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प्रतिकूल स्थितिमें प्रसन्न रहना

......प्रतिकूल समयमें सभी कुछ सम्भव है। परन्तु इन सब बातोंके होते हुए भी आप-सरीखे विचारशील पुरुषके चित्तमें अशान्ति क्यों रहनी चाहिये। वेदान्त, भक्ति और कर्म—तीनों ही दृष्टियोंसे चित्तका निरुद्वेग रहना उचित है। वर्तमान दु:स्थिति कर्मका फल है, तो उसका भोग अवश्य ही सिर चढ़ाकर प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना चाहिये। ज्ञानकी दृष्टिमें जहाँ दृश्य-जगत‍्का ही अभाव है, वहाँ जगत‍्की तुच्छातितुच्छ स्थूल स्थितियोंकी तो सत्ता ही कहाँ है। स्वप्नका दु:ख जागे हुए बुद्धिमान् पुरुषोंको क्यों होना चाहिये। अनुकूलता, प्रतिकूलता सारी ही असत् हैं, अज्ञानसे आरोपित हैं। निन्दा-स्तुति, मानापमान, लाभ-हानि—सभी तो मोहके कार्य हैं। इनसे बुद्धिमान‍्की चित्तवृत्तिमें विकार क्यों होना चाहिये।

सच्चे भक्तकी दृष्टिमें तो सभी कुछ प्रियतम प्रभुकी देन है। वह तो प्रत्येक स्थितिमें प्रियतमका कोमल मधुर स्पर्श पाकर सुखी होता है। किसी भी स्वाँगमें आये, आता वह प्रियतम ही है। फिर भय-चिन्ता किस बातकी? यदि उसका विधान मानें तो उस मंगलमयका प्रत्येक विधान हमारे मंगलके लिये होता है। फिर उसका किया हुआ विधान होनेसे हमारे लिये प्रतिकूल भी अनुकूल हो जाना चाहिये—क्योंकि इसीमें उसको सुख है, ऐसी ही उसकी इच्छा है। और विचार करके देखें तो विधानके रूपमें भी स्वयं विधाताका ही प्रकाश है।

आपको किसी वैषयिक अनुकूल समयकी आशा और प्रतीक्षा क्यों करनी चाहिये। यदि वैसा अनुकूल समय न भी आया तो आपका क्या हर्ज है। प्रत्येक प्रतिकूलतामें ही अनुकूलताका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहिये। श्रीभगवान‍्के इन शब्दोंको याद रखना चाहिये—

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥
(गीता ५। २०)

समस्त जीवनके वेदान्ताभ्याससे लाभ उठानेका यही तो अवसर है।

फिर भगवान‍्ने भागवतमें एक जगह ऐसा भी कहा है कि ‘जिनपर मैं अनुग्रह करता हूँ, उनका धन क्रमश: हरण कर लेता हूँ! और अपनी कृपाके द्वारा उनके प्रत्येक उद्योगको असफल करता हूँ।’ अतएव आपको तो हरेक दृष्टिसे ही अन्तरमें प्रसन्न, निर्विकार, सम और शान्त रहना चाहिये। यह पत्र मैं आपके लिये ही लिखता हूँ। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यथासाध्य उद्योग नहीं करना चाहिये अथवा कष्टमें पड़े हुए घरवालोंके कष्टमें हिस्सा नहीं बँटाना चाहिये। करना सब चाहिये और पूरे बलसे करना चाहिये। परन्तु करना चाहिये नाटकके कुशल पात्रकी भाँति ही। एक बात और ध्यानमें आ गयी। चित्त बहुत ही घबरावे तो श्रीमद्भागवतके आठवें स्कन्धके तीसरे अध्यायका कुछ दिनोंतक रोज लगातार आर्तभावसे पाठ करना चाहिये। इससे अद‍्भुत कार्य होता है; अवश्य ही यह बहुत ऊँचा भाव नहीं है।

खर्च यथासाध्य घटाना चाहिये—और काम-काजके लिये भी प्रयत्न करते रहना चाहिये। नामस्मरण तो सतत चालू रहना ही चाहिये।

घबराना नहीं चाहिये। याद रखिये प्रभु सदा आपके साथ हैं। उनकी कृपासे सब कुछ हो सकता है। विषाद करके उनका अपमान नहीं करना चाहिये।

मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
(गीता १८। ५८)

उनका आश्रय लेनेपर, उनमें चित्त लगानेपर उनकी कृपासे सारे कष्टोंसे सहज ही पार हुआ जा सकता है।

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