विपत्ति और निन्दासे लाभ
आपका पत्र मिला। विपत्तिका हाल मालूम हुआ। सचमुच विपत्तिमें ही मनुष्यके धैर्य और धर्मका पता लगता है; परन्तु यह विश्वास रखिये, जिनका जीवन केवल आराममें ही बीतता है, उनके लिये जीवनमें पूर्ण विकास और पूर्ण परिणति बहुत कठिन हो जाती है। वे न तो अपनेको भलीभाँति परख—पहचान सकते हैं और न दूसरेकी यथार्थ स्थितिका ही अनुभव कर सकते हैं। वे प्राय: अर्धविकसित और पाषाणहृदय ही बने रह जाते हैं। इसीसे बुद्धिमान् लोग विपत्तिसे घबराते नहीं। वे जानते हैं कि जो लोग ‘हाँ हुजूर’ कहनेवाले खुशामदियों, सेवा करनेवाले नौकरों और तारीफके पुल बाँधनेवाले स्वार्थियोंसे घिरे रहकर इन्द्रियसुखभोगके आराममें लगे रहते हैं, वे भगवत्कृपाके परम लाभसे प्राय: वंचित ही रहते हैं। विपत्तिमें धीरज न छोड़कर उसे भगवान्की देन मानकर सम्पत्तिके रूपमें परिणत कर लेना चाहिये। फिर विपत्तिका दु:ख मिटते देर न लगेगी।
यही बात निन्दा करनेवाले भाइयोंके सम्बन्धमें समझिये। आप यह मानें कि आपकी जितनी ही निन्दा होती है, उतने ही आपके पातक धुलते हैं। निन्दा करनेवाले तो बिना पैसेके धोबी हैं, हमारे अन्दर जरा भी मैल नहीं रहने देना चाहते। ढूँढ़-ढूँढ़कर हमारे जीवनके एक-एक दागको साफ करना चाहते हैं, वे तो हमारे बड़े उपकारी हैं। हमारे पाप धोने जाकर जो स्वाभाविक ही हमारे पापका हिस्सा लेनेको तैयार हैं, वे क्या हमारे कम उपकारी हैं? एक तरहसे उनका यह त्याग है। आपकी निन्दा होती है, यह वस्तुत: बहुत अच्छा होता है। जिसके कार्योंकी कड़ी समालोचना कोई नहीं करता, वह असलमें बड़ा ही अभागा है। आप तो भाग्यवान् हैं; जो आपको इतने निन्दा करनेवाले मिल गये हैं। निन्दकोंसे कभी न तो द्वेष करना चाहिये, न उन्हें रोकना चाहिये और न मनमें बदला लेनेकी ही कोई भावना करनी चाहिये। हाँ, उनके बतलाये हुए दोषोंपर धीरज तथा शान्तिके साथ विचार करना चाहिये और उनमेंसे एक भी दोष अपने अन्दर जान पड़े तो उसे दृढ़ता और साहसके साथ दूर करके मन-ही-मन निन्दकोंका उपकार मानना चाहिये।
विपत्तिसे डरनेसे विपत्तिका दु:ख बढ़ता है, उत्साह टूटता है और मन निराशासे भर जाता है। सावन-भादोंमें काले-काले बादलोंकी बड़ी घनघोर घटा आती है, फिर थोड़ी ही देरमें आकाश साफ हो जाता है। इसी प्रकार ये विपत्तिके बादल भी हट जायँगे। भगवान् और धर्मका दृढ़ सहारा पकड़े रखकर साहस तथा धैर्यके साथ विपत्तिका सामना करना चाहिये। विपत्तिसे त्राण पानेका सबसे सुन्दर उपाय है—भगवान्में चित्त लगाकर उनकी प्रार्थना करना! भगवान्ने कहा है—
मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
(गीता १८। ५८)
‘मुझमें चित्त लगानेपर तू मेरी कृपासे सारे संकटोंसे पार हो जायगा।’
भगवान्के इन वचनोंपर विश्वास करके उनमें चित्त लगाना चाहिये। उनकी कृपासे विपत्तिका नाश होते देर नहीं लगेगी। बाहरी स्थिति प्रारब्धके किसी प्रतिबन्धकसे यदि कुछ समयतक प्रतिकूल भी रहेगी, तो भी मानसिक पीड़ारूप विपत्तिका नाश तो हो ही जायगा। यह सर्वथा सत्य है।