धनवानोंका कर्तव्य
पत्र मिला, सब समाचार जाने। इधर मैं यहाँ नहीं था, इसीसे पत्रका उत्तर लिखनेमें देर हो गयी। आपको पता होगा—राजपूतानेके कुछ हिस्सेमें और पंजाबके हिसार जिलेमें भयानक अकाल पड़ा है। लाखों गायें और मनुष्य कष्टमें हैं। कलकत्तेके कुछ सहृदय महानुभावोंने अकालपीड़ित प्राणियोंके कष्टनिवारणार्थ एक समिति बनायी है। और उसकी ओरसे राजपूतानेमें कुछ सेवाका कार्य हो रहा है। वहाँकी दशा देखकर मनुष्यको बरबस रो देना पड़ता है। भारतमें अभी ऐसे बहुत पुरुष हैं जो बहुत सुखसे खाते-पीते हैं और चाहें तो बहुतोंके पेटकी ज्वाला मिटा सकते हैं। खानेके पदार्थ—अन्न-चारा-घास इत्यादि भी कीमत देनेपर काफी परिमाणमें मिल सकते हैं। ऐसा होते हुए भी आज लाखों प्राणी अन्न और चारे-दाने बिना मरे जाते हैं, यह बहुत ही खेदकी बात है। मैं आपको सच लिख रहा हूँ, जब खाने बैठता हूँ और अपने सामने थालीमें घीसे चुपड़ी हुई रोटियाँ तथा कई तरहकी तरकारियाँ देखता हूँ और सोनेके समय जब रुईकी गद्दीपर सिरके नीचे तकिया लगाकर रजाई ओढ़कर सोना चाहता हूँ तब प्राय: उन कंकालमात्र नंगे, भूखे, अपने ही-जैसे नर-नारियोंके चित्र आँखोंके सामने आ जाते हैं। भगवान्के राज्यमें सब न्याय ही होता है, परन्तु अपनी ये सुखकी सामग्रियाँ तो वस्तुत: बहुत ही दु:ख देनेवाली वस्तु मालूम होती हैं। यह बड़ी कमजोरी है कि ऐसा होनेपर भी मैं इन्हें छोड़ नहीं सकता और न उन नंगे-भूखोंके लिये कुछ कर ही सकता हूँ। यह है तो बड़े ही दु:खकी बात कि एक ही देशके—एक ही घरमें दस भाई-बहिनोंमें आठ-नौ नंगे, भूखे रहें और दो-एक पेटभर खाकर सुखकी नींद सोवें। यह ‘पेटभर खाना’ और ‘सुखकी नींद सोना’ अवश्य ही चोरी है और इस चोरीका फल मिलना ही चाहिये। आप मेरे मित्र हैं, आपको तो कुछ कहनेका मेरा किसी अंशमें अधिकार भी है परन्तु मैं उन सभी भाइयोंसे, जो कुछ सम्पन्न हैं, कम-से-कम जो अपने तथा अपने बाल-बच्चोंका अच्छी तरह भरण-पोषण करनेके बाद विलासितामें और मौज-शौकमें धन नष्ट करते हैं या बहुत कुछ बचाकर रख लेते हैं, कहना चाहता हूँ कि धनका व्यर्थ व्यय करना छोड़कर अथवा आगेके लिये जोड़ रखनेकी धुन लगाकर गरीब, दु:खी मनुष्यों और पशुओंके प्राण बचानेमें उसे लगाइये। तभी आपके धनकी सार्थकता है। नहीं तो, धनसे आपका सम्बन्ध तो छूट ही जायगा; उसे छोड़कर आप चले जायँगे या आपको छोड़कर वह दूसरोंके हाथमें चला जायगा। पछतावामात्र आपके पास रह जायगा। गीतामें भगवान्ने कहा है—
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(३।१३)
‘यज्ञ करनेके बाद शेष बचे हुए अन्नको खानेवाले उत्तम पुरुष सब पापोंसे छूटते हैं; परन्तु जो पापी मनुष्य केवल अपने ही भरण-पोषणके लिये पकाते (धन पैदा करते) हैं वे तो पाप ही खाते हैं।’
