भगवत्कृपा
कृपाकी बात लिखी सो कृपा तो भगवान्की सदा सबपर और अनन्त है। हमलोग उस कृपापर जितना ही अपनेको छोड़ सकें, उतना ही लाभ उठा सकते हैं। जो कुछ भी भगवत्कृपाको सौंप दिया गया, वही सुरक्षित हो गया। भगवान्की कृपाके लिये कुछ भी असम्भव या असाध्य नहीं है। सभी स्थितियोंमें सभी प्रकारकी सहायता प्राप्त करनेके लिये भगवान्की कृपाका ही आवाहन करना चाहिये। सबसे अधिक कृपाके प्रसादका पात्र तो वह है जो अपनी सारी इच्छाओंको सम्पूर्णतया भगवत्कृपाके प्रति समर्पण करके उस कृपासे बननेवाले प्रत्येक विधानमें परम आनन्दका अनुभव करता है। जबतक हम कुछ चाहते हैं, हमारी स्वतन्त्र इच्छा वर्तमान है, तबतक भगवत्कृपापर पूर्ण निर्भरता नहीं है। ऐसा न हो तो कम-से-कम अपनी प्रत्येक आवश्यकताके लिये तो भगवान्की कृपाकी ओर ही ताकते रहना चाहिये। दूसरा भरोसा कोई रहे ही नहीं, तभी उस कृपाका चमत्कार देखनेमें आता है। तभी मनुष्यको यह अनुभव होता है कि वह जिसे असम्भव मानता था, वही भगवत्कृपासे अनायास ही सम्भव हो गया और इस भगवत्कृपाका द्वार सबके लिये खुला है। जो भी चाहे इसे पा सकता है। क्योंकि भगवान् सबके—जीवमात्रके—सुहृद् हैं, कृपामय ही नहीं, मित्र हैं। कृपा तो परायेपर होती है। प्रेममें तो और भी निकटका सम्बन्ध है। बस, यही करनेका प्रयत्न कीजिये।