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कर्म-रहस्य

कर्मके सम्बन्धमें बात यह है कि कर्म तीन प्रकारके हैं—संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। मनुष्य प्रतिक्षण सकामभावसे जो कुछ भी कर्म करता है वह ‘क्रियमाण’ है। मनुष्यका किया हुआ प्रत्येक कर्म कर्मसंग्रहमें संगृहीत होता रहता है जो समयपर कर्मफलदायिनी भागवती शक्तिके द्वारा ‘प्रारब्ध’ बनाया जाकर यथायोग्य शुभाशुभ फल प्रदान करता है। यह जमा होनेवाला कर्म ‘संचित’ है। इस क्षणके पूर्वतकके हमारे सारे कर्म इस कर्मकी गोदाममें जा चुके हैं। इस कर्म-राशिमेंसे जितने कर्म अलग करके एक जन्मके लिये फलरूपसे नियत कर दिये जाते हैं वही ‘प्रारब्ध’ है। इसीके अनुसार जाति, आयु, भोग इत्यादि प्राप्त होते हैं। प्रारब्धका यह फल साधारणतया सभीको बाध्य होकर भोगना पड़ता है। कोई भी सहजमें इस प्रारब्धफलभोगसे अपनेको बचा नहीं सकता—‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ इस प्रकार भागवती शक्तिके नियन्त्रणमें प्रारब्धके अनुसार मनुष्यको कर्मफल भोगना ही पड़ता है। परन्तु यह नियम नहीं है कि पूर्वजन्मोंमें किये गये कर्मोंके संचितसे ही प्रारब्ध बने। प्रबल कर्म होनेपर वह इसी जन्ममें संचितसे तुरन्त प्रारब्ध बनकर अपना शुभाशुभ फल—फलदानोन्मुख प्रारब्धके बीचमें ही भुगता देता है। इसके भी नियम हैं। मतलब यह कि प्रारब्धके अनुसार जो फल नहीं होना है, वह उस प्रारब्धके अनुसार तो होगा ही नहीं—यह सत्य है—परन्तु ‘वह होगा ही नहीं’ यह निश्चित नहीं है। नवीन कर्म करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है, वह कोई ऐसा प्रबल कर्म भी कर सकता है—जो हाथोंहाथ प्रारब्ध बनकर उसे तुरन्त फल प्रदान कर दे। जैसे किसीके पूर्वकर्मजनित प्रारब्धके अनुसार ‘पुत्र होनेका विधान नहीं है’; परन्तु वह शास्त्रीय ‘पुत्रेष्टि यज्ञ’ विधि तथा श्रद्धापूर्वक कर ले तो उसको पुत्र हो सकता है। इसी प्रकारके प्रबल कर्मोंद्वारा धन, मान, आरोग्य, आयु आदि पदार्थोंकी प्राप्ति भी हो सकती है। ठीक ऐसे ही प्रबल अशुभ कर्मोंके द्वारा इसी जन्ममें अशुभ फल भी (पूर्वकर्मजनित प्रारब्धमें न होनेपर भी) मिल सकते हैं। इससे पूर्वकृत कर्मोंके द्वारा बने हुए प्रारब्धका नाश नहीं हो जाता। उसके बीचमें ही नया फल मिल जाता है और उस फलकी अवधि समाप्त होते ही पुन: वही प्रारब्ध लागू हो जाता है।

जैसे कर्म अपना फल अवश्य देता है, यह कर्मका अटल नियम है। वैसे ही यह भी नियम है कि ‘सम्यक्-ज्ञान’ अथवा ‘भगवान‍्में पूर्ण समर्पण’ से सारी कर्मराशि भस्म भी हो जाती है। ‘संचित’—अनन्त जन्मोंके संगृहीत कर्म जल जाते हैं। उनमें ‘प्रारब्ध’ उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं रह जाती। नवीन ‘क्रियमाण’ कर्म कर्तृत्वके अभावसे ‘संचित’ नहीं बन सकते। भूजे हुए बीजोंसे जैसे अंकुर नहीं उत्पन्न होते, वैसे ही वे संचितका उत्पादन नहीं कर सकते। रहा ‘प्रारब्ध’ का भोग—सो वह भी भोक्तापनका अभाव और ब्रह्मानन्दस्वरूप हो जानेसे अथवा भगवान‍्के प्रत्येक मंगलमय विधानमें एकरस आनन्दका नित्य अनुभव होते रहनेसे सुख-दु:ख उपजानेवाला नहीं होकर खेलमात्र होता है। इस प्रकार तीनों ही कर्म नष्ट हो जाते हैं। यही कर्मविज्ञानका शास्त्रीय नियम है और यह सर्वथा सत्य है। कर्मकी भूमिकामें इसे असत्य बतलानेका साहस करना दु:साहसमात्र है।

भगवान‍्की दृष्टिसे बात दूसरी ही है। वहाँ भूत, भविष्य और वर्तमानका भेद नहीं है। उनके लिये सभी वर्तमान है और जो कुछ भी होता है, सब पहलेसे रचा हुआ ही होता है। यह उनकी नित्यलीला है। जगत‍्की छोटी-बड़ी सभी घटनाएँ उनकी इस नित्यलीलाका ही अंग हैं। वहाँ कुछ भी नया नहीं बनता, केवल नया—नित्य नया-नया दीखता है। रचा हुआ तो है पहलेसे ही। जैसे सिनेमाके फिल्ममें सारे दृश्य पहलेसे अंकित हैं, हमारे सामने एक-एक आते हैं, वैसे ही अनन्त ब्रह्माण्डोंके अनन्त अतीत, वर्तमान और भविष्य सभी इस विराट् फिल्ममें अंकित हैं। क्षुद्र-से-क्षुद्र जीवका नगण्य संकल्प भी इस फिल्मका ही दृश्य है।

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