गुरु, साधु, महापुरुष
आपका कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नोंके उत्तर अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार क्रमश: लिख रहा हूँ। उत्तरोंका आधार प्रधानतया शास्त्र और सन्तोंके वचन ही हैं। इससे आपका कुछ समाधान हो सका तो प्रसन्नताकी बात है। पत्रका उत्तर बहुत दिनों बाद लिखा जा रहा है, इसके लिये क्षमा करें।
१—जो साधु, गुरु या आचार्य किसी भी हेतुको बतलाकर परस्त्रियोंके साथ दूषित सम्बन्ध रखते हैं, मैं तो उनको साधु, गुरु या आचार्य कहलानेलायक नहीं समझता। शिष्य अपनी श्रद्धासे गुरुका सब कुछ क्षम्य मान सकता है, यह किसी अंशमें किसी सीमातक उसके लिये ठीक कहा जानेपर भी न्यायकर्ता ईश्वरके यहाँ उसका सब कुछ क्षम्य नहीं हो सकता। वरं उसपर तो अधिक जिम्मेवारी है। पुलिसकी चपरास लगाकर चोरी करनेवाला पुलिसका कर्मचारी अधिक दण्डका पात्र होता है; इसी प्रकार दूसरे लोगोंको परमार्थके मार्गपर ले जानेके लिये जिन लोगोंने गुरु या आचार्यका पद स्वीकार किया है, या जो शुद्ध सात्त्विक मार्गपर चलनेवाले सर्वत्यागी सन्तका बाना धारण करके साधु बने हैं, वे तो असाधुताका आचरण करनेपर विशेष दण्डके पात्र होते हैं। मन्दिर, मठ, आश्रम कोई भी स्थान हो तथा उनमें रहनेवाले पुरुष चाहे कैसे भी प्रसिद्ध साधु, महात्मा या गुरु अथवा आचार्य कहलाते हों, यदि वे व्यभिचारी हैं, परस्वका हरण करनेवाले हैं तो उनका संग तो नि:सन्देह छोड़ ही देना चाहिये; बल्कि ऐसा प्रयत्न करना भी धर्मसंगत ही है कि जिसमें उनके जालमें भोले-भाले नर-नारी न फँसें, वस्तुत: वे साधु-महात्मा या गुरु-आचार्य नहीं हैं, वे तो सन्तके वेषमें कालनेमि हैं जो दण्डके ही पात्र हैं। वास्तवमें ऐसे ही लोगोंके कारण धर्मसे लोगोंकी श्रद्धा उठी जा रही है।
२—जब सभी क्षेत्रोंमें अनुभवी और जानकार पुरुषोंकी सहायता आवश्यक है तब पारमार्थिक क्षेत्रमें अनुभवी गुरुकी आवश्यकता क्यों न होगी? गुरुकी अत्यन्त आवश्यकता है; परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि चाहे जिससे और चाहे जो मन्त्र ले लिया जाय। अनुभवी, परमार्थतत्त्वके ज्ञाता, त्यागी, शिष्यके कल्याणकारी गुरुकी आवश्यकता है। ऐसे गुरु न मिलें तो खोज करनी चाहिये। गुरुप्राप्तिकी चाह प्रबल होगी और इसके लिये भगवान्से प्रार्थना की जायगी तो भगवान् स्वयं ऐसे गुरुसे आपकी भेंट करा देंगे या वे स्वयं ही गुरुरूपमें आपके सामने प्रकट होकर आपके जीवनको सफल कर देंगे।
३—अवश्य ही भगवान्को गुरु बनाया जा सकता है। भगवान् शंकर ‘सद्गुुरु’ और भगवान् श्रीकृष्ण ‘जगद्गुुरु’ के नामसे प्रसिद्ध ही हैं। वरं भगवान्को गुरु वरण करना और भी उत्तम है। सच्ची निष्ठा होगी तो भगवान् गुरुरूपसे अन्तरात्मासे ऐसी शुभ और यथार्थ प्रेरणा करते रहेंगे तथा इस प्रकार कुशलताके साथ आपको साधनक्षेत्रमें आगे बढ़ाते रहेंगे कि उसकी तुलना कहीं भी नहीं मिल सकेगी।
