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भगवत्कृपापर विश्वास

मान और धनकी चाह किसे नहीं होती, संसारमें साधारणतया सभीको होती है। जिनको नहीं होती, वे अतिमानव हैं—महापुरुष हैं। इस दृष्टिसे यदि आपको धन-मानकी चाह है और वह आजकल और भी बलवती हो रही है तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आश्चर्य तो तब होता जब अन्दर छिपी हुई चाह अन्दर-ही-अन्दर दबकर मर जाती, उसका अस्तित्व ही नष्ट हो जाता।

जीवके अनन्त जन्मोंके भोगोंके संस्कार मनमें रहते हैं; उन संस्कारोंको लिये हुए वह मनुष्य-शरीरमें आता है; यहाँ आनेपर यहाँकी परिस्थितिके अनुसार किसी-किसीके वे पुराने संस्कार नये प्रतिकूल संस्कारोंसे दब जाते हैं और किसी-किसीके अनुकूल नये संस्कारोंका बल पाकर विशेषरूपसे बढ़ जाते हैं। यह स्मरण रखना चाहिये कि अनुकूल सहायता और शक्ति मिलनेसे पूर्वसंस्कारोंका बल और विस्तार बहुत बढ़ जाता है; क्योंकि उनकी सारी शक्तियोंको चारों ओरसे विकसित होनेका अवसर और सुभीता मिल जाता है। परन्तु प्रतिकूल बाधक शक्तिका सामना होनेपर पूर्वसंस्कारोंका बल बहुत क्षीण हो जाता है। कारण, उनको बाधक शक्तिका सामना करना पड़ता है, जिससे उनकी शक्तिका क्षय होता है और इस युद्धमें अपनी शक्तिके स्वाभाविक विकास और विस्तारका अवसर और सुभीता नहीं मिलता। यही नियम सबके लिये लागू होता है। अतएव हमारे संचित कुसंस्कार यहाँ जब सत्संग, स्वाध्याय, सच्छिक्षा, सद्विचार, सद्वस्तुसेवन और भगवान‍्के भजनके प्रतापसे कुछ दब जाते हैं, तब हम समझ बैठते हैं कि हमारे सब कुसंस्कारोंका नाश हो गया और हम सर्वथा शुद्ध हो गये। होता यह है कि कुसंस्कार नष्ट नहीं होते, वे दब जाते हैं, दुबक जाते हैं, छिप जाते हैं और अनुकूल शक्तिका सहारा न मिलनेसे प्रतिक्षण क्षीण होते चले जाते हैं। ऐसी अवस्थामें यदि सत्संग, सद्विचार, भजन आदि उपर्युक्त साधन चालू रहते हैं तब तो कुसंस्कारोंको सिर उठानेका मौका नहीं मिलता और अन्तमें वे भगवत्-शरणागति या तत्त्वज्ञानोदयके प्रभावसे मर जाते हैं; परन्तु जबतक ऐसा नहीं होता तबतक साधन न होनेसे अनुकूल वातावरण पाते ही उन्हें सिर उठानेका, और बाधा न पाने तथा बाहरी सहायता मिल जानेसे प्रबलरूपसे आक्रमण करके अपनी अबाध सत्ता जमानेके लिये कोशिश करनेका मौका मिल ही जाता है। ऐसी दशामें बड़े-बड़े नामी-गिरामी तपस्वी और साधकोंका पतन देखा जाता है। हमलोग तो किस बागकी मूली हैं।

मनुष्यको भगवान‍्ने एक विवेकशक्ति दी है, जिसके द्वारा वह भले-बुरेका निर्णय कर सकता है। यह विवेकशक्ति मनुष्यमात्रमें होती है, चाहे उसके पूर्वसंचित कर्म कितने ही अशुभ क्यों न हों। मनुष्यको परमात्माकी यह खास देन है। यह विवेकशक्ति भी परिस्थितिके अनुसार जाग्रत्, सुप्त और तीव्र, मन्द हुआ करती है। जिस मनुष्यके आचरण जितने ही शुद्ध होते हैं, जिसके इन्द्रियद्वार जितने ही सत् के सेवनमें लगे रहते हैं, उनकी विवेकशक्ति उतनी ही जाग्रत् और तीव्र रहती है। जरा-सा बुरा संकल्प मनमें उठते ही यह विवेकशक्ति उसे यथार्थरूपमें उस संकल्पका स्वरूप बतलाकर उसे कार्यान्वित न करनेका आदेश करती है। इसीको ‘अन्तर्ध्वनि’ या ‘आत्माकी ध्वनि’ कहते हैं। कभी पहले-पहल कोई मनुष्य कुसंगवश चोरी या व्यभिचार करनेका मन करता है, तब अन्दरकी यह आत्माकी आवाज उससे कहती है—‘यह पाप है, बुरा कर्म है; इसे न करो।’ परन्तु उस मनुष्यका वर्तमान कुसंग यदि बलवान् होता है तो वह उसके प्रभावमें आकर अन्तरात्माकी इस आवाजकी अथवा विवेकशक्तिके निर्णय और आदेशकी अवहेलना करके उस असत् कर्मको कर बैठता है। जहाँ एक बार ऐसा हुआ, वहीं उसका नया संस्कार उत्पन्न होकर विवेकशक्तिसे लड़ने लगता है। कुछ समयतक तो ऐसा चलता है; परन्तु यदि कुसंग और कुकर्म चालू रहते हैं तो विवेकशक्ति मन्द पड़ जाती है, वह सो-सी जाती है, ठीक निर्णय नहीं कर पाती और न ठीक आदेश या परामर्श देनेकी शक्ति रखती है। यही गीतोक्त राजसी बुद्धि है, जो धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्यका यथार्थ निर्णय नहीं कर पाती। इसके बाद होते-होते नवीन असत् संस्कारोंका समूह एकत्र होकर इस विवेकबुद्धिको सर्वथा छिपा देता है और पूर्वजन्मार्जित कुसंस्कारोंको जगाकर—दोनों मिलकर एक नयी मोहाच्छादित बुद्धि उत्पन्न करते हैं, जो प्रत्येक कुसंस्कार और कुकर्मको सत्संस्कार और सत्कर्म बतलाकर उनका समर्थन करती है। यही गीतोक्त तामसी बुद्धि है, जिसकी महिमाका बखान करते हुए भगवान् कहते हैं—