देवता, ऋषि, माता-पिता आदि पितृगण, मनुष्य तथा अन्यान्य प्राणी इन पाँचोंसे अनवरत सहायता प्राप्त करके ही हम जीवन धारण करते हैं। अपनी कमाईसे इन पाँचोंका भरण-पोषण करना ही यज्ञ है। इस यज्ञद्वारा इन्हें तृप्त करके जो कुछ बचे वही यज्ञसे बचा हुआ है। उसीके खानेसे पापोंका नाश होता है। जो इन पाँचोंको कुछ भी न देकर अपने ही लिये कमाता है और आप ही उसे भोगता है वह तो पाप ही कमाता और पाप ही खाता है। [आपके पत्रमें लिखी बातोंका उत्तर लिखनेके पहले इतना यों ही लिख गया, इसके लिये क्षमा करेंगे और इस निवेदनपर ध्यान अवश्य देंगे।]
भगवान्की चाह
आपके प्रश्नके उत्तरमें मेरा यह निवेदन है कि न तो घर छोड़नेसे ही तत्काल भगवत्प्राप्ति होती है और न घरमें फँसे रहनेसे ही। भगवत्प्राप्ति होती है—भगवान्को पानेकी तीव्र आकांक्षासे प्रेरित होकर की जानेवाली अखण्ड साधनासे। इस साधनामें सबसे पहले आवश्यक है भगवान्की चाह होनी। चाह इतनी बढ़े कि उसके सामने अन्य सारी इच्छाएँ दब जायँ—मर जायँ! किसी भी वस्तुमें मन न रहे—दिल न अटके। फिर चाहे घरमें रहें या घरसे बाहर। कहीं रहा जाय, जबतक शरीर है तबतक शरीरसे कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा। हाँ, वह करना चाहिये अनासक्त होकर नाटकके पात्रकी भाँति। ऐसी निपुणताके साथ कि किसीको जरा भी असन्तोष न हो। पिता समझे ऐसा सुपुत्र किसीके नहीं है, माता समझे मेरा बेटा सबसे बढ़कर सुपूत है। भाई समझे कि यह तो राम या भरत-सा भाई है; स्त्री समझे कि ऐसा स्वामी मुझे बड़े पुण्यसे मिला है। स्वामी समझे—ऐसी पतिव्रता साध्वी स्त्री तो बस एक यही है। इसी प्रकार हमारे व्यवहारसे—जिनसे भी हमारा काम पड़े छोटे-बड़े—सभी सन्तुष्ट और परितृप्त हों, सभी हमसे अमृत लाभ करें, परन्तु हमारी दृष्टि सदा अपने लक्ष्यपर लगी रहे। प्रत्येक व्यवहारको करें भगवान्की सेवा या भगवान्का प्रिय कार्य समझकर। हमारा सोना-जागना, खाना-पीना, कहना-सुनना, रोना-हँसना, देना-लेना सभी हो केवल भगवान्के लिये—भगवान्की प्रीतिके लिये। अपने लिये कुछ भी न हो। अपनेको भी श्रीभगवान्के ही अर्पण कर दिया जाय। फिर किसी भी स्थितिमें न दु:ख होगा, न चिन्ता व्यापेगी और न संसारके किसी काममें अड़चन ही आवेगी। नाटकके निपुण पात्रकी तरह सभी खेल सुचारु रूपसे सम्पन्न होते रहेंगे। मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, हँसना-रोना सभी भगवान्की लीलाके मधुर अंग हो जायँगे। इस प्रकारका अभ्यास करके देखिये। कुछ ही दिनोंमें अपूर्व शान्ति और आनन्दका अनुभव होगा। पाप-ताप तो अपने-आप ही दूर चले जायँगे!