असुर-मानव
आपका कृपापत्र मिला। संसारकी वर्तमान दुर्दशापर मैं क्या लिखूँ। यों तो सब भगवान्का ही विधान है; परन्तु लौकिक दृष्टिसे तो आज सारा संसार एक-दूसरेके विनाशमें लगा है। जल, थल और आकाश—आज सभी विषाग्निकी वर्षासे संत्रस्त हैं। सारा भूमण्डल सर्वविनाशी बमोंकी गड़गड़ाहटसे काँप रहा है। अग्निदेवताकी ज्वालामयी लपटोंसे सभी जले-भुने जा रहे हैं! मनुष्य आज अपनी मानवताको मारकर असुर—पिशाच बन गया है। लाखों-करोड़ों निरीह नर-नारी मृत्युके मुखमें जा रहे हैं, कोई गोलोंकी मारसे तो कोई पेटकी ज्वालासे! उधर लड़ाकू लोग अपनी रक्त-पिपासाका अकाण्ड ताण्डव कर रहे हैं, तो इधर अर्थगृध्र सुसभ्य मानवप्राणी सभ्यताभरी डकैती करके अपनी रुधिरप्रदिग्ध भोगलालसाको बढ़ा रहे हैं! अपने ही-जैसे नर-नारी अभावकी आगमें जलते रहें, सब भयानक शस्त्रोंके शिकार हो जायँ, सबके घर-द्वार राखके ढेर बन जायँ एवं मृत्युकी रक्तजिह्वा पतियों, पुत्रों, पिताओंका रक्तपानकर नारीजगत्को नरक यन्त्रणा भोगनेके लिये बाध्य कर दे; पर हम सुरक्षित रहें और इन मरनेवालोंकी मृत्यु-समाधिपर— श्मशानकी विस्तृत भस्मराशिपर हमारे स्वर्ण-प्रासाद निर्मित हों तथा हम धन-सम्मानसे सुसज्जित होकर उनमें थिरक-थिरककर नाचें। यह मानवकी पैशाचिकता—उसकी राक्षसी वृत्ति नहीं तो और क्या है?
विज्ञानके महारथी भी आज अपनी सारी सृजन-शक्तिको महानाशके प्रयासमें लगा रहे हैं। किस साधनसे कम-से-कम समयमें अल्पायाससे ही अधिक-से-अधिक जनपदोंका—नगरोंका ध्वंस-साधन हो और निरीह नर-नारी कालके कराल गालमें जायँ—इन महारथियोंके महान् मस्तिष्क आज उसीकी खोजमें लगे हैं, मानो महारुद्रकी रौद्र इच्छाकी पूर्तिका इन्होंने ठेका ही ले लिया है। देश-के-देश उजाड़कर उनके खँडहरोंमें ये अपने विज्ञानकी कीर्ति-पताका फहराना चाहते हैं! यह विज्ञान-जगत्का राक्षसीपन नहीं तो और क्या है?
