भजनकी महिमा तथा कुछ उपयोगी साधन
आपके तीन पत्र आ गये, मैं समयसे उत्तर नहीं दे पाया। मेरे स्वभावदोषसे आप परिचित ही हैं, फिर आप हैं भी अपने ही। ऐसी अवस्थामें आपसे क्षमा भी कैसे माँगूँ?
मेरा फाल्गुनके अन्ततक यहाँ ठहरनेका विचार है, आप पौषमें.....आकर यहाँ मिलनेको आना चाहते थे, सो बताइये कब आते हैं। पौषका महीना तो लग ही गया है। काम-काज मजेमें चलता होगा। रुपये कमाते ही होंगे। असली धन कमानेका भी कुछ खयाल रखते हैं या नहीं? मायाकी मोहिनीमें फँसकर उसके प्रवाहमें बह न जाइयेगा। यह सत्य है और नि:सन्देह सत्य है कि किसी भी प्रकारसे भगवान्का थोड़ा-सा भजन किया हुआ भी मनुष्यको छोड़ता नहीं, वह स्वयं कभी नष्ट न होकर उसे बार-बार भगवान्की ओर प्रेरित करता रहता है और मौका पाते ही इस लोक या परलोकमें उसे परमात्माके पावन पथमें लगा ही देता है। इसी प्रकार महापुरुषका भी संग महान् भयसे तारनेवाला होता है। आपने महापुरुषका संग किया या नहीं—इस बातका तो पता नहीं, परन्तु भगवान्का भजन तो किया ही है। यही कारण है कि वह अब भी समय-समयपर आपके चित्तमें भजनकी प्रेरणा करता है और अपना अनुमान तो यही है कि देर-सबेर वह आपको सीधी राहपर लाकर ही छोड़ेगा। आप जरा सावधान रहेंगे और प्रवाहमें सहज ही नहीं बहेंगे, तो उसे अपने कार्यमें कुछ सुविधा होगी।
आपका यह लिखना कि ‘मेरा ऐसा विश्वास है कि आपके आदेशके अनुसार करनेपर जरूर लाभ होता है’ मेरे प्रति आपका अकृत्रिम प्रेम प्रकट करता है। इस प्रेमके कारण ही आपको ऐसा भासता है। मैं तो आपके इस प्रेमका ऋणी ही हूँ। वस्तुत: मैं यदि कभी कोई ऋषिप्रणीत शास्त्रोंके अथवा महात्माओंके द्वारा अनुभूत साधनसम्बन्धी बात कह देता हूँ और उसके अनुसार करनेपर किसीको लाभ होता है तो इसमें श्रेय उन ऋषियों और सन्तोंको है अथवा श्रद्धानुसार साधन करनेवाले साधकको। ग्रामोफोनके रेकार्डमें जो सुन्दर गान सुना जाता है, उसमें रिकार्डका क्या है? जो कुछ है सो गान गानेवाले, भरनेवाले और सुननेवालेके ही पुरुषार्थका फल है। मुझे तो जड रिकार्ड-सा समझना चाहिये। आपने पूछा कि मुझे किस-किस समय, क्या-क्या करना चाहिये, पहलेकी भाँति रातमें या दिनमें कुछ करनेका आदेश मिलना चाहिये। सो आदेश देनेका तो मुझमें न अधिकार है, न मेरी योग्यता है। आपके प्रेमके भरोसे नम्र सलाह देनेमें संकोच अवश्य ही नहीं होता और इसी अभिप्रायसे कुछ लिखता हूँ। समय, सुविधा और चित्तकी अनुकूलता हो तो इसके अनुसार श्रद्धापूर्वक करना चाहिये। (श्रद्धा फलवती तो होती ही है।)
१— दूसरेका अहित करनेकी या अहित देखनेकी भावना मनमें कभी न आने पावे। याद रखना चाहिये, दूसरेका अहित चाहनेवालेका परिणाममें कभी हित नहीं होता।
२— परस्त्रीकी ओर बुरी दृष्टि कभी नहीं होनी चाहिये।
३— व्यापारमें यथासाध्य सत्य, न्याय और परहितका खयाल रखना चाहिये।
४— लोभकी वृत्तियोंको यथासम्भव दबाना चाहिये।
५— नित्य-निरन्तर भगवान्के नामका स्मरण और जप करते हुए ही संसारके काम करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
६—सबमें—खास करके जिनसे व्यवहार करना हो, उनमें परमात्माकी भावना करके मन-ही-मन उन्हें नमस्कार करना चाहिये तथा इस तत्त्वको याद रखते हुए ही व्यवहार करना चाहिये।
७—किसी मनुष्यमें भी—खास करके सत्पुरुषमें दोषबुद्धि नहीं करनी चाहिये।
८— यथासाध्य वाणीको असत्य, परनिन्दा, परचर्चासे बचाना और जिससे पराया अहित हो, ऐसी बात तो कहनी ही नहीं चाहिये।
९— अपनी धर्मपत्नीको प्रेमके व्यवहारसे परमात्माकी ओर लगाना चाहिये। रामायणादि पढ़ानेका अभ्यास, नामजपका अभ्यास डलवाना चाहिये। विषयोंकी ओर प्रलोभन न बढ़ने पावे। विषयासक्ति आपमें भी नहीं बढ़नी चाहिये।
१०— बहिनोंके साथ अधिक-से-अधिक अच्छे-से-अच्छा व्यवहार करना चाहिये।
अब कुछ खास साधन लिखता हूँ—
१—दोनों वक्त सन्ध्यावन्दन और एक गायत्रीकी मालाका जप यथासाध्य ठीक कालपर करना चाहिये।
२—प्रात:काल पाँच माला ‘ॐ नम: शिवाय’ मन्त्रकी शुद्ध बुद्धि प्राप्त करनेके उद्देश्यसे जपनी चाहिये।
३—रातको सोनेसे पूर्व ग्यारह माला या कम-से-कम सात माला षोडश नामके महामन्त्र (हरे राम....)-की जपनी चाहिये।
४—कुत्ते और गौओंको रोज कुछ रोटी, घास तथा दीन-दु:खियोंको कुछ यथायोग्य सहायता अवश्य देनी चाहिये।
५—कमाईमेंसे कुछ हिस्सा भगवान्की सेवाके लिये निकालना चाहिये और उसे जमा न करके हाथों-हाथ खर्च कर देना चाहिये।