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भजनका प्रभाव

बाहरकी क्रियाओंसे मेरा मतलब ‘शरीरसे होनेवाले पापोंसे’ था। मनसे यदि पाप न भी छूटे और बाहर शरीरसे छूट जायँ तो इस कलिकालमें इतना ही काफी है। जान-बूझकर दूसरेकी निन्दा करना, अपने स्वार्थके लिये किसीको कष्ट पहुँचाना, क्लेश पहुँचानेके लिये किसीसे दिल्लगी करना, परस्त्रीको बुरी नजरसे देखना आदि अवश्य ही बाहरके पाप हैं; यदि ये पाप किसीको खलते हों, परन्तु अभ्यासवश न छूटते हों और वह यदि इन पापोंको छोड़नेकी इच्छा और चेष्टा करता हुआ पूरे भरोसेके साथ श्रीभगवान‍्का एकनिष्ठ भजन करता हो तो उस भजनके प्रतापसे इन पापोंसे ही नहीं, इनसे भी बहुत बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त होकर वह भगवान‍्के परमधामको—शाश्वती शान्तिको पा जायगा। भगवान‍्की सर्वशक्तिमत्ता, दयालुता और सुहृदपनपर सच्चा विश्वास और उनका एकनिष्ठ भजन होना चाहिये।

गीताके श्लोकोंका तात्पर्य मैं नहीं जानता। परन्तु अध्याय ७। ३ में आये हुए ‘यत्न करनेवाले सिद्धोंमें भी कोई (कश्चित्) ही मुझको (माम्) तत्त्वसे जानता है’ इसमें ‘कश्चित्’ का अर्थ ‘हजारोंमेंसे कोई’ न लेकर यह लेना चाहिये कि ऐसे साधनामें स्थित सिद्ध पुरुषोंमें कितने ही—जो किसी भी सिद्धि तथा मुक्तितककी परवा न करके केवल श्रीभगवान‍्को ही जानना चाहते हैं, वही भगवत्कृपासे भगवान‍्को तत्त्वसे जान सकते हैं। शेष सिद्ध पुरुष तो थोड़े-थोड़े लाभमें ही रह जाते हैं। कोई जीव-तत्त्व जान लेता है, कोई कर्मके रहस्यको समझकर कर्मपर विजय प्राप्त कर लेता है, कोई भूतजयकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है, कोई ब्रह्माके पदका रहस्य जान जाता है, कोई सर्वव्यापी स्वरूपको समझ लेता है, बहुत आगे बढ़नेवाले कोई ‘ब्रह्म’ के अक्षर स्वरूपको जानकर अविद्यासे मुक्त हो जाते हैं; परन्तु भगवान‍्को तत्त्वसे जानना बहुत कठिन है। यहाँ ‘माम्’ पदसे समग्र ब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान‍्का लक्ष्य है—ब्रह्मका या किसी एकांगी अन्य स्वरूपका नहीं। पहले श्लोकमें इसी बातको बतलाया है और अध्यायके अन्तमें इसीकी व्याख्या है तथा पंद्रहवें अध्यायके अन्ततक प्रकार-भेदसे इसी ‘समग्र’ का निरूपण है। मेरी ऐसी समझ है; यही इस श्लोकका अर्थ है, यह मेरा दावा नहीं है।

शरीर तो दिनोदिन सभीके क्षीण हो रहे हैं। प्रतिक्षण मृत्युको प्राप्त होना ही जन्मे हुए शरीरका स्वभाव है। इसलिये भजन तो करना ही चाहिये। परन्तु काम छोड़नेकी मेरी राय बिलकुल नहीं है। मेरी समझसे सबसे सरल साधन है नामका अभ्यास। मुखसे निरन्तर भगवान‍्के नामका उच्चारण होता रहे और हाथोंसे काम। अभ्यास होनेपर ऐसा होना खूब सम्भव है—बस, ‘मुख नामकी ओट लई है।’ विश्वास होगा तो इस नामोच्चारणमात्रसे ही कल्याण हो जायगा।

संसारका स्वरूप ही संयोग-वियोगात्मक है। यहाँ तो मिलना-बिछुड़ना अनिवार्य है। इसीलिये मनुष्यको श्रीभगवान‍्से प्रेम करना चाहिये, जो न कभी बिछुड़ते हैं न मरते हैं।

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