धनका सदुपयोग
आपका पत्र मिले बहुत दिन हो गये। मैं जवाब नहीं लिख सका, क्षमा कीजियेगा। आपके पत्रको मैंने ध्यानसे पढ़ा। उसमें कुछ झुँझलाहट-सी प्रतीत होती है। अभावग्रस्त लोग आपको सहायताके लिये तंग करते हैं, इससे आपको ऊबना और झुँझलाना क्यों चाहिये? प्यासे प्राणी पानीके लिये जलाशयके पास ही तो जाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप जगत्के सब प्राणियोंका दु:ख दूर नहीं कर सकते। सबका तो दूर रहा, एकका भी दु:ख दूर करना आपके-हमारे हाथकी बात नहीं है। प्राणियोंके दु:खोंका अन्त तो भगवत्कृपासे प्राप्त ज्ञानसे ही होगा। हमारा तो इतना ही काम है कि जब हमपर कोई विपत्ति आती है, तब हम जैसे अपनेको बचानेके लिये हाथ-पैर हिलाते हैं, वैसे ही अपने सामने जब किसी प्राणीपर विपत्ति आवे तो हमें अपनी शक्तिभर हाथ-पैर हिलाने चाहिये। सब प्राणी आपके पास आते ही कहाँ हैं? जो थोड़े-से आते हैं, वे भी (सम्भव है) आपकी हैसियतसे अधिक हों तो आप उन्हें स्पष्ट कह सकते हैं कि हम आपकी सेवा नहीं कर सकते। या ऐसी कोई सुन्दर व्यवस्था कर सकते हैं, जिसमें आपकी हैसियत और उनकी आवश्यकताके अनुसार योग्य पात्रोंकी यथायोग्य सेवा भी हो जाय और आप तंग भी न हों। थोड़ी-सी सावधानी, नियमानुवर्तिता और उदारतायुक्त मजबूती रखनेसे ऐसा हो सकता है, यह भी एक कमजोरी है, इसे आप दूर कर सकते हैं।
असली बात तो यह है कि भगवान्ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान्का है। आप उसके स्वामी नहीं हैं, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करनेवाले सेवकमात्र हैं। इस धनको बड़ी दक्षताके साथ भगवान्की सेवामें लगाना चाहिये। दक्षता यही कि दान करते समय परिवारके लोगोंको न भूल जायँ, धूर्तोंके द्वारा ठगे न जायँ और योग्य पात्र कभी विमुख न लौटें। दानकी दूकान खोलनेकी जरूरत नहीं, परन्तु उचित अवसर प्राप्त होनेपर हाथ रोकना भी नहीं चाहिये। जहाँ अभाव है, वहाँ भगवान् ही उन लोगोंसे उस अभावकी पूर्ति करवाना चाहते हैं, जिनको भगवान्ने इस योग्य बनाया है। यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान्की चीज भगवान्की सेवामें लगानेका सुअवसर मिल रहा है। अतएव आपके पास जब कोई अभावयुक्त बहिन-भाई सहायताके लिये आवें, तब आपको हृदयसे उनका स्वागत करना चाहिये, और उचित जाँचके बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपनेको धन्य मानना चाहिये और आनन्द मनाना चाहिये इस बातका कि आप भगवान्की वस्तुके द्वारा भगवान्की सेवा होनेमें ‘निमित्त’ बन रहे हैं।
आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिये। न यही मानना चाहिये कि वे आपसे निम्न-श्रेणीके हैं। धन न होनेसे वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता। नीचा माननेवाले ही नीचे होते हैं। धन या पदका न तो कभी घमण्ड करना चाहिये और न धनके या पदके बलपर किसीको अपनेसे नीचा मानकर उसका तिरस्कार ही करना चाहिये। बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसीको कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े—सिर न झुकाना पड़े। आपको यही मानना चाहिये कि आपने उसका हक ही उसको दिया है। वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिये कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है। वस्तुत: किसीको आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है।
