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दु:खोंसे छूटनेके उपाय

आपका कृपापत्र मिला था। उत्तर लिखनेमें देर हो गयी, इसके लिये क्षमा कीजियेगा। आपने पत्रमें अपनी आर्थिक, शारीरिक और मानसिक स्थितिके बारेमें लिखा सो सब पढ़ा। आर्थिक स्थिति अच्छी न रहनेके कारण चित्तमें अशान्ति होना स्वाभाविक है। आजकलकी दुनियामें अर्थके बिना कोई काम नहीं सधता, बात-बातमें अर्थकी जरूरत होती है। ऐसी हालतमें अर्थका अभाव क्लेशदायक होगा ही। परन्तु प्रारब्धके विधानके सामने आप क्या कर सकते हैं। यथासाध्य उपाय करना चाहिये सो आप कर ही रहे हैं। उद्योग करनेपर फल नहीं होता, तब सिवा सन्तोषके सुखका और कोई साधन नहीं है। ऋणकी बात भी जरूर बहुत संकट देनेवाली है। इसके उतारनेके लिये यथासाध्य आप उद्योग करते ही हैं। ऋण होनेपर अनाप-शनाप खर्च लगाना या धन होनेपर भी न देनेका भाव नहीं होना चाहिये। और साधारण खर्चके बाद यदि कुछ बचे तो उसे ऋणदाताओंको देना चाहिये। परन्तु एक बात स्मरण रखनी चाहिये, यदि साधन करनेपर भगवत्कृपासे भगवत्प्राप्ति हो गयी तो इसी ऋणसे नहीं—समस्त ऋणोंसे जीवको मुक्ति मिल जाती है। अतएव यह कभी नहीं विचारना चाहिये कि ऋण पूरा उतर जानेपर और स्त्री-पुत्रोंके भरण-पोषणके लिये कुछ संग्रह हो जानेपर या अच्छी कमायी होने लगनेपर ही भजन किया जायगा। प्रथम तो यह निश्चय नहीं कि तीनों बातें पूरी होंगी ही। दूसरे यह भी पता नहीं कि यदि यह पूरी हो भी गयीं तो फिर उस समय भजन करनेका मन रहेगा या नहीं। यह याद रखना चाहिये कि एक-एक अभावकी पूर्ति पचासों नये-नये अभावोंको उत्पन्न करनेवाली होती है। मन रहा भी और शरीर पहले छूट गया तो अपनेको क्या लाभ हुआ? अतएव भजन तो हर हालतमें करना ही चाहिये, साथ ही ऋण चुकाने तथा आजीविकाका साधन संग्रह करनेके लिये चेष्टा भी करते रहना चाहिये, भजनके साथ-साथ ऋण चुक गया तब तो दोनों काम हो गये, नहीं तो, भजन हुआ। भजनके प्रतापसे इसी जन्ममें भगवत्प्राप्ति हो गयी तब तो सारा बखेड़ा ही तै हो गया; ऐसा न हुआ तब भी जितना भजन हुआ उतना तो आपके कल्याणका मार्ग प्रशस्त हुआ ही। जितना रास्ता कटा उतना ही अच्छा। एक बात और ध्यानमें रखिये। जिन लोगोंके पास काफी धन है, ऋणकी तो कोई बात ही नहीं, भोगके लिये प्रचुर सामग्री मौजूद है, उनके चित्तमें भी अशान्ति बनी रहती है। शान्ति धनके होने न होनेसे सम्बन्ध नहीं रखती। शान्तिका सम्बन्ध चित्तकी वृत्तियोंसे है। जिसके मनमें कामना, आसक्ति, ममता और अहंकार है, वह चाहे जितना धनी क्यों न हो, कभी शान्ति नहीं पा सकता। वह सदा जला ही करता है। इसके विपरीत जो बिलकुल निर्धन है, परन्तु भगवान‍्में विश्वासी है, भगवान‍्का भजन करता है और भगवान‍्के प्रत्येक विधानमें मंगलमय भगवान‍्का हाथ देखकर अपना मंगल देखता है, वह महान्-से-महान् दु:खकी हालतमें भी शान्त और सुखी रहता है। बलि राजाका राज्य हरण कर लेनेपर भगवान‍्से प्रह्लादने कहा था—‘भगवन्! आपने बड़ी दया की।’ अतएव आपको विचार करके आर्थिक स्थितिके कारण चित्तमें दु:ख नहीं करना चाहिये। भगवान‍्का विधान मानकर सन्तुष्ट रहना चाहिये और जहाँतक हो सके उपार्जनकी शुद्ध चेष्टा करते हुए कम खर्चमें काम चलाना चाहिये। सब दु:खोंके नाशके लिये एकमात्र उपाय बतलाता हूँ। मनमें यह निश्चय करके कि ‘भगवन्! मैं एकमात्र आपके ही शरण हूँ। आप ही मुझे दु:खोंसे बचायेंगे यह मुझको निश्चय है।’ चलते-फिरते, उठते-बैठते मन-ही-मन सदा ‘हरि:शरणम्’ मन्त्रका जाप करते रहिये। यदि विश्वास और श्रद्धापूर्वक इसका जप किया जाय तो सारे संकट टल सकते हैं। इसके सिवा भागवतके आठवें स्कन्धके तीसरे अध्यायका रोज सबेरे आर्तभावसे पाठ कीजिये। इससे भी बहुत लाभ हो सकता है।

भगवान‍्की सुन्दर तसवीर सामने रखकर एक-एक अंगके ध्यानका अभ्यास कीजिये तथा श्वासके साथ भगवान‍्के नामका जप करनेकी आदत डालिये। श्वासके आने-जानेमें जो शब्द होता है, उसपर लक्ष्य कीजिये। जरा जोरसे श्वास लीजिये तो आवाज स्पष्ट सुनायी देगी। उस आवाजमें ऐसी भावना कीजिये कि यह ‘राम-राम’ बोल रहा है। ऐसा करनेसे मन कुछ वशमें होगा। शरीर, भोग सब क्षणभंगुर, विनाशी तथा दु:खरूप हैं—ऐसी भावना करके मानसिक पापोंके नाशके लिये आर्तभावसे भगवान‍्से प्रार्थना करनी चाहिये। शारीरिक रोगनाशके लिये यथासाध्य ब्रह्मचर्यका पालन, खान-पानमें संयम रखते हुए साधारण आयुर्वेदिक दवा लेनी चाहिये। पेटकी वायुके नाशके लिये भोजनके पहले ग्रासके साथ लगभग ३ ग्राम हिंग्वाष्टक चूर्ण घीमें मिलाकर लेना चाहिये। भोजनके बाद लवणभास्कर चूर्ण ठण्डे जलके साथ लेना चाहिये और धातुक्षीणताके लिये लगभग ६ ग्राम आँवलेकी चूर्णकी फंकी रातको सोते समय जलके साथ लेनी चाहिये। रोज तीन-चार मील घूमना चाहिये।

इस प्रकार श्रद्धापूर्वक साधन करनेसे भगवत्कृपासे आपकी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थितिमें बहुत कुछ उत्तम परिवर्तन हो सकता है।

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