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मानसिक भजन

आपके कई पत्र मिल चुके, समयपर उत्तर नहीं लिख सका। आजकल आपका भजन अच्छा होता है तथा चित्तमें विकार भी प्राय: नहीं होते सो बड़े ही आनन्दकी बात है। भजन जितना ही अधिक होगा, उतनी ही विकारोंकी मात्रा कम होती चली जायगी। विकारोंके नाश होनेकी कसौटी है भजनका अनन्य और विशुद्ध होना। जबतक विकार रहेंगे तबतक भजनमें सर्वथा अनन्यता और विशुद्धि नहीं होगी; परन्तु इन विकारोंका नाश भी भजनसे ही होगा। अतएव भजन करते रहना चाहिये। अच्छे संगके प्रभावसे तथा भजनकी विशेषतासे विकार दब जाते हैं, परन्तु उनका जबतक पूरा नाश नहीं हो जाता, तबतक उनसे सदा सावधान रहना चाहिये। विकारके प्रत्यक्ष कारण प्राप्त होनेपर भी विकार न हों, तब मानना चाहिये कि विकार मरने लगे हैं। जिसके मनके विकार मौकेपर उभड़ आते हैं, वह अपनेको यदि सिद्ध महात्मा मान लेता है तो उसे पछताना ही पड़ता है। अतएव विकारोंसे सदा सावधान रहिये।

श्रीभगवान‍्का भजन मनसे करनेका अभ्यास कीजिये। यह तो मनकी बदमाशी है जो वह यों समझाना चाहता है कि भगवान‍्का मनसे चिन्तन करोगे तो काम-काजमें भूल हो जायगी। अब आप दिनभर काम-काज करते हैं तो क्या दिनभर आपका मन किसी एक ही विषयमें एकाग्र रहता है? न मालूम मन कहाँ-कहाँ जाता है और आप अपना अभ्यस्त कार्य भी किया करते हैं। इसी प्रकार भगवान‍्का चिन्तन करते रहनेपर भी काम-काज हो सकेगा। बल्कि विषय-चिन्तनसे जो भाँति-भाँतिके विकार चित्तमें जाग उठते हैं, बुरे कर्मोंके लिये कामना या आसक्तिवश प्रेरणा होती है, ये सब बातें न होंगी तो काम-काज और भी अच्छी तरह होगा। थोड़ी देरके लिये मान लीजिये—काम-काजमें हर्ज ही हुआ, और उधर भगवान‍्का चिन्तन बराबर होता रहा तो विचार कीजिये वास्तवमें आपका क्या हर्ज हुआ? भगवच्चिन्तन ही तो जीवनका प्रधान कार्य है, इसीमें तो जीवनकी सफलता है। सब कुछ जाकर भी यह हो गया तो सब कुछ हो गया। इसलिये मनके धोखेमें न आकर उसे निरन्तर भगवत्स्मरणमें लगाये रखनेकी कोशिश कीजिये।

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