कल्कि-अवतार
आपका पत्र मिला, उत्तर लिखनेमें देर हुई, इसके लिये क्षमा करें। कल्कि-अवतार अभी हुआ या नहीं, इस सम्बन्धमें मुझे कुछ भी पता नहीं। पापमय कलियुगकी समाप्ति हो और श्रीभगवान्का मंगलमय अवतार हो और हमलोग उनके दर्शन करके सफलजीवन हों, यह कौन नहीं चाहेगा? परन्तु भगवान्के अवतारके लिये शास्त्रार्थकी और इतने विज्ञापनकी भी कोई आवश्यकता है, यह बात समझमें नहीं आती। भगवान् यदि प्रकट हो गये हैं तो अपने-आप ही जब उचित समझेंगे, अपना कल्याणमय प्रकाश फैला देंगे। रही कलियुगके बीतनेकी बात, सो इस सम्बन्धमें भी अधिकांश शास्त्रज्ञ विद्वानोंका तो यही मत मालूम होता है कि कलियुगकी समाप्तिमें अभी बहुत विलम्ब है। यह माना जा सकता है कि एक महासंहार होनेपर दो हजार विक्रम संवत् के बाद जगत्में कुछ सात्त्विकता आवे और अशुभ ग्रहकी महादशाके अन्तर्गत शुभ ग्रहकी अन्तर्दशाके समान कुछ समयतक जगत्में आंशिक सुख-शान्तिका विस्तार हो। हाँ, यह निश्चय है कि सनातनधर्म कभी मर नहीं सकता; क्योंकि वह सनातन है। भगवान्का धर्म है। भगवान् अनन्त हैं, इसलिये उनका धर्म भी अनन्त है। परन्तु ‘कल्कि-अवतारके रूपमें भगवान् अवतीर्ण हो चुके हैं और शीघ्र ही वे प्रकट होकर सनातन-धर्मका पुनरुद्धार कर देंगे।’ यह बात कुछ गड़बड़-सी मालूम होती है। कल्कि-अवतारके कम-से-कम पाँच वर्णन तो मेरे सामने लिखित आ चुके हैं, इनमें कौन-सा अवतार सत्य है, इसपर मैं कुछ भी नहीं कह सकता। आप स्वयं ही विचार लें। इन पाँचोंका विवरण संक्षेपमें इस प्रकार है—
१—प्रसिद्ध मुसलमान नेता सर आगाखाँको आगाखानी पन्थवाले ‘कल्कि-अवतार’ मानते हैं और उन्हें ‘निष्कलंक’ कहते हैं। इस विषयपर गुजराती भाषामें साहित्य भी प्रकाशित हो चुका है।
२—दक्षिण हैदराबादके एक मौलाना मोहम्मद सिद्दीक दीनदार (चन्द विश्वेश्वर) प्रकारान्तरसे अपनेको ‘कल्कि-अवतार’ प्रसिद्ध करते हैं। उन्होंने ‘सरवरे आलम’ नामक एक पुस्तिका छपायी है, जिसमें लिखा है कि ‘भागवतमें जिसको ‘कल्कि-अवतार’ कहा था वह हजरत मोहम्मद था और वह शाल्मलद्वीप (अरब)-में हो चुका है।’
३—फाजिलकाके पण्डित राजनारायणजी शास्त्री कलियुगका अन्त बतलाते हैं और कहते हैं कि संभल गाँवमें संवत् १९८१ में कल्कि-अवतार हो चुका है। पैदा होते ही उस बालकको परशुरामजी महेन्द्र पर्वतपर उठा ले गये हैं, जो संवत् १९९९ में ऋषि-महर्षियोंसहित बंगालमें प्रकट होंगे और दुष्टोंका संहार करेंगे, यह सब वृत्तान्त भगवान् मुझसे कह गये हैं.....।
४—अहमदाबादके श्रीहरेराम शर्मा कहते हैं कि ‘संभल ग्राम चीन देशसे उत्तरमें है, पूर्वोत्तरमें मंचूरिया है, उसके नीचे खाडीलिया शिखर है, वहाँ बालूका विशाल मैदान है। वहाँ बाहरका कोई भी मनुष्य प्राणी जा नहीं सकता—वही संभल प्रदेश है। इस संभलमें तपस्वी विष्णुयशजी पिता और सुमति देवी मातासे संवत् १९८१ वैशाख शुक्ला द्वितीयाको कल्किजीका जन्म हो चुका है। वे संवत् १९९९ वैशाख शुक्ला द्वितीयाको पृथ्वीपर पधारेंगे।’
५—एक भक्त देवी हमारे एक परिचित स्वामीजी महाराजको स्पष्ट शब्दोंमें कल्कि-अवतार घोषित करती हैं और इसका प्रचार भी करना चाहती हैं।
ये पाँच तो लिखित वर्णन हैं, इनके अतिरिक्त कई और भी अवतार बतलाये जाते हैं। मेरी बुद्धि तो इस विषयमें कुछ भी काम नहीं करती कि इनमें किनको वास्तविक कल्कि-अवतार माना जाय।
इनमें मुसलमानोंके प्रचारका तरीका, भक्तोंकी सच्ची भावुकता, शिष्योंकी श्रद्धा, कल्पनाकी सृष्टि, नाम और धन कमानेकी इच्छा और अपना सरल विश्वास आदि अनेक कारण हो सकते हैं। कुछ कहा नहीं जा सकता।
मेरी राय तो यह है कि इस बखेड़ेमें न पड़कर हमलोगोंको शुद्ध मनसे भगवान्का भजन करते रहना चाहिये। भगवान् वास्तवमें अवतीर्ण हुए होंगे तो स्वयं ही प्रकट हो जायँगे। व्यर्थमें शास्त्रार्थ और विवादमें पड़कर अपनी साधनामें विघ्न नहीं डालना चाहिये। भगवान्के स्वागतकी तैयारी तो सदा ही कर रखनी चाहिये। वह तैयारी है हमारे हृदयके शुद्ध विचार, उच्च सात्त्विक भाव और शुद्ध सात्त्विक कर्म। जिसका हृदय शुद्ध होगा, विचार और भाव शुद्ध होंगे, कर्म शुद्ध और सात्त्विक होंगे तथा हममेंसे जो अपना प्रत्येक क्षण व्याकुलताके साथ भगवान्की प्रतीक्षामें बितावेगा, उसके लिये तो भगवान्का अवतार किसी भी समय हो सकता है, कलियुग रहे या न रहे। इस भगवद्-दर्शनमें कलियुग बाधक नहीं होता। श्रीमद्भागवतके इस श्लोकके अनुसार आपको तो निरन्तर भगवान्की प्रतीक्षामें ही रहना चाहिये।
अजातपक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सतरा: क्षुधार्ता:।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्॥
(६। ११। २६)
‘जैसे घोंसलेमें पड़े हुए बिना पाँखके पक्षियोंके बच्चे माताको, रस्सीमें बँधे हुए भूखे बछड़े स्तन पीनेके लिये गौको और दूर देश गये हुए पतिके विरहमें खिन्न प्रिय पत्नी बड़ी ही व्याकुलताके साथ पतिको देखनेकी इच्छा करती है, वैसे ही हे कमलनयन! मेरा मन तुम्हें देखनेकी इच्छा करता है।’*
* यह पत्र ज्येष्ठ, संवत् १९९४ में लिखा गया था।