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साधन और भगवत्कृपा

आपका कृपापत्र मिले बहुत दिन हो गये। मैं यहाँ बाढ़पीड़ितोंके काममें लगा था, फिर श्रावणमें कलकत्ते चला गया, वहाँ बहुत दिन लग गये। स्वभावदोष तो है ही, इन्हीं सब कारणोंसे पत्रका उत्तर लिखनेमें देर हो गयी, क्षमा करें।

आप मुझको गुरुरूपसे देखते हैं, इस विषयमें मेरा यह निवेदन है कि आप ऐसा मानकर बड़ी भूल कर रहे हैं। मैं साधारण मनुष्य हूँ और किसी दूसरेका जिम्मा लेनेमें अपनेको असमर्थ देखता हूँ। गुरु तो वह हो सकता है जो स्वयं दोषरहित हो और जिसमें परमात्माकी प्रदान की हुई ऐसी प्रबल सात्त्विक शक्ति हो जिसके द्वारा वह शिष्यके किसी प्रयासकी अपेक्षा न रखकर अनायास ही उसके समस्त दोषोंका नाश करके उसे भगवान‍्के पथपर ला सके, और अपनी शक्तिसे ही उसे भगवान‍्के परमपदपर पहुँचा दे। मैं तो स्वयं अपने अन्दर ऐसे दोषोंको देखता हूँ जिनसे छूटनेके लिये मुझे बार-बार प्रयास करना पड़ता है। ऐसी हालतमें मैं किसीका गुरु बनकर उसका जिम्मा लेता हूँ तो शायद उसके साथ विश्वासघात करता हूँ और अपनेको भी धोखा देता हूँ। इसलिये आप मुझे गुरु न मानकर अपना एक मित्र ही मानिये। आप चाहेंगे तो मैं अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार आपको सलाह देनेकी चेष्टा अवश्य करूँगा।

महापुरुष और महात्मा

‘महापुरुष’ और ‘महात्मा’ शब्द आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। मेरी समझमें तो ऐसा आता है कि शक्तिसम्पन्न सच्चे महापुरुष या महात्माका एक बारका दर्शनमात्र ही मनुष्यके कल्याणके लिये पर्याप्त होता है। मैं तो ऐसे महापुरुषोंकी चरण-रजको बार-बार नमस्कार करता हूँ और समझता हूँ कि उनकी चरण-रजका प्रसाद-कण मुझे मिला करे तो मैं धन्य हो जाऊँ।

आपने लिखा कि ‘मुझसे जितना जो कुछ यत्किंचित् साधन बनता है मैं लगनसे करता हूँ। उससे जी नहीं चुराता, परन्तु उससे अधिक बनता ही नहीं इसके लिये क्या करूँ।’ सो मेरी समझमें तो यही आता है कि मनुष्य इससे अधिक और कुछ कर भी नहीं सकता। वह जी न चुराकर लगनके साथ जितना बन सके उतना किये जाय, तो शेष सब भगवान् आप ही कर-करा लेते हैं; परन्तु इतना याद रहे कि साधन या पुरुषार्थके बलपर भरोसा न रखे। भरोसा रखना चाहिये भगवान‍्की अनन्त कृपापर ही। किसी भी साधनके मूल्यपर भगवान् या भगवत्प्रेम नहीं खरीदा जाता। भगवान् या भगवत्प्रेम अमूल्य निधि है, उसकी कीमत कोई चुका ही नहीं सकता। भगवान् जब मिलते हैं, जब अपना प्रेम देते हैं—तब केवल कृपासे ही। वे देखते हैं, ‘पानेवालेकी चाहको और उसकी लगनको।’ यदि उसकी चाह सच्ची और अनन्य होती है, और यदि वह अपनी शक्तिभर तत्परताके साथ लगा रहता है तो भगवान् अपनी कृपाके बलसे उसके सारे विघ्नोंका नाश करके बड़े प्यारसे उसको अपनी देख-रेखमें रख लेते हैं और स्वयं अपने निजस्वरूपसे उसके योगक्षेमका वहन करते हैं।

कृत्रिमता या धोखा नहीं होना चाहिये, और अपनी शक्तिभर कमी नहीं होनी चाहिये फिर चाहे साधन हो बहुत थोड़ा ही, वही भगवत्प्रसादकी प्राप्तिके लिये काफी होता है। और भगवत्प्रसाद उसकी कमीको आप ही पूर्ण कर लेता है। साधनपर जोर तो इसलिये दिया जाता है कि मनुष्य भूलसे कहीं आलस्य, प्रमाद और अकर्मण्यताको ही निर्भरता न मान बैठे, कहीं तमोगुणको ही गुणातीतावस्था न समझ ले। जो यथार्थमें भगवान् पर निर्भर करते हैं उनके लिये किसी भी साधनका कोई मूल्य नहीं है, उनके तो सारे कार्य भगवत्प्रसादसे ही होते हैं, और वह ऐसे विलक्षण होते हैं कि किसी भी साधनसे वैसे होनेकी सम्भावना नहीं है। कहाँ भगवत्कृपा और कहाँ मनुष्यकृत तुच्छ साधन!

आपके मनमें भगवद्भजनके फलस्वरूप कुछ भी पानेकी इच्छा नहीं है, आप भजनके लिये ही भजन करना चाहते हैं यह बहुत ही ऊँची बात है। बदला पानेकी इच्छा ही निर्बलता, शिथिलता और व्यभिचारभावकी उत्पत्ति करती है। भजन यदि भजन बढ़नेके लिये ही—भजनके उत्तरोत्तर विशुद्ध और अनन्य होनेके लिये ही किया जाय तो वैसा भजन बहुत ही ऊँची चीज होती है। वैसे भजनके सामने मुक्ति भी तुच्छ समझी जाती है। परन्तु ऐसा भजन भी भगवत्कृपाके बलसे ही होता है। भजनमें कहीं अहंकार न आने पावे। अहंकारसे बड़ी बाधा उत्पन्न होती है। भजनमें तो आसक्ति होनी चाहिये।

आप भजनसे उकताते नहीं हैं यह बड़ी अच्छी बात है। उकताता वही है जो जल्दी ही किसी फलकी इच्छासे भजन करता है या जिसके भजनमें श्रद्धा और अनुरागका अभाव होता है। श्रद्धा और अनुरागके साथ निष्काम भजन करनेवाला क्यों ऊबने लगा।

बस, करते जाइये; कभी थकिये मत; परन्तु किसी बातकी अपेक्षा न रखिये! प्रतीक्षा करनी ही हो तो कीजिये एकमात्र भगवत्कृपाकी। विश्वास कीजिये—भगवत्कृपा तो आपपर पूर्ण और अनन्त है ही, वह तो सभीपर है, आप जितना-जितना उसका अनुभव कर पाते हैं, उतना-उतना ही आप अपनेको सुरक्षित और निर्भय पाते हैं, उतना-उतना ही आपका भजन बढ़ता है और जितना-जितना विशेष अनुभव करेंगे, उतनी-उतनी ही आपकी निर्भरता, निर्भयता और भजनशीलता बढ़ती चली जायगी।

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