बुद्धि और श्रद्धा
तुमने लिखा कि मैं ईश्वरको न तो भूला हूँ और न भूलनेकी आशंका है; रास्ता चाहे दूसरा हो। सो भाई! बहुत अच्छी बात है, रास्तेकी तो कोई बात नहीं; सभी रास्ते अन्तमें जाकर उस एक ही लक्ष्यमें समा जाते हैं। ईश्वरको नहीं भूलना और किसी भी मार्गपर उसे उपलब्ध करनेके लिये मनुष्यको दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते रहना चाहिये। जगत्के शास्त्रसम्मत सभी धर्मोंमें एक ही सत्य समाया हुआ है। बाह्य रूपोंमें अन्तर होनेपर भी मूलत: और परिणामत: सबका समन्वय है। अवश्य ही तुम्हें और भी विशेष चेष्टाके साथ लगना चाहिये। परमात्माके साधनमें आलस्य करना, समयकी प्रतीक्षा करना और अधूरी स्थितिको ही पूर्ण मान लेना यथार्थ स्थितिकी प्राप्तिमें बहुत बाधक हुआ करता है। मनुष्य-जीवन नश्वर और क्षणभंगुर है, अतएव विशेष प्रयत्न करना आवश्यक है।
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तुम्हारा यह लिखना बहुत ठीक है कि ‘मनुष्यको अपनी बुद्धिसे काम लेना चाहिये, जहाँ अपनी बुद्धि काम न दे, वहाँ बड़ोंसे या जिनपर अपनी श्रद्धा हो—पूछकर उनकी अनुमतिसे काम करना चाहिये।’ तथा तुम्हारा यह लिखना भी बहुत उचित है कि ‘यद्यपि अच्छे पुरुष जान-बूझकर अनुचित नहीं कहते; पर भूल तो सबसे होती है।’ ये दोनों ही बातें ठीक हैं। तथापि बुद्धि और श्रद्धा दोनोंकी ही आवश्यकता है और प्राय: जगत्के सभी क्षेत्रोंमें इन दोनोंसे ही लाभ उठाया जाता है। बुद्धिवाद भी इतना बढ़ जाना बहुत हानिकर होता है, जहाँ अभिमानवश अपनी बुद्धिके सामने सबकी बुद्धिका तिरस्कार किया जाने लगे। और श्रद्धा भी इस रूपमें नहीं परिणत हो जानी चाहिये, जिससे ईश्वर, सत्य और सदाचारके विरुद्ध मतको किसीके कहनेमात्रसे स्वीकार कर लिया जाय। मर्यादित रूपसे बुद्धि हो और यह भी माना जाय कि ईश्वरकी सृष्टिमें, ईश्वरकी सन्तानोंमें सम्भवत: मुझसे भी अधिक बुद्धिमान् पुरुष हो चुके हैं और हो सकते हैं।
बुद्धिवाद घोर अभिमान, उच्छृंखलता और नास्तिकतामें परिणत नहीं होना चाहिये। मेरी धारणामें तो बुद्धिवादकी अपेक्षा श्रद्धा बहुत ही ऊँची और उपादेय वस्तु है, परन्तु उसकी कसौटी यही है कि ईश्वर या सत्यका श्रद्धालु कभी पापका आचरण नहीं कर सकता—श्रद्धामें यह शर्त जरूर रहनी चाहिये।
बुद्धिवादियोंमें भी यह भाव रहना आवश्यक है कि वे अपने लिये अपनी बुद्धिसे काम लेनेका जितना अधिकार समझते हैं उतना ही दूसरोंके लिये भी मानें, चाहे वे दूसरे उनके अधीनस्थ निम्नश्रेणीके लोग माने जाते हों या कम विद्या-प्राप्त हों। यदि मैं किसीपर श्रद्धा करना आवश्यक नहीं समझता तो मुझे ऐसा चाहनेका भी अधिकार नहीं होना चाहिये कि दूसरे कोई मुझपर श्रद्धा करें या मेरी ही बुद्धिको मान दें। जैसे दूसरेसे गलती हो सकती है, वैसे अपनेसे भी तो हो सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आँख मूँदकर तो किसीकी बात नहीं माननी चाहिये, तथापि कुछ ऐसी बातें भी जगत्में होती हैं, जो हमारी समझमें नहीं आतीं, पर सत्य होती हैं और जिसपर हमारा भरोसा होता है, उसके विश्वासपर हमें उनको स्वीकार भी करना पड़ता है और स्वीकार करना भी चाहिये। वर्तमान वैज्ञानिक युगमें तो ऐसी बहुत-सी बातें हैं।
इसी प्रकार ईश्वरीय साधन-क्षेत्रमें भी है—इस बातका यदि मुझपर कुछ भी विश्वास है तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाकर कह सकता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आजकल ढोंग बहुत ज्यादा बढ़ गया है, जिससे यह निर्णय नहीं हो सकता कि श्रद्धा किसपर की जाय। जिसपर श्रद्धा की जाती है, प्राय: वही ठग, स्वार्थी, कामी, क्रोधी या लोभी निकलता है। भेड़की खालमें भेड़िया साबित होता है। इसलिये विश्वास तो खूब ठोक-पीटकर करना चाहिये और यथासाध्य सचेत रहना तथा अपने अन्दर भी ईश्वर और ईश्वरकी शक्ति है—इस बातपर भरोसा करके अपनी बुद्धिसे पूरा काम लेना चाहिये। ईश्वरका आश्रय लेकर अपनी बुद्धिसे काम लेनेवाला निरहंकारी पुरुष कभी नहीं ठगा सकता।