भगवत्प्रेमसम्बन्धी कुछ बातें
आपके तीन पत्र आये। बदलेमें क्या लिखूँ, कुछ समझमें नहीं आया।......अत: पत्रका उत्तर न लिखकर जो कुछ मनमें आता है, लिख रहा हूँ। मैं नहीं जानता आपकी आध्यात्मिक स्थिति कैसी है। ठीक अनुमान भी नहीं लगा सकता। मैं जो कुछ लिखता हूँ वह यदि आपकी स्थितिसे नीचे तहके साधकोंके कामकी बात हो तो आप सिर्फ पढ़कर छोड़ दें। आपके लिये उपयोगी हो तो ग्रहण करनेकी कोशिश करें।
यद्यपि मैंने बहुत ऊँची स्थितिका अनुभव नहीं किया है, तथापि भगवत्प्रेमके मार्गकी कुछ बातें किसी-न-किसी सूत्रसे मैं जान सका हूँ। उसीके आधारपर मेरा यह लिखना है। जहाँतक मेरा विश्वास है—मैं जो कुछ लिखता हूँ, सो ठीक है। भगवत्प्रेमके मार्गपर चलनेवालोंको इसपर ध्यान देना चाहिये।
भगवत्प्रेमके पथिकोंका एकमात्र लक्ष्य होता है—भगवत्प्रेम! वे भगवत्प्रेमको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते—यदि प्रेममें बाधा आती दीखे तो भगवान्के साक्षात् मिलनकी भी अवहेलना कर देते हैं—यद्यपि उनका हृदय मिलनके लिये आतुर रहता है। जगत्का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्गमें बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास—बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयासके त्याग कर सकते हैं। संसारके किसी भी पदार्थमें उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्तभूमिपर आकर नहीं टिक सकती, उनको अपनी ओर नहीं खींच सकती। शरीरका मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचारधारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्रमें आकर मिल जाती हैं—वह केन्द्र होता है, केवल भगवत्प्रेम—वैसे ही जैसे विभिन्न पथोंसे आनेवाली नाना नदियाँ एक ही समुद्रमें आकर मिलती हैं। शरीरके सम्बन्ध, शरीरका रक्षण-पोषणभाव, शरीरका आकर्षण, शरीरमें आकर्षण (अपने या परायेमें), शरीरकी चिन्ता (अपने या परायेकी) सब वैसे ही मिट जाते हैं, जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार। ये तो बहुत पहले मिट जाते हैं। विषय-वैराग्य, काम-क्रोधादिका नाश, विषाद-चिन्ताका अभाव, अज्ञानान्धकारका विनाश भगवत्प्रेम-मार्गके अवश्यम्भावी लक्षण हैं। भगवत्प्रेमका मार्ग सर्वथा पवित्र, मोहशून्य, सत्त्वमय, अव्यभिचारी और विशुद्ध होता है। भगवत्प्रेमकी साधना अत्यन्त बढ़े हुए सत्त्वगुणमें ही होती है। उसमें दीखनेवाले काम, क्रोध, विषाद, चिन्ता, मोह आदि तामसिक वृत्तियोंके परिणाम नहीं होते। वे तो शुद्ध सत्त्वकी ऊँची अनुभूतियाँ होती हैं; उनका स्वरूप बतलाया नहीं जा सकता। भूलसे लोग अपने तामस विकारोंको उनकी श्रेणीमें ले जाकर ‘प्रेम’ नामको कलंकित करते हैं। वे तो बहुत ही ऊँचे स्तरकी साधनाके फलस्वरूप होती हैं। उनमें—हमारे अन्दर पैदा होनेवाली भोग-वासनाकी सूक्ष्म और स्थूल तमोगुणी वृत्तियोंका कहीं लेश भी नहीं होता। बहुत ऊँची स्थितिमें पहुँचे हुए महात्मा लोग ही उनका अनुभव कर सकते हैं—वे कथनमें आनेवाली चीजें नहीं हैं—कहना-सुनना तो दूर रहा, हमारी मोहाच्छन्न बुद्धि उनकी कल्पना भी नहीं कर सकती। भगवत्कृपासे ही उनका अनुमान होता है और तभी उनकी कुछ अस्पष्ट-सी झाँकी होती है। इस अस्पष्ट झाँकीमें ही उनकी इतनी विलक्षणता मालूम होती है कि जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि ये चीजें दूसरी ही जातिकी हैं। नाम एक-से हैं—वस्तुगत भेद तो इतना है कि उनसे हमारी लौकिक वृत्तियोंका कोई सम्बन्ध ही नहीं जोड़ा जा सकता, तुलना ही नहीं होती। भगवान्की कृपासे—इस प्रेममार्गमें कौन कितना आगे बढ़ा होता है, कौन किस स्तरपर पहुँचा होता है, यह बाहरकी स्थिति देखकर कोई नहीं जान सकता; क्योंकि यह चीज बाहर आती ही नहीं। यह तो अनुभवरूप होती है। जो बाहर आती है, वह तो प्राय: नकली होती है। जिसे हम अप्रेमी मानते हैं, सम्भव है वह महान् प्रेमी हो। जिसे हम दोषी समझते हैं, सम्भव है वह प्रेममार्गपर बहुत आगे बढ़ा हुआ महात्मा हो, और जिसे हम प्रेमी समझ बैठते हैं, सम्भव है वह पार्थिव मोहमें ही फँसा हो। भगवत्प्रेमियोंको कोटिश: नमस्कार है। उनकी गति वे ही जानें। सीधी और सरल बातें जो करनेकी हैं, वे तो ये सात हैं—
१—भोगोंमें वैराग्यकी भावना।
२—कुविचार, कुकर्म, कुसंगका त्याग।
३—विषय-चिन्तनका स्थान भगवच्चिन्तनको देनेकी चेष्टा।
४—भगवान्का नामजप।
५—भगवद्गुुणगान-श्रवण।
६—सत्संग-स्वाध्यायका प्रयत्न।
७—भगवत्कृपामें विश्वास बढ़ाना।