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भगवद्दर्शनसम्बन्धी विचार

सादर हरिस्मरण। आपका छ: अगस्तका कृपापत्र यथासमय मिल गया था, कार्यकी अधिकताके कारण उत्तरमें विलम्ब हुआ, कृपया क्षमा कीजियेगा। अपने पत्रमें आपने मुझे ‘गुरुवर’ कहकर सम्बोधन किया है और मुझे किसी ‘प्रवृत्तिप्रधान महर्षिका अवतार’ माना है; सो मैं न तो गुरुपदके योग्य हूँ और न किसी महर्षिका अवतार ही हूँ। यदि आपकी ऐसी मान्यता है तो मेरी अल्प बुद्धिमें उसमें श्रद्धाकी अपेक्षा भ्रमकी ही प्रधानता है, क्योंकि वास्तवमें इससे मेरा गौरव तो नहीं बढ़ता, उलटा गुरुपद और महर्षियोंकी ही योग्यता हलकी पड़ जाती है। यदि मेरे-जैसे अल्पज्ञ जीव ही गुरु या महर्षि माने जा सकते हैं तो पता नहीं शिष्य और साधकोंमें भी साधारण संसारी पुरुषोंकी अपेक्षा कोई विशेषता होगी या नहीं।

आपने अपनी अबतककी साधना और अनुभवोंका उल्लेख करते हुए अपना यह मत प्रकट किया है कि ‘आपको जो दर्शन हुए हैं वे दूसरे प्रकारके अर्थात् भावनाजन्य नहीं थे; बल्कि स्वयं श्रीहरिने ही आपके भक्तिभावको बढ़ानेके लिये कृपालु होकर दर्शन दिये हैं। ऐसा हो तो बड़ी प्रसन्नताकी बात है। फिर तो आपमें स्वभावत: ही दैवी सम्पत्ति आ जानी चाहिये थी। भला, भगवान् स्वयं जीवका उद्धार करना चाहें और उसमें विलम्ब हो—यह कैसे सम्भव है? अबोध बालक ध्रुवको जब प्रभुने दर्शन दिये तो इच्छा होनेपर भी अपनी अल्पज्ञताके कारण वे उनकी स्तुति न कर सके। प्रभु उनका भाव समझ गये। उन्होंने ध्रुवके कपोलसे अपने वेदमय शंखका स्पर्श कराया और तत्काल ही ध्रुव पूर्ण बोधवान् होकर भगवान‍्की स्तुति करने लगे। अत: यदि भगवान् आपको अपनी दिव्य भक्ति देना चाहते तो फिर उसमें देरी होनेका कोई कारण नहीं था।

तो फिर क्या माना जाय? आपकी कोई भावना तो थी नहीं, इसलिये ध्यानजनित दर्शन तो ये हो नहीं सकते। मेरी समझमें ये साक्षात् दर्शन भी नहीं थे; क्योंकि साक्षात् दर्शन होनेपर आपको किसी प्रकारके ऐसे अभावका अनुभव नहीं होना चाहिये था, आपको पूर्ण कृतकृत्यता हो जानी चाहिये थी। बात यह है कि भगवान‍्को साकाररूपसे भजा जाय अथवा निराकाररूपसे—इसमें कोई खास अन्तर नहीं है, क्योंकि दोनों ही एक ही भगवान‍्के स्वरूप हैं और दोनोंहीका समान महत्त्व है। जो लोग एक रूपसे उनका भजन आरम्भ करके फिर किसीके कहने-सुननेसे उसे छोड़कर दूसरे रूपसे उनका भजन करने लगते हैं, उनके विषयमें यह मानना अयुक्त न होगा कि उनकी भगवन्निष्ठा दृढ़ नहीं है और वे विशुद्धरूपसे केवल भगवान‍्को ही नहीं, बल्कि भगवान‍्से किसी दूसरी वस्तुको चाहते हैं। आप पहले भगवान‍्का साकाररूपसे भजन करते थे; फिर एक महात्माके कहनेसे निराकाररूपसे करने लगे। भला, इसमें किसी भगवद्भिन्न वासनाके सिवा और क्या कारण कहा जा सकता है! (फिर चाहे वह वासना मुक्ति, आत्मकल्याण या ब्रह्मानन्दकी ही क्यों न हो।) जब इस प्रकार आपको सगुण निष्ठा शिथिल सिद्ध हो जाती है तो इसमें भी कोई कारण नहीं है कि उसके बाद आपकी जो निर्गुण निष्ठा हुई, वह पुष्ट ही थी। वह पुष्ट नहीं थी, इसीसे एक रूपको देखकर बदल गयी। अवश्य ही भगवान‍्का दिव्य साकाररूप अमलात्मा परमहंस मुनियोंके चित्तको भी आकर्षित कर लेता है। पर वह तो बात ही दूसरी है।