विद्वानोंकी विद्वत्ता, नीतिज्ञोंकी नीति और विभिन्न मतवादियोंकी गवेषणापूर्ण प्रवृत्ति—सभी मानवताकी हत्याका अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं। ईश्वर और धर्मकी दुहाई देनेवाले भी आज अपने ईश्वरसे पर-पक्षका संहार और अपना विस्तार चाहते हैं, मानो भिन्न-भिन्न कई परमेश्वर एक-दूसरेका पक्ष समर्थन करते हैं! सभी आसुरी सम्पत्तिको पाकर उन्मत्त हो रहे हैं। इसका परिणाम बड़ा ही भयानक होगा। किसकी हार होगी और किसकी जीत, इसका पता तो सर्वज्ञ परमेश्वरको है; परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मानवताका संहार होनेपर दु:खकी ऐसी ज्वाला भड़केगी, जो सबकी सारी उछल-कूद मिटाकर उन्हें भस्म कर देगी। इसीके साथ असुर-मानवका विनाश होगा। तभी जगत्में फिर सुख-शान्तिके दर्शन हो सकेंगे।
गीतामें भगवान्ने असुर-मानवकी मति, आसुरी वृत्ति और गतिका बड़ा ही सजीव चित्र चित्रित किया है। उसका कुछ अंश यह है—
वे असुर-मानव क्या करना उचित है और क्या छोड़ना, इसको नहीं जानते। उनमें न पवित्रता होती है, न शुद्ध आचार और न सत्य ही। वे जगत्को बिना आसरे, सारहीन, ईश्वरहीन और स्त्री-पुरुषके संयोगसे, केवल भोग-सुखके लिये ही बना हुआ मानते हैं। इस प्रकारके दृष्टिकोणको धारण करके वे नष्टाशय और मन्दबुद्धि अत्यन्त क्रूर कर्म करते हुए जगत्के अहित और विनाशके लिये ही पैदा होते हैं। उनके जीवन दम्भ, अभिमान और मदसे पूर्ण एवं कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंसे घिरे रहते हैं। अज्ञानवश वे असुर-मानव आसुरी आग्रहको पकड़कर और भ्रष्टचरित्र होकर जगत्में भटकते हैं। मरते दमतक वे अनगिनत चिन्ताओंमें चूर रहते हैं। बस, किसी भी तरह मनमाने विषयोंको प्राप्त करना और उन्हें भोगना—एकमात्र यही उनका निश्चित सिद्धान्त होता है। वे आशा—दुराशाकी सैकड़ों फाँसियोंसे बँधे होते हैं। काम और क्रोधपर ही वे निर्भर करते हैं और विषय-भोगोंके लिये अन्यायपूर्ण उपायोंसे अर्थ-संग्रहमें लगे रहते हैं। वे यही सोचा करते हैं कि आज यह मिल गया, कल वह भी मिल जायगा। हमारे पास इतना धनैश्वर्य तो हो ही गया है, शेष और भी हो ही जायगा। आज इस वैरीको मारा, शेष शत्रुओंको भी हम धूलमें मिलाकर ही छोड़ेंगे। हम ही तो सबके संचालक और नियामक ईश्वर हैं। सबको हमारे ही इशारेपर चलना पड़ता है। ऐश्वर्यका भोग, तमाम सिद्धियाँ, शक्ति और सुख—सब हमारे ही हिस्सेमें तो आये हैं। हम बड़े धनी हैं, हमारे पीछे विशाल जनता है, है कौन दूसरा हमारी बराबरीका? यज्ञ और दानसे हम देवता और दु:खियोंको तृप्त कर देंगे। वे असुर-मानव इस प्रकार अज्ञानविमोहित, अनेक प्रकारसे विभ्रान्तचित्त, मोहजालसे समावृत और भोग-विषयोंमें अत्यन्त आसक्त होकर अन्तमें भयानक नरकोंमें पड़ते और उनकी जहरीली गन्दगीमें पचते हैं। वे असुर-मानव अपनेको ही सबसे अधिक सम्मान्य मानते और सफलताके घमण्डमें चूर हुए निरन्तर धन, मान और मदकी गुलामीमें लगे रहते हैं, और इसी तामसी वृत्तिसे वे मनमाने कार्योंको यज्ञका नाम देकर छाती फुलाते हैं। अहंकार, भौतिक बल, दर्प, काम और क्रोध ही उनके अवलम्बन होते हैं। वे दूसरोंकी निन्दामें—परदोषदर्शनमें निरत रहकर सबके शरीरमें स्थित अन्तर्यामी मुझ भगवान्से ही द्वेष करने लगते हैं। ऐसे द्वेषमूर्ति, पापपरायण, निर्दय नराधमोंको मैं (भगवान्) बार-बार दु:खपूर्ण आसुरी योनियोंमें डालता हूँ। (गीता अध्याय १६, श्लोक ७ से १९ तक देखने चाहिये) अब आजके असुर-मानवसे उपर्युक्त लक्षणोंको मिलाकर देखिये।