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अंगोंका भगवान‍्को अर्पण और निर्भरता

‘अंगोंके अर्पण’ और ‘निर्भरता’ के सम्बन्धमें पूछा सो आपकी कृपा है। इन प्रश्नोंका उत्तर वस्तुत: दिया ही नहीं जा सकता। ये तो अनुभवकी चीजें हैं; फिर थोड़ा-बहुत वे पुरुष समझा सकते हैं, जिनका सब कुछ भगवान‍्के अर्पण हो चुका है और जो सब प्रकारसे एकमात्र भगवान् पर ही निर्भर करते हैं। मेरे-सरीखा प्राणी इन प्रश्नोंका उत्तर क्या दे! तथापि हरिचर्चाके बहाने कुछ लिखनेका प्रयत्न करता हूँ। अंगोंका अर्पण भगवान‍्के प्रति ऐसा ही होना चाहिये, जैसा इस समय भोगोंके लिये हो रहा है। सभी अंग अपने-अपने विषयोंमें लगे हैं। इसी प्रकार सभी अंगोंके विषय एक भगवान् ही हो जायँ। आगे चलकर तो ऐसी स्थिति भी हो जाती है कि प्रत्येक अंग भगवान‍्के संस्पर्शका अनुभव करता है; परन्तु पहले इस प्रकार विचारद्वारा निश्चय कर लेना होगा कि इन्द्रियोंके तथा अन्य तमाम अंगोंके द्वारा जो कुछ भी किया जाता है, सो सब श्रीभगवान‍्के लिये ही किया जाता है। नेत्रके द्वारा किसी वस्तुको देखते हैं तो भगवान‍्के लिये देखते हैं, कानसे कुछ भी सुनते हैं तो भगवान‍्के लिये सुनते हैं, मनसे कुछ भी सोचते हैं तो भगवान‍्के लिये सोचते हैं। जैसे धनके प्रयत्नमें लगा हुआ मनुष्य प्रत्येक क्रियामें धन बचाने और धन कमानेका लक्ष्य रखता है, उसका देखना, सुनना, सोचना सब जैसे उसी लक्ष्यकी पूर्तिके अंग बन जाते हैं, उसी प्रकार भगवान‍्को लक्ष्य बनाकर तमाम अंगोंकी प्रत्येक क्रिया भगवत्प्रीत्यर्थ होती है—ऐसा निश्चय करना और प्रत्येक क्रियामें इसका अनुभव करना होगा। सब कुछ अर्पण हो जानेपर फिर विचार द्वारा अनुभव करनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी—स्वाभाविक ही तमाम क्रियाएँ भगवदर्थ होंगी। इसके बाद यह पता लगेगा मानो तमाम क्रियाएँ भगवान‍्का संस्पर्श करानेवाली होती हैं। प्रत्येक चेष्टामें भगवान‍्के संग-सुखका अनुभव होगा। इसके बाद पूर्ण अर्पण हो जानेपर भगवान‍्का ही सब अंगोंपर स्वामित्व हो जायगा। फिर भगवान् ही सब कुछ करें-करावेंगे। यहाँ ‘अहंकार’ का भी पूर्ण अर्पण हो जायगा। ऐसे अर्पणकी तैयारी कर रखनी पड़ती है, फिर भगवान् उसे स्वयं ही ग्रहण कर लेते हैं। पहले भगवान‍्के लिये करना, फिर भगवान‍्को ही देखना, सुनना, स्पर्श करना; तदनन्तर क्रिया करनेवाली इन्द्रियों और अंगोंका तथा जिसके इन्द्रिय और अंग थे, उस ‘अहंकार’ का भी प्रभुके अर्पण हो जाना—यही संक्षेपमें अर्पणका स्वरूप है। इसके बहुत-से स्तर हैं, बहुत लंबी व्याख्या हो सकती है, परन्तु उसके लिये न समय है और न मेरी योग्यता ही है।