अत: मेरे विचारसे तो सम्भवत: यह उपदेवताओंका विघ्न ही था। भगवत्कृपाके आश्रयसे युक्त विशेष साधना और चित्तशुद्धिके बिना भगवान‍्का दर्शन होना बहुत ही कठिन है। भगवद्दर्शन तो साधन-सोपानकी सीमा है। यह कैसे हो सकता है कि हम सीढ़ियोंपर पैर भी न रखें और ऊपर चढ़ जायँ। इसलिये जबतक काम-क्रोधादि विकार बने हुए हैं—जबतक भगवत्कृपाका पूर्णाश्रय नहीं है, तबतक यह नहीं मानना चाहिये कि हमें यथार्थ भगवद्दर्शन हो गया। यह दूसरी बात है कि किसी पुरुषके जन्मान्तरके कोई ऐसे भी पुण्य-संस्कार हों कि उसे साधनकी शैशवावस्थाहीमें कुछ दिव्य अनुभव और चमत्कार दिखायी देने लगें, परन्तु साधकके लिये तो वे सफलताकी अपेक्षा बाधक ही अधिक होते हैं, क्योंकि वह उतनेसे ही अपनेको कृतकृत्य मान बैठता है।

अब संक्षेपमें आपके दूसरे प्रश्नोंके उत्तरमें भी कुछ लिखनेका प्रयत्न करता हूँ—

गीतासम्बन्धी विचार

१—यहाँ ‘जानने’ का अर्थ अपरोक्षरूपसे जानना अथवा अनुभव है। केवल ‘शब्दज्ञान’ का नाम ‘ज्ञान’ नहीं है। लंदन, पेरिस और बर्लिन आदि शहरोंको नकशेमें देख लेनेसे उनकी स्थितिका ज्ञान तो हो जाता है, भूगोलमें पढ़नेसे उनकी जनसंख्या आदि समझ लेते हैं, पर क्या इसीसे कोई कह सकता है कि मुझे उन नगरोंका ठीक-ठीक ज्ञान हो गया? उनका ठीक ज्ञान तो वहाँ रहनेवालोंको ही होता है। इसी प्रकार जिनकी बुद्धिकी वृत्ति प्रकृतिके तीनों गुणोंसे ऊपर उठ गयी है, उन्हींको पुरुषका वास्तविक ज्ञान हो सकता है और वही ठीक-ठीक प्रकृतिके त्रिगुणमय रूपको समझ सकता है। जो स्वयं तीनों गुणोंसे बँधा हुआ है वह त्रिगुणातीत पुरुषको तो क्या, गुणोंके रूपको भी ठीक नहीं जान सकता। इसलिये शब्दोंको नहीं, शब्द जिनका प्रतिपादन करते हैं उन पुरुष और प्रकृतिरूप अर्थोंको जाननेसे ही पुरुष ज्ञानी कहा जा सकता है।

२—आपने भगवद‍्गीता अध्याय ३ के श्लोक ५ और ६ के अर्थको उद‍्धृत करके पूछा है कि प्रकृति तो जड है, अत: वह तो किसीके अनुकूल या प्रतिकूल क्या होगी। इसलिये यहाँ प्रकृतिका भावार्थ ‘भगवदिच्छा’ या ‘प्रारब्ध’ समझना चाहिये। तो प्रारब्ध या भगवदिच्छा बलवान् है या आत्मस्वतन्त्रता?

