शोक-नाशके उपाय
प्रिय बहिन,
सस्नेह हरिस्मरण। भाई श्री....... जी परसों यहाँ आये थे, उनसे आपके बहनोई साहबके देहान्तका समाचार मालूम हुआ। उन्होंने यह भी बतलाया कि इस दुर्घटनासे आपको बहुत ही दु:ख हो रहा है। वास्तवमें दु:ख होना स्वाभाविक ही है। फिर आपका हृदय तो बहुत ही कोमल, सरल और सहानुभूतिपूर्ण है; इसलिये आपको दु:ख हुए बिना रह नहीं सकता। ऐसी घटनासे दूसरोंको भी दु:ख होता है, फिर आप तो सगी बहिन हैं। इतना होनेपर भी आप समझदार हैं, आपने सत्संग किया है और श्रीभगवान्का भजन करती हैं, इसलिये आपके द्वारा तो घरवालोंको सान्त्वना और धीरज मिलनी चाहिये।
आप जानती हैं, यहाँका सब कुछ विनाशी है। कोई चीज स्थिर नहीं है। जैसे एक सरायमें बहुत-से मुसाफिर आकर टिकते हैं और अपनी-अपनी गाड़ीका समय हो जानेपर चले जाते हैं, वैसे ही यह संसार मुसाