Hindu text bookगीता गंगा
होम > ज्ञान के दीप जले > प्राक्‍कथन

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

प्राक्‍कथन

हमारे ग्रन्थोंमें तथा सन्तवाणीमें सत्संग और नाम-जपकी जितनी महिमा गायी गयी है, उतनी अन्य किसी साधनकी नहीं। सत्संगके विषयमें गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराजने यहाँतक कहा है—

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख
धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि
जो सुख लव सतसंग॥
(मानस, सुन्दर० ४)
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
सतसंगति संसृति कर अंता॥
(मानस, उत्तर० ४५।३)
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
(मानस, बाल० ३।४)

सत्कर्म, सच्चर्चा, सच्चिन्तन और सत्संग—ये चार उत्तरोत्तर श्रेष्ठ साधन हैं। जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी सन्तका संग (सान्निध्य) ही वास्तवमें ‘सत्संग’ कहलाता है। इसके अतिरिक्त सच्चर्चा होती है, सत्संग नहीं। वर्तमानमें लोग प्राय: सच्चर्चाको ही सत्संग मानकर सन्तोष कर लेते हैं। इसलिये किसी सन्तने ठीक ही कहा है कि लोग चर्चा तो सत् की करते हैं, पर संग असत् का करते हैं; फिर कहते हैं कि सत्संगसे कोई लाभ नहीं हुआ! सत्संगसे लाभ न हो—यह असम्भव है।

अनुभवी सन्तकी वाणीमें विशेष शक्ति होती है। अनुभवी सन्तकी वाणी गोली भरी हुई बन्दूकके समान है, जो आवाजके साथ-साथ मार भी करती है। परन्तु केवल सीखी बातें कहनेवाले वक्ताकी वाणी बिना गोलीकी बन्दूकके समान होती है, जो केवल आवाज करके शान्त हो जाती है। उदाहरणार्थ—गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराजके द्वारा रामायणकी रचना होनेके बाद विविध कवियोंने अनेक प्रकारसे रामायणकी रचना की; परन्तु वे सब एक भभकेके बाद शान्त हो गयीं, जबकि गोस्वामीजीकी रामायण आज भी उत्तरोत्तर विस्तारको प्राप्त हो रही है! सन्तवाणीमें आया है—

वचन आगले संत का, हरिया हस्ती दंत।
ताख न टूटे भरम का, सैंधे ही बिनु संत॥

कोई योद्धा हाथीदाँतको हाथोंसे पकड़कर शत्रुके किलेका द्वार खोलना चाहे तो नहीं खोल सकेगा; क्योंकि दाँतोंके पीछे हाथी (शक्ति) चाहिये! ऐसे ही अनुभवी सन्तकी वाणी हाथीके दाँतोंकी तरह शक्तिशाली होती है, जिससे अज्ञानके द्वार टूट जाते हैं। ऐसे ही अनुभवी सन्तके सत्संगसे यथाश्रुत, यथागृहीत बातें, जिन्हें मैं समय-समयपर अपनी डायरीमें लिखता रहा, ‘ज्ञानके दीप जले’ नामसे प्रकाशित की जा रही हैं। इस कार्यमें पुनरुक्तियाँ होनी स्वाभाविक हैं। परन्तु उन पुनरुक्तियोंको साधकके लिये लाभप्रद मानते हुए हटाया नहीं गया है। शुक्लयजुर्वेद-संहिताके उव्वटभाष्यमें आया है—

‘संस्कारोज्ज्वलनार्थं हितं च पथ्यं च पुन:
पुनरुपदिश्यमानं न दोषाय भवतीति’
(१। २१)

‘संस्कारोंको उद‍्बुद्ध करनेके उद्देश्यसे हित तथा पथ्यकी बातका बार-बार उपदेश करनेमें कोई दोष नहीं है।’

सुनने, समझने और लिखनेमें पूर्ण सावधानी रखते हुए भी भूल हो सकती है। कारण कि वक्ताका जो अनुभव है, वह उसकी बुद्धिमें नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना उसकी वाणीमें नहीं आता। जितना वाणीमें आता है, उतना श्रोताके सुननेमें नहीं आता। जितना श्रोताके सुननेमें आता है, उतना उसके मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना बुद्धिमें नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना अनुभवमें नहीं आता।

सत्संगप्रेमी पाठकोंसे विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तकमें आयी बातोंसे लाभ प्राप्त करें और त्रुटियोंको मेरी भूल समझकर क्षमा करनेकी कृपा करें।

विनीत
संकलनकर्ता

अगला लेख  > ज्ञानके दीप जले