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॥ श्रीहरि:॥

सिद्धान्तकी कुछ बातें

१—भगवान् एक ही हैं। वे ही निर्गुण-निराकार, सगुण-निराकार और सगुण-साकार हैं। लीलाभेदसे उन एकके ही अनेक नाम, रूप तथा उपासनाके भेद हैं। जगत‍्के सारे मनुष्य उन एक ही भगवान‍्की विभिन्न प्रकारसे उपासना करते हैं, ऐसा समझे।

२—मनुष्य-जीवनका एकमात्र साध्य या लक्ष्य मोक्ष, भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति ही है, यह दृढ़ निश्चय करके प्रत्येक विचार तथा कार्य इसी लक्ष्यको ध्यानमें रखकर इसीकी सिद्धिके लिये करे।

३—शरीर तथा नाम आत्मा नहीं है। अत: शरीर तथा नाममें ‘अहं’ भाव न रखकर यह निश्चय रखे कि मैं विनाशी शरीर नहीं, नित्य आत्मा हूँ। उत्पत्ति, विनाश, परिवर्तन शरीर तथा नामके होते हैं—आत्माके कभी नहीं।

४—भगवान‍्का साकार-सगुणस्वरूप सत्य नित्य सच्चिदानन्दमय है। उसके रूप, गुण, लीला सभी भगवत्स्वरूप हैं। वह मायाकी वस्तु नहीं है। न वह उत्पत्ति-विनाशशील कोई प्राकृतिक वस्तु है।

५—किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, मतसे द्वेष न करे; किसीकी निन्दा न करे। आवश्यकतानुसार सबका आदर करे। अच्छी बात सभीसे ग्रहण करे पर अपने धर्म तथा अपने इष्टदेवपर अटल, अनन्य श्रद्धा रखकर उसीका सेवन करे।

६—अपने इष्ट तथा अपने साधनको हीन न समझकर अपने लिये उसीको सर्वश्रेष्ठ समझे पर अभिमान करके दूसरोंकी निन्दा कभी न करे। दूसरोंके इष्टदेवको अपने ही इष्टदेवका उनके द्वारा पूजित एक रूप समझे।

७—किसी भी देवताकी, साधनकी निन्दा न करे, किसी भी पूजा-स्थल, मन्दिर, मठ, विहार, उपासना, आश्रम, गुरुद्वारा, मस्जिद, गिरजा, अगियारी आदिका असम्मान कभी न करे।

८—जहाँतक बने, तन-मन-धनसे सबकी यथायोग्य सेवा करे। सब प्राणियोंमें भगवान् हैं—यह समझकर सभीका सम्मान करे, सभीका हित करे और सभीको सुख पहुँचावे। किसीका अपमान-अहित न करे, किसीको दु:ख न पहुँचावे।

९—मानवमात्रमें परस्पर प्रेम बढ़े, सभी एक-दूसरेकी सहायता करें, सबका सब हित करें। व्यक्तिगत या दलगत संकुचित स्वार्थकी प्रतिष्ठा न हो, बल्कि विशाल-विश्वमय स्वार्थ हो, ऐसे विचार तथा कार्य करें।

१०—संसारके भोगमात्र अनित्य, अपूर्ण तथा सुखरहित, दु:खालय और दु:खोंके उत्पत्ति-स्थान हैं—ऐसा समझकर उनमें आसक्ति न रखे।

११—अपनी संस्कृति, पूर्वज, शास्त्र, पवित्र स्थान, संस्कृत-भाषा आदिपर श्रद्धा हो और इसमें गौरवका अनुभव करे।

१२—कर्मफलभोगका सिद्धान्त सर्वथा सत्य है। अच्छे-बुरे कर्मका फल इस लोक या परलोकमें भोगना ही पड़ता है। कर्मानुसार स्वर्ग, नरक, देवयोनि, मनुष्ययोनि, पितृयोनि, प्रेतयोनि, कूकर-शूकरादि आसुरी योनियोंमें तथा लोकोंमें आना पड़ता है—यह सब सर्वथा सत्य है।

बीज-फल-न्यायसे लघुकर्मके लंबे फल होते हैं और शास्त्रीय प्रायश्चित्तसे कर्म कटते भी हैं। देवाराधन, ईश्वराराधनसे नवीन प्रारब्धका निर्माण भी होता है।

१३—वर्तमान निषिद्ध कर्म करनेवाला पूर्व-प्रारब्धानुसार सुखी देखा जा सकता है। वर्तमान कर्मका फल उसे भविष्यमें मिलेगा। इसी प्रकार वर्तमानमें सत्कर्म करनेवाला पिछले पापोंके प्रारब्धवश दु:खी देखा जा सकता है। इस सत्कर्मका फल उसे आगे मिलेगा पर यह निश्चित है कि बुरे कर्मका अच्छा फल और अच्छे कर्मका बुरा फल नहीं हो सकता।

१४—तत्त्वज्ञान तथा भगवत्-शरणागतिसे समस्त कर्मराशि भस्म हो जाती है।

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