१—भगवान्की चीज भगवान्की सेवामें लगी, आप बेईमानीसे बचे और भगवान्के दरबारमें ईमानदारीका इनाम पानेके अधिकारी हो गये।
२—धनका सदुपयोग हुआ जो आपकी सद्गतिमें कारण है—धनकी तीन गति होती है—दान, भोग और नाश। आपका कमाया हुआ धन आपके या दूसरे किसीके द्वारा बुरे काममें लगता तो आपको दुर्गति भोगनी पड़ती।
३—दानसे आपकी कीर्ति हुई, उसका और उसके परिवारका आशीर्वाद मिला। किसीको उचित वेतन या हिस्सा देकर रखा तो आपके व्यापारका काम ठीक चला, जिससे आपको लाभ पहुँचा। अच्छे आदमियोंसे आपकी प्रीति और मैत्री हुई जो समयपर विपत्तिमें आपकी सहायता देनेवाली होगी।
४—आपको तृप्ति हुई, जिससे आनन्द प्राप्त हुआ। इस प्रकार वस्तुत: आपका ही उपकार हुआ।
‘देकर भूल जायँ और लेकर याद रखें।’ ‘किसीका भला करके भूल जायँ और बुरा करके याद रखें।’ ‘किसीके द्वारा अपना बुरा होनेपर भूल जायँ और भला होनेपर याद रखें।’
सन्तोंकी इस उक्तिको याद रखना चाहिये। नीचे लिखी सात बातें सदा याद रखनेकी हैं—
(१) नौकर और मजदूरोंको अपनेसे नीचा समझकर उनका अपमान न करें। उनको अपने धनका हिस्सेदार समझें और जहाँतक हो, उन्हें इतनी मजदूरी दें जिससे उनके बाल-बच्चोंको अन्न-वस्त्रका कभी अभाव न रहे। विपत्ति, रोग और अभावके समय सहानुभूतिपूर्ण हृदयसे उनकी विशेष सेवा करें।
(२) हो सके तो सबमें भगवद्बुद्धि करके भगवत्सेवाके भावसे सबके साथ यथायोग्य बर्ताव करते हुए उनकी सेवा करें।
(३) दूसरोंके साथ वैसा ही बर्ताव करें, जैसा दूसरोंसे हम अपने प्रति चाहते हैं।
(४) सबमें आत्मभाव रखकर यथासाध्य दूसरोंके दु:खोंको अपना दु:ख समझकर जैसे अपना दु:ख दूर करनेकी चेष्टा की जाती है, वैसी ही लगनके साथ उनका दु:ख दूर करनेकी चेष्टा करें।
(५) सन्तोंका तो यह स्वभाव होता है कि वे अपने दु:खकी तो परवा नहीं करते, परन्तु दूसरोंके दु:ख और अध:पतनसे असह्य पीड़ाका अनुभव करते हैं और बड़ी लगनके साथ शक्तिभर उचित उपाय करके उनका दु:ख दूर करते और उन्हें ऊपर उठाकर गले लगाते हैं। सन्तोंके इस आदर्शपर बराबर विचार करें।
(६) मरनेके बाद धन यहीं रह जायगा। अपने हाथसे भगवान्की सेवामें लगा दिये जानेमें ही धनकी सार्थकता है। इस सिद्धान्तको सत्य मानकर घरवालोंके लिये उचित भाग रखकर शेष सब योग्य पात्रोंमें अपने ही हाथों दान, भेंट, वेतन-वितरण, कमीशन, भाग आदिके रूपमें सत्कारपूर्वक व्यय कर देना चाहिये।
(७) अभावग्रस्त लोग सहायता माँगें तो तंग आकर उनका कभी जरा भी अपमान नहीं करें। बल्कि यथाशक्ति उनकी सेवा करें। इसीमें धनका सदुपयोग है। न हो सके तो शान्तिपूर्वक विनम्र शब्दोंमें परन्तु मजबूतीके साथ अपनी असमर्थता प्रकट कर देनी चाहिये!