सेवा और भजन
आपका कृपापत्र मिला। आपका लिखना बहुत ही दुरुस्त है। ‘भगवान्की याद करते हुए भगवान्को अर्पण करके जो कुछ भी कर्म किये जाते हैं सब भजन ही हैं।’ समस्त जीव भगवान्के ही स्वरूप हैं, भगवान् ही इन सबके रूपमें प्रकट हैं, अतएव जीवोंकी सेवा निश्चय ही भगवान्की सेवा है तथा सेवा और भजन एक ही वस्तुके दो नाम हैं। इसलिये जीवसेवा भजन है इसमें जरा भी सन्देह नहीं। आप इस प्रकारकी सेवा करते हैं और करना चाहते हैं, यह बहुत ही अच्छी बात है। इसमें चार बातोंका ध्यान सदा रखना चाहिये—
(१) भगवान्का अखण्ड स्मरण।
(२) सब कुछ भगवान्के अर्पण।
(३) सब जीव भगवान्के ही स्वरूप हैं यह अटल विश्वास और—
(४) जब सब कुछ उन्हींका है और सब जीव वे ही हैं, तब
सेवा करनेवाला मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ। सेवा नहीं करता हूँ तो कर्तव्यसे च्युत होता हूँ, पाप करता हूँ; और सेवा करके अभिमान करता हूँ तो बेईमानी करता हूँ—यह निश्चय।
यदि इन चार बातोंको हृदयमें उतारकर आप जगत्के दु:खी जीवोंकी सेवा कर सकें तो इससे बढ़कर और भजन क्या होगा? जीव-सेवाके द्वारा भगवद्भजनकी यह प्रणाली बहुत ही श्रेष्ठ है। ऐसा भाव हो जानेपर तो मनुष्यका प्रत्येक कार्य—चाहे वह अपने भरण-पोषणका ही हो—भगवान्का भजन ही बन जाता है। परन्तु भाई साहब! ऐसा सोचना जितना सहज है, होना बहुत ही कठिन है। आप जगत्में देख रहे हैं, सेवाके नामपर क्या-क्या हो रहा है, और किस बुरी तरहसे लोग उस नकली सेवाका कितना अधिक बदला चुकवाना चाहते हैं। सेवाकी दुकान नहीं खुलती। सेवा तो हृदयकी स्वाभाविक वस्तु है। क्या अपनी निजकी सेवाके लिये किसी प्रकारके विज्ञापनकी, किसीपर अहसान प्रकट करके और किसीसे उसका बदला चाहनेकी भी कहीं जरूरत होती है? वह तो ऐसा कार्य है जिसको करना ही पड़ता है, किये बिना सन्तोष होता ही नहीं। ठीक यही भाव लोकसेवामें होना चाहिये। देशात्मबोध हुए बिना वास्तविक देशभक्ति या जीवात्मबोध हुए बिना वास्तविक जीव-सेवा नहीं हो पाती। जो अपने व्यक्तित्वको आभ्यन्तरिक चित्तसे देश या जीवोंके साथ घुला-मिलाकर एक कर देता है, अपने पृथक् व्यक्तित्वको खो देता है, उसकी परवा ही नहीं करता, वही यथार्थ देश-सेवा या जीव-सेवा कर सकता है। और जीवमात्रको भगवान्का स्वरूप समझकर, जिन वस्तुओंके द्वारा उनकी सेवा की जाती है—उन समस्त वस्तुओंको, जिन साधनोंसे सेवा की जाती है, उन ‘मन-बुद्धि-शरीरादि’ साधनोंको, और जिस ‘अहं’ में सेवाकी भावना जाग्रत् होती है, उस ‘अहं’ को भगवान्के अर्पण करके जो सेवा होती है, वह तो इससे कहीं विलक्षण होती है, उन महात्मा पुरुषोंको धन्य है, जो इस प्रकार जनताकी सेवा कर पाते हैं। वस्तुत: वे भगवान्के बड़े ही प्रिय भक्त हैं। भगवान्ने अपने प्रिय भक्तोंके लक्षण बतलाते हुए कहा है—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३-१४)
