भगवत्कृपाका सहज प्रवाह
....... साधनमें अपनी जानमें त्रुटि न हो और फलकी कोई भी शर्त न रहे, यही तो साधनाका सच्चा परमार्थ है। भगवान्की सहज कृपाका प्रवाह हमारी ओर निरन्तर आ रहा है। हम बीचमें अपनी शर्तें रखकर उस प्रवाहकी स्वाभाविक कल्याणमयी गतिमें बाधक बन जाते हैं। वह जैसे आता है, उसे वैसे ही आने दिया जाय। उसका कैसा स्वरूप होगा, वह कब हमारे समीप पहुँचेगा, और वह किस प्रकारसे आवेगा—यह जाननेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये। सब उन्हींपर छोड़ देना चाहिये। यह चाहना तो दोषकी बात नहीं कि हमें उनकी कृपा प्रत्यक्ष हो। परन्तु उसके स्वरूप, प्रकार और कालकी चिन्ता न करके उन कृपामयका ही चिन्तन अनवरत करना चाहिये। बिना किसी शर्तके अपनेको निरालम्ब मानकर छोड़ देना चाहिये उनके श्रीचरणोंकी कृपाके भरोसेपर। वे जब, जैसे, जो उचित समझेंगे, वही कल्याणमय होगा। हम अल्पमति अदूरदर्शी प्राणी कहाँतक सोच सकते हैं। हमारा सोचना निर्भ्रान्त होगा, यह आशा भी नहीं है। हमें सोचना चाहिये केवल उनको; फिर वे सोचेंगे हमारी बात। हमारा कल्याण किस बातमें है—यह भी वे ही सोचेंगे और ‘कल्याण’ का वह साधन भी वे ही जुटा देंगे। उनके समान सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, परम सुहृद् और कौन होगा? परन्तु भगवान्के भजनका प्रेमी तो इस तरहकी बात भी नहीं सोचता। उसके लिये तो भजन ही परम ‘कल्याण’ है; जिसे वह कर रहा है। बस, भगवान्का भजन छूटना ही उसके लिये महान् संकटका प्रसंग है—
‘तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता’—
नारदजीका यह सूत्र इसी बातको बतलाता है। चाहना-पाना कुछ नहीं। कभी उनकी विस्मृति न हो!