आत्माकी नित्य आनन्दरूपता
सदैव बीमारीका द्रष्टा बनकर रहना चाहिये। वास्तवमें रोग आपको है भी नहीं। आप पांचभौतिक क्षयशील शरीरसे सर्वथा भिन्न हैं। शरीरके क्षय-वृद्धि, बुद्धिके सुख-दु:ख और प्राणोंकी क्षुधा-पिपासासे असलमें आपका कोई यथार्थ सम्बन्ध नहीं है—भ्रमसे तादात्म्य हो गया है। इसीसे दृश्य-पदार्थोंके विकार आपको अपने शुद्ध, बुद्ध, नित्यमुक्त एकरस आनन्दस्वरूपमें भास रहे हैं। अपने यथार्थ स्वरूपको पहचानकर सदा निर्भय, निश्चिन्त रहना चाहिये। हो सके तो वाणी या मनसे ‘हरि: शरणम्’ मन्त्रका जप करना चाहिये। हरिके साथ तादात्म्य प्राप्त करना ही वास्तविक ‘हरिशरण’ है। इस मन्त्रजापसे इहलौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकारका कल्याण होता है। इस बातका दृढ़ निश्चय रखना चाहिये कि रोग या मृत्युकी तो बात ही क्या है, महाप्रलय भी आपके कूटस्थ स्वरूपको नहीं हिला सकता।
मायाके खेल बनते और बिगड़ते हैं। इससे आपमें कुछ भी परिवर्तन कभी नहीं होता। मायाका स्वामी महामायावी प्रभु ही इस खेलको खेल रहा है। उसीने अपने रूपका एक खिलौना बना रखा है जो अभी इस नामोपाधिसे युक्त है। वही खेलता है, वही खिलौना है और वही इस खेलको देख भी रहा है। फिर खिलौना अपनेको अलग समझकर चिन्ता क्यों करे? यदि थोड़ी देरके लिये अलग मान भी लिया जाय तो भी वह है तो खिलाड़ीके हाथोंमें ही, उसके हाथसे कभी हट नहीं सकता। इसलिये सदा प्रसन्न—प्रफुल्लित रहकर अपने नित्य आनन्दमें निमग्न रहना चाहिये। उपाधिसे व्यक्त होनेवाले भावोंमें भी आनन्दका ही प्रवाह बहना चाहिये।