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सदाचार, गृहस्थधर्म, मानवधर्म आदि

१—दूसरेकी उन्नतिसे प्रसन्न हो, डाह-ईर्ष्या न करे।

२—किसीकी भूल, पतन या असफलतापर उसे देखकर हँसे नहीं।

३—किसीको भी गिरानेमें सहायक न बने, उठानेमें बने।

४—दूसरेके अधिकारकी रक्षा करे, अपने अधिकारको छोड़ दे। दूसरेके लिये उदार बने, अपने लिये कंजूस बने। दूसरेकी आशाको यथासाध्य पूर्ण करे, स्वयं किसीसे आशा न रखे पर यह सब करके कभी अभिमान न करे।

५—दूसरोंके साथ वैसा ही बर्ताव करे, जैसा दूसरोंसे स्वयं चाहता है। दूसरेसे वैसा बर्ताव कभी न करे, जैसा वह दूसरेसे नहीं चाहता।

६—अपनी सुख-सुविधाको दु:खियों तथा दीनोंसे ली हुई उधार समझे और सम्मानपूर्वक उसे व्याजसमेत लौटाता रहे।

७—अपनी उतनी ही सम्पत्तिपर अपना हक समझे, जितनेसे सादगीसे जीवन-निर्वाह हो सके।

८—सबकी सेवा करके बचा हुआ ही खाय! उसीसे पाप नाश होते हैं।

९—प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थितिको, जो फलरूपमें मिली है, भगवान‍्का मंगल-विधान मानकर प्रसन्न रहे। उसीमें अपना मंगल समझकर अनुकूलताका अनुभव करे—जैसे ऑपरेशनकी पीड़ामें रोगी अनुकूलताका अनुभव करता है। दर्द होनेपर भी सुखी रहता है।

१०—दूसरेके छिद्रोंको प्रकट न करे, ढके।

११—जिससे जहाँतक बने, सदाचारका पालन तथा सदाचारके प्रचारमें सहायता करे। असदाचारका कभी सेवन, समर्थन-सहयोग न करे।

१२—जहाँतक बने, अपना काम अपने हाथसे करे।

१३—जहाँतक बने, अपनी आवश्यकता कम-से-कम रखे।

१४—रोगमें, विपत्तिमें, व्यापारमें, भजनमें निराशाकी बात न सोचकर, सदा आशाकी सोचे। यथाशक्ति, यथायोग्य सत्कर्म करता रहे।

१५—सत्-शास्त्रों, अवतारों, ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं, तीर्थों, मन्दिरोंकी पूजा-अर्चनापर श्रद्धा रखे।

१६—सभी युगोंके तथा सभी धर्मोंके संतोंका आदर करे; उनके जीवनकी उच्च शिक्षाओंसे लाभ उठावे।

१७—मेरे प्रारब्धके बिना मेरा बुरा या भला कोई कर नहीं सकता, इसलिये कोई बुरा करता दीखे या अपने बुरेमें किसीका हाथ दीखे तो यह समझे कि मेरा बुरा तो मेरे अपने कर्मफलके रूपमें ही हुआ है, बुरा चाहने-करनेवाला तो निमित्त है पर उसने नया बुरा कर्म करके अपना बुरा कर लिया है, यह समझकर उसे क्षमा करनेके लिये भगवान‍्से प्रार्थना करे, द्वेष न करे, उसका बुरा न चाहे।

१८—भला होनेमें जो व्यक्ति निमित्त बना है, उसने अवश्य मेरी भलाई चाही है। इसलिये उसका उपकार माने।

१९—वस्तुओंका संग्रह कम-से-कम करे। वितरण करे।

२०—आरामतलब, आलसी, परमुखापेक्षी न बने। परिश्रमी, कर्मशील, स्वाश्रयी बने।

२१—किसी प्रकारका नशा तो करे ही नहीं; गाँजा, चरस, भाँग आदिका सेवन न करे। बीड़ी, सिगरेट, जर्दा, तम्बाकू भी न खाये-पीये। चाय भी यथासाध्य न पीये। सोडा, लेमनेड, कोकाकोला आदिसे भी बचे।

२२—आर्यजातिके चिह्न शिखा (चोटी) को आदर तथा गौरवकी वस्तु मानकर अवश्य रखे।

२३—दु:ख-संकट—विपत्तिमें धैर्य-धर्मका त्याग न करके उसे भगवान‍्का मंगल-विधान मानकर ग्रहण करे और विश्वासपूर्वक भगवत्प्रार्थना करता रहे।

