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भगवद्दर्शनके साधन

..... मैंने ‘कल्याण’ में यह लिखा भी था और मेरा दृढ़ विश्वास भी है कि आजकल भी श्रीभगवान‍्के दर्शन अवश्य होते हैं। कालका तो प्रश्न ही नहीं उठ सकता, जबकि भगवान् सर्वकालमें हैं। रही दर्शनकी बात सो अबसे कुछ ही समय पूर्वके ऐसे अनेक महात्माओंके चरित्र मिलते हैं जिनको श्रीभगवान‍्के दिव्यदर्शन हुए हैं। श्रीतुलसीदासजी आदिके चरित्र प्रसिद्ध हैं। जब भगवान् सर्वकालमें हैं और कुछ ही समय पूर्व भक्तोंको उनके दर्शन हुए थे तब आज क्यों नहीं हो सकते? अतएव यह दृढ़ विश्वास करना चाहिये कि दर्शन होते हैं। यह विश्वास ही सबसे पहला साधन है; जिनको दर्शनमें विश्वास ही न होगा, वे इच्छा और साधन ही क्यों करेंगे?

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भगवान‍्के दर्शनमें कोई साधन वास्तवमें कारण है ही नहीं। ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जिसके बदलेमें भगवान‍्के दर्शन मिल सकें। भक्तलोग ‘कैवल्यमोक्ष’ के मूल्यपर भी दर्शनको—यथार्थ दर्शनको—अधिक-से-अधिक सस्ता ही समझते हैं। यानी मोक्षका त्याग करनेपर भी दर्शन मिल जायँ तो सस्ते ही मिले। यथार्थ दर्शनसे मेरा मतलब भगवान‍्के दिव्यतम सच्चिदानन्दमय विग्रहसे है, जो ब्रह्मकी भी प्रतिष्ठा है। मायिक विग्रहके दर्शन होना सहज है, परन्तु सच्चिदानन्द-विग्रहके अत्यन्त कठिन हैं। जिस समय भगवान् सच्चिदानन्द-विग्रहरूपमें प्रकट होते हैं उस समय भी उन्हींको यथार्थ दर्शन होते हैं, जिनके सामनेसे वे अपनी योगमायाको हटा लेते हैं। इस दर्शनमें जो आनन्द है, उस आनन्दके सामने ब्रह्मानन्द भी तुच्छ हो जाता है। इसीसे ज्ञानियोंके शिरोमणि जनक भगवान् श्रीरामकी माधुरीको देखकर प्रेमाश्रुनयनोंसे पूछने लगे कि ये कौन हैं, क्योंकि इन्हें देखते ही विदेहराज जनककी दशा कुछ और ही हो गयी—

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
सहज बिराग रूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥

इसीलिये श्रीकृष्णके सौन्दर्यका वर्णन करते हुए कविने यथार्थ ही कहा है कि ‘जौ लौं तोहि नन्दको कुमार नाहिं दृष्टि परॺो तौ लौं तू बैठि भले ब्रह्मको बिचारि ले।’

इतने दुर्लभ होनेपर भी भगवान‍्की कृपासे ये दर्शन सहज ही हो सकते हैं और भाग्यवानोंको हुए हैं, इसमें भी कोई सन्देह नहीं।

आपने सुगम रास्ता पूछा सो पहली बात तो यह है कि—

१—भगवान‍्की कृपापर दृढ़ विश्वास किया जाय और उनकी कृपाके बलपर मनमें यह निश्चय किया जाय कि दर्शन अवश्य होंगे।

२—दर्शनके लिये गोपीजनोंकी भाँति परम कातर हो जाना और तन, मन, धन सबको तुच्छ समझकर केवल दर्शनके लिये ही उत्कण्ठित रहना।

३—प्रह्लादकी भाँति भगवान‍्के लिये बड़े-से-बड़ा कष्ट सहन करनेको तैयार रहना और आनन्दसे सहना।