निर्भरता कहते हैं एकमात्र भगवान् पर ही पूर्णरूपसे अपनेको डाल देनेको। भगवान् जो कुछ करें-करावें, जो दें-लें, भगवान् मेरे लिये जो ठीक या बे-ठीक समझें, भगवान् जिस बातमें अनुकूलता या प्रतिकूलता देखें, भगवान् जैसा भी विधान करें और भगवान् जिस किसी स्थितिमें रखें; न तो अपने मनसे उसके विपरीत कुछ चाहना और न किसी अन्यकी सहायताकी अपेक्षा रखना—यह निर्भरता है।

विपत्ति और प्रलोभन प्राप्त होनेपर निर्भरताका पता लगता है। जो विपत्तिसे घबराता है, प्रलोभनकी ओर खिंचता है, विपत्तिमें किसी दूसरेकी सहायताकी अपेक्षा करता है, प्रलोभनमें किसी वस्तुको स्वीकार कर लेता है, वह निर्भर नहीं है। ‘प्रलोभनकी जड़ कट जाती है और विपत्तिका भय समूल नष्ट हो जाता है—भगवान‍्की निर्भरतामें।’ निर्भरताके साधनमें मनुष्यकी परीक्षा होती है—दूसरोंके द्वारा अनायास ही महान् सम्पत्ति सामने रखी जाकर और धधकती हुई आगकी भट्ठीमें सोनेकी भाँति विपत्तिकी प्रचण्ड ज्वालाओंमें जलाकर। यह परीक्षा डिगानेके लिये मार्गच्युत करनेके लिये नहीं होती; होती है उसे और भी पक्का करनेके लिये, पूर्णरूपसे निर्भर बनानेके लिये।

पति कितना ही कष्ट दे, भरी सभामें चाहे कितना ही अपमान या तिरस्कार करे, पतिव्रता स्त्रीका आदर्श है—किसी भी हालतमें पतिके आश्रयका त्याग न करना। जैसे विपत्तिमें वह पतिका त्याग नहीं करती, वैसे ही किसीके भी द्वारा कितना भी महान् लालच दिये जानेपर भी वह पतिसे विमुख होकर उसकी ओर नहीं ताकती। इसी आदर्शके अनुसार निर्भर भक्त भगवान‍्का आश्रय नहीं छोड़ता। पतिव्रताका उदाहरण भी सिर्फ समझानेके लिये ही है। निर्भर भगवद्भक्तकी स्थिति तो अत्यन्त विलक्षण होती है।

जो विपत्तिमें विपत्तिके नाशके लिये दूसरोंकी ओर ताकता है, उसकी तो बात ही क्या—जो विपत्तिको विपत्ति समझता है, वह भी सच्ची निर्भरतासे हटा हुआ है। इसी प्रकार जो सम्पत्ति किसीके द्वारा मिलनेपर स्वीकार कर लेता है या किसीसे चाहता है, उसकी तो बात ही क्या है—जो सम्पत्तिकी चाह भी करता है, वह भी असली निर्भर नहीं है। जिस चीजके बिना प्राण और लज्जारक्षणका काम भी नहीं चलता, उस चीजके अभावमें भी यह दृढ़ अनुभव हो कि ‘मेरे कल्याणके लिये ही भगवान‍्ने यह विधान किया है’—इसीका नाम निर्भरता है। नित्य पुण्य करते भी दु:ख मिले और उसमें भगवान‍्का विधान समझकर आनन्द हो—यह निर्भरता है। मतलब यह कि भगवान‍्में अनन्य ममत्व और अनन्य विश्वास हो और अपनेको सब प्रकारसे भगवान् पर ही छोड़ दिया जाय। समझनेके लिये निर्भरताका यही स्वरूप है। परन्तु यह भी बाह्य ही है।