४—मेरी समझसे स्त्रियोंके लिये किसी मनुष्यविशेषको गुरु करनेकी आवश्यकता नहीं है। वे अपने पतिको या सबसे परमपति श्रीभगवान्को ही गुरुरूपमें मानकर उनके आदेशानुसार चलें, इसीमें कल्याण है। परपुरुषके चरणस्पर्श और उनका ध्यान करना उचित नहीं है और इसका प्राय: उत्तम फल भी नहीं होता।
५—गुरुमें ईश्वरसे बढ़कर श्रद्धा-भक्ति होनी चाहिये यह सत्य है, ऐसा ही होना चाहिये; परन्तु वे गुरु भी वैसे त्यागी, अनुभवी महात्मा ही होने चाहिये जिनका संग और उपदेश शिष्यके परम कल्याणमें प्रधान कारण हो। केवल मन्त्र देकर पैसे लेनेवाले, स्त्रियोंकी ओर बुरी नजरसे ताकनेवाले, विलासिता तथा भोगसुखोंमें रचे-पचे हुए नामके गुरुओंके लिये यह बात नहीं।
गुरु या आचार्यके लक्षण बतलाते हुए शास्त्रोंमें कहा गया है—
आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सर:।
मन्त्रज्ञो मन्त्रभक्तश्च सदा मन्त्राश्रय: शुचि:॥
सत्सम्प्रदायसंयुक्तो ब्रह्मविद्याविशारद:।
अनन्यसाधनश्चैव तथानन्यप्रयोजन:॥
साधको वीतरागश्च क्रोधलोभविवर्जित:।
सद्वृत्त: शासिता चैव स्थितधी: परमात्मवित्॥
एवमादिगुणोपेत आचार्य: समुदाहृत:।
आचाराञ्छासवेद् यस्तु स आचार्य इतीरित:॥
‘आचार्य वेदके ज्ञाता, भगवान्के भक्त, मत्सररहित, मन्त्रका मर्म जाननेवाले, मन्त्रके भक्त, मन्त्राश्रयी, शरीर और मनसे पवित्र, उत्तम सम्प्रदाययुक्त, ब्रह्मविद्यामें पारंगत, अनन्यसाधनायुक्त, भगवान्के अतिरिक्त दूसरे कोई भी प्रयोजनको न रखनेवाले, साधनसम्पन्न, वैराग्यवान्, क्रोध-लोभसे सर्वथा रहित, सद्वृत्तियोंमें स्थित सदुपदेशक, स्थिरबुद्धि और परमात्माको (तत्त्वत:) जाननेवाले होते हैं। जिनमें ऐसे गुण हों वही आचार्य कहलाते हैं। वस्तुत: जो आचारका उपदेश करते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं।’
६—यद्यपि बाहरी खान-पान, वेष-भूषा, बातचीतसे सच्चे साधुकी पहचान नहीं होती तथापि सर्वसाधारणके लिये हितकर वे ही महात्मा हो सकते हैं, जिनके बाहरी आचरण भी आदर्श, अनुकरणके योग्य और परम हितकर हों।
७—बड़े रईसोंकी तरह बहुत आरामसे रहनेवाले, शरीरको खूब धो-पोंछकर तथा सजाकर रखनेवाले, सर्दी-गर्मीको न सह सकनेवाले, मान-बड़ाईको स्वीकार करनेवाले तथा खान-पानकी वस्तुओंमें आसक्त-से दीखनेवाले पुरुष भगवत्प्राप्त महात्मा हो ही नहीं सकते, यह तो कदापि नहीं मानना चाहिये। परन्तु शोभा और आदर्श तो त्यागमें ही है। तथा उपर्युक्त बातें जिनमें आसक्तिसहित होती हैं, वे वास्तवमें भगवत्प्राप्त पुरुष होते भी नहीं।
८—यह सत्य है कि बाहरी त्याग दिखानेवाले ढोंगी भी हो सकते हैं, परन्तु ऐसा कोई भी व्यभिचारादि-जैसा बुरा आचरण तो नहीं ही होना चाहिये जो शास्त्रसे निषिद्ध हो।
