श्रीकृष्णका परम स्वरूप और उनका प्रेम
आपका पत्र मिला। आपका लिखना ठीक है। श्रीकृष्णप्रेमी भक्त वैष्णव सचमुच ऐसा ही मानते हैं कि तत्त्वरूप निराकार ब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णकी अंगकान्ति हैं। परमात्मा उनके अंश हैं और षडैश्वर्य (समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य)-के पूर्ण आधारस्वरूप भगवान् श्रीनारायण श्रीकृष्णके विलासविग्रह हैं। श्रीकृष्ण और उनकी स्वरूपभूता श्रीराधा सर्वथा अभिन्न हैं। सर्वथा द्वैतरहित एक ही परम भगवत्तत्त्व लीला-रसास्वादनके लिये दो रूपोंमें प्रकट है। इन्हीं दो रूपोंको ‘विषय’ और ‘आश्रय’ कहा है। श्रीकृष्ण ‘विषय’ हैं और श्रीराधाजी ‘आश्रय’। विषय ‘भोक्ता’ होता है और आश्रय ‘भोग्य’। लीलाके लिये कभी-कभी श्रीकृष्ण ‘आश्रय’ बन जाते हैं और श्रीराधाजी ‘विषय’ सजती हैं। श्रीराधाजी भगवान्के स्वरूपभूत आनन्दका ही मूर्तिमान् रूप हैं। परन्तु लीलाके लिये श्रीराधारानी प्रेमकी परिपूर्ण आदर्श हैं, और भगवान् श्रीकृष्ण आनन्दके। इसीसे लीलामयी श्रीराधाजी भगवान् श्रीकृष्णकी सबसे श्रेष्ठ ‘आराधिका’ हैं। उन्हें निज सुखका बोध नहीं है। वे जानती हैं श्रीकृष्णके सुखको, और श्रीकृष्णको सुखी देखकर ही नित्य परम सुखका अनुभव करती हैं। उनकी संगिनी और सखी समस्त गोपियाँ भी इसी भावकी मूर्तियाँ हैं। वे श्रीराधा-कृष्णके सुखसे ही सुखी होती हैं। उनमें निजेन्द्रियसुखकी वासना कल्पनाके लिये भी नहीं है। इसीसे वे प्रेममय भक्तिमार्ग और प्रेमी भक्तोंकी परम आदर्श पथप्रदर्शिका हैं।
भगवान्के प्रेमी भक्तोंके अनुग्रहसे ही इस प्रेमरूप भक्तिमार्गपर आरूढ़ हुआ जा सकता है। इसके विपरीत भक्तोंका अपराध बन जानेपर साधनासे उत्पन्न भाव भी क्रमश: क्षीण होकर नष्ट हो जाता है। भावकी प्रगाढ़ स्थितिका नाम ही ‘प्रेम’ है। प्रेममें भी जहाँतक महिमाज्ञान है वहाँतक कुछ कमी है। वास्तविक प्रेम तो सर्वथा विशुद्ध माधुर्यमय होता है। इस प्रेमपर किसी भी विघ्न-बाधाका कोई भी प्रभाव नहीं होता। यहाँतक कि ध्वंसका कारण उपस्थित होनेपर भी यह ध्वंस नहीं होता—‘सर्वथा ध्वंसरहितं सत्यपि ध्वंसकारणे’ वरं उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है—‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’। निर्मल और निष्काम—केवल प्रेम-काममय अन्तरंग साधनोंके द्वारा जो ‘भाव’ सबसे ऊँचे स्तरपर पहुँचता है उस भावजन्य प्रेमको ‘भावोत्थ’ कहते हैं। और श्रीभगवान् स्वयं अपने सान्निध्य, संग और प्रेमदानसे जिस ‘भाव’ को पोषण करते हैं और जिसे ऊँचे-से-ऊँचे स्तरपर ले जाते हैं, उस ‘भाव’ से उत्पन्न प्रेमको ‘अतिप्रसादोत्थ’ कहा है। श्रेष्ठ भावुक भक्तके प्रति श्रीभगवान्का यही सर्वोत्कृष्ट दान है। यह साधनसापेक्ष नहीं है। इसकी प्राप्ति तो तभी होती है जब भगवान् स्वयं देते हैं। इस प्रकारकी प्रेमदान-लीला प्रत्यक्षमें एक ही पावन धाममें हुई थी। वह धाम है—‘श्रीवृन्दावनधाम’। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—ये चार पुरुषार्थ हैं। इनमें मोक्ष उच्चतम है। इससे भी उच्च स्तरका पुरुषार्थ—जो भक्तोंकी भाषामें ‘पंचम पुरुषार्थ’ माना जाता है—है ‘भावोत्थ विशुद्ध माधुर्यमय प्रेम’। और भगवत्-प्रदत्त ‘अतिप्रसादोत्थ’ भगवत्स्वरूप प्रेम तो सबसे बढ़कर है। भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमस्वरूप हैं, प्रेमके ही वशमें हैं; प्रेमसे ही उनका आकर्षण होता है और उन्हींसे यथार्थ प्रेमकी प्राप्ति होती है। अतएव प्रेम चाहनेवाले साधकोंको प्रेममय श्रीकृष्णकी ही उपासना करनी चाहिये।