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आठ आध्यात्मिक प्रश्न

आपका कृपापत्र मिला। आपने जो प्रश्न किये हैं वे बहुत विचारपूर्ण हैं। मैं यथामति उनपर अपना विचार लिखनेका प्रयत्न करता हूँ। यदि इससे आपको कुछ सन्तोष हो सके तो बड़ी प्रसन्नताकी बात है। आपके प्रश्न अंग्रेजीमें हैं। इसलिये उनका हिन्दी-अनुवाद देते हुए उसके साथ ही अपना उत्तर लिखता हूँ—

प्रश्न १—निम्नलिखित पारिभाषिक शब्दोंका क्या तात्पर्य है—

(१) अचल सत्य।

(२) चल सत्य।

(३) ईश्वर।

(४) मनुष्यको ईश्वरका ज्ञान होना।

(५) आत्मप्रकाश।

(६) अन्त:प्रज्ञा।

(७) अनुभूति।

उत्तर—(१, २) अचल सत्य और चल सत्यसे सम्भवत: आपका तात्पर्य पारमार्थिक सत्य और व्यावहारिक सत्यसे है। इनके स्वरूपका यदि सूत्ररूपसे उल्लेख किया जाय तो पारमार्थिक सत्य तो सत्यके अपने स्वरूपको कहते हैं और व्यावहारिक सत्य उसे कहते हैं जिस रूपमें उसीको हम अनुभव करते हैं। वास्तवमें परमार्थ सत्य ही अपनी अचिन्त्य मायाशक्तिसे इस विश्वप्रपंचके रूपमें भास रहा है। हम भी उसीकी लीलाशक्तिके एक क्षुद्र विलास हैं। हमारे मन और बुद्धि, जो उसका अनुभव करनेके लिये उत्सुक हैं, वे भी इस व्यावहारिक चेतनाके ही तो क्षुद्र अणु हैं। अत: इनके द्वारा जो कुछ अनुभव किया जाता है वह व्यावहारिक सत्य ही है। भले ही वह ऊँची-से-ऊँची और अत्यन्त अलौकिक वस्तु हो। व्यावहारिक सत्य परमार्थ सत्यमें अध्यस्त है और अध्यस्त वस्तु अपनी सत्ता रखते हुए अपने अधिष्ठानका अनुभव किसी प्रकार नहीं कर सकती। अत: इन मन-बुद्धि आदिसे परमार्थ सत्यके स्वरूपका आकलन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता; वह स्वत:सिद्ध और स्वानुभूतिमात्र है। फिर भी यह जो कुछ है—उसीका प्रकाश है—इस रूपमें भी क्रीड़ा उसीकी हो रही है। अत: तत्त्वज्ञ पुरुष इस व्यावहारिक सत्यमें भी अपनी विवेकवती दृष्टिसे उसीकी झाँकी कर लेते हैं।

(३) यद्यपि परमार्थ सत्य और ईश्वर दो नहीं हैं, परन्तु ‘ईश्वर’ यह संज्ञा व्यावहारिक है। जो ऐश्वर्यवान् हो उसे ‘ईश्वर’ कहते हैं। इस प्रकार राजा, लोकपाल, दिक्पाल और प्रजापति आदि भी ‘ईश्वर’ शब्दसे कहे जा सकते हैं। किन्तु उनका ऐश्वर्य परिमित है, इसलिये उनमें इस पदका औपचारिक प्रयोग होता है। निरपेक्ष ईश्वर वही हो सकता है जिसका ऐश्वर्य पूर्ण हो—समग्र हो; ऐसी कोई वस्तु न हो जो उसके ऐश्वर्यसे बाहर हो। ऐसा ऐश्वर्य तो उस ‘परमार्थ सत्य’ का ही है जिसमें यह निखिल प्रपंच अध्यस्त है। अत: इसका अधिष्ठान होनेसे उसे ही परमार्थ सत्य कहा जाता है और इसका स्वामी होनेसे वही ईश्वर है।