जगत्में अनन्त प्रकारके प्राणी हैं और उन सभीके रूप, स्वभाव, कर्म, कर्मफलभोगकी स्थिति आदि भिन्न-भिन्न हैं। मनुष्यके मनमें कुछ ऐसा अज्ञान है कि वह सबको न तो अपने अनुकूल पाता है और न प्रतिकूल। इससे उनके रूप, स्वभाव, कर्म तथा स्थिति आदिमें जहाँ अनुकूलता होती है वहाँ राग होता है और जहाँ प्रतिकूलता होती है, वहाँ द्वेष होता है। भगवान्का सच्चा भक्त सब जीवोंमें भगवान्को देखता है, इसलिये वह रूप, स्वभाव, कर्म और स्थिति आदिके भेदसे किसी अवस्थामें भी किसीके साथ द्वेष नहीं करता। और न वह अनुकूल विषयोंकी दृष्टिसे होनेवाले रागकी भाँति किसीमें राग ही करता है। शरीर और स्थिति आदिके भेदसे व्यवहार-भेद रहनेपर भी वह सबमें अपने भगवान्को पहचानकर हृदयसे स्वाभाविक ही सबसे प्रेम करता है। जैसे अपनेमें अपना मैत्रीभाव नित्य, विशुद्ध और सदा अक्षुण्ण होता है, वैसे ही जगत्के सभी प्राणियोंमें वह मैत्रीभाव रखता है। मित्रताका आदर्श देखना हो तो रामचरितमानसके भगवान् श्रीरामके इन वचनोंको याद कीजिये—
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।
तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
जिन्हकें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
देत लेत मन संक न धरई।
बल अनुमान सदा हित करई॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥
यह मैत्रीभाव प्राणिमात्रके प्रति अखण्ड और अचल होता है। परन्तु जहाँ दु:ख और कष्टोंकी विशेषता होती है, वहाँ तो उसका हृदय फटने-सा लगता है। करुणभावकी तीव्र धारा मन-प्राणको विगलित कर दु:ख और कष्टमें पड़े हुए दीन प्राणियोंकी पीड़ाको अपने अन्दर आत्मसात् कर लेना चाहती है। यह वह दया नहीं है जो दीनोंपर हुआ करती है; यह परोपकारका भाव नहीं है जो दूसरोंके प्रति हुआ करता है, यह तो वह महान् करुणभाव है जो बड़े-से-बड़े बुद्धिमान् और बलवान्को भी बल-बुद्धिकी विस्मृति कराकर अभिमन्यु और घटोत्कचके मरनेपर जैसे धीमान् अर्जुन और बलवान् भीम रोये थे और पछाड़ खाकर जमीनपर गिर पड़े थे, वैसे ही रुला देता है। ऐसा होनेपर भी भक्तके इस रोनेमें अर्जुन और भीमको व्याकुल करनेवाला शोक अथवा दु:ख नहीं है। यह तो वह सात्त्विक पीड़ा है जो सर्वभूतोंमें आत्मवत् दृष्टि रखनेवाले मैत्रीभावापन्न पुरुषोंके हृदयमें जीवोंको दु:खकी ज्वालामें जलते देखकर होती है। इसमें शोकजनित निर्वेद, निराशा और अशक्ति, प्रमादजनित निरुद्यमता तथा आलस्य और लापरवाही नहीं है। इसमें आँसुओंके साथ-साथ बड़ी भारी कर्मशीलता है। क्योंकि ये आँसू आत्मामें, मन-बुद्धिमें और सारे अवयवोंमें पवित्र बोध, तेज, प्रकाश, बल, उत्साह और उल्लासका अदम्य प्रवाह बहा देनेवाले सत्त्वगुणसे प्रसूत विशुद्ध ‘करुणा’ भावके होते हैं, जो दीनोंके आँसुओंको सुखाकर ही सूखते हैं। परन्तु इतनी ही बात नहीं है, भगवान्के सच्चे भक्तमें यह मैत्री और करुणाका भाव भी केवल नाट्यके लिये ही होते हैं। उसका असली भाव तो इससे भी ऊँचा है। जैसे किसी नाटकमें कोई पिता भिन्न-भिन्न प्रसंगोंपर मित्रताका और दीनताका अभिनय करे और उस पिताको ठीक पहचाननेवाला पितृभक्त पुत्र स्टेजपर अपने पार्टके अनुसार बदलेमें मैत्री और करुणाभावका अभिनय करे, परन्तु उसका मन इन अभिनयोंको करते समय भी इनसे कहीं ऊँचे सर्वसमर्पणसे युक्त पितृभक्तिके भावोंसे भरा रहे। वैसे ही भक्त जहाँ मैत्री और करुणाका अभिनय करता है, वहाँ भी भगवान्की भक्तिमें ही डूबा रहता है। वह जानता है कि मेरे भगवान् ही आज यहाँ मेरे सामने ‘मित्र’ और ‘दीन’ के रूपमें उपस्थित हैं और मेरे साथ लीला करना चाहते हैं। अतएव वह सोचता है मुझे इनकी रुचि और इच्छाके अनुसार इनके साथ ऐसी लीला करनी चाहिये जिससे इन्हें अपनी लीलामें सुभीता हो और इसलिये ये