भगवान्का महत्त्व
भगवान्की ओर चित्तका प्रवाह कम है और सांसारिक विषयों एवं प्रलोभनोंकी ओर अधिक है—यह अवश्य ही चिन्ताकी बात है। श्रीभगवान्में जिस दिन पूर्णरूपसे यह भाव हो जायगा कि भगवान्को भूलनेसे बढ़कर और कोई महान् हानि नहीं है, उस दिनसे फिर ऐसी बात नहीं होगी। किसी भी अधिक मूल्यवान् और अधिक महत्त्वकी वस्तुके लिये कम मूल्यकी या कम महत्त्वकी वस्तुका त्याग अनायास हो सकता है। भगवान्के समान बहुमूल्य और महत्त्वकी वस्तु और कौन-सी होगी। बुद्धिसे सोचनेपर ऐसा ही प्रतीत भी होता है; परन्तु इस तत्त्वपर पूरी श्रद्धा नहीं होती, इसीसे भगवान्को छोड़कर विषयोंकी ओर चित्तवृत्तियोंका प्रवाह होता है। भगवान्से प्रार्थना कीजिये कि वे कृपापूर्वक हमें श्रद्धा और विश्वासका दान करें। श्रीभगवान्का महत्त्व यथार्थत: जान लेनेपर अपना सब कुछ देकर भी उन्हें पानेमें उनकी कृपा ही कारण दिखायी देती है। भक्त समझता है और अनुभव करता है कि मैंने जो कुछ दिया है, उससे करोड़गुना भी दिया जाता, तो भी थोड़ा था। अथवा उन्हें पानेके लिये जितना दु:ख-कष्ट भोगा है, उससे करोड़गुना भी भोगा जाता तो भी उनके मिलन-सुखके सामने उसकी करोड़वें हिस्सेकी भी कीमत न होती। त्याग या तपकी कीमत देकर कौन भगवान्को खरीद सकता है। उस अमूल्य निधिकी तुलना किसी दूसरी वस्तुसे की ही नहीं जा सकती। फिर तुच्छ भोगोंका त्याग तो तुच्छ-सी बात होगी। भला विचार तो कीजिये—उनके समान सौन्दर्य, माधुर्य, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, श्री, यश और किसमें हैं। उनके समान प्रलोभनकी वस्तु और कौन-सी है? हमारा अभाग्य है जो हम उस दिव्य सुधासागरको छोड़कर विषय-विषकी ज्वालासे पूर्ण माया-मधुर विषयोंके पीछे पागल हो रहे हैं। उन मुनिजनमनमोहन निखिल आनन्द-रसनिर्यास, सौन्दर्य-माधुर्यके परमनिधि परमधाम प्रियतमको छोड़कर क्षणविध्वंसी अनित्य और असुख भोगोंकी प्राप्तिके लिये मृत्युकालतक तरसते रहते हैं। भगवान् हमारी मति पलटें। कातर प्रार्थना कीजिये। सच्ची कातर प्रार्थनाका उत्तर बहुत शीघ्र मिलता है।
एक बात और है बड़े महत्त्वकी, हो सके तो कीजिये। जीवन-मरण, बन्धन-मुक्ति, क्या, क्यों और कबकी चिन्ताको छोड़कर दयामयकी अहैतुकी दयापर निर्भर हो जाइये। बस, उसका चिन्तन हुआ करे और इस निर्भरतामें कभी त्रुटि न आने पावे। देखिये, आप क्यासे क्या हो जाते हैं और वह भी बहुत ही शीघ्र।