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भाग्यवान् और अभागे कौन हैं?

भैया! तुम्हारा पत्र मिला। यहाँ कुछ भी अपना नहीं है। आज जिसको अपना मानकर छातीसे लगाया जाता है, वही कल हाथसे निकलकर पराया हो जाता है। यहाँ कोई ऐसी वस्तु है ही नहीं जो सदा हमारे साथ रहे। या तो वह चली जाती है, या उसे छोड़कर हम चले जाते हैं। तुम्हारे पास आज धन है और कभी-कभी—मैं देखता हूँ—तुम्हें उस धनका अभिमान भी होता है। लोग तुम्हें ‘भाग्यवान्’ कहते हैं तो तुम्हें बड़ा सुख मिलता है, परन्तु भैया! सच पूछो तो धनसे कोई भी ‘भाग्यवान्’ नहीं होता। संसारके धन, मान, प्रतिष्ठा, अधिकार सभी कुछ हों और हों भी प्रचुर परिमाणमें, परन्तु मन यदि भगवान‍्के श्रीचरणोंमें न लगा हो तो वस्तुत: वह ‘अभागा’ ही है। ‘ते नर नरकरूप जीवत जग, भवभंजन-पद बिमुख अभागी।’ भाग्यवान् तो वस्तुत: भगवच्चरणानुरागी ही है। ‘अहह धन्य लछिमन बड़भागी। राम पदारबिंदु अनुरागी’ तुम्हें जो धनका अभिमान होता है यह भी तुम्हारी बड़ी गलती है। फिर तुम्हारे पास तो धन है ही कितना? तुमसे बहुत बड़े-बड़े धनी अब भी दुनियामें बहुत-से हैं। अबसे पहले ऐसे कितने हो गये हैं, जिनकी धन-राशिका कोई पार नहीं था। पर आज उनका वह अनन्त ऐश्वर्य कहाँ है? शिवि, मान्धाता, ययाति, रन्तिदेव आदिके धनसम्पत्तिका पार नहीं था; पर आज उसका कहीं पता नहीं है। न तो धनके होनेका अभिमान करना चाहिये और न यही अभिमान करना चाहिये कि यह मैंने कमाया है। यह भगवान‍्की चीज है, तुम्हें तो मिली है—भलीभाँति रक्षा करते हुए इसे भगवान‍्की सेवामें लगानेके लिये। तुम इसके व्यवस्थापक हो, स्वामी नहीं। खबरदार, कहीं मालिक न बन बैठना। नहीं तो चोरीके अपराधमें बड़े घरकी हवा खानी पड़ेगी। तुम्हारा तो बस, यही काम है कि तुम व्यवस्थापूर्वक इसे स्वामीकी सेवामें लगाते रहो। इसीमें धनकी सार्थकता है। और असलमें इसीलिये धनीलोग भाग्यवान् हैं कि उन्हें धनके द्वारा भगवत्सेवाका सौभाग्य मिला है। दीन-दु:खी गरीब भाई, पति-पुत्रहीन दु:खी बहनें, अभावग्रस्त गृहस्थ, अनाथ बालक आदि सभी इस धनके द्वारा सेव्य हैं। यह समझकर नहीं कि वह दयाके पात्र हैं, बल्कि यह समझकर कि भगवान् ही उनके रूपमें अपने अधिकारसे उस धनको तुमसे चाहते हैं। तुम नि:संकोच और मुक्तहस्त होकर नम्रता और विनयके साथ उनका सम्मान करते हुए उनकी नि:स्वार्थ सेवा करो। उनसे न कुछ बदलेमें चाहो और न उनपर अहसान करो! ऐसा करोगे तो जरूर ‘भाग्यवान्’ कहलाओगे।

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