आपने जडमें अनुकूलता-प्रतिकूलताकी अयोग्यता बतलायी, परन्तु विचारसे तो अनुकूलता-प्रतिकूलता जडके संगसे ही रहती है, चेतन तो असंग और साक्षीमात्र होता है। परन्तु इस विवेचनको अभी छोड़ता हूँ, क्योंकि यह विषय बहुत गम्भीर और विवेक-साध्य है। आपने जो पूछा है कि प्रारब्ध या भगवदिच्छा बलवान् है या आत्मस्वतन्त्रता, सो कर्ममीमांसाके अनुसार प्रारब्ध तो क्रियमाणका ही परिणाम है। हम जो कर्म करते हैं उसीका प्रारब्ध बनता है; इस समय जो प्रारब्ध बना हुआ है वह भी पहले किसी किये हुए कर्मका ही परिणाम है। यदि पुरुषको सर्वथा प्रारब्धके ही पंजेमें मान लिया जाय तो भजन-साधनका कोई मूल्य ही नहीं रहता। वास्तवमें मानव-जीवन विभिन्न कर्मोंके संघर्षका स्थान है। यदि हमारा वर्तमान पुरुषार्थ प्रबल होता है तो वह फलदानोन्मुख प्रारब्धको दबा देता है और यदि पुरुषार्थ शिथिल होता है तो प्रारब्ध उसे दबा देता है। अत: सिद्धान्तत: प्रारब्ध और पुरुषार्थमेंसे किसी एकको ही प्रबल नहीं कह सकते, इनकी सबलता-निर्बलता तो प्रयत्नके अनुसार समय-समयपर बदलती रहती है। रही परमस्वतन्त्र भगवदिच्छा—सो उसकी तो बात दूसरी है। असलमें तो भगवान‍्की इच्छाका स्वरूप भगवान् ही बता सकते हैं। हम तो यह भी ठीक नहीं बता सकते कि भगवान‍्में इच्छा है भी या नहीं—परन्तु यदि इच्छा है तो यह कहनेमें संकोच नहीं करना चाहिये कि वह भी भक्तिके परतन्त्र है। इसके सिवा अन्य पुरुषोंके प्रति भी भगवान‍्की इच्छा उनके कर्मोंके अनुरूप ही होती है। नहीं तो उसमें विषमता होनेका कोई और कारण नहीं बताया जा सकता। अत: यही मानना उचित है कि अपना प्रबल प्रयत्न हो तो अवश्य भगवदिच्छामें भी परिवर्तन हो सकता है, किन्तु वह प्रयत्न सर्वथा प्रेम और सत्यसे अनुप्राणित होकर इतना प्रबल होना चाहिये कि उससे भगवान‍्का भी आसन हिल जाय।

आध्यात्मिक विचार

१—मुक्त होनेपर जीव परमात्मामें इस प्रकार लीन नहीं होता, जैसे घड़ेका पानी समुद्रके जलमें; क्योंकि जलकी तरह जीव और परमात्मा सावयव पदार्थ नहीं हैं। वे तो वास्तवमें एक ही हैं। जैसे एक ही महाकाश घटसे सीमित होनेपर घटाकाश कहा जाता है और स्वयं व्यापक है, उसी प्रकार लिंग-देहरूप उपाधिके कारण परमात्मा ही जीवात्मा कहा जाता है। ज्ञानसे लिंग-देहके कारण अज्ञानका नाश हो जाता है; अत: जैसे घटके नाशसे घटाकाश महाकाशरूप ही रह जाता है, महाकाशमें लीन नहीं होता, उसी प्रकार अज्ञानके नाशसे लिंग-देहका बाध हो जानेसे जीवात्मा परमात्मा ही रह जाता है, वह उसमें लीन नहीं होता।

अब विचार यह है कि ‘परमात्माके अवतार लेनेपर परमात्मामें लीन हुए मुक्त जीवको भी संसार-बन्धन होता है या नहीं?’ ऐसी स्थितिमें यदि अवतार लेनेपर परमात्माको संसार-बन्धन माना जाय तब तो किसी प्रकार ऐसी शंका हो भी सकती है—वह भी इस प्रकार नहीं होगी जैसी आपने की है, क्योंकि ऊपर यह बताया जा चुका है कि जीवात्मा परमात्मामें लीन नहीं होता। किन्तु जब परमात्माको ही बन्धन नहीं होता तो मुक्तात्माको क्यों होगा? परमात्मा जो ‘शरीर’ धारण करते हैं वह उनका स्वेच्छामय दिव्य निर्गुण देह होता है—प्रकृतिका कार्य नहीं होता। उसमें और स्वयं चिद्रूप श्रीभगवान‍्में कोई तात्त्विक भेद नहीं होता। यही सामान्य जीव और परमात्माके देहधारणमें अन्तर है। इस प्रकार जब भगवद्विग्रह स्वयं भगवत्तत्त्व ही है तो वह उनका किस प्रकार बन्धन कर सकता है? अत: अवतारशरीरके विषयमें आपकी यह शंका बन ही नहीं सकती।