(४) ईश्वरको समग्र ऐश्वर्यवान् जान लेना ही ईश्वरका ज्ञान है। परन्तु यह ज्ञान अपरोक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वरताका ज्ञान होनेके लिये उनके सारे ऐश्वर्यका भी ज्ञान होना चाहिये। किन्तु अघटनघटनापटीयसी मायाकी अचिन्त्य शक्ति और अनन्त लीलाका पूर्ण ज्ञान होना किसी भी जीवको सम्भव नहीं है। किसी बड़े राजाके सम्पूर्ण वैभवका ठीक-ठीक ज्ञान होना भी प्राय: असम्भव-सा है, फिर समग्र ऐश्वर्यवान् श्रीभगवान‍्के वैभवकी तो बात ही क्या है। अत: ईश्वरज्ञानसे अपने शास्त्रोंमें ईश्वरके स्वरूपका ही ज्ञान माना गया है। ईश्वरने अपने स्वरूपको अपनी ही प्रकाशभूता माया और मायाके कार्योंद्वारा ढक-सा रखा है; अत: उसका ज्ञान इस मायाके पर्देको हटानेपर ही हो सकता है। इसलिये भगवत्कृपाजनित ज्ञानके प्रकाशसे मायाकी निवृत्ति होनेपर, जिसका अनुभव होता है वही ईश्वरका स्वरूप है। इसीको वेदान्तकी भाषामें ‘ब्रह्म’ कहते हैं और इसीसे इसे ईश्वरज्ञान न कहकर ‘ब्रह्मज्ञान’ शब्दसे कहा जाता है।

(५, ६, ७) आत्मप्रकाश, अन्त:प्रज्ञा और अनुभूति, जिन्हें आपने क्रमश: Revelation, Intuition और Realization शब्दोंसे कहा है, वास्तवमें अनुभवके ही तीन प्रकार हैं। परन्तु इनके स्वरूपमें भेद अवश्य है। ये तीनों ही अनुभवकी चरम अवस्थाएँ हैं; किन्तु इनमेंसे प्रत्येक एक विशेष प्रकारके अधिकारीकी अपेक्षा रखता है। आत्मप्रकाश भगवत्कृपासाध्य है। जो साधक सब प्रकारके साधनोंका आश्रय छोड़कर भगवान‍्को आत्मसमर्पण कर देता है, अथवा किसी अन्य कारणसे जिसपर भगवान् स्वयं कृपा करते हैं, उसके प्रति वे अपने स्वरूप या ज्ञानको प्रकट कर देते हैं। यही ‘आत्मप्रकाश’ जब साधकका अपना कोई संकल्प न होनेपर भी संस्कारवश अकस्मात् होता है तो इसे ‘अन्त:प्रज्ञा’ या ‘प्रातिभ ज्ञान’ कहते हैं। कई बार यह साधकके जीवनके प्रवाहको बदलनेके लिये भी होता है। ऐसा करके एक प्रकारसे भगवान् स्वयं ही उसका पथ-प्रदर्शन कर देते हैं। ‘अनुभूति’ पुरुषार्थसाध्य है। इसमें भी भगवत्कृपाकी आवश्यकता तो रहती है; किन्तु प्रधानता साधकके प्रयत्नकी ही रहती है। यहाँ पहुँचकर ही उसके कर्तव्यकी समाप्ति होती है।

प्रश्न २—जब हम कहते हैं कि वेद ईश्वरकृत हैं तो इसका ठीक-ठीक तात्पर्य क्या होता है? क्या यही कि वे सर्वथा निर्दोष और चरम ज्ञानरूप हैं? (क्या यह निर्दोषता चारों वेदोंके विषयमें समानरूपसे अभिप्रेत है अर्थात् उनमें जितना ज्ञान और विषय निहित है उस सभीके लिये कही जा सकती है अथवा किसी विशेष अंश या मन्त्रके लिये ही?)