२४—बच्चोंको श्रमशील, सदाचारी, ईश्वरभक्त, दयालु, कर्मपरायण, उत्साही, कर्मतत्पर, विनयी, मधुरभाषी, त्याग-प्रेमी, सादा तथा पवित्र जीवनवाले, मितव्ययी, पुरुषार्थी, मेधावी, आत्मनिर्भर, सच्चे, ईमानदार बनानेके लिये आरम्भसे ही माता-पिता आदि अभिभावक स्वयं वैसे आचरण करें तथा शिक्षा, उपदेश, क्रिया और आचरणके द्वारा उनका ऐसा ही जीवन-निर्माण करें। उन्हें प्रमादी, आलसी, क्रोधी, अभिमानी, व्यर्थ खर्च करनेवाले, परनिर्भर, मिथ्यावादी, असदाचारी, नास्तिक, भोगपरायण, चटोरे, कर्म-विमुख, उद्दण्ड, कटुभाषी और मूर्ख न बनावे।

२५—होटलों, क्लबों, नृत्यगृहों, सिनेमामें और जहाँ उच्छृंखलरूपसे खान-पान, आमोद-प्रमोदके नामपर अनाचार होता हो, वहाँ न जाय। न बच्चोंको ले जाय।

२६—गरीबोंकी सुख-सुविधाका सदा ध्यान रखे। सभीको रहनेके लिये स्थान, अन्न, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा आदि समुचितरूपसे सुलभतासे मिले, इसके प्रयत्न करे।

२७—जहाँ दुर्भिक्ष, बाढ़, महामारी, भूकम्प, वज्रपात, अग्निदाह, दंगे-फसाद आदि दैवी प्रकोपोंसे पीड़ित प्राणी एवं जहाँ प्रारब्धवश अर्थ, वस्त्र तथा आश्रयहीन हमारे-ही-जैसे मानव तथा इतर प्राणी, विधवा बहिनें, दीन असहाय विद्यार्थी, अनाथ बालक, रोगपीड़ित तथा विपत्तिमें फँसे नर-नारी विभिन्न प्रकारसे अभावग्रस्त हों, वहाँ मानो उन अभावग्रस्तोंके रूपमें भगवान् ही हमारे सामने उपस्थित हैं—यों समझकर उनके अभावकी पूर्तिके लिये, जिसके पास जो कुछ हो उसे, उन्हींकी वस्तु मानकर, अभिमानशून्य विनम्रभावसे इसे अपना ही परम तथा चरम स्वार्थ समझकर निष्काम पूजाके भावसे उनकी सेवामें सम्मानपूर्वक समर्पण कर दे।

२८—कुटुम्बके असमर्थ जनोंका यथाशक्ति आदरपूर्वक भरण-पोषण करे।

२९—माता-पिताकी सब प्रकारसे सेवा करे। इसमें अपना सौभाग्य समझे! बीमारीकी अवस्थामें नौकरों-दाइयोंपर ही न छोड़कर यथासाध्य अपने हाथोंसे उनकी सेवा करे।

३०—घरमें सब प्रकारसे सादगी रखे, ज्यादा फर्नीचर न रखे, विलासिताकी चीजें न संग्रह करे, सजावट—डेकोरेशन आदि न करे-करावे। अपनेको आरामकी चीजोंसे बचाये रखे।

३१—गौका पालन, संरक्षण तथा संवर्धन हो, इसके लिये यथासाध्य तन-मन-धनसे यत्न करे।

३२—प्राणिमात्रकी हिंसासे बचे। ऐसे किसी व्यक्तिका, कार्यका अथवा कसाईखानेका, प्रयोगशाला आदिका न समर्थन करे, न सहयोग करे, जहाँ प्राणिहिंसा होती हो।

३३—विधवा बहिनका कभी अपमान न करे, उसका संन्यासीकी भाँति आदर करे; उसके शील तथा धनका संरक्षण करे। उसे दु:खी और पतित न होने दे।

३४—राष्ट्र, देश या धर्म आदिकी भक्ति तथा सेवाका अर्थ है—राष्ट्र, देश या धर्मके साथ सर्वथा तादात्म्य हो जाना। व्यक्तिका अलग स्वार्थ रहे ही नहीं। वह जिसकी सेवा-भक्ति करना चाहता हो, स्वयं उसीमें समा जाय।

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