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी॥
(१८। ३२)

‘अर्जुन! जो बुद्धि तमोगुणसे ढकी हुई अधर्मको धर्म बतलाती है और सभी बातोंमें उलटा निर्णय करती है वह तामसी है।’ इस तामसी बुद्धिके राज्यमें मनुष्य विपरीतगामी स्वभावत: ही हो जाता है, उसे अपने दोषपूर्ण कामोंमें दोष नहीं दीखता। कहीं पूर्वके शुभ संस्कार कभी मौका पाकर चुपकेसे उसे चेताते हैं, दबे हुए सच्चे हितैषीकी भाँति उसे सावधान करते हैं, तब क्षण-कालके लिये उसे दु:ख होता है, वह मोहसे निकलना चाहता है; परन्तु तामसी बुद्धि उससे सहजमें ऐसा करने नहीं देती। वह बड़े सुन्दर-सुन्दर मोहक दृश्य दिखा-दिखाकर उसे अपने ही आदेशके अनुसार चलनेके लिये ललचाती है और वह मनुष्य उसीको उत्तम और लाभप्रद मानकर उसी मार्गपर चलने लगता है। पहलेके किये हुए अपने शुभ आचरणों को वह ‘भूलमें जीवन व्यर्थ खोया गया’ समझता है और वर्तमानके अशुभ आचरणोंको ‘जीवनका वास्तविक लाभ’। पूर्वके बुरे संस्कारोंकी पूर्ण जागृति और सात्त्विक बुद्धि अथवा विवेकशक्तिकी लुप्तप्राय स्थितिके साथ ही तामसी बुद्धिके पूर्ण प्रभावकी इस शोचनीय अवस्थासे भगवान‍्की कृपासे ही मनुष्य निस्तार पा सकता है।

इधर कई बातें ऐसी हो गयीं, जिन्होंने आपके कुसंग और कुविचारोंकी पुष्टिकी (चाहे वह अज्ञानकृत ही हो)। इस स्थितिमें आप तो क्या, अच्छे-अच्छे लोगोंका मन डगमगा जाना सम्भव है। परन्तु विचारशील पुरुषको यहीं तो अशुभके साथ युद्ध करना है। यही तो लड़ाईका मौका है। इस लड़ाईमें विजय पाना ही पुरुषार्थ है। यही परम साधन है। ‘क्या तुच्छ धन या मानकी इच्छा भगवान‍्के पथपर चढ़े हुए पुरुषको वापस लौटाकर नीचे गिरा सकती है?’ ऐसा मनमें प्रश्न करके आत्माके निश्चयसे यह दृढ़ उत्तर देना चाहिये ‘नहीं गिरा सकती’। बुद्धि कितनी ही तामसी हो जाय, यदि आत्मा जाग्रत् रहे, बुद्धिके साथ न मिल जाय तो बुद्धिका तमोगुण ठहर नहीं सकता।

आप घबराइये नहीं, भगवान‍्का भरोसा रखिये। आत्मामें सत्साहस और आत्मनिर्भरता पैदा कीजिये। प्रलोभनोंको पछाड़िये। भगवान् मंगलमय हैं। उनके कल्याणमय वरद हस्तको अपने मस्तकपर देखिये, अनुभव कीजिये। वे रक्षा करनेको तैयार हैं। घबराकर उनका तिरस्कार न कीजिये। वे सतत आपके साथ हैं, कहते हैं—

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
(गीता १८।५८)

—फिर डर काहेका? हाँ, हिम्मत हार दी तो जरूर डर है। ये मनमें घुसे हुए चोर भाग जायँगे, यदि आपको भगवान‍्के आश्रयमें जाते देखेंगे। ये आपको रोकना चाहेंगे, लोभ और भय दिखाकर पथभ्रष्ट करना चाहेंगे; परन्तु यदि आप सजग, सावधान और निश्चयपर अटल रहें तो ये निराश होकर आपके हृदयको छोड़कर कोई दूसरा घर ढूँढ़ेंगे!

भगवान‍्का नाम किसी भी भावसे लीजिये। मनमें प्रसन्नताका अनुभव कीजिये भगवान‍्की कृपाको अपने ऊपर बरसते देखकर! देखिये, देखिये—अनवरत अपार वर्षा हो रही है भगवत्कृपाके सुधासिन्धुके मधुर जलकी! देखकर शीतल, शान्त हो जाइये—नहाकर सारे पाप-तापोंको धो डालिये। पीकर अमृतमय—आनन्दमय, शान्तिमय स्वयं बन जाइये। विश्वास कीजिये—ऐसी ही बात है, इसमें तनिक भी बनावट नहीं है, सत्य है—सदा सत्य है। जो विश्वास करेगा, वही निहाल हो जायगा।

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