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भगवान् और भक्तका सम्बन्ध

आपका पत्र मिला, पढ़कर प्रसन्नता हुई। मेरे पास इतने पत्र आते हैं कि मैं सबका उत्तर तो लिख ही नहीं पाता और इस विवशताके लिये सिवा क्षमा-प्रार्थनाके मेरे पास अन्य कोई उपाय भी नहीं है।

भगवान् और भक्तके सम्बन्धका रहस्य भला मैं कैसे जानूँ। उसे तो भगवान् और भक्त ही जानते हैं। भगवान् श्रीराम और भरतजीके प्रेम-सम्बन्धके जाननेमें विदेहराज जनक भी अपनेको असमर्थ पाते हैं। वे अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए कहते हैं—

धरम राजनय ब्रह्मबिचारू।
इहाँ जथामति मोर प्रचारू॥
सो मति मोरि भरत महिमाही।
कहै काह छलि छुअति न छाँही॥
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देबि परंतु भरत रघुबर की।
प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी॥
भरतु अवधि सनेह ममता की।
जद्यपि रामु सीम समता की॥

‘धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार—इन तीन विषयोंमें अपनी बुद्धिके अनुसार मेरा प्रवेश है। अर्थात् मैं धर्मकी व्यवस्था दे सकता हूँ, राजनीतिक उलझनोंको सुलझा सकता हूँ और ब्रह्मज्ञानका भी उपदेश कर सकता हूँ, इन विषयोंमें मेरी बुद्धि काम करती है, परन्तु मेरी वही बुद्धि भरतजीकी महिमाका वर्णन तो क्या करे, छलकर उसकी छायातकको नहीं छू पाती। देवी! भरतजी और श्रीरामचन्द्रजीका प्रेम और परस्परका विश्वास अतर्क्य है, वह बुद्धि और विचारकी सीमासे परे है। यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी समताकी सीमा हैं तथापि भरतजी प्रेम और ममताकी सीमा हैं।’

भक्तके भावको केवल भगवान् पहचानते हैं और भगवान‍्के भावको भक्त। इसीसे तो वे एक-दूसरेका स्वाभाविक ही अनुसरण करते हैं। भक्त चाहता है मैं भगवान‍्की रुचिका अनुसरण करूँ और भगवान् अपने भक्तकी क्रियाके अनुसार ही बर्तते हैं। सीताजी रामजीके लिये रोती हैं तो रामजी सीताजीके लिये। लक्ष्मणजी रामजीका वियोग नहीं सह सकते और रामजी लक्ष्मणजीके मूर्च्छित होनेपर विकल होकर प्राण-त्यागतकको तैयार हो जाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण इसीसे कहते हैं—

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्कर:।
न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १५, १६, २०)
मयि निर्बद्धहृदया: साधव: समदर्शना:।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रिय: सत्पतिं यथा॥
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥
(श्रीमद्भा० ९। ४। ६६, ६८)

‘उद्धवजी! मुझे तुम-जैसे भक्त जितने प्रियतम हैं, अपने पुत्र ब्रह्माजी, साक्षात् मेरे स्वरूप श्रीशंकरजी, भाई बलरामजी, निरन्तर मेरी सेवामें रहनेवाली पत्नी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी मुझे उतने प्रिय नहीं हैं। किसी बातकी चाह न रखनेवाले, मेरा ही मनन करनेवाले, शान्तचित्त, निर्वैर और सर्वत्र मुझको देखनेवाले अपने भक्तोंके पीछे-पीछे मैं नित्य इसलिये फिरता हूँ कि उनकी चरण-धूलिसे अपनेको पवित्र कर सकूँ। बढ़ी हुई (विशुद्ध और अनन्य) मेरी भक्ति जैसे मुझको वशमें करती है, वैसे योग, ज्ञान, धर्म, वेदाध्ययन, तप और त्याग मुझको वशमें नहीं कर सकते।’

‘(दुर्वासाजी!) जिनका हृदय मेरे साथ बँध गया है और जो सब जगह सबमें सब समय समरूपसे मुझको ही देखते हैं, वे अपनी भक्तिसे मुझको ही अपने वश कर लेते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने श्रेष्ठ पतियोंको वशमें कर लेती हैं। अधिक क्या कहा जाय, ऐसे साधु मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ, वे मेरे सिवा किसीको नहीं जानते और मैं उनके सिवा किसीको नहीं जानता।’

यह तो भगवान‍्का भाव है—अब भक्तका भाव देखिये और उसको भी भगवान‍्की ही वाणीमें सुनिये—

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥
(श्रीमद्भा० ११। १४। १४)
मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादिचतुष्टयम्।
नेच्छन्ति सेवया पूर्णा: कुतोऽन्यत् कालविद्रुतम्॥
(श्रीमद्भा० ९। ४। ६७)

‘जिसने अपना चित्त मुझको दे दिया है वह मुझको छोड़कर ब्रह्माके आधिपत्य, देवराज इन्द्रके राज्य, सार्वभौम साम्राज्य, पातालके आधिपत्य, योगकी समस्त सिद्धियाँ, यहाँतक कि कैवल्यमोक्षतकको नहीं चाहता।’

‘मेरे भक्त मेरी सेवासे ही पूर्णमनोरथ होते हैं, वे मेरी सेवाको छोड़कर सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य मुक्तियोंको भी नहीं चाहते; फिर कालसे नाश होनेवाली अन्यान्य वस्तुओंकी तो बात ही क्या है?’

यह भगवान् और भक्तके उन भावोंका बाह्य दिग्दर्शन है, जो लोकशिक्षाके लिये भक्ति और भक्तका महत्त्व बतलाते हुए भगवान‍्ने कराया है। वस्तुत: भगवान् और भक्तके पारस्परिक भाव तो हमारे लिये अचिन्त्य ही होते हैं, वे हमारी वाणीमें और हमारे मनोंमें कभी आ नहीं सकते। उनका कैसा क्या नाता होता है, इस बातको तीसरा कोई नहीं बतला सकता। हाँ, उनके पारस्परिक व्यवहारकी बाह्य लीलाको पढ़-सुनकर, गाकर तथा मनन करके हम परम पवित्र हो सकते हैं। वस्तुत: भगवान् और भक्त दो स्वरूपोंमें एक ही परम वस्तु है। उनके दो स्वरूप तो लीलानन्दके लिये हैं, और वह लीला लोकपावनी होती है।

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