४—भरतजीकी भाँति ध्यानसहित जप करते हुए निरन्तर प्रतीक्षामें आकुल रहना।

५—शबरीकी भाँति पल-पलमें आतुर होकर राह देखना और भूख-प्यास भूल जाना।

६—सुतीक्ष्णजीकी भाँति प्रेममें मत्त हो जाना।

७—मीराकी भाँति चरणामृतके नामपर विषपानके लिये भी तैयार रहना।

८—श्रीचैतन्यमहाप्रभुकी भाँति विरहकातर होकर दिन-रात फुफकार मार-मारकर रोना।

९—बिल्वमंगलकी भाँति भगवान‍्को हृदयमें बाँध रखना।

१०—अर्जुनकी भाँति अपने जीवनको उनके अर्पण कर देना।

इसी प्रकार और भी अनेक भाव हैं और ये सभी अधिकारी-भेदसे दुर्लभ या सुलभ हैं। तथापि यों तो ये सभी कठिन हैं। सुगम बात एक यह है कि भगवान‍्को अपना परम प्रेमी प्रियतम मानना और उनसे मिलनेके लिये हृदयमें नित्य-नवीन परन्तु एक ही लालसाका सदा जाग्रत् रहना। जिस क्षण यह लालसा हमारे मनमें किसी भी दूसरे उपायसे शान्त न होनेवाली बेचैनी उत्पन्न कर देगी, उसी क्षण भगवान‍्के दर्शन हो जायँगे। इसमें सबसे बड़ी कठिनता भगवान‍्को सबकी अपेक्षा बढ़कर—प्रियतमोंमें भी परम प्रियतम मान लेना है। यह मान्यता—यह सम्बन्ध जब स्थिर हो जायगा, तब लालसा उत्पन्न होते देर नहीं लगेगी और यह प्रेमपूर्ण लालसा एक बार उत्पन्न होनेपर फिर प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है। यह कभी कम तो होती ही नहीं। क्योंकि पल-पलमें बढ़ना ही प्रेमका स्वरूप है। अतएव मेरी समझमें तो यही बात सबसे उत्तम और सुगम मालूम होती है कि आप सबसे पहले श्रीभगवान‍्को अपना परम प्रियतम बनानेकी प्रबल चेष्टा कीजिये। भगवान‍्के अनन्त अपार गुणातीत गुण, उनके दिव्य माधुर्य, प्रेम, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, श्री आदिका मनन—बार-बार उनका ध्यान, उनके पवित्र नामका सतत जप करनेसे अन्त:करणकी शुद्धि होती है और उनमें ‘प्रियतमभाव’ बढ़ता है। ज्यों-ज्यों प्रियतमभाव बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उनके स्मरण और ध्यानमें अधिक-अधिक आनन्द आता है और त्यों-ही-त्यों स्मरण और ध्यान जीवनका स्वभाव-सा बनता जाता है। फिर उनकी स्पष्ट झाँकी होने लगती है। परीक्षाएँ भी कभी-कभी हुआ करती हैं। उपदेवताओंके उपद्रव भी होते हैं; परन्तु भगवान‍्की कृपाका भरोसा रखनेसे सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं और अन्तमें ‘परम प्रियतम’—इस दुर्लभ भावकी प्राप्ति होती है। बस, इस परम प्रियतम भावकी प्राप्तिके साथ ही परम प्रियतम भगवान‍्के मंगलद्वार खुल जाते हैं। फिर लालसा उत्पन्न होती है और वह देखते-ही-देखते आगकी तरह क्षणोंमें ही विस्तार पाकर सारे हृदयको आक्रान्त कर डालती है। इसी शुभ वेलामें योगमायाका पर्दा हटता है; भक्तके सामने भगवान‍्का दिव्यविग्रह अनन्त चन्द्रमाओंकी सुधाभरी ज्योत्स्नाको, अनन्त सूर्योंके प्रकाशको, अनन्त कामदेवोंके सौन्दर्यको, अनन्त दिव्य देवोंके दिव्यत्वको अपनी दिव्य ज्योत्स्ना, दिव्य सुशीतल तेज, दिव्य सौन्दर्य और दिव्यतम दिव्यत्वसे दलन करते हुए प्रकट होता है। दिव्यके संसर्गमें आते ही भक्तका देह, उसका प्रत्येक अंग उतने कालके लिये दिव्य हो जाता है और वह फिर दिव्य नेत्रोंसे दिव्य आँसू बहाता हुआ मन्त्रमुग्धकी भाँति अपने परम प्रियतम दिव्यातिदिव्य परम दिव्यतम सौन्दर्यको निरख-निरखकर सदाके लिये अनन्त आनन्दके अपार अमृतसागरमें डूब जाता है। उसकी उस समयकी स्थितिको वह जानता है परन्तु वह भी कह नहीं सकता, क्योंकि उस समयका—वहाँका सभी कुछ मन, बुद्धि, वाणीसे परेका दृश्य होता है।

बस, संक्षेपमें यही आपके पत्रका उत्तर है। आपने मुझको सन्तके नामसे सम्बोधन करके भूल की है। मैं तो सन्तोंकी चरण-धूलका भिखारीमात्र हूँ। बहुत देरसे पत्रका उत्तर दिये जानेके कारण पुन: क्षमा चाहता हूँ। सम्भव है इसमें भी लीलामयकी कोई लीला हो।

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