२—‘जड’ शब्दका अर्थ है दृश्य। जो कुछ भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियोंका विषय होता है वह सब दृश्य ही है और इसीसे जड भी है। चेतनसे जडकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। इसीसे चेतनको कारण माननेवाले अद्वैत वेदान्ती दृश्यकी सत्ता स्वीकार नहीं करते। अत: इस शंकासे उनके सिद्धान्तमें कोई बाधा नहीं आती। यदि दृश्यकी उत्पत्तिकी कोई व्यवस्था ही लगानी हो तो जैसे निद्रा-दोषसे स्वप्नद्रष्टा ही स्वप्नरूप होकर नदी, पर्वत, पशु, पक्षी और मनुष्यादिके रूपमें दिखायी देने लगता है, वैसे ही अज्ञानवश शुद्ध चेतन ही जड-प्रपंचके रूपमें भासने लगता है—यही समझना चाहिये।

रामचरितमानस-सम्बन्धी विचार

१—श्रीरामचरितमानसकी ‘एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ। तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥’, ‘मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥’ आदि-आदि चौपाइयाँ उद‍्धृत करके आपने जो शंकाएँ की हैं, उनके समाधानमें यह निवेदन है कि भले ही इनमें किसीके द्वारा भगवान‍्की सर्वज्ञता, किसीके द्वारा उनकी सर्वशक्तिमत्ता और किसीके द्वारा उनकी निर्भ्रमताके विषयमें यह सन्देह किया गया है। यह माननेमें तो आपको भी कोई आपत्ति नहीं करनी चाहिये कि लीलाके लिये भगवान् ऐसा कर सकते हैं; शंकाएँ तो मुख्यतया इस दृष्टिको लेकर हैं कि उन्होंने अपना यह अनैश्वर्य उन लोगोंके सामने प्रकट किया जो उन्हें साक्षात् परम ईश्वर ही मानते थे। इसके विषयमें मुझे यही निवेदन करना है कि भगवच्चरित्रकी यही विशेषता होती है कि उसमें पद-पदपर ऐश्वर्य और अनैश्वर्य प्रकट होते रहते हैं। कोरे ऐश्वर्यको लेकर तो कोई लीला हो ही नहीं सकती, इसीसे लीलापरिकरोंमें भी कभी ऐश्वर्य-बोध जाग्रत् रहता है, तो कभी वह भगवान‍्की स्वजन-मोहिनी मायासे तिरोहित भी हो जाता है। यों तो भगवान् श्रीरामभद्र या श्रीश्यामसुन्दरके लीलापरिकरोंमें ऐसा कोई भी नहीं है जो उन्हें साक्षात् भगवान् न जानता हो। रावण और कंसतकको भी उनके ईश्वर होनेका निश्चय था। फिर भी दोनोंहीकी लीलाओंमें ऐसा कोई परिकर नहीं था। जिसे कभी-न-कभी उस ऐश्वर्यकी विस्मृति न हुई हो। यही नहीं, भक्तिशास्त्रमें ऐश्वर्यकी विस्मृति तो उत्कृष्ट प्रेमका लक्षण मानी गयी है। इसीसे ऐश्वर्योपासकोंकी अपेक्षा माधुर्योपासकोंको उत्कृष्ट माना गया है, अत: यदि अपने ही भक्तोंके सामने प्रभु अल्पज्ञ और असमर्थोंके समान लीला करते हैं और उसमें उन्हें कोई शंका या आश्चर्य भी नहीं होता तो इससे तो उनकी लीलाचातुरी ही अभिव्यक्त होती है। इसमें शंकाका कोई कारण नहीं है।

२—रावणकी नाभिमें जो अमृतका कुण्ड था वह क्या था, इसका मैं कोई निश्चित उत्तर नहीं दे सकता। कहा जाता है कि रावण जो सीताजीका स्मरण करता रहता था वही अमृतकुण्ड था। परन्तु वह कुछ भी हो, भगवान‍्के लिये उसका शोषण करना और उसके सूखनेपर रावणका मारा जाना कोई शंकाकी बात नहीं है। जबतक वह नहीं सूखा, तबतक तो रावण सिर कटनेपर भी नहीं मरा, अत: यह नहीं कह सकते कि उस अमृतका कोई मूल्य या उपयोग नहीं था; और साक्षात् श्रीभगवान‍्के बाणोंसे उसका सूखना भी कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; अत: यहाँ कोई भी शंका नहीं हो सकती।

आपको शंकाओंका उत्तर अपनी बुद्धिके अनुसार जैसा समझमें आया, लिख दिया है; यदि इससे आपका कोई समाधान हो सके तो बड़े आनन्दकी बात है।

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