महान् आनन्दको प्राप्त हों। भक्त इसी भावसे प्रतिक्षण उन्हें देखता हुआ और मन-ही-मन उन्हें प्रणाम करता हुआ उनके इच्छानुसार लीलामें संलग्न रहता है। उसे न तो इसमें कहीं ममता होती है, न अपने कर्तृत्वका या अपने अस्तित्वका कहीं अभिमान या अहंकार होता है, न वह लीलाके सुख-दु:खसे सुखी-दु:खी होता है और न वह किसीके द्वारा अत्यन्त सताये जानेपर भी किसीको कभी भी भय देनेमें कारण होता है। वह सदा ही क्षमावान् रहता है; क्योंकि वह जानता है कि सभी मेरे हरिके स्वरूप हैं फिर वह किसपर क्रोध करे? किसका बुरा चाहे? और किससे वैर करे; ‘अब हौं कासौं बैर करौं। कहत पुकारत हरि नित मुखतें घट-घट हौं बिहरौं’॥ उसे अपने लिये कुछ प्रयोजनीय ही नहीं होता, इससे वह अपनी स्थितिमें ही सदा सन्तुष्ट रहता है, सदा अपने भगवान्से युक्त रहता है। मन, इन्द्रिय और शरीरपर उसका पूरा अधिकार रहता है। वह अपने निश्चयमें दृढ़ होता है। और सबसे बड़ी बात और असली बात तो यह है कि उसके मन और बुद्धि भगवान्के अर्पण किये हुए होते हैं। भगवान् ही उनके स्वामी, प्रेरक और उनमें बसनेवाले होते हैं। वे भगवान्के अपने घर बन जाते हैं। इससे उसके मन-बुद्धिमें जो कुछ भी आता है, सब भगवान्की ही ओरसे आता है। ऐसा भक्त भगवान्को बड़ा प्यारा होता है। सच पूछिये तो असली जन-सेवा तो ऐसे ही भक्त कर सकते हैं।
इसका यह अभिप्राय नहीं कि ऐसा न हो तो फिर सेवा ही न करे। किसी भी भावसे की जाय, सेवा तो उत्तम ही है। जो लोग भजनका बहाना करके सेवासे मुँह मोड़ लेते हैं और शरीरके आराम, भोग और नींदके खर्राटोंमें अपना जीवन बिताते हैं, वे वस्तुत: भजन नहीं करते, वे तो अपने-आपको ही धोखा देते हैं। इतना अवश्य समझ रखना चाहिये कि जैसे भजनके नामपर सेवा छोड़नेवाला आदमी बड़ी भूल करता है, उससे भी कहीं बड़ी भूल वह करता है जो सेवाके नामपर भगवान्का विस्मरण करके उनका भजन छोड़ देता है। जिसके हृदयमें भगवान्का अस्तित्व और अवलम्बन नहीं है, उसके द्वारा की जानेवाली सेवासे ‘सर्वभूतहित’ कभी हो ही नहीं सकता। वैसी सेवा राग-द्वेषको बढ़ाकर, वैर-विरोध और काम-क्रोधको जगा देती है और फिर कहीं तो खुली हिंसा आती है और कहीं वह पिशाचिनी अहिंसाकी बनावटी सुन्दर पोशाक पहनकर अन्दरसे जबर्दस्त हमला करती है।
मैं आपको या अन्य किसीको भी कर्मक्षेत्रसे हटनेकी बात तो कभी नहीं करता। परन्तु वर्तमान परिस्थितिमें—जहाँ सभी क्षेत्रोंमें राग-द्वेष और काम-क्रोधका ही नंगा नाच हो रहा है, चाहे उसका नाम कुछ भी हो; वहाँ भगवत्प्राप्तिकी इच्छावाले पुरुषको अपने थोड़े-से जीवनमें इतनी बड़ी जोखिम नहीं उठानी चाहिये और जहाँतक हो सके भगवान्के नामका आश्रय लेकर अधिक-से-अधिक भगवन्नाम-स्मरण करना चाहिये। मेरी समझसे—यदि सेवाकी वासना मनमें होगी तो भगवन्नाम-ग्रहणके द्वारा जगत्की सेवा भी कम नहीं होगी यह विश्वास करना चाहिये! कलियुगमें यही एकमात्र मार्ग है।
भगवान्की कृपापर निर्भर करके, बस, उनका नाम लेते रहिये। इस कालमें जीवोंके लिये यही सर्वोत्कृष्ट साधना है। दूसरे सब साधन तो इस सुधामयी बूटीके अनुपानमात्र हैं। सच पूछिये तो यह कहना भी अत्युक्ति न होगा कि इस युगमें जगत्के उद्धारकी चेष्टा तो बस, अहंकारकी सृष्टिमात्र होगी।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
(ना० पु० १।४१।१५)