उत्तर—वेदोंको ईश्वरकृत नहीं बल्कि ‘अपौरुषेय’ कहा जाता है। योगदर्शनमें ईश्वरको भी पुरुषविशेष कहा है—‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।’ (१। २४) अत: ईश्वरकृत माननेपर इन्हें अपौरुषेय नहीं कहा जायगा। वास्तवमें बात ऐसी है कि जिस प्रकार इस अनादि प्रपंचका अधिष्ठान और कर्ता अनादि है उसी प्रकार इसका ज्ञान भी अनादि है। अनादि ज्ञेयका ज्ञान भी अनादि होना ही चाहिये। परन्तु प्रत्येक अनादि वस्तु व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकारसे रहती है। इन्हें ही उसके सृष्टि और प्रलय अथवा आविर्भाव और तिरोभाव कहते हैं। इसी प्रकार वेदोंका भी आविर्भाव-तिरोभाव होता रहता है; किन्तु जब-जब उनका आविर्भाव होता है तब-तब उनके वर्णोंकी आनुपूर्वी वही रहती है और उनके द्रष्टा ऋषिगण भी वे ही रहते हैं। जिस प्रकार साधारणतया रात्रि और दिन अथवा ऋतुओंके परिवर्तनका क्रम पुन: एक ही रूपमें होता दिखायी देता है, उसी प्रकार सृष्टि और प्रलयके क्रममें एक नियत समानता रहती है। अत: वेदोंके आविर्भावका क्रम भी एक-सा ही रहता है। यह नियम केवल मन्त्रसंहिताके लिये ही नहीं बल्कि वैदिक* इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान और व्याख्यानोंके लिये भी है; जैसा कि यह श्रुति कहती है—‘अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहास: पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका: सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानि’ (बृह० २।४।१०)।

* श्रौत इतिहासादिका तात्पर्य इस प्रकार समझना चाहिये—इतिहास=उर्वशी- पूरूरवा-संवादादि कथाभाग, पुराण=‘असद्वा इदमग्र आसीत्’ इत्यादि पूर्ववृत्त, विद्या=देवजनविद्या (नृत्यगीतादिशास्त्र), उपनिषद्=‘प्रियमित्येवोपासीत’ इत्यादि उपासना, श्लोक=‘यदेते श्लोका:’ इत्यादि ब्राह्मणभागके मन्त्र, सूत्र=‘आत्मेत्येवोपासीत’ इत्यादि वस्तुके संग्राहक वाक्य, अनुव्याख्यान=मन्त्रोंके विवरण और व्याख्यान=अर्थवाद। इस प्रकार यह आठ प्रकारका ब्राह्मणभाग ही है। इस प्रकार चारों मन्त्र संहिता और सम्पूर्ण ब्राह्मण अपौरुषेय ही हैं।

इस श्रुतिमें वेद, उपनिषद् और इतिहास आदि सभीको इस परमपुरुषका श्वास बताया गया है। जिस प्रकार श्वास बिना पौरुष-प्रयत्नके चलता रहता है उसी प्रकार ये सब भी बिना पौरुष-प्रयत्नके ही अभिव्यक्त होते हैं। इसीसे इन्हें अपौरुषेय कहा गया है। मन्त्रद्रष्टा ऋषियोंने भी कर्तृत्वाभिमानशून्य होकर ही इनका साक्षात्कार किया है; ये उनकी बुद्धिसे प्रसूत नहीं हैं, इसलिये इनकी अपौरुषेय संज्ञा उचित ही है।

प्रश्न ३—यदि वेद ईश्वरकृत हैं तो ईश्वरद्वारा इनके ज्ञानके आविर्भाव और प्रसारका तथा मनुष्यद्वारा उसके ग्रहणका क्या क्रम है?

प्रश्न ४—क्या यह ज्ञानका प्रसार केवल एक ही बार होता है या इसकी पुनरावृत्ति भी होती रहती है?

प्रश्न ५—यदि इसकी पुनरावृत्ति होती है तो क्या इनके द्वारा व्यक्त होनेवाला ज्ञान अपने विस्तार या स्वरूपकी दृष्टिसे समान ही रहता है?

उत्तर—इन सब प्रश्नोंका उत्तर प्रसंगवश पहले आ चुका है, इसलिये उसकी पुनरावृत्ति करनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। वेदोंका आविर्भाव सृष्टिके आरम्भके समय प्रत्येक कल्पमें होता रहता है और उसके तो ज्ञान ही नहीं, वर्णोंके क्रममें भी समानता ही रहती है। यही शास्त्रोंका सिद्धान्त है।

प्रश्न ६—यदि समान ज्ञानकी ही पुनरावृत्ति हो सकती है तो चार वेदोंको ही विशेष महत्त्व और प्रधानता क्यों दी जाती है?

