सच्चा एकान्त और भगवत्प्रेम
मनुष्य कुछ सोचता है, होता वही है जो श्रीनन्दनन्दनने रच रखा है। ‘जो कछु रचि राख्यो नँदनंदन मेटि सकै नहिं कोय।’
वस्तुत: बाहरी एकान्तका महत्त्व भी क्या है, सच्चा एकान्त तो वह है, जिसमें एक प्रभुको छोड़कर चित्तके अन्दर और कोई कभी आवे ही नहीं। शोक-विषाद, इच्छा-कामना आदिकी तो बात ही क्या, मोक्षसुख भी जिस एकान्तमें आकर बाधा न डाल सके। जबतक चित्तमें नाना प्रकारके विषयोंका चिन्तन होता है, तबतक एकान्त और मौन दोनों ही बाह्य हैं और इनका महत्त्व भी उतना ही है जितना केवल बाहरी दिखावेके लिये होनेवाले कार्योंका होता है। उन महापुरुषोंको धन्य है, जो एकमात्र श्रीकृष्णके ही रंगमें पूर्णरूपसे रँग गये हैं, जिनका चित्त जगत्के विनाशी सुखोंकी भूलकर भी खोज नहीं करता, जिनकी चित्तवृत्ति संसारके ऊँचे-से-ऊँचे प्रलोभनकी ओर भी कभी नजर नहीं डालती, जिनकी आँखें सर्वत्र श्यामसुन्दरके दिव्य स्वरूपको देखती हैं और जिनकी सारी इन्द्रियाँ सदा केवल उन्हींका अनुभव करती हैं। सच्चा एकान्तवास और सच्चा मौन उन्हीं महात्माओंमें है।......
......मेरे बाबत भ्रान्तिपूर्ण धारणा किसीके हृदयमें नहीं होनी चाहिये। इस प्रकारकी भ्रान्ति रहनेसे आगे चलकर भ्रान्तिनाश होनेपर या किसी भी कारणवश भाव बदल जानेपर मनमें बड़ा पश्चात्ताप हुआ करता है कि ‘हाय! हम बड़ी भूलमें रहे। यदि इतना प्रेम श्रीभगवान्में करते—इतना उनकी ओर झुकते तो न मालूम कितना लाभ उठाया होता।’ और वास्तवमें है भी ऐसी ही बात। भगवान्के साथ मनुष्यकी तुलना ही कैसी—चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो? हवाके एक जरा-से झोंकेसे गिर जानेवाली बालूकी भीतका सहारा किस कामका? मनुष्यमें न मालूम कितने और कैसे-कैसे संस्कार भरे रहते हैं। उनमेंसे यदि कभी कोई उभड़कर सामने आ जाता है तो हम जिसे अच्छा पुरुष मानते चले आते हैं, उसके प्रति भी हमारी घृणा हो सकती है। किसी कारणवश हमारी धारणा भूलसे भी बदल सकती है। निर्दोष तो एक श्रीभगवान् हैं और उनमें धारणा बदलनेका भी कोई कारण नहीं है; अतएव अपनी सारी श्रद्धा, भक्ति और भावुकताको उन्हींके प्रति समर्पण करना चाहिये। फिर मैं तो महात्मा भी नहीं हूँ।......
आपका प्रेम भगवान्की ओर मुड़ जाय, इसका उपाय यही है कि भगवान्का महत्त्व कुछ समझिये। मुझमें जो आपका इतना प्रेम है, उसके मूलमें भी तो यही भावना है न कि आप मुझमें किसी अंशमें भगवत्प्रेमका आभास पाते हैं—चाहे वह आपकी मूल धारणा हो। फिर आप मूलकी क्यों अवहेलना करना चाहते हैं? उनके प्रेमका अधिकारी प्रत्येक जीव है। ‘नरकका कीड़ा’ क्या उस स्नेहमयी माताके अतिरिक्त—जिसका हृदय अपने प्रत्येक बच्चेके लिये सदा ही स्नेहसे भरा रहता है—किसी दूसरी माँसे पैदा हुआ है? आप इस बातको भूल जाइये। भगवान्का प्रेम सबको प्राप्त हो सकता है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। हाँ, होनी चाहिये उस प्रेमकी प्राप्तिके लिये सच्ची चाह। भगवत्प्रेमकी चाह अपने-आप ही नरकसे निकालकर वैकुण्ठमें ले जायगी। तमाम दूषित भावनाएँ, तमाम पाप-ताप भगवत्प्रेमकी चाहकी प्रचण्ड आगमें जलकर खाक हो जायँगे। चाह कीजिये। उनके प्रेमको पानेकी इच्छा जाग्रत् कीजिये। संकल्प पढ़ते थे, अब मनसे संकल्प कर लीजिये कि उनका प्रेम प्राप्त होगा ही।