इससे नीचेके स्तरमें वे भी निर्भर भक्त हैं ‘जो अपना यथार्थ कल्याण तो चाहते हैं, परन्तु चाहते हैं केवल भगवान‍्से ही और रात-दिन अपने सब अंगोंसे भगवान‍्का ही सेवन करते हैं।’

इससे भी नीचेके स्तरमें वे भी निर्भर ही कहे जाते हैं—‘जो सांसारिक भोगपदार्थोंकी प्राप्ति या विपत्तिका नाश तो चाहते हैं, परन्तु चाहते हैं एकमात्र भगवान‍्से ही, दूसरेकी ओर नहीं ताकते। और यह दृढ़ भरोसा तथा विश्वास रखते हैं कि भगवान् अवश्य ही हमारा मनोरथ पूर्ण करेंगे एवं पूर्ण न होनेपर उसे भगवान‍्की ही मंगल इच्छा मानकर जो भगवान् पर रोष नहीं करते।’ यह नीचे दर्जेकी निर्भरता है। और भी अनेक स्तर हैं। स्थूलरूपसे ये तीन ही स्तर समझने चाहिये। एक महात्माने कहा है, भगवान् पर निर्भर रहनेके तीन लक्षण हैं—

(१) दूसरेसे कुछ भी न माँगना, (२) मिले तो भी न लेना, (३) मजबूर होकर लेना ही पड़े तो बाँट देना।

मतलब यह कि भगवान‍्के विधानपर जरा भी सन्देह न करके अपनेको उसपर सब प्रकारसे छोड़ देना और निरन्तर सारी इन्द्रियोंसे उन्हींका भजन करना निर्भरता है। ये सब ऊँचे आदर्शकी बातें हैं। अवश्य ही कल्पना नहीं हैं और न असाध्य ही हैं, परन्तु बहुत कठिन हैं। आजकलके प्राणी बहुत कम कर सकते हैं। तथापि इस आदर्शको सामने रखना और भरसक इसके अनुसार निरन्तर अथक प्रयत्न करते रहना चाहिये। इससे बहुत लाभ होगा। और सीधे तीन काम हैं— (१) भगवान‍्का नाम-जप, (२) बाहरी पापोंका बिलकुल त्याग और (३) भगवान‍्की दयापर विश्वास। इनसे सारी बातें आप ही ठीक हो जायँगी। इनमें भी तीनों न हों तो दो करें; नहीं तो कम-से-कम एक भगवन्नामका जप-स्मरण निरन्तर करते रहनेकी कोशिश करनी चाहिये। कलियुगमें केवल क्रियासे तारनेवाला, महान् फल देनेवाला भगवन्नाम ही है और सारे साधनोंमें भावकी आवश्यकता है। नाम भावसे, कुभावसे कैसे भी लिया जाय, कल्याणकारी ही है। अवश्य ही भावका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। प्रत्येक क्रियामें, जहाँतक हो ऊँचे-से-ऊँचा भाव, पूरी विधि तथा बाहरी क्रिया—तीनोंका ही खयाल रखकर तीनों ही करने चाहिये। ‘हारेको हरिनाम’ है।

असलमें तो भगवान‍्का भजन करना चाहिये। जो भजन करता है वही संसारसे तरेगा और उसीको सुख-शान्ति प्राप्त होगी। बाहरी स्वाँगसे तो अन्तमें दु:ख ही मिलेगा। झूठमूठ धनी सजनेपर जैसे अशान्ति और दु:ख बढ़ते हैं, झूठे गर्भसे जैसे यादववंशका नाश करनेवाला मूसल पैदा होता है, वैसे ही बाहरी स्वाँगसे—दम्भसे तो दु:ख ही पैदा होता है। मनुष्यका एकमात्र सच्चा कर्तव्य होना चाहिये भगवान‍्में प्रेम करना। भगवान‍्को छोड़कर किसी भी वस्तुमें अनुराग न हो तथा निरन्तर भगवान‍्का भजन होता रहे। अनुराग होनेसे आप ही भजन होगा।

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