उत्तर—वेदोक्त ज्ञानका भी किसी अधिकारीविशेषको स्वयं अनुभव हो तो सकता है; किन्तु उसे जो अनुभव हुआ है वह वेदोक्त है या नहीं—इसका निश्चय कैसे होगा। साधनके द्वारा जो ज्ञान होता है उसमें साधकके जन्मान्तरके संस्कार, जीवमें स्वाभाविक रूपसे रहनेवाला संकोच और पक्षपात आदि दोषोंके कारण प्राय: अपूर्णता ही रहती है। किन्तु अपनी अपूर्ण प्रज्ञासे वह उसीको पूर्ण मान बैठता है। इसलिये उसके ज्ञानको श्रुतिकी कसौटीपर परखना होता है। वह अपौरुषेय और नित्य ज्ञान होनेके कारण इन दोषोंसे रहित है। इसलिये जो ज्ञान उसके अनुकूल होता है वही प्रामाणिक माना जाता है?

प्रश्न ७—क्या मनुष्यके द्वारा आध्यात्मिक सत्यकी अनुभूतिका अर्थ वही है जो कि ईश्वरके द्वारा उसके प्रति सत्यके आविर्भाव करनेका है?

उत्तर—इस प्रश्नका उत्तर प्रथम प्रश्न खण्ड ५, ६, ७ के उत्तरमें आ गया है। वहाँ जो बात कही गयी है उसके अनुसार इन दोनों प्रकारके अनुभवोंके साधक और क्रममें तो भेद है किन्तु स्वयं अनुभवमें भेद नहीं होता। साधककी प्रकृतिके भेदसे अनुभवके भी स्वरूप या आस्वादनमें भेद हो सकता है; किन्तु वस्तुत: तत्त्व एक ही है। अत: दोनों ही प्रकारके अनुभवोंसे उन्हें पूर्ण कृतकृत्यता और शान्तिका बोध हो सकता है।

प्रश्न ८—क्या यह सच नहीं है कि जहाँतक मनुष्यकी गति है उसके लिये चरम और सर्वथा निर्दोष सत्यको प्रस्तुत करना असम्भव है, क्योंकि मनुष्यका मस्तिष्क विकासशील है और विकास किसी भी अवस्थामें चरमकोटिका या सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकता।

उत्तर—मनुष्य किसी भी अवस्थामें चरम और सर्वथा निर्दोष सत्यको प्रस्तुत नहीं कर सकता—यह बात तो बिलकुल ठीक है; क्योंकि जिसमें स्वयं अपूर्णता है वह पूर्ण सत्यका प्रतिपादन कैसे कर सकता है; परन्तु मेरे विचारसे यदि मानव-मस्तिष्कको ‘विकासशील’ न कहकर ‘परिवर्तनशील’ कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्यके मस्तिष्कमें उसकी आयुके साथ कुछ विचारोंका विकास होता है तो किन्हीं-किन्हीं गुणोंका ह्रास भी हो जाता है। किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियोंका तो ऐसा मन्दभाग्य होता है कि उनका मस्तिष्क दिनोदिन और भी विकृत और कुण्ठित हो जाता है। इसलिये यह कहना ठीक नहीं मालूम होता कि मनुष्यका मस्तिष्क विकासशील है। जो बात व्यक्तियोंमें देखी जाती है वही जातियों और देशोंके विषयमें भी लागू है। मस्तिष्क ही नहीं, प्रकृतिके सारे ही विकार परिवर्तनशील ही कहे जा सकते हैं, विकासशील नहीं। एक मोटी बात यह भी ध्यानमें रखनी चाहिये कि प्रत्येक पदार्थ अपने जन्मके बाद जैसे बढ़ना आरम्भ करता है वैसे ही वह अधिकाधिक अपने नाशके समीप भी जाने लगता है। ह्रासकी चरम अवस्था ही विनाश है। अत: यदि उसकी वृद्धिमें केवल विकास ही निहित होता तो उसका अन्तिम परिणाम नाश नहीं होना चाहिये था। इसलिये प्रकृतिके सारे ही कार्य विकासशील नहीं, परिवर्तनशील ही हैं। हाँ, अन्तमें नष्ट होनेवाले होनेसे उन्हें विनाशशील तो कहा जा सकता है।

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