९—महापुरुषकी पहचान कोई क्या करे। हमारी बुद्धिका मापदण्ड ही ऐसा नहीं है जो उन लोगोंकी स्थितिको तौल सके। परन्तु यह निश्चय समझना चाहिये कि सच्चे महापुरुष किसी भी हेतुसे जान-अनजानमें जिसको मिल गये उसका जीवन अवश्य सफल हो गया। भगवान्के साधनराज्यमें दो ही वस्तु ऐसी हैं जो बिना भावके केवल अपने स्वाभाविक गुणसे ही मनुष्यका परम कल्याण कर देती हैं—१. महापुरुषका संग और २. श्रीभगवन्नामका उच्चारण। जैसे अग्निकी दाहिका शक्ति अनजानमें स्पर्श हो जानेपर भी अपना काम करती है, इसी प्रकार महापुरुषका अज्ञात संग भी तमाम पापोंको जलाकर परम कल्याणकी प्राप्ति करा देता है।
१०—भक्तके लक्षण गीताके १२वें अध्यायके श्लोक १३से २० तक देखने चाहिये। भक्त साधुओंके कुछ लक्षण निम्नलिखित श्लोकोंसे जान सकते हैं—
यथालब्धोऽपि सन्तुष्ट: समचित्तो जितेन्द्रिय:।
हरिपादाश्रयो लोके विज्ञ: साधुरनिन्दक:॥
निर्वैर: सदय: शान्तो दम्भाहङ्कारवर्जित:।
निरपेक्षो मुनिर्वीतराग: साधुरिहोच्यते॥
लोभमोहमदक्रोधकामादिरहित: सुखी।
कृष्णाङ्घ्रिशरण: साधु: सहिष्णु: समदर्शन:॥
कृष्णार्पितप्राणशरीरबुद्धि:
शान्तेन्द्रियस्त्रीसुतसम्पदादि:।
असक्तचित्त: श्रवणादिभक्ति-
र्यस्येह साधु: सततं हरेर्य:॥
कृष्णाश्रय: कृष्णकथानुरक्त:
कृष्णेष्टमन्त्रस्मृतिपूजनीय:।
कृष्णानिशं ध्यानमनास्त्वनन्यो
यो वै स साधुर्मुनिवर्यकार्ष्ण:॥
भगवान्के विधानसे जो कुछ भी मिल जाय, जो उसीमें सन्तुष्ट है, सब अवस्थाओंमें समान चित्तवाला है, इन्द्रियोंको वशमें किये है, श्रीहरिके चरणकमलोंका आश्रयी है, ज्ञानवान् है, संसारमें किसीकी निन्दा नहीं करता वह साधु है। जो किसीसे वैर नहीं रखता, दयावान् है, शान्त है, दम्भ और अहंकारसे सर्वथा रहित है, किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं रखता, भगवान्के मननमें लगा रहता है, विषयोंका चिन्तन नहीं करता, परम वैराग्यवान् है वही साधु कहा जाता है। जो लोभ, मोह, मद, क्रोध और कामसे रहित है, सदा आनन्दमें डूबा रहता है, भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी शरण है, सहनशील तथा सबमें समदर्शी है, वही साधु है। जो अपने प्राण, शरीर और बुद्धिको श्रीकृष्णके अर्पण कर चुका है, जिसकी स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति और इन्द्रियसुखविषयक वासना शान्त हो गयी है, जिसका चित्त आसक्तिरहित है, जिसका श्रवण-कीर्तनादिमें प्रेम है और जो निरन्तर श्रीहरिका ही हो रहा है इस लोकमें वही साधु है। जिसके केवल श्रीकृष्णका ही आश्रय है, जो श्रीकृष्णप्रेममें ही आसक्त है, ‘कृष्ण’ इस इष्ट मन्त्रके स्मरणके कारण जो सबका पूजनीय है, श्रीकृष्णके ध्यानमें ही जिसका मन निरन्तर लगा है, जो श्रीकृष्णका ही अनन्य भक्त है, हे मुनिवर्य! वही कृष्णभक्त साधु है।
सत्संग
११—साधुसंगतिकी महिमासे शास्त्र भरे हैं और यह युक्तिसंगत भी है कि मनुष्य जिस प्रकारकी संगतिमें रहता है, वह उसी प्रकार बनता है। सत्संगसे अन्त:करणकी शुद्धि, मोक्षकी योग्यता तथा सबसे दुर्लभ भगवत्प्रेमतककी प्राप्ति होती है। वे मनुष्य बड़े भाग्यवान् हैं जो कुसंगतिसे बचे हैं और सत्संगतिसे लाभ उठाते हैं। अन्त:करणकी शुद्धिके दो अंग हैं—१-पाप तथा पापविचारोंका नाश और २-सद्विचार, सद्गुुण तथा सत्कर्मोंकी प्राप्ति। ये दोनों ही कार्य सत्संगतिसे सहज ही होते हैं। महाराज पृथुने कहा है—
तेषामहं पादसरोजरेणु-
मार्या वहेयाधिकिरीटमायु:।
यं नित्यदा बिभ्रत आशु पापं
नश्यत्यमुं सर्वगुणा भजन्ति॥
‘आर्यजन! मैं उन महात्माओंकी चरणकमलरजको जीवनभर सदा अपने मुकुटपर वहन करूँगा जिसके नित्य धारण करनेसे पाप तुरन्त ही नष्ट हो जाते हैं और सारे गुण आ जाते हैं।’ जबतक अन्त:करणमें दुष्ट विचार वर्तमान हैं तभीतक दु:ख हैं, दुष्ट विचारोंका नाश होना ही अन्त:करणकी शुद्धि है। यह शुद्धि हो जानेपर सद्विचार, सद्गुुण और सत्कर्म ही होते हैं, जिनके प्रतापसे दु:खका नाश होता है। फिर सत्संगका प्रभाव प्रत्यक्ष होनेसे उसमें और भी रुचि होती है, तब और भी ऊँची सत्संगति प्राप्त होती है। जिससे संसारके समस्त सुखोंसे चित्त हट जाता है और मोक्षकी तीव्र इच्छा जाग उठती है तथा मोक्षप्राप्तिके उपयुक्त साधन करके मनुष्य सारे बन्धनोंको काटकर मोक्षको प्राप्त हो जाता है। कुछ महात्मा ऐसे होते हैं जिन्हें भगवत्प्रेमियोंका संग प्राप्त हो जाता है और उसके प्रभावसे वे मोक्षका भी तिरस्कार कर बैठते हैं। और केवल भगवान्के विशुद्ध और अनन्य प्रेमकी प्राप्ति करके उसीमें डूबे रहते हैं। इस प्रकार सत्संगतिसे भगवान् उनके वशमें हो जाते हैं। इसलिये भगवान्ने ऐसी सत्संगतिकी महिमा गायी है—
न रोधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा॥
व्रतानि यज्ञश्छन्दांसि तीर्थानि नियमा यमा:।
यथावरुन्धे सत्संग: सर्वसंगापहो हि माम्॥
‘समस्त संगोंका (आसक्तियोंका) नाश करनेवाला सत्संग जिस प्रकार मुझको सर्वथा वशमें करता है, उस प्रकार उद्धव! योग, ज्ञान, धर्म, वेदाध्ययन, तप, त्याग, इष्टापूर्त कर्म, दान, व्रत, यज्ञ, मन्त्र, तीर्थ, नियम और यम कोई भी साधन वशमें नहीं कर सकते।’
इसीलिये भगवत्प्रेमी भक्त ऐसे प्रेमीजनोंके संगके सामने मोक्ष-सुखको भी तुच्छ गिनता है।
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्सङ्गिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
‘मनुष्योंके राज्य-सम्पत्तियोंकी तो बात ही क्या है, भगवत्प्रेमियोंके निमेषमात्रके संगसे स्वर्ग और मोक्षकी भी तुलना नहीं होती।’
जिस सत्संगतिकी इतनी महिमा है, उसका लाभ मनुष्य जितना ही उठा सके, उतना ही थोड़ा है।
आपकी सत्संगमें रुचि है, यह आपके लिये बड़े ही सौभाग्यकी बात है।
‘भाव’
१२—वस्तुत: प्रेम शब्द तभी सार्थक होता है, जब वह श्रीभगवान्में होता है। यह प्रेम सर्व दोषोंका नाश होनेपर ही प्राप्त होता है। प्रेमके कई स्तर हैं। इनमें भाव एक ऊँचा स्तर है। भावकी सर्वांगपूर्णता होनेपर जो स्थिति होती है वह तो अनिर्वचनीय है। भावका अंकुर उत्पन्न होनेपर कैसी स्थिति होती है इसका वर्णन वैष्णवशास्त्रोंमें किया गया है। भक्तिरसामृतसिन्धुमें कहा है—
क्षान्तिरव्यर्थकालत्वं विरक्तिर्मानशून्यता।
आशाबन्ध: समुत्कण्ठा नामगाने सदा रुचि:॥
आसक्तिस्तद्गुुणाख्याने प्रीतिस्तद्वसतिस्थले।
इत्यादयोऽनुभावा: स्युर्जातभावाङ्कुरे जने॥
भावांकुर उत्पन्न होनेपर ये नौ लक्षण दिखायी देने लगते हैं।
१—क्षोभहीनता या क्षमा—क्षोभ या क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी चित्तका निर्विकार रहना और बुरा करनेवालेका भी हित ही करना।
२—अव्यर्थकालत्व—अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिको निरन्तर भगवत्-सम्बन्धी विषयोंमें लगाये रखना, भगवद्भजन बिना एक क्षण भी न खोना।
३—विरक्ति—इस लोक और परलोकके भोगोंमें आत्यन्तिक वैराग्य।
४—मानशून्यता—अभिमान और अहंकारका सर्वथा त्याग। अपनेको बहुत ही दीन समझना।
५—आशाबन्ध—भगवान्की प्राप्तिके सम्बन्धमें दृढ़ विश्वास।
६—समुत्कण्ठा—भगवान्की प्राप्तिके लिये अत्यन्त व्याकुलता।
७—नामगानमें सदा रुचि—भगवान्के नाम-कीर्तनमें निरन्तर रुचि।
८—भगवान्के गुणोंमें आसक्ति।
९—भगवान्के लीलाधामोंमें प्रीति।
आपने भावकी बात पूछी सो वह तो बतायी नहीं जा सकती। भावके अंकुरकी ही उत्पत्तिसे इन लक्षणोंकी अवतारणा हो जाती है। इसीसे आप कुछ अनुमान कर लीजिये। ‘भाव’ और ‘महाभाव’ में क्या स्थिति होगी, हमारा अनुमान वास्तवमें उस स्थितिकी छायातक भी नहीं पहुँच सकता। श्रीगोपियोंकी बात कहने-सुननेके तो हमलोग अधिकारी ही नहीं हैं। वे तो मूर्तिमती महाभावरूपा श्रीराधाजीकी नित्य सहचरी थीं। उनके प्रेमकी दशा तो हमारी चित्तभूमिके लिये सर्वथा अचिन्त्य है।
यह तो हुआ आपके बारहों प्रश्नोंका उत्तर। आपने बहुत विस्तारसे उत्तर चाहा था, परन्तु इतने ही विस्तारमें बहुत समय लग गया है, यद्यपि इसमें केवल इशारामात्र ही आ सका है; परन्तु इससे अधिक लिखनेके लिये अभी समय ही नहीं है। अब आपकी अन्तिम बातका उत्तर यह है—
घर या बाहर
मेरी समझसे आपको घर छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहिये। कहाँ जाइयेगा? आज ऐसा कौन-सा क्षेत्र या स्थान है जहाँ विषयासक्ति नहीं है? घरमें आपको जो सहूलियत प्राप्त हैं वे बाहर जानेपर और भी नहीं मिलेंगी। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि आपको साधनकी जितनी सुविधा घरमें है उतनी बाहर नहीं मिल सकेगी। वहाँ नाना प्रकारकी ऐसी चिन्ताएँ आपको घेर लेंगी, जिनकी यहाँ कल्पना भी नहीं है, अतएव आप घरमें ही रहकर अधिक-से-अधिक समय भगवदाराधनमें लगानेकी चेष्टा कीजिये और प्रयत्न कीजिये जिसमें सत्संग, भजन और ध्यानके प्रभावसे और भगवत्कृपाके बलसे आपका चित्त श्रीभगवान्में विशेषरूपसे आसक्त हो जाय। आप मनमें निश्चय कीजिये और भगवान्की कृपाके बलपर विश्वास कीजिये, फिर ऐसा होना कुछ भी बड़ी बात नहीं है। भगवान्की कृपासे असम्भव भी सम्भव हो सकता है। फिर यह तो भगवान्की ओर जानेका प्रयत्न है, इस प्रयत्नमें तो भगवत्कृपा सहायता करनेके लिये बाध्य है।