत्र-पुष्पको भी खा लेते हैं*! विदुरानीजीने केलेके छिलके दिये तो उनको भी भगवान् खा गये! भक्तको पता नहीं कि मैं क्या दे रहा हूँ और भगवान्को पता नहीं कि मैं क्या खा रहा हूँ—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (गीता ४।११)।
* पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता ९।२६)
हे नाथ! मैं आपका हूँ—ऐसे भगवान्के शरण हो जाओ। शरणागति नींदकी तरह सुगम है। जैसे नींदके लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, ऐसे ही शरणागत होनेके लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता। एक विशेष बात है कि वास्तवमें भगवान्ने सबको अपना स्वीकार कर रखा है, अपनी शरणमें ले रखा है। हम संसारमें लग जाते हैं—यह गलती करते हैं। झूठ, कपट आदिके शरण हो जाते हैं कि इनके बिना काम नहीं चलेगा। अत: पापका आश्रय मत रखो। सब काम भगवान्के शरण होकर ही करो—‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’ (गीता ७।२९)।
भगवान् पापी-से-पापी व्यक्तिके लिये भी यह नहीं कह सकते कि यह मेरा नहीं है। भगवान्ने सबको अपना मान रखा है—‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर० ८६।२)। भगवान्को अभिमान, छल-कपट नहीं भाता, चालाकी नहीं भाती। निर्मल, सीधे—सरल भक्त भगवान्को प्यारे लगते हैं—
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
(मानस, सुन्दर० ४४।३)
काम-क्रोधादिसे भी अधिक दोषी हैं—जान-बूझकर कपट, चालाकी, छल करना।
किसीका जी नहीं दु:खाना, सत्य बोलना, नामजप करना और भगवान्के शरण होना—ये चार व्रत आप धारण कर लें।
जब भी आफत आये, तब ‘हे नाथ! हे नाथ!’ पुकारो। ‘हे नाथ! मैं आपका हूँ’—इससे काम-क्रोधादि भी सुगमतासे दूर हो जायँगे। नामजपकी अपेक्षा भी शरण होना, अपनी अहंता बदलना श्रेष्ठ है।
भगवान् श्रीकृष्ण हमारे गुरु हैं और गीता उनका मन्त्र है। और किसीको गुरु मत बनाओ।
पापका असली प्रायश्चित्त है—मैं अब पुन: पाप नहीं करूँगा।
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जैसे कोई आदमी घरसे तो निकल पड़े, पर यह पता न हो कि कहाँ जाना है, ऐसे ही जबतक जीवनका उद्देश्य न हो, तबतक बड़ी दुर्दशा है! प्राय: भोग और संग्रहका ही उद्देश्य है। इसका परिणाम क्या होगा—इसका पता ही नहीं! धन तो तिजोरीमें या बैंकमें जमा होता है, पर पाप अन्त:करणमें जमा होता है। मृत्युके समय भीतरका संग्रह कौड़ी एक पीछे रहेगा नहीं और बाहरका संग्रह कौड़ी एक साथ चलेगा नहीं!
जो हर समय भगवान्को याद रखता है, वह चाहे कभी मरे, वह भगवान्को ही प्राप्त होगा। उसका बीमा हो गया! इसलिये भगवान्ने कहा है—‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ (गीता ८।७) ‘इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध (कर्तव्य-कर्म) भी कर।’
सन्तोंका संकल्प बड़ा वजनदार होता है। इसका कल्याण हो जाय—इस संकल्पसे सन्तोंने अजामिलको कहा कि तुम अपने लड़केका नाम ‘नारायण’ रख दो।
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धन, सम्पत्ति, जायदादसे भी विशेष मूल्यवान् पूँजी है—समय। समयसे हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। हम समयके बलपर ही जी रहे हैं, बल-बुद्धि आदिके बलपर नहीं। वस्तु अच्छी-बुरी नहीं होती, उसका सदुपयोग-दुरुपयोग अच्छा-बुरा होता है। समयका सदुपयोग करें। समयसे सब कुछ मिलता है, पर सब कुछ देनेसे समय नहीं मिलता। सोनेमें समय जाता है—यह समयकी चोरी है और पाप करनेमें समय जाता है—यह डाका पड़ना है। धन कमानेमें कितना ही समय लगा दो, तब भी मिलेगा प्रारब्धके अनुसार ही। धनकी प्राप्तिमें इच्छा, उद्योग और प्रारब्ध—तीनोंकी जरूरत है, पर परमात्मप्राप्तिमें केवल उत्कट अभिलाषाकी जरूरत है।
स्वभाव साथ जानेवाला है, धन नहीं। परन्तु आप स्वभावको तो बिगाड़ रहे हैं और धनको इकट्ठा कर रहे हैं!
भोग और संग्रहकी इच्छासे ही सब पाप होते हैं।
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एक कर्म होता है, एक क्रिया होती है। कर्म तो फलजनक होता है, पर क्रिया फलजनक नहीं होती। कर्मोंका फल है—अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति। उन परिस्थितियोंमें जो सुख-दु:ख होता है, वह कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत अज्ञानका फल है।
नया कर्म क्रियमाण है, जिससे पाप-पुण्य होते हैं। क्रियमाणसे संचित बनता है। संचितसे प्रारब्ध बनता है। कर्मोंके चक्रसे छूटनेकी जगह मनुष्यशरीर है। चौरासीके चक्रसे निकलनेका दरवाजा मनुष्यशरीरमें ही है। परन्तु भोग और संग्रहकी खुजली चलनेसे यह दरवाजा हाथसे निकल जाता है!
कर्मयोगी कर्तव्य-कर्मका त्यागी नहीं होता, प्रत्युत फलका त्यागी होता है।
सुखकी इच्छाके बिना दु:ख हो ही नहीं सकता। सुखकी इच्छा दूसरोंको सुख देनेसे मिटती है।
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मनुष्यके लिये खास सोचनेकी बात है कि ‘मेरा कौन है’?
संसार, साथी सब स्वार्थके हैं, पक्के विरोधी परमार्थके हैं।
देगा न कोई दु:खमें सहारा, सुन तू किसीकी मत बात प्यारा॥
संसारमें अपना कोई नहीं है। आप संसारसे अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और संसार आपसे अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। संसारसे मुक्तिका उपाय है—संसारसे आशा न रखकर उसको सुख दो। आशा रखनेसे कल्याण नहीं होगा। आप अपनी सुख-सुविधा चाहेंगे तो भगवान्में मन नहीं लगेगा। जो खुद मान, आदर आदिके भूखे हैं, वे आपको क्या देंगे? उलटे धोखा ही होगा।
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
(मानस, किष्कि० १२।१)
हमसे मान-आदर चाहनेवाला हमारा कल्याण नहीं कर सकता। हम सुख-सुविधा, मान-आदरके ग्राहक हैं तो परमात्मा कैसे मिलेंगे? सुख-सुविधा, आराम लेना नहीं है, देना है। जो दूसरोंकी सेवा नहीं करता और भगवान्को याद नहीं करता, वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है।
संसारकी चाहना और परमात्माकी चाहना—दोनों साथ-साथ नहीं रह सकतीं। यदि हम परमात्माको चाहते हैं तो दु:खमें, निरादरमें, अपमानमें, बुखारमें, पीड़ामें आनन्द आना चाहिये। जो ईश्वरका ग्राहक होता है, उसे सांसारिक सुख-सुविधा, मान-बड़ाई अच्छी नहीं लगती। ज्ञान, विवेक संसारसे हटनेके लिये है और विश्वास परमात्मामें लगनेके लिये है। संसारका विश्वास पतन करनेवाला है। परमात्माकी प्राप्ति चाहते हो तो संसारका सुख अच्छा नहीं लगना चाहिये। पहली सीढ़ी छोड़े बिना दूसरी सीढ़ी कैसे चढ़ोगे?
वास्तवमें हमारा आदर भगवान् ही करते हैं। दूसरा तो हमारे पास धन, पद आदि होनेसे हमारा आदर करता है। धनके कारण हमारा आदर करते हैं, किसी विशेषताके कारण हमारा आदर करते हैं, वे वास्तवमें धन आदिका ही आदर करते हैं, हमारा आदर नहीं करते।
सुख न परमात्मासे चाहना है, न संसारसे। वस्तुओंको तो संसारकी सेवामें लगाना है और अपने-आपको परमात्माके समर्पित करना है। सेवा करनेकी ताकत केवल मनुष्यमें ही है। देवता तो अपनी डॺूटी बजाते हैं।
आपसे चाहनेवाला आपको अच्छा नहीं लगता। ऐसे ही आप भी दूसरोंसे कुछ चाहोगे तो दूसरोंको कैसे अच्छे लगोगे? त्यागी सबको अच्छा लगता है।
हमारा कल्याण वही कर सकता है, जो हमसे कुछ नहीं चाहता।
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हम क्या चाहते हैं—यह विचार करें। धन (स्थावर तथा जंगम), धर्म, सुखभोग और मोक्ष—ये चार चाहनाएँ हमारी होती हैं। इन चारोंके अन्तर्गत सब चाहनाएँ आ जाती हैं। मान-आदर शरीरका होता है और बड़ाई नामकी होती है। ये भोगके अन्तर्गत आ गये।
चाहनाएँ चार हैं, पर उपाय दो हैं—प्रारब्ध और पुरुषार्थ। साधन दो हैं, साध्य चार हैं। धन और भोगमें प्रारब्धकी प्रधानता है। धर्म और मोक्षमें पुरुषार्थकी प्रधानता है। इस कारण हम प्रतिदिन इतना धन तो कमायेंगे ही अथवा इतना भोग तो भोगेंगे ही—ऐसा नियम कोई नहीं लेता; क्योंकि यह हमारे हाथकी बात नहीं है। परन्तु धर्मके लिये आप नियम ले सकते हैं कि प्रतिदिन इतना दान आदि करेंगे ही। ऐसे ही मुक्तिके लिये आप नियम लेते हैं कि हम प्रतिदिन इतना जप, पाठ आदि करेंगे ही; क्योंकि यह हमारे हाथकी बात है। तात्पर्य है कि धन और भोगमें हम परतन्त्र हैं, पर धर्म और मोक्षमें हम सर्वथा स्वतन्त्र हैं।
जैसे लोटा चाहे कुण्डसे भरो, चाहे समुद्रसे भरो, पानी तो उतना ही आयेगा, ऐसे ही कितना ही उद्योग करो, मिलेगा तो प्रारब्धके अनुसार ही। एक मजदूर सोना ढोता है और एक कंकड़-पत्थर, पर वेतन उतना ही मिलता है। धन अधिक होनेपर भोग ज्यादा भोगेंगे—यह हाथकी बात नहीं है। जैसे, रोग हो जाय तो पासमें करोड़ों रुपये होनेपर भी वैद्यके मना करनेपर खा नहीं सकते!
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वेशभूषा, भाषा, व्यवसाय, खान-पान और कन्यादान—ये पाँच चीजें सुरक्षित रहेंगी तो आपकी मर्यादा, संस्कृति, वर्ण सुरक्षित रहेंगे। बालकका प्रथम गुरु उसकी माँ है। माँ चाहे तो वह अपने पुत्रको महात्मा भी बना सकती है और दुष्ट भी।
सीताजीको शत्रुघ्न या भरत त्याग नहीं सके, पर लक्ष्मणजी त्याग सके और उन्हें छोड़ने वनमें गये। लक्ष्मणमें सीताजीको त्यागनेका बल क्यों आया? जब रामजी मारीचके पीछे गये थे, तब सीताजीने उन्हें कठोर वचन कहे थे—‘मरम बचन जब सीता बोला’ (अरण्य० २८।३)। उन्हीं वचनोंका लक्ष्मणके मनमें खटका था। अत: बहुत विचारपूर्वक बोलना चाहिये।
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मनुष्यके पास अमूल्य धन ‘समय’ है। समयका आदर करना चाहिये। समय लगाकर हम भगवान्के दर्शन कर सकते हैं, भगवान्के भी मुकुटमणि हो सकते हैं।
समय काल है, जो सबको खा जाता है। परन्तु मनुष्य समयका सदुपयोग करके कालको भी खा सकता है—जीत सकता है!
ब्रह्म अगनि तन बीच में, मथकर काढ़े कोय।
उलट काल को खात है, हरिया गुरुगम होय॥
इसलिये एक-एक क्षण सोच-समझकर खर्च करना चाहिये। धन तो तिजोरीमें बन्द किया जा सकता है, पर समय बन्द नहीं किया जा सकता। जो समय चला गया, वह फिर पीछे नहीं आयेगा। उम्र खत्म हो रही है, घर जल रहा है और आप खुशी मना रहे हो! अत: हरदम सावधान रहो।
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हम यहाँ रहनेवाले नहीं हैं—यह बात हरदम याद रहनी चाहिये। भगवान्को याद करने और दूसरोंकी सेवा करनेका काम मनुष्यका है। यह जगह रहनेकी नहीं है। इस संसारमें हम रहनेके लिये नहीं आये हैं, प्रत्युत भजन और सेवा करनेके लिये आये हैं।
सुबह-शाम गंगाजलका चरणामृत लो।
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अर्थ न समझनेपर भी रामायणकी चौपाइयोंका गान करनेसे एक आनन्द आता है। रामायणमें बड़ी विचित्रता है; क्योंकि एक तो भगवान्की लीला है और एक भक्तकी वाणी!
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
(मानस, उत्तर० ४७।३)
निरभिमान भक्तोंकी वाणीका बड़ा असर पड़ता है। भक्तशिरोमणि गोस्वामीजीको कवि कहना उनका तिरस्कार करना है।
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उत्कट अभिलाषा हो जाय तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति बड़ी सुगम है। अभिलाषा कमजोर रहनेसे ही प्राप्ति नहीं हो रही है। परमात्मा अनन्य हैं तो उनकी प्राप्तिकी अभिलाषा भी अनन्य होनी चाहिये।
जो सब जगह है, उसे प्राप्त करनेमें क्या कठिनता? नाशवान्में प्रियता होनेके कारण हमारी दृष्टि नाशवान्से हटकर अविनाशीतक नहीं पहुँचती। केवल सत्तामात्र परमात्माकी तरफ लक्ष्य करना है। संसार तो नदीकी तरह प्रवाहरूपसे निरन्तर अभावमें जा रहा है। परिवर्तनका ज्ञान अपरिवर्तनशीलको ही होता है।
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भगवान्की कृपाके बलसे सम्पूर्ण पापोंका नाश होना बड़ी सुगम बात है। अपने उद्योगसे हम अपने कर्मोंका नाश नहीं कर सकते।
सन्तोंकी वाणीमें जो ताकत है, वह विद्वत्ता, योग्यता आदिमें नहीं है। यह भगवान्की बहुत विशेष कृपा है कि हमें यहाँ (रामेश्वरम्में) इतने दिन रहनेका और रामायण-पाठ करनेका मौका मिला है! यह एक ज्ञानयज्ञ है। सन्तकी वाणीमें और भगवान्के चरित्रमें बड़ी विलक्षणता है, अपार शक्ति है, एक विशेष आकर्षण है!
हमें जो कुछ मिला है, जो कुछ हमारेमें है, वह सब भगवान्की कृपासे मिला है। उसे अपना मानेंगे तो अभिमान आ जायगा। अभी रामायण-पाठ होगा तो ऐसा मानें कि भगवान्की कृपासे ही हो रहा है, हम तो निमित्तमात्र हैं। पाठ हम कर रहे हैं—ऐसा मत मानें। यह भगवान् रामके इष्टदेवकी भूमि है! यह मौका भगवान्की बड़ी कृपासे ही मिला है। बार-बार यह मौका नहीं मिलता।
गीता क्या है, क्या नहीं है—यह तो भगवान् जानें। यह तो हमारा अहोभाग्य है कि हमें गीता मिल गयी!
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जैसे रामजीने रावणपर विजय पानेके लिये यहाँ (रामेश्वरम्में) पड़ाव डाला था, ऐसे ही हमने आसुरी-सम्पत्तिपर विजय पानेके लिये यहाँ पड़ाव डाला है। हमारा मन भी वानरकी तरह चंचल है।
जग के सब मरकट जुटे, तुम पे आय तमाम।
मेरा मन मरकट अटक रहा कवन बन राम॥
यह शंकरकी कृपा है। रामजीने भी शंकरकी कृपा चाही। शंकर रामजीके भी इष्टदेव हैं। यहाँ हम उन्हींकी कृपासे आये हैं, अपने पुरुषार्थसे नहीं।
वानरको न तो मकान चाहिये, न भोजन चाहिये, न वस्त्र चाहिये, न आयुध चाहिये। सेना इतनी बड़ी, पर खर्चा कुछ नहीं! क्योंकि वह राजा रामकी सेना नहीं थी, प्रत्युत वनवासी रामकी सेना थी।
रामजीकी कथासे जो लाभ है, वह रामजीके संगसे नहीं है। इसलिये हनुमान्जी भी यही वर माँगते हैं कि संसारमें जबतक कथा रहे, तबतक पृथ्वीपर ही रहूँ—
यावत् तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी॥
तावत् स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन्।
(वाल्मीकि० उत्तर० १०८।३५-३६)
‘भगवन्! संसारमें जबतक आपकी पावनी कथाका प्रचार रहेगा, तबतक आपके आदेशका पालन करता हुआ मैं इस पृथ्वीपर ही रहूँगा।’
‘सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा०’ (बाल० ७७।१, अयोध्या० २१३।२)—यह चौपाई दो जगह आयी है। एक जगह विरक्त (त्यागी) शंकर हैं और एक जगह राजा भरत हैं। तात्पर्य है कि भक्त और भगवान्की आज्ञा विरक्त और राजा सबपर बराबर लागू होती है।
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संसार निरन्तर मिट रहा है। बदलना ही इसका स्वरूप है। अपने रागके कारण ही संसारकी सत्ता और महत्ता दीखती है। शरीर-संसार एक ही हैं। जैसे संसार बदल रहा है, ऐसे ही शरीर भी बदल रहा है। संसारकी वस्तुओं (शरीरादि)-को संसारकी ही सेवामें लगा दो। संसार मेरे अनुकूल हो जाय—इस भावसे आप संसारको अपनी तरफ खींच नहीं सकते।
संसारमें जिनको आपने अपना मान लिया है, उन्हींके बनने-बिगड़नेका दु:ख होता है। अपना माना और दु:ख शुरू हुआ! जो पहले अपना नहीं था, पीछे अपना नहीं रहेगा, वह अभी अपना कैसे हुआ?
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श्रीरामचरितमानसके पारायणका यह मौका विशेष कृपासे मिला है। यह अपने बलके कारण नहीं है, केवल भगवत्कृपाके कारण है। हमें केवल उस कृपाकी ‘हाँ-में-हाँ’ मिलाना है। सब सामग्री केवल शुद्ध भगवत्कृपासे मिली है। केवल उसके सम्मुख होना है। महान् पवित्र भूमिमें ऐसा अनुष्ठानका मौका बड़ी भगवत्कृपासे मिला है। रामायण-पाठ और जगह भी होता है, पर यह पाठ बड़ा विलक्षण है!
राम और शिव—दोनों एक-दूसरेके स्वामी, सखा और सेवक हैं—‘सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस, बाल० १५।२)। दोनोंमें परस्पर इतना स्नेह है कि शंकरका चिन्तन करते-करते विष्णु श्यामवर्ण हो गये और विष्णुका चिन्तन करते-करते शंकर श्वेतवर्ण हो गये!
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संसारका निर्माण होता है। परमात्माका निर्माण नहीं होता। उत्पन्न होनेवाली चीज लक्ष्य करनेसे प्राप्त नहीं होती। परमात्माकी तरफ केवल खयाल करना है। खयाल करनेसे प्राप्ति हो जाती है।
संसार प्रवाहरूपसे निरन्तर बह रहा है, अभावमें जा रहा है। हम जी रहे हैं—यह वहम है और मर रहे हैं—यह सच्ची बात है। ‘संसार है’—इसमें ‘संसार’ विकारी है और ‘है’ निर्विकार है। संसारमें ‘है’ नहीं है, प्रत्युत ‘है’ में संसार है। मैं वही हूँ, जो बचपनमें था, पर शरीर वही नहीं है। मैं परमात्माका हूँ, शरीर संसारका है।
‘है’ को अलग करके देखें। ‘है’ जाननेवाला है, जाननेमें आनेवाला नहीं है। संसार अभीतक किसीको मिला नहीं है।
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मनुष्यको जिस चीजकी जितनी अधिक आवश्यकता है, वह चीज उतनी ही सुलभ है, सस्ती है। प्राय: भक्तोंके मनमें आता है कि जब भगवान् (अवताररूपसे) थे, तब हम भी होते तो उनके चरित्र (लीलाएँ) देखते। परन्तु वास्तवमें भगवान्के चरित्र देखनेसे मोह होता है और सुननेसे मोहका नाश होता है। भगवान्का चरित्र देखनेसे गरुड़जीको मोह हो गया तो शंकरजीने उन्हें काकभुशुण्डिजीके पास भेजा। कौआ पक्षियोंमें सबसे नीच माना जाता है। गरुड़के मनमें यह अभिमान न हो जाय कि मेरा मोह शंकरजीने दूर किया; अत: उसे काकभुशुण्डिके पास भेजा, जिससे अभिमान न रहे। भीतरमें तो यह बात थी, पर बाहरसे कहा—‘समुझइ खग खगही कै भाषा’ (उत्तर० ६२।५)।
‘राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी’ (बाल० १२१।२)—यदि रामको सर्वज्ञ मानें तो सीताकी खोज क्यों की? और अल्पज्ञ मानें तो मुद्रिका हनुमान्को क्यों दी? तात्पर्य है कि तर्कसे रामको नहीं जान सकते, विश्वाससे जान सकते हैं।
भगवान्के चरित्रको सुननेसे मोह दूर होता है। वह चरित्र हम सबको सुननेके लिये सुलभ है! भगवान् दुर्लभ हैं, पर उनके चरित्र सुलभ हैं!
चरित्र सुनते समय रामजीके साथ रहें। साथ रहते हुए ही चरित्र सुनें और पढ़ें।
भगवान्में आकर्षण प्रेमसे होता है, ज्ञानसे नहीं। इसलिये भगवान् कृपा करके मुक्तिके आनन्दको भी फीका कर देते हैं, जिससे मुक्त पुरुष भी अनन्त आनन्दके लिये उत्कण्ठित हो उठता है!
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भगवान् कहते हैं—‘तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च’ (गीता ८।७) ‘इसलिये तू सब समयमें मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।’ वास्तवमें सभी समय अन्तकाल ही है; क्योंकि अन्तकाल किसी भी समय आ सकता है। युद्धका प्रसंग होनेसे ‘युध्य च’ कहा। युद्ध सब समयमें नहीं होता, पर स्मरण सब समय होता है।
काम करते हुए भगवान्का स्मरण करनेसे कामकी मुख्यता और स्मरणकी गौणता रहेगी। अत: भगवान्का स्मरण करते हुए काम करना चाहिये। भगवत्प्राप्ति चाहनेवालेके लिये स्मरण करना आवश्यक है। तीसरी सबसे बड़ी बात यह है कि कामको भगवान्का ही समझे। जैसे, मैं पुरुष हूँ अथवा मैं स्त्री हूँ—यह बात याद नहीं रखनी पड़ती। मैं कुँआरा हूँ अथवा मैं विवाहित हूँ—यह याद नहीं रखना पड़ता। मैं ब्राह्मण हूँ—यह याद नहीं रखना पड़ता। जैसे अपनी जाति आदिसे अपना सम्बन्ध मान रखा है, ऐसे ही भगवान्से अपना सम्बन्ध माने। भगवान्के सिवाय सब सम्बन्ध छूटनेवाले हैं। भगवान्से अपना सम्बन्ध मानना अभ्यास नहीं है, स्वीकृति है। इसकी कभी भूली नहीं होती। स्वीकृति सदा दृढ़ ही होती है, अदृढ़ होती ही नहीं। मैं-पनको बदलना तत्काल होता है और एक ही बार होता है। जैसे, विवाह होनेपर ‘मैं पतिकी हूँ’ यह तत्काल और एक ही बार होता है। इसमें कभी भूल नहीं होती। ‘मैं भगवान्का हूँ’—यह उससे भी विलक्षण है। कारण कि जीव सदासे और स्वत: भगवान्का ही है। अत: आप आज ही स्वीकार कर लें कि ‘मैं भगवान्का हूँ’। अब हमें भगवान्का होकर ही रहना है। भगवान्के होनेके बाद फिर निषिद्ध काम होंगे ही नहीं।
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रामजन्म, रामविवाह और रामराज्याभिषेक—ये तीन बड़े उत्सव हैं। रामविवाहमें दो समाज इकट्ठे होते हैं। जनक और कौसल्या ‘ज्ञान’ की मूर्ति हैं एवं दशरथ और सुनयना ‘प्रेम’ की मूर्ति हैं। हम अपने माता-पिताका विवाह तो नहीं देख सकते, पर अपने परम माता-पिता सीतारामजीका विवाह देख रहे हैं!
जैसे रामजी चाहते हैं, वैसे भक्त बन जाते हैं और जैसे भक्त चाहते हैं, वैसे रामजी बन जाते हैं। यह प्रेम है। प्रेममें महान् त्याग है, मुक्तितकका त्याग है!
संसार अज्ञानसे दीखता है। ‘मुक्ति’ नाम संसारसे छूटनेका है और ‘भक्ति’ नाम भगवान्में प्रेम होनेका है।
भगवत्प्रेममें रोनेमें जो आनन्द है, वह संसारमें हँसनेमें नहीं है!
जैसे संसारके भोगोंके लिये मनुष्य रुपये खर्च कर देते हैं, ऐसे ही भक्त भगवत्प्रेमके लिये मुक्ति भी खर्च कर देते हैं! जो रस प्रेममें है, वह पूर्णतामें नहीं है।
सीता-रामका विवाह भक्ति और भगवान्का मिलन है, अंतरंग लीला है!
प्रेम तपसे नहीं होता, प्रत्युत भगवान्में अपनापन होनेसे होता है। काली-कलूटी माँ भी बालकको अच्छी लगती है—यह अपनापन है कि ‘मेरी माँ है’!
चौदह वर्षोंतक राज्यरूपी फुटबालपर ठोकर मारी जाती रही, पर अन्तमें रामजीपर गोल हो गया! भरतजीकी विजय हो गयी!
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संसारका सम्बन्ध माना हुआ है, है नहीं। संसारसे सम्बन्ध मानना अज्ञान है और सम्बन्ध न मानना ज्ञान है। संसारका संयोग अनित्य है, पर वियोग नित्य है। अनित्यको स्वीकार करनेसे बन्धन है और नित्यको स्वीकार करनेसे मुक्ति है। संयोगमें परतन्त्रता है। संयोगकी इच्छा करना बन्धन है।
संसारके वियोगको स्वीकार करनेका नाम ‘सत्संग’ है। संसारसे सुख लेनेवाला दु:खसे कभी बच सकता ही नहीं। संसारका सम्बन्ध छोड़नेसे मुक्ति होती है, छूटनेसे नहीं। परमात्मासे हमारा नित्ययोग है। परमात्मासे संयोगमें भी योग है और वियोगमें भी योग है।
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गोस्वामीजीने सर्वप्रथम ‘अयोध्याकाण्ड’ की रचना की थी। इसका प्रमाण यह है कि इस काण्डके पहले तथा बालकाण्डके पहले गुरु-वन्दना है। अन्य काण्डोंमें ऐसा नहीं है। गुरु-वन्दना करके भरतजीका चरित्र लिखा।
रामायणमें मर्यादाका बड़े विचित्र ढंगसे वर्णन हुआ है। रामजीको युवराज-पदपर बैठानेके लिये दशरथजी सर्वप्रथम गुरुजीसे सलाह करते हैं, पीछे मंत्रियोंसे सलाह करते हैं।
शकुन मंगलकारक नहीं होते, प्रत्युत मंगलसूचक होते हैं।
यदि कैकेयी वरदान न माँगती तो भरतजीका प्रेम प्रकट नहीं होता।
‘श्रद्धा’ में आज्ञापालन मुख्य होता है और ‘प्रेम’ में संग मुख्य होता है। प्रेम वियोग नहीं सह सकता। लक्ष्मणमें प्रेमकी और भरतमें श्रद्धाकी मुख्यता थी। प्रेम और श्रद्धा साथमें रहते हुए भी एककी मुख्यता होती है। प्रेमीजन भगवान्के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं। लक्ष्मणजी प्रेमी भक्त हैं; अत: वे रामजीका तिरस्कार सह नहीं सकते थे। वे प्रेमकी ध्वजा हैं। ध्वजा कभी नीची नहीं होती।
रामजीको आनेमें एक दिन रह गया, फिर भी भरतको दु:ख क्यों हुआ? भरतजीने बहुत दूरतक घुड़सवार खड़े किये थे, जिससे जल्दी समाचार मिल जाय कि रामजी आ रहे हैं। परन्तु अभीतक इतनी दूरसे भी उनके आनेका समाचार नहीं आया, फिर वे पैदल कलतक कैसे पहुँचेंगे? परन्तु रामजी आ रहे थे पुष्पकविमानसे!
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शास्त्रोंमें नामजप और सत्संगकी बहुत महिमा गायी है। शरीर-संसारको अपना मानना कुसंग है। जो अपना नहीं है, उसे अपना स्वीकार न करना भी सत्संग है और जो अपना है, उसे अपना स्वीकार करना भी सत्संग है। जो अपना नहीं है, उसे अपना मानना भी कुसंग है और जो अपना है, उसे अपना न मानना भी कुसंग है।
संसारका वियोग नित्य है, संयोग अनित्य है। संसारसे वियोगको स्वीकार करते ही परमात्माके योगका अनुभव हो जायगा।
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जगत्को जानते ही हम जगत्से अलग हो जाते हैं और परमात्माको जानते ही परमात्मासे एक हो जाते हैं—‘जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई’ (मानस, अयोध्या० १२७।२)। जो जगत्को नहीं जानते, वही जगत्में फँसते हैं और जो परमात्माको नहीं जानते, वही परमात्मामें नहीं लगते।
भीतर कुछ-न-कुछ काम-क्रोध-लोभ दोष होता है, तभी मन संसारमें खिंचता है। प्रेम होनेसे मन भगवान्की ओर खिंचता है। वह प्रेम ज्ञानसे भी ऊँचा है।
‘सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने’ (अयोध्या० १२८।१)—रामजी मुसकराकर मानो वाल्मीकिजीसे कहते हैं कि मेरी पोल मत निकाल देना (कि मैं भगवान् हूँ)! यह हँसी भगवान्की माया है। वाल्मीकिजी उन्हें रहनेके लिये स्थान बताते हैं। वाल्मीकिजीने वास्तवमें भगवान्के रहनेकी चौदह जगह हमारे लिये बतायी। यहाँ भगवान्को रहना ही पड़ेगा; क्योंकि खुद भगवान्ने रहनेका स्थान पूछा तो जो भक्त कहेगा, वहाँ उन्हें रहना ही पड़ेगा। वाल्मीकिजीने चित्रकूट बताया तो भगवान्को वहीं रहना पड़ा।
वाल्मीकिजीने जो चौदह स्थान बताये हैं, उनमेंसे जो आपको सुगम लगे, वह स्थान चुन लो। संसारके भोगोंमें स्नेह (प्रेम) बँट गया, तभी भगवान्में स्नेह नहीं हो रहा है।
ज्ञानमें भगवान् बिकते नहीं, पर प्रेममें भगवान् बिक जाते हैं!
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गीतामें आया है—‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (४।३९) ‘श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है’। श्रद्धाका अर्थ है—आदरसहित विश्वास। भगवान्, शास्त्र, परलोक आदि न दीखनेपर भी उनपर श्रद्धा काम करती है। श्रद्धाकी पहचान है—जैसा कहे, वैसा मान ले। श्रद्धालु बातको टाल नहीं सकता, प्रेमी वियोगको सह नहीं सकता। श्रद्धाकी कसौटी है—‘तत्पर:’, और तत्परताकी कसौटी है—‘संयतेन्द्रिय:’। तत्परताके बिना मन नहीं लगता।
मूलमें असत् को सत्ता देनेसे अशान्ति होती है। नाशवान्में अपनापन अशान्ति देनेवाला है। अविनाशीमें अपनापन भक्ति, प्रेम, ज्ञान, शान्ति देनेवाला है।
प्रकाशकी ज्योति नेत्र है। नेत्रकी ज्योति मन है। मनकी ज्योति बुद्धि है। बुद्धिकी ज्योति आप (स्वयं) हैं। आप सबके प्रकाशक हैं।
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गीतामें निष्कामभावकी बड़ी महिमा है। वह निष्कामभाव है—‘सर्वे भवन्तु सुखिन:०’। संसारमें लोभ तो पतन करता है, पर पारमार्थिक मार्गमें लोभ बाधा देता है। अत: दूसरोंका कल्याण हो—यह भाव रखें। सबको भोजन करानेवाला क्या स्वयं भूखा रहेगा? सबको भोजन करानेवाला तो बिना भोजन किये तृप्त हो जायगा! सम्पूर्ण नदियोंका जल समुद्रमें मिलनेपर भी समुद्र नहीं बढ़ता, प्रत्युत वह चन्द्रको पूर्ण देखकर बढ़ता है।
हम रामजीके इष्टदेवके दरबार (रामेश्वरम्)-में आये हैं। हमलोग अभी सत्संग, रामायण-पाठ आदि कर रहे हैं तो अभी कलियुग कहाँ है?
सत्संगके बिना रामायण, भागवत आदिका अर्थ नहीं खुलता।
यह सिद्धान्त है कि यदि एकका कल्याण हो सकता है तो सभीका कल्याण हो सकता है! परन्तु मात्र जीवोंका कल्याण कर दे—ऐसा महात्मा अभीतक हुआ नहीं। यह कुरसी खाली पड़ी है! प्रमाण क्या है? कि हम बैठे हैं! यदि हमारा कल्याण हो गया होता तो अभी हम संसारमें क्यों बैठे होते?
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समय रहते-रहते कार्य कर लेना चाहिये, नहीं तो पछताना पड़ेगा। इसके लिये उद्देश्य बनाना आवश्यक है। व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है—‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन’ (गीता २।४१)।
संसारकी कामना करनेपर सिद्धि भी असिद्धि है और असिद्धि भी असिद्धि है। परमात्माकी तरफ चलनेपर असिद्धि भी सिद्धि है और सिद्धि भी सिद्धि है। नित्यकी प्राप्ति भी प्राप्ति है और अप्राप्ति भी प्राप्ति है; क्योंकि पारमार्थिक मार्गमें जितना काम हो गया, जितना मार्ग कट गया, उतना तो हो ही गया। संसारकी प्राप्ति भी अप्राप्ति है और अप्राप्ति भी अप्राप्ति है।
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शास्त्रोंमें भगवान्के कई रूपोंका वर्णन आता है। भगवान्का वास्तविक स्वरूप क्या है—इस विषयमें गीता कहती है—
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥
(७।२९-३०)
‘वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं। जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।’
भगवान्का वास्तविक रूप है—समग्र। एक रूपकी उपासना करो, पर दूसरे रूपको छोटा मत मानो, उसकी निन्दा मत करो। कारण कि सब भगवान्का समग्ररूप है। इसमें भगवान् नहीं हैं—ऐसा निषेध मत करो। किसीका भी अहित मत सोचो। दुष्ट भी भगवान्के हैं, पर ज्यादा लाड़-प्यारसे बिगड़े हुए हैं! इसलिये कहा है—‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥’ (मानस, उत्तर० ११२ ख)। अयोध्या, लंका, राम, रावण, विभीषण आदि सब मिलकर ‘रामायण’ है।
दुनियाका पालन भगवान् करते हैं, पर भगवान्का पालन भक्त करते हैं। भक्त भगवान्के भी माँ-बाप बन जाते हैं!
समयके अनुसार चलनेका तात्पर्य है कि अपनी रक्षा करो। जैसे, सर्दी आनेपर अपनी रक्षाके लिये गर्म कपड़े पहनते हैं। गर्मी आनेपर अपनी रक्षाके लिये ठण्डा पानी पीते हैं।
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संसार है—ऐसा दीखता है और संसार बदलता है—ऐसा भी हम जानते हैं। शरीर ऐसा था, ऐसा नहीं रहेगा—यह प्रत्यक्ष है। संसारको मौजूद भी मानना और परिवर्तनशील भी मानना ‘अज्ञान’ है। अधूरे ज्ञानको ‘अज्ञान’ कहते हैं। संसार है—इसको आदर दिया है—यह गलती हुई है। दर्पणमें मुख दीखता है, पर है नहीं।
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रामायणमें लक्ष्मण-परशुराम और अंगद-रावणका संवाद बड़ा विलक्षण है!
दूसरोंको सत्संगमें लगानेका बड़ा माहात्म्य है। खुद सत्संग करो और दूसरोंको लगाओ। भगवान्का स्मरण करो और कराओ—‘स्मरन्त: स्मारयन्तश्च’ (श्रीमद्भा० ११।३।३१)। भगवान्के नाम, गुण, लीला, महिमा, तत्त्व आदिका प्रचार करो, जो कि साधारण-से-साधारण मनुष्य भी कर सकता है। विद्यादानको महादान कहा गया है। विद्यादान तो विद्वान् कर सकता है, पर यह दान सभी कर सकते हैं।
भगवान्में मन लग जानेपर सब कुछ बदल जाता है, सारा जीवन चमक उठता है। गीताप्रेसकी पुस्तकोंका प्रचार करें। लोगोंको सत्संगमें लगायें। इससे लोगोंकी चिन्ता, शोक, कलह, अशान्ति मिटती है। मुफ्तमें पुस्तकें देना भी ठीक है, पर पुस्तकोंकी बिक्री करनी चाहिये। कारण कि आजकल लोगोंके भीतर पैसोंका बहुत महत्त्व है। जो दवा महँगी मिलती है, उसे लोग अच्छी दवा समझते हैं। जिस चीजमें ज्यादा पैसे लगते हैं, उसे अच्छी समझते हैं।
गीता और रामायणका प्रचार अपने जोरसे हुआ है, राज्य या धनके जोरसे नहीं। गीता पढ़नेसे बड़ी विलक्षणता आती है और भगवान्की कृपा होती है।
जो बालक स्कूलमें पढ़ते हैं, उनसे गीता-रामायण आदि ग्रन्थोंको सुनो तो उनके हृदयमें भी भक्तिके संस्कार बैठ जायँगे। यह एक उपाय है। लड़के-लड़कियाँ आपकी असली सम्पत्ति हैं। उनका सुधार करो। उनको भक्तोंके चरित्र पढ़ाओ।
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अर्जुनने कहा—‘धर्मसम्मूढचेता:’ (गीता २।७) तो भगवान्ने कहा—‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८।६६)। भगवान्ने धर्मोंके आश्रयको त्यागनेकी बात कही है, तभी अर्जुनने युद्धरूपी धर्म (क्षात्रधर्म)-का पालन किया है। भगवान्को दूसरेका आश्रय प्रिय नहीं है, तभी कहा—‘मामेकं शरणं व्रज’।
एक बानि करुनानिधान की।
सो प्रिय जाकें गति न आन की॥
(मानस, अरण्य० १०।४)
शरणागति कोई नया काम नहीं है। हम सदासे ही भगवान्के हैं—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३)। शरण होनेके बाद अपना कोई विचार, इच्छा आदि नहीं रहते—‘करिष्ये वचनं तव’।
मैं भगवान्का हूँ—यह सम्बन्धात्मक स्मरण है, जो करना नहीं पड़ता। स्मरण करना क्रियात्मक स्मरण है। तुम भगवान्के हो गये—यह गुरुकी खास दीक्षा है। गुरु कहता है और शिष्य उसे नि:सन्देह स्वीकार कर लेता है। गुरु अहंताको बदलता है। अहंता बदलनेसे गुरुकी शक्ति शिष्यमें आ जाती है।
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ज्ञानको लोगोंने बहुत कठिन मान रखा है। उसकी एक सीधी-सरल बात है। एक रहनेवाला है, एक जानेवाला है। परमात्मा रहनेवाला है, सब संसार जानेवाला है। शरीर बदल गया, पर आप वही हो—यह आप जानते हो। आप अवस्थाओंके भाव तथा अभावको भी जानते हो, संसारके भाव तथा अभावको भी जानते हो। संसार बदलता है, पर उसमें रहनेवाला परमात्मा कभी नहीं बदलता। शरीर बदलता है, पर उसमें रहनेवाला आत्मा नहीं बदलता। आप बदलनेवालेको जाननेवाले हो। यह ज्ञानकी बात है।
मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं। इसमें अनन्यता होनी चाहिये। एक भगवान्के सिवाय और कोई मेरा नहीं है। यह भक्तिकी बात है। हमारी भगवान्के साथ एकता है और शरीरकी संसारके साथ एकता है।
हमारे पास जो कुछ है, वह सब संसारका है और उसे संसारकी ही सेवामें खर्च करना है। यह कर्मयोगकी बात है।
जानना है स्वयंको, मानना है भगवान्को और करना है सेवा—यह पूरी बात हो गयी, कुछ बाकी नहीं रहा!
धनका संग्रह मत करो। संग्रह करोगे तो आफत आयेगी। पहले डाकू होते थे, अब सरकार डाकू हो गयी! पहले डाकू आते थे तो पुलिसको बुलाते थे, अब डाकू पुलिस साथ लेकर (छापा मारने) आते हैं! अत: धनको दूसरोंकी यथायोग्य सेवामें लगाओ। जैसे आप अपना निर्वाह करते हो, ऐसे दूसरेका भी निर्वाह करो। जैसे आप लेते हो, ऐसे दूसरे भी अभावग्रस्तको अन्न, जल, वस्त्र दो। जैसा बर्ताव आप दूसरोंसे नहीं चाहते, वैसा दूसरोंके प्रति मत करो। यदि आप अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता-पिताको सुख पहुँचाओ। सबके साथ प्रेमका, हितका बर्ताव करो। आपके पास घड़ी है और कोई आपसे समय पूछे तो उसको समय बता दो—यह उपकार है। कोई रास्ता पूछे तो उसको रास्ता बता दो—यह उपकार है, सेवा है। केवल रोटी देना ही उपकार नहीं है।
सुख पाना चाहते हो तो दूसरोंको सुख दो। जैसा बीज डालोगे, वैसी खेती होगी।
नौकर अपने घरका भी काम करता है और आपके घरका भी, पर आप अपने घरका भी काम नहीं कर सकते, तो बड़ा कौन हुआ?
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जैसे आकाशमें बादल रहते हैं और बादलोंमें आकाश रहता है, ऐसे ही सब संसार भगवान्में है और भगवान् संसारमें हैं। बादल तो उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर आकाश ज्यों-का-त्यों रहता है। अत: वास्तवमें बादलोंमें आकाश नहीं और आकाशमें बादल नहीं। तात्पर्य है कि आकाशके सिवाय बादलोंकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। ऐसे ही परमात्माके सिवाय संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
सब जगह परमात्माको देखें। परमात्मामें सबको देखें। परमात्मा ही संसाररूपसे प्रकट हुए हैं। तत्त्वसे देखें तो न गहने हैं, न पासा है, सोना-ही-सोना है। ऐसे ही तत्त्वको जाननेवालेकी दृष्टिमें सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा हैं। जैसे बर्फ और जल दो चीज नहीं हैं, एक ही हैं। जलसे ही बर्फ बनी है। वास्तवमें जल ही है। ऐसे जो केवल परमात्माको ही देखता है, वही सही देखता है।
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केवल कीर्तन करना कोरा घी पीना है। अपने-अपने घरोंमें रोजाना कीर्तन करो। कोई आपको एक साथ सौ रुपये दे और कोई रोजाना एक रुपया दे तो क्या लोगे? रोजाना एक रुपया लोगे। ऐसे ही प्रतिदिन कीर्तन करना रोजाना एक रुपया लेना है और जैसे आज कीर्तन किया, यह एक साथ सौ रुपये लेना है। हमसे कोई पूछे तो हम सौ रुपये भी लेंगे और रोजाना एक रुपया भी लेंगे।
कम-से-कम, कम-से-कम रोटी-कपड़ा सच्ची कमाईका लो। सच्ची कमाईका पता कैसे लगे? यदि आप कहीं नौकरी करते तो जितनी तनखाह मिलती, उससे कुछ कम पैसे निकालो और काममें लो।
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जबतक परमात्माकी प्राप्ति न हो, तबतक मनुष्यजन्मकी सफलता नहीं है। सांसारिक उन्नति वास्तविक उन्नति नहीं है, प्रत्युत पतन करनेवाली है।
परमात्मतत्त्व सबको प्राप्त है। जहाँ आप हैं, वहीं परमात्मा हैं। वे हमसे दूर नहीं हो सकते। उनके मिलनेमें देरीका कारण है—संसारको महत्त्व देना।
जिस कुटुम्बमें सबका आपसमें स्नेह होता है, वहाँ लक्ष्मी (सम्पत्ति) स्वत: आती है।
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जीवमात्रका स्वभाव है कि वह किसी-न-किसीका सहारा लेता है। भगवान्के सिवाय दूसरेका सहारा लेता है—यह गलती होती है। इसलिये सब आश्रय छोड़कर भगवान्के चरणोंका आश्रय लेना है—यह खास बात है। भगवान्का आश्रय कभी छूटनेवाला नहीं है। अन्य सब आश्रय छूटनेवाले हैं—‘अंतहुँ तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते’ (विनय० १९८)। आश्रय लेना ही हो तो बड़ेका लो। छोटेका सहारा लोगे तो रोना पड़ेगा।
शरणागति गीताका सार है। शरण होनेके बाद फिर चिन्ता न करे—
चिन्ता दीनदयाल को, मो मन सदा अनन्द।
जायो सो प्रतिपालसी, रामदास गोबिन्द॥
भगवान्के चरणोंका आश्रय लेनेपर कोई भी बाधा देनेवाला नहीं हो सकता।
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अधर्मको धर्म तथा धर्मको अधर्म मानना तामसी बुद्धि है। स्त्रियोंके लिये नौकरी करना परतन्त्रता है, स्वतन्त्रता नहीं। पालन-पोषण करनेका काम स्त्रीका है। स्त्रीका हृदय कोमल होता है, तभी बालकका पालन-पोषण होता है। यदि पुरुष पालन-पोषणका काम करे तो एक दिनमें उकता जायगा।
माँका दर्जा ऊँचा है, भोग्याका नहीं। भोग्या तो वेश्या होती है। स्त्रीका ऊँचा दर्जा माँ बननेसे है, भोग्या बननेसे नहीं।
आबादी तो मुसलमानोंकी बढ़ रही है और परिवार-नियोजन करते हैं हिन्दुओंका! भूख है पेटमें, हलवा बाँधते हैं पीठपर! रुपये आपके इष्टदेवता हैं और मुसलमान सरकारके इष्टदेवता हैं। आज हिन्दुओंकी और गायोंकी बहुत दुर्दशा हो रही है! जन्म तो आपने बन्द कर दिया, पर मौत बन्द नहीं की, बन्द हो सकती ही नहीं, फिर क्या दशा होगी?
गर्भमें कन्या होनेपर भ्रूणहत्या करना महान् पाप है। अगर बेटा होनेसे कल्याण होता हो, तो फिर साधुओंका कल्याण कैसे होगा?
मनुष्य धर्मका पालन करनेसे स्वतन्त्र होता है। बच्चा परतन्त्र होकर पढ़ता है तो जीवनभर स्वतन्त्र रहता है!
न कुछ हम हँस के सीखे हैं,
न कुछ हम रो के सीखे हैं।
जो कुछ थोड़ा-सा सीखे हैं,
किसी के हो के सीखे हैं॥
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वास्तवमें मूर्तिकी पूजा नहीं होती, प्रत्युत मूर्तिमें पूजा होती है अर्थात् मूर्तिमें भगवान्की पूजा होती है। भगवान्की पूजा मूर्तिपूजा नहीं है, प्रत्युत अपने शरीर, मकान आदिका शृंगार करना मूर्तिपूजा है। शुद्धि, मजबूती, उम्र आदिकी दृष्टिसे भी देखें तो मूर्ति श्रेष्ठ है।
आरती दर्शनके लिये और सत्कारके लिये है। आरतीसे भगवान्के अंगोंके दर्शन होते हैं और आदर होता है।
जीवका निर्माण नहीं हुआ है, यह अनादिकालसे है। सृष्टि-रचनाका प्रयोजन है—जीवोंका उद्धार करना।
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कामनाके कारण जीव चेतन होते हुए भी जड़का दास हो जाता है। इस चाहनाको मिटानेके लिये पारमार्थिक चाहनाकी जरूरत है। परमात्माकी चाहना हो जाय तो संसारकी चाहना मिट जायगी और परमात्माकी चाहना पूरी हो जायगी। कामना इतना पतन करती है कि मनुष्य मनुष्यपनेसे गिर जाता है। जितनी कामना की, उतना तो परमात्मासे विमुख हो ही गये। दूसरोंकी न्याययुक्त आवश्यकता पूरी करनेसे, दूसरोंको सुख पहुँचानेसे अपनी कामना मिट जाती है।
मन, वाणी, शरीरसे किसीका भी अहित चाहना बड़े भारी पतनकी बात है।
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परमात्माकी प्राप्ति करनेसे नहीं होती, प्रत्युत जानने और माननेसे होती है। स्वत:सिद्ध तत्त्वमें ‘करना’ काम नहीं आता। तत्त्वका कभी कहीं भी, किसीके लिये भी अभाव नहीं है—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)। केवल उधर दृष्टि नहीं है। हम सबके अभावको जानते हैं, पर अपने अभावको नहीं जानते। अपने अभावका ज्ञान किसीको भी नहीं होता। तत्त्व भावरूप है। अत: परमात्माके अभावका अनुभव भी किसीको नहीं होता। परमात्मा कैसा है—इसका पता नहीं, पर वह है—इसमें सन्देह नहीं है। परमात्मतत्त्व है—केवल इसको दृढ़तापूर्वक मान लें तो निहाल हो जाओगे।
जो अपार-असीम होता है, वह काला दीखता है।
परमात्माके होनेमें सन्त-महात्मा सबसे प्रबल प्रमाण हैं, वैसा प्रमाण और कोई नहीं है। यदि परमात्मा नहीं हैं तो उन सन्त-महात्माओंमें हमारेसे अधिक विलक्षणता कैसे आयी?
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गायके समान कोई पवित्र नहीं है। गायोंके नाशसे देशकी बड़ी भारी हानि है। गायकी विशेष रक्षा करनी चाहिये। गोचरभूमिकी रक्षा करनी चाहिये। गायोंकी रक्षाके लिये भगवान् स्वयं पैदल घूमे। गायोंके नाशसे संसारका नाश है। गाय विश्वकी माता है। गायका दूध सात्त्विक है।
लोग कहते हैं कि परिवार बढ़नेसे लोग भूखे मरेंगे, पर मैं कहता हूँ कि परिवार-नियोजन करनेसे लोग भूखे मरेंगे, उन्हें पीनेके लिये जल मिलना कठिन हो जायगा।
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शरीर-संसारको परिवर्तनशील समझनेमात्रसे अपने स्वरूपमें स्थिति हो जायगी। संसारमें मेरा कुछ नहीं है और न मुझे कुछ लेना है। शरीर-संसारके साथ हमारा सम्बन्ध रह सकता ही नहीं। उनसे नित्य-निरन्तर वियोग हो रहा है। उनको स्थायी मानकर ही सुखभोग और संग्रह होता है।
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भगवान्से सम्बन्ध रखनेवाली हरेक वस्तुका बड़ा माहात्म्य है। उनमें सबसे विलक्षण है—भगवान्का नाम। श्रीमद्भागवतके अजामिलोपाख्यानमें शुकदेवजीने नामकी बड़ी विलक्षण महिमा कही है। नाम सुननेसे बीमार व्यक्तिको भी बड़ी शान्ति मिलती है। नामकी महिमा अपार, असीम, अनन्त है।
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प्रह्लादजीने भगवान्के किसी रूपका ध्यान नहीं किया था। भगवान् ‘है’ रूपसे विद्यमान हैं। हिरण्यकशिपुने पूछा कि तेरा भगवान् कहाँ है? तो वे बोले कि कहाँ नहीं हैं? भगवान् है—यह प्रह्लादजीने दृढ़तासे मान लिया। पिताने उनका त्याग कर दिया तो परमपिताने उन्हें ले लिया! भगवान्को ‘है’ मान लेनेपर दर्शन देनेकी जिम्मेवारी भगवान् पर आ जाती है। वे सब जगह परिपूर्ण हैं। वे ही हमारे हैं। यह दीखनेवाला संसार हमारा नहीं है, प्रत्युत इसमें जो परिपूर्ण है, वही हमारा है।
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
(मानस, बाल० १८५।३)
अत: साधक सत्तामात्रका ध्यान करे। भगवान् कैसे हैं—इसको तो भगवान् खुद भी नहीं जानते, फिर हम कैसे जानेंगे?
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यह सबको अनुभव होना चाहिये कि मैं वही हूँ, शरीर वह नहीं है। इस बातका आदर करें तो तत्त्वज्ञान हो जायगा। मैं वही हूँ—यह नित्यताका बोधक है। शरीर वह नहीं है—यह अनित्यताका बोधक है। शरीर हरदम बदलता है, स्वरूप कभी नहीं बदलता। दोनोंको मिला लेना अज्ञान है और अलग-अलग अनुभव करना ज्ञान है। केवल बदलने-ही-बदलनेका नाम संसार है। संसार बहता है, स्वरूप रहता है—‘रहता रूप सही कर राखो, बहता संग न बहीजे’।
मरनेपर जीवात्मा शरीरसे अलग होता है। अलग वही होता है, जो सदासे ही अलग है। जैसे मकानमें रहनेपर भी हम मकानसे अलग हैं, ऐसे ही शरीरमें रहनेपर भी हम शरीरसे अलग हैं—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३।३१)। अज्ञान नहीं है, तभी वह मिटता है।
नेत्र परमात्मातक नहीं पहुँच सकते, पर सर्वसमर्थ परमात्मा नेत्रोंमें आ सकते हैं।
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जैसे राजा बलिने वामनभगवान् पर विश्वास रखा, ऐसे ही भगवान् पर विश्वास रखे। प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी विचलित न हो। बलि भी विचलित नहीं हुए। भगवान् कभी बेठीक करते ही नहीं। उनका प्रत्येक विधान सदा मंगलमय ही होता है।
भगवान्का आश्रय लेना बहुत बड़ा साधन है। दूसरेका सहारा लेनेवाला भगवान्को अच्छा नहीं लगता; क्योंकि वह भूलमें है। दूसरेका आश्रय लेना बड़ी कमजोरी है। जीव भगवान्का अंश होते हुए भी प्रकृतिके अंशका आश्रय ले लेता है। इसमें उसका बड़ा अहित है, इसलिये वह भगवान्को अच्छा नहीं लगता।
अपनेमें जो गुण, बल, विशेषता है, वह अपना नहीं है। उसको अपना मानना कमजोरी है। अपना अभिमान न करनेसे भगवान्की शक्ति काम करती है।
‘अहं ब्रह्मास्मि’ में ‘अहम्’ बड़ी घातक चीज है। ‘अहम्’ से ही भेद पैदा होता है। जहाँ अहम् है। वहाँ ब्रह्म नहीं है। जहाँ ब्रह्म है, वहाँ अहम् नहीं है।
अपनेमें कुछ भी अभिमान होता है तो भक्ति नहीं होती। अंशमें जो भी विशेषता है, वह अंशीकी ही है, अपनी नहीं। भगवान् निरभिमान भक्तके अधीन हो जाते हैं।
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भगवान् अवतार क्यों लेते हैं—यह तो भगवान् ही जानते हैं। सामान्य रीतिसे कहते हैं—
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
(गीता ४।७)
‘हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको (साकाररूपसे) प्रकट करता हूँ।’
—ये कार्य तो भगवान् अवतार लिये बिना भी करते रहते हैं। परन्तु वास्तवमें भगवान्का अवतार भक्तोंके लिये होता है!
भगवान्की हरेक लीला कल्याण करनेवाली है। भगवान् अनन्त हैं तो उनकी लीला, नाम, कथा, रूप आदि भी अनन्त हैं।
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साधक काम-क्रोधादि दोष दूर न कर सके तो एक पीड़ा होती है। उस समय भगवान्की शरणागति सुगमतासे होती है। शरण होनेपर दोषोंको दूर करनेकी जिम्मेवारी अपनेपर नहीं रहती। भगवान् कहते हैं—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता ९।२२)। गोस्वामीजी कहते हैं—
हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि
अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब
प्रेरक प्रभु बरजै॥
(विनय० ८९)
जो अपना कुछ भी बल मानता है, वह शरण नहीं हो सकता। शरण होनेपर वह भगवान्का ही बल मानता है, अपना नहीं।
साधारण आदमी तो केवल दु:खसे दु:खी होता है, पर साधक दु:खसे भी दु:खी होता है, सुखसे भी दु:खी होता है! सुख-दु:ख दोनों विकार हैं। साधक विकाररहित होता है।
जो हताश, निराश हो जाता है, वह भक्त नहीं बनता। शरणागतिसे तत्काल लाभ होता है। लाभ न हो तो समझना चाहिये कि कोई-न-कोई अन्यका सहारा है।
जैसा भक्त चाहते हैं, वैसी ही लीला भगवान् करते हैं।
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दु:खी होना मनुष्यके लिये कलंककी, लज्जाकी बात है! मनुष्यको इस बातका ज्ञान है कि सब पदार्थ उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाले हैं। मैं रहता हूँ, ये बदलते हैं। हम रहनेवाले होकर भी न रहनेवाले नाशवान्को चाहते हैं—यह कितने पतनकी बात है! जो नहीं रहता, उससे सुख चाहना कितनी बड़ी भूल है! हम निरन्तर मर रहे हैं—यह बात और जगह मिलती नहीं। हमारी आवश्यकता नित्यकी है, पर अनित्यको चाहते हैं, कितने शर्मकी बात है!
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सब शास्त्र और सन्त कहते हैं कि परमात्मा हैं। जीव उनका अंश है। मैं जो बालकपनमें था, वही हूँ, पर शरीर वैसा नहीं है—यह सबका अनुभव है। नेत्रोंसे प्रकृतिका कार्य दीखता है। प्रकृतिसे पैदा होनेवाली वस्तु प्रकृतिसे अतीत तत्त्वको नहीं जान सकती। शरीर-संसार निरन्तर बदल रहे हैं। बदलनेके सिवाय इनका कोई स्वरूप है ही नहीं। बदलनेवालेको जाननेवाला बदलनेवाला नहीं है। फिर आप बदलनेवाली चीजके परवश क्यों हो रहे हो? जिसका बेटा ही नहीं है, उसका बेटा कैसे मरेगा? जिसका माथा ही नहीं है, उसका माथा कैसे दु:खेगा? जिसके पास पैसा ही नहीं है, उसको घाटा कैसे लगेगा?
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जो कुछ देखने, सुनने, सोचनेमें आता है, वह नहीं है, वह मिट रहा है—
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं।
मोह मूल परमारथु नाहीं॥
(मानस, अयो० ९२।४)
अत: उसकी तरफ न देखकर, उसमें न फँसकर सत्यकी तरफ देखे—
जासु सत्यता तें जड़ माया।
भास सत्य इव मोह सहाया॥
(मानस, बाल० ११७।४)
जिस ज्ञानके अन्तर्गत सब दीखता है, उस ज्ञानमें स्थित रहें। ज्ञानके अन्तर्गत दीखनेवालेको सत्ता देकर महत्ता दे देते हैं—यह गलती होती है।
शरीर, कपड़ा, मकान आदि सब एक मिट्टी ही है। उनको जला दो तो सब एक राख हो जायगा। अत: अभी भी यह एक ही है। ऐसे ही परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है। जो संसारसे पहले था, पीछे भी रहेगा, वही तो अभी है! परन्तु संयोगजन्य सुख भोगते हैं—यह बाधा होती है।
ज्ञानसे ‘नहीं’-पना सिद्ध है और विश्वाससे ‘है’-पना सिद्ध है।
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जैसे चौरासी लाख योनियोंमें मनुष्यशरीर दुर्लभ है, ऐसे ही मनुष्यजन्ममें अच्छा सत्संग मिलना दुर्लभ है।
लीलाश्रवणके अधिकारी सभी होते हैं, पर पारमार्थिक विवेचन-के अधिकारी साधक होते हैं। मेरी ऐसी धारणा है कि सभी मनुष्य साधक हो सकते हैं और पारमार्थिक बातोंको समझ सकते हैं।
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संसार साक्षात् भगवत्स्वरूप है—‘वासुदेव: सर्वम्’। भगवान् ही संसाररूपसे प्रकट हुए हैं। भला-बुरा दोनों भगवद्बुद्धिमें बाधक हैं—
सब जग ईश्वररूप है, भलो बुरो नहिं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय॥
जब सब कुछ ईश्वर ही है, तो फिर उसमें भला-बुरा, राग-द्वेष दो कैसे हुए? प्रसादमें मीठा भी होता है और कड़ुआ करेला भी, पर दोनों ही प्रसाद हैं।
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥
(मानस, उत्तर० ४१)
राग-द्वेष करना, ठीक-बेठीक मानना गलती है।
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आपका सम्बन्ध वास्तवमें पारमार्थिक चीजोंके साथ ही है। भोगों, कुटुम्ब, मकान आदिके बिना भी आप सुखसे जी सकते हैं, जैसे नींदमें। नींदमें जितनी शान्ति, ताजगी मिलती है, उतनी किसीसे नहीं। आप उत्पन्न-नष्ट होनेवाली चीजके साथ रहनेवाले नहीं हो। आपका संसारके साथ केवल सेवाका सम्बन्ध है।
सत्संगसे जो बोध होता है, वह ग्रन्थोंसे नहीं होता।
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है सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं॥
जो ‘है’, वह इन्द्रियाँ-अन्त:करणसे नहीं दीखता। जैसे, नेत्रोंसे शब्द नहीं सुनायी देता, कानोंसे रूप नहीं दीखता। ‘नहीं’ से ‘नहीं’ ही दीखता है। परमात्मतत्त्वको तो अपने-आपसे ही देखा जा सकता है। ‘हूँ’ से ‘है’ दीखेगा। सत्तासे ही सत्ताका ज्ञान होगा। ‘मैं हूँ’—इस प्रकार अपना होनापन स्वत:सिद्ध है, शास्त्र-प्रमाणसे सिद्ध नहीं है।
अन्त:करण शुद्ध होनेसे परमात्मा कैसे मिलेगा? नेत्र निर्मल होनेसे साफ सुनायी कैसे देगा?
जहाँ भाव और अभाव दोनों हैं, वहाँ अभाव ही है!
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दो विभाग हैं—एक देखते हैं और एक सुनते हैं। भगवान्की बात सुननेमें आती है। भारतवर्षपर भगवान्की विशेष कृपा है। वे नर-नारायणरूपसे लोगोंका कल्याण करनेके लिये उत्तराखण्डमें तपस्या करते हैं। वे भगवान् होते हुए भी सन्त-महात्मा हैं, और सन्त-महात्मा होते हुए भी भगवान् हैं!
हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
(मानस, उत्तर० ४७।३)
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हम परमात्माको बाहर ढूँढ़ते हैं। उनको बाहरी क्रियाओंसे प्राप्त करना चाहते हैं। वास्तवमें बाहरी क्रियाएँ उनकी प्राप्तिका हेतु नहीं है। प्राप्ति स्वयंको होती है, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको नहीं। अत: स्वयं ही परमात्माकी ओर चले।
अपने होनेपनका ज्ञान सबको है। ‘मैं’ के कारण ‘हूँ’ है। ‘मैं’ न रहे तो ‘है’ रह जाता है—‘निर्ममो निरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता२।७१)। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति ममता-अहंताके त्यागसे होती है।
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‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २।१६)—असत् का भाव विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है—यह सब शास्त्रोंका सार है। संयोग रहनेवाला नहीं है, वियोग रहनेवाला है। संयोग असत् है, वियोग सत् है।
इन्द्रियाँ-अन्त:करण अपनी जातिवाले संसारको ही देखते हैं। ‘नहीं’ से ही ‘नहीं’ का भान होता है। ‘है’ का ज्ञान ‘है’ से ही होता है। ‘हूँ’ से ‘है’ दीखता है। संसारका ज्ञान संसारसे अलग होनेपर होता है। स्वरूपका ज्ञान स्वरूपसे अभिन्न होनेपर होता है। जाननेका विषय संसार है। जीव-ब्रह्मकी लक्ष्यार्थ एकता करनेसे कभी बोध नहीं होगा, केवल सीखना होगा। वाच्यार्थकी एकता करनेसे बोध हो जायगा।
ब्रह्मज्ञान तो है। ब्रह्मज्ञान होता नहीं। जो होता है, वह ब्रह्मज्ञान नहीं है।
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खास चीज ‘सत्ता’ है। सत्ता तीन तरहकी है—पारमार्थिक (जीवकी) सत्ता, व्यावहारिक (शरीरादिकी) सत्ता और प्रातिभासिक (रस्सीमें साँपकी) सत्ता। पारमार्थिक सत्ता वास्तविक है। व्यावहारिक सत्ता काममें आनेवाली है। प्रातिभासिक सत्ता केवल दीखती है। वास्तवमें व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्ता है ही नहीं। सत्ता केवल परमात्माकी ही है। जो है ही नहीं, उसीमें सब समय बरबाद कर रहे हैं। ब्रह्मलोकतक जाकर वापिस आ गये तो मिला क्या?
परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है—इसको भगवान्ने समग्ररूप कहा है। समग्रमें सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, द्विभुज, चतुर्भुज, सहस्रभुज आदि सब-के-सब आ जाते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, नरक आदि भी परमात्माके ही स्वरूप हैं। मनुष्य संसारको भोग्य मानकर उसमें फँस जाता है। अपना सुख भोगोगे तो यह दु:खालय है और सेवा करोगे तो यह भगवत्स्वरूप है। सब खतरा सुखभोगमें ही है।
संसारके सभी पदार्थ परमात्माके वाचक हैं। परमात्माके सिवाय न कुछ था, न कुछ होगा, न कुछ हो सकता है।
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‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा’ (मानस, अयो० ३०१।२)—आज्ञापालनके समान सन्तोंकी कोई सेवा नहीं है। आज्ञापालनसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। अगर मनुष्य सन्तोंका कहना नहीं मानेगा तो यमदूतोंका, राजपुरुषोंका, डाकुओंका कहना मानना पड़ेगा और मार अलग पड़ेगी!
सत्यका बड़ा भारी माहात्म्य है। सत्यवादीके सामने झूठ बोलनेवाला टिक नहीं सकता। जो झूठ बोले और कहना नहीं माने, उसका उद्धार कैसे होगा? कहना माननेसे स्वत: शक्ति आती है।
गुरु-कृपासे, ईश्वर-कृपासे जो चीज मिलती है, वह अन्य किसी उपायसे नहीं मिलती। सत्य कह दे तो सभी दण्ड माफ हो जाते हैं! बड़ोंकी आज्ञा माननेसे शक्ति आती है, उनके गुण अपनेमें आ जाते हैं। रावण वह बात नहीं जानता था, जो मन्दोदरी जानती थी। इसका कारण था—आज्ञापालन।
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किसी भी उपायसे मन भगवान्में लगना चाहिये—‘तस्मात् केनाप्युपायेन मन: कृष्णे निवेशयेत्’ (श्रीमद्भा० ७।१।३१)। जिस समय मन भगवान्में लगे, उस समय कोई काम बिगड़ता भी हो तो बिगड़ने दो! ‘कोटिं त्यक्त्वा हरिं स्मरेत्’। मन कभी-कभी ही भगवान् में, ध्यान-सत्संग आदिमें लगता है। यह हाथकी बात नहीं है।
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गीताके अनुसार ‘वासुदेव: सर्वम्’ सबसे श्रेष्ठ है। इसका अनुभव करनेवालेको सुदुर्लभ महात्मा बताया गया है—‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:’ (गीता ७।१९)। भक्तिमें ‘वासुदेव: सर्वम्’ मुख्य है। अत: भक्ति सर्वश्रेष्ठ है।
‘वासुदेव: सर्वम्’ अन्तिम चीज है। इसका अनुभव होनेपर कुछ बाकी नहीं रहता।
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परमात्मा एक हैं और सत्-चित्-आनन्द-घन हैं। ‘घन’ का अर्थ है—ठोस। परमात्मामें न क्रिया है, न पदार्थ है। परन्तु वह सम्पूर्ण क्रियाओं और पदार्थोंका प्रकाशक है। उसकी प्राप्तिके लिये हम क्रियारहित हो जायँ तो तत्काल उसकी प्राप्ति हो जायगी। मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदिसे कोई क्रिया न हो—यह ‘चुप साधन’ है। न करनेका भाव भी नहीं रखना है—‘नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’ (गीता ३।१८)। स्वत:सिद्ध स्वाभाविक जो स्थिर तत्त्व है, उसका लक्ष्य करना है। उसमें स्थित होना नहीं है, स्थिति है। उसकी प्राप्तिमें उद्योग कारण नहीं है।
‘एक परमात्मा है’—ऐसा निश्चय करके चुप हो जाय, कुछ भी चिन्तन न करे—‘आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ (गीता ६।२५)। चिन्तन हो जाय तो उससे घुलेमिले नहीं। वह अपने-आप शान्त हो जायगा। जो स्वाभाविक निष्क्रियता है, उसे अपना लें, स्वीकार कर लें।
चुप साधनका न वर्णन कर सकते हैं, न इसको करा सकते हैं। कुछ न करना एक महान् उद्योग है। एक बार मुझसे किसीने प्रश्न पूछा कि कोई ऐसा साधन बताओ कि कुछ करना न पड़े! मैंने उत्तर दिया कि कुछ भी मत करो तो तत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी। कुछ नहीं करोगे तो आपकी स्थिति ‘है’ में ही होगी। निष्क्रिय होनेपर मूर्ख, विद्वान्, पशु, मनुष्य सब एक हो जाते हैं।
खोया कहे सो बावरा, पाया कहे सो कूर।
पाया खोया कुछ नहीं, ज्यों-का-त्यों भरपूर॥
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भगवत्प्राप्तिमें क्रिया कारण नहीं है, प्रत्युत भाव, लगन कारण है। क्या टेपरिकार्डर राम-राम करता रहे तो भगवान् आ जायँगे? प्रधानता भाव और बोधकी है। द्रौपदी और गजेन्द्रने आर्तभावसे पुकारा तो भगवान् आ गये।
सत्संगके द्वारा बहुत लाभ होता है। शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे वे मार्मिक बातें नहीं मिलतीं, जो सत्संग करनेवालेसे मिलती हैं। अनुभवी पुरुषकी वाणीमें विशेष ताकत होती है। सत्संगसे कमाया हुआ धन मिलता है। सत्संग करनेसे साधन-भजनमें विलक्षणता आती है, जीवनी शक्ति आती है। अत: सभी साधनोंमें सत्संग सर्वश्रेष्ठ है।
साधन करनेसे दोषदृष्टि कम हो जाती है। जो साधन नहीं करता, केवल शास्त्र पढ़ता है, बातें सीखता है, उसको दूसरोंमें दोष दीखने लगता है। जैसे, गाड़ी खड़ी कर दें और उसकी रोशनी तेज कर दें तो जगह-जगह गड्ढे दीखने लगते हैं, पर स्थिति वही रहती है।
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परिवर्तनशीलको अपरिवर्तनशील ही देखता है। हमें सबका बदलना दीखता है, अहंभावका भी। अहम्में कभी अभिमान कम दीखता है, कभी अधिक दीखता है। सबको जाननेवाला नहीं बदलता। जो नहीं बदलता, वही हमारा स्वरूप है।
संसारमें परिवर्तनके सिवाय कुछ नहीं है। यदि मनुष्य अपने जीवनकी घटनाओंपर विचार करे अथवा अपने विवेकसे विचार करे तो वैराग्य हो जायगा।
गाय आँखें बन्द करके घास खाय तो भी लाठी तो पड़ेगी ही। ऐसे ही मनुष्य आँखें मीचकर भोग भोगते हैं, पर उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ता है।
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सभी सुख दु:खोंके कारण हैं—‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते’ (गीता ५।२२)। सभी पाप कामनासे होते हैं—‘काम एष क्रोध एष:’ (गीता ३।३७)। तात्पर्य है कि भोग और संग्रहकी इच्छासे ही पाप होते हैं और पापोंका फल दु:ख होता है। सुखकी लोलुपतासे ही सभी अनर्थ होते हैं। भोग तो अपनी इच्छासे करते हैं, पर फल (दु:ख) बिना इच्छाके भोगना पड़ता है। सुख चाहनेवालेको वर्तमानमें पाप करना पड़ेगा और भविष्यमें भयंकर दु:ख भोगना पड़ेगा।
भोगी व्यक्तिको दूसरा आदमी भी सुहाता नहीं। नतीजा यह होगा कि जो सुखमें बाधक होंगे, उनको मार देंगे!
सुवरण को ढूँढ़त फिरत, कवि व्यभिचारी चोर।
चरण धरत धरकत हियो, नेक न भावत शोर॥
व्यभिचारी और चोरको दूसरा अच्छा आदमी भी सुहाता नहीं। नतीजा यह होगा कि संयम, त्यागकी शिक्षा देनेवालोंको भी मारेंगे। यह नियम है कि दु:खी आदमी ही दूसरेको दु:ख देता है।
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मनुष्य पारमार्थिक उन्नतिके लिये ही पैदा हुआ है। संसारके सुखभोगके लिये मनुष्य पैदा नहीं हुआ है। शब्दादि पाँच विषय, मान, बड़ाई और आराम—ये आठ भोग हैं। भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। भोगीका रूप तो मनुष्यका है, पर है पशु! पशुओंकी एक बीमारी है—भोग। मनुष्योंकी दो बीमारियाँ हैं—भोग और संग्रह। आजकलके साधुओंकी तीन बीमारियाँ हैं—भोग, संग्रह और आलस्य-प्रमाद।
जबतक साधन और असाधन दोनों रहते हैं, तबतक असाधनकी ही मुख्यता रहती है। मान-आदर ‘शरीर’ का तथा बड़ाई ‘नाम’ की होती है। बड़ाई बड़ी भयंकर बीमारी है! मनुष्य मरनेके बाद भी बड़ाई चाहता है!
सावधानी ही साधना है। सत्संगति मनुष्यको सावधान करती रहती है। सावधानी आठों पहर रहनी चाहिये। भजन मुख्य हो, सांसारिक काम गौण हो—यह सावधानी है। सांसारिक काम करते हुए भी साधन नहीं छूटना चाहिये। साधन करते हुए संसार याद नहीं आना चाहिये।
उद्देश्य और अहंताको बदलना साधकके लिये खास बात है।
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गीतामें शरणागतिकी मुख्यता है। साधकको नामजप और प्रार्थना—इन दोनोंको नहीं छोड़ना चाहिये। साधनमें कमी हो, साधन छूटता हो तो प्रार्थना करो। नामजप-साधन आरम्भसे अन्ततक चलता है। नामजप सब साधनोंका पोषक है। भीतरकी पुकार सभी साधनोंमें काम आती है।
भगवान्का आश्रय रखकर साधन करें—‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’ (गीता ७।२९)। भक्ति घी-दूधकी तरह है, जो अकेले भी कल्याण करती है और सबके साथ मिलकर भी। ईश्वरका सहारा लोक-परलोक सबमें काम आता है।
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परमात्माका अंश होनेसे जीवका स्वभाव आश्रय लेनेका है। अंश अंशीकी तरफ स्वत: खिंचता है। परन्तु भूलसे यह नाशवान्- की शरण ले लेता है। स्वयं चेतन होकर भी यह जड़का आश्रय ले लेता है। पर यह आश्रय टिकता नहीं। कोयला अग्निसे अलग होते ही काला हो जाता है, पर अग्निमें रखते ही चमक उठता है। शरण लेनेपर शरण्यकी सब शक्ति शरणागतमें आ जाती है। कितनी शक्ति आती है, इसका कोई पार नहीं! गुरुकी शक्ति शिष्यमें आ जाती है। लक्ष्मणजीने निषादराजको उपदेश दिया तो निषादराजमें लक्ष्मणजीके गुण आ गये! इसलिये उनको देखकर लोगोंको लक्ष्मणजीकी याद आती है—
निरखि निषादु नगर नर नारी।
भए सुखी जनु लखनु निहारी॥
(मानस, अयो० १९६।३)
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मनुष्यशरीर मुक्तिका दरवाजा है—‘साधन धाम मोच्छ कर द्वारा’ (मानस, उत्तर० ४३।४)। मनुष्यमें अनन्त जन्मोंके पापोंको नष्ट करनेकी शक्ति है! प्रत्येक परिस्थिति साधन-सामग्री है। मनुष्य केवल कल्याणके लिये है, भोग भोगनेके लिये नहीं—‘एहि तन कर फल बिषय न भाई’ (मानस, उत्तर० ४४।१)। यह शरीर एक खेत है। खेत क्या आराम करनेके लिये होता है? खेतमें तो परिश्रम करते हैं।
सत्संग, साधन करनेसे जरूर फर्क पड़ता है। फर्क न पड़े तो सत्संग, साधन शुरू हुआ ही नहीं!
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शंकराचार्यजीका अद्वैतवाद, रामानुजाचार्यजीका विशिष्टाद्वैतवाद, मध्वाचार्यजीका द्वैतवाद, निम्बार्काचार्यजीका द्वैताद्वैतवाद, वल्लभाचार्यजीका शुद्धाद्वैतवाद और चैतन्यमहाप्रभुजीका अचिन्त्य भेदाभेदवाद—ये छ: आचार्योंके छ: मत हैं। गीतामें इन छहों आचार्योंके मतोंसे भी विलक्षण बात आयी है। सभी सम्प्रदायोंमें सीखे हुए तो कई मिल जाते हैं, पर अनुभव करनेवाले प्राय: मिलते नहीं। अनुभव करनेवालोंमें भी गीताका अनुभव करनेवाला मुझे विलक्षण मालूम देता है। सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका)- से मैंने पूछा कि आप किसके मतको मानते हैं? वे बोले कि मैं वेदव्यासजीका मत मानता हूँ। वेदव्यासजीके मतमें सभी मत आ जाते हैं। गीता भी उसके अन्तर्गत है।
गीतामें भक्तिकी प्रधानता है। पर वह भक्ति भी विलक्षण है। गीतामें ‘वासुदेव: सर्वम्’ ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’—यह सिद्धान्त मुख्य है। गीताके मतमें ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग—ये तीनों स्वतन्त्र साधन हैं। मेरी भी यही मान्यता है।
सब कुछ भगवान् ही हैं; अत: सबके हितमें प्रीति होनी चाहिये—‘सर्वभूतहिते रता:’ (गीता ५।२५, १२।४)।
यदि मरणासन्न व्यक्ति बेहोश हो जाय तो भी उसको भगवन्नाम सुनाना चाहिये। प्राण होशमें जाते हैं, बेहोशीमें नहीं। जिस चिन्तनमें वह बेहोश होगा, उसी चिन्तनमें होश आयेगा।
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अहंताको बदलनेसे सब बदल जाता है। हम अहंताको न बदलकर क्रियाओंको बदलते हैं, यह गलती होती है। यदि हम अपनी अहंताको बदल दें तो भाव और क्रियाएँ भी बदल जायँगी। मैं साधक हूँ—ऐसी अहंता होनेपर साधन स्वत: होगा और साधन-विरुद्ध क्रिया भी नहीं होगी। यक्षसे प्रश्नोत्तर करनेपर युधिष्ठिरने कहा कि मैं धर्मात्मा हूँ, फिर धर्मसे विरुद्ध काम कैसे करूँ?
परमात्मप्राप्तिमें देरी असह्य होनी चाहिये। ज्यों देरी असह्य होगी, त्यों साधक परमात्माके नजदीक पहुँचेगा।
उद्देश्य सिद्ध करनेके लिये साधक अपनी अहंताको बदले।
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समस्त मनुष्य भगवान्के स्वरूप हैं और उनकी क्रियाएँ भगवान्की लीला हैं! अन्नकूटके प्रसादमें रसगुल्ला भी होता है और करेला भी होता है। स्वादमें फर्क है, पर प्रसादमें क्या फर्क है? स्वाद लेना तो प्रसादका तिरस्कार है! अगर स्वाद मुख्य है तो प्रसाद मुख्य नहीं है। अगर प्रसाद मुख्य है तो स्वाद मुख्य नहीं है। इसी तरह भगवान्की लीलाकी दृष्टिसे क्या अच्छा, क्या बुरा? क्या बड़ा, क्या छोटा? भगवान् चाहे मृत्युरूपसे आ जायँ, क्या फर्क पड़ा? संसारकी रचना भी भगवान्की लीला है और संहार भी भगवान्की लीला है।
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भगवान्के शरण हो जाना श्रेष्ठ उपाय है। अंश स्वत: अंशीकी तरफ जाता है। आश्रय लेनेका जीवका स्वभाव है। जैसे माता-पिताके सामने बच्चा निश्चिन्त रहता है, ऐसे ही भगवान्के चरणोंकी शरण लेकर निश्चिन्त हो जायँ।
शरणागतिमें खास बाधक है—मैं ऐसा कर सकता हूँ! ‘करना’ अच्छा है, पर करनेका अभिमान बाधक है। उद्योगका अभिमान शरण नहीं होने देता। हनुमान्जीमें न तो बलका अभिमान था, न भक्तिका। वे कहते हैं—
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
(मानस, सुन्दर० ३३।४)
—यह निरभिमानकी भाषा है। शरणागतिमें करनेका अभिमान बाधक है। निरभिमान ही शरण होता है। अभिमानी शरण कैसे होगा? अच्छाईका अभिमान बुराईकी जड़ है—यह सूत्र याद कर लो।
सीधा-सरल होकर रहना भक्तिमें मुख्य है—‘मोहि कपट छल छिद्र न भावा’ (मानस, सुन्दर० ४४।३), ‘सरल सुभाव न मन कुटिलाई’ (उत्तर० ४६।१)।
पाप करना प्रारब्धका फल नहीं है। कारण कि पापका फल पाप नहीं होता, प्रत्युत दण्ड (दु:ख) होता है। पाप पाप नहीं कराता, पापका अभिमान पाप कराता है।
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मानवशरीर बड़ा दुर्लभ है, पर प्राप्त होनेके कारण यह दुर्लभ दीखता नहीं। दुर्लभ होनेपर भी यह कब बिछुड़ जाय, इसका कोई पता नहीं! ऐसा कोई वर्ष, महीना, दिन, घण्टा, मिनट, सेकेण्ड नहीं है, जिसमें मृत्यु न होती है। यह प्रतिक्षण मर रहा है। बिना विचार किये ही ऐसा दीखता है कि हम जी रहे हैं।
सुख नाम थकावटका है। और भोग नहीं भोग सकते—इस असामर्थ्यका नाम सुख है।
भगवान्के भजनसे आप भी निहाल हो जाओगे और दूसरोंको भी निहाल करोगे। दादूजी आदि सन्तोंमें जो विलक्षणता थी, वह भजनके कारण थी। एक घरमें भजन हो तो पासके दूसरे घरोंमें भी पवित्रता आ जाती है! मीराबाईके पद गानेसे शान्ति मिलती है, पाप नष्ट होते हैं।
जैसे दूल्हेके बिना बरात किस कामकी? ऐसे ही भजनके बिना मनुष्यशरीर किस कामका? भगवान्का भजन नहीं किया तो शरीर किस कामका? जीवन किस कामका? जैसे भोजन खुदको ही करना पड़ता है, ऐसे ही भजन भी खुदको ही करना पड़ेगा। यह काम ब्राह्मण या नौकर नहीं करेगा!
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दादूजीकी वाणीमें कोमलता, सरलता बहुत है। सन्त-मत एक होनेपर भी अपने स्वभावके कारण वाणीमें फर्क रहता है।
सत् की प्राप्ति असत् के त्यागसे होती है, असत् के द्वारा नहीं होती। तत्त्व करणनिरपेक्ष है। अन्त:करण असत् है, उसके द्वारा सत् का चिन्तन कैसे होगा? असत् का त्याग करनेसे स्वरूपमें स्थिति स्वत: होती है। वास्तवमें स्वरूपमें स्थिति तथा असत् की निवृत्ति स्वत:सिद्ध है।
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सच्चे हृदयसे भगवान्की तरफ लग जायँ। भगवान्के सम्मुख होनेपर लाभ-ही-लाभ है और विमुख होनेपर हानि-ही-हानि है।
शरीर अनन्त ब्रह्माण्डोंका एक नक्शा है। शरीरका निरन्तर परिवर्तन होता है, पर उसमें रहनेवाले परमात्माके अंशका कभी परिवर्तन नहीं होता। बदलनेवाले शरीरको सुख देनेके लिये दूसरोंको दु:ख देनेका परिणाम बड़ा भयंकर होगा! अत: परमात्माको याद करो और दूसरोंको सुख पहुँचाओ।
अपनेको शुद्ध, निर्मल बनानेकी वृत्ति है—‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत् ॥’ बीज तो बोया जायगा विनाशी, पर खेती होगी अविनाशी!
भगवान्के भजनमें लगनेवाला दुनियाको बड़ा लाभ पहुँचाता है। आजकलके जमानेमें पाप न करना भी बड़ा भारी पुण्य है!
श्रोता—सेवक (नौकर)-की सेवा कैसे करें?
स्वामीजी—उसे नामजप, भजन-सत्संगमें लगाना एक नंबरकी सेवा है। शरीर-निर्वाहकी वस्तुएँ देना दो नंबरकी सेवा है।
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जिस वस्तुकी सत्ता होती है, उसका कभी अभाव नहीं होता। यदि उसका कभी भी अभाव होता है तो वास्तवमें वह है ही नहीं। जिसकी दृष्टि ‘नहीं’ पर रहती है, वह ‘है’ को नहीं जान सकता। जैसे व्यापारीकी दृष्टि निरन्तर रुपयोंपर ही रहती है, ऐसे ही साधककी दृष्टि सत्य-तत्त्वपर रहे। संसारमें सच्चापन परमात्माका ही दीखता है। मुक्ति स्वत:सिद्ध है। बन्धनको सत्ता आपने दी है। असत् को सत्ता दे दी—यही हानि है।
वास्तवमें न गुरु है, न चेला है, एक परमात्मा ही हैं—‘वासुदेव: सर्वम्’।
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भीतरके भावोंकी ही महत्ता है। बाहरी वस्तुओंकी महत्ता नहीं है। भीतरमें भगवान्की महत्ता होनी चाहिये। बाहरमें कितना ही वैभव हो, पर भीतर भगवान् नहीं है तो वह खोखला है। बाहरसे चाहे फूटी कौड़ी भी न हो, पर भीतरमें खजाना भरा हो! आने-जानेवाली वस्तुकी क्या कीमत है?
कंचन खान खुली घट माहीं।
रामदास के टोटो नाहीं॥
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मनुष्यके सामने जो भी परिस्थिति आती है, वह सब केवल साधन-सामग्री है। उसे भोग-सामग्री बनाना गलती है। सुखदायी परिस्थिति सेवा करनेके लिये और दु:खदायी परिस्थिति सुखकी इच्छाका त्याग करनेके लिये है। सुखदायी परिस्थितिमें तो परिश्रम करना पड़ता है, पर दु:खदायी परिस्थितिमें कोई झंझट नहीं है, केवल सुखकी इच्छाका त्याग करना है।
जाहि बिधि राखे राम, ताहि बिधि रहिये,
सीताराम सीताराम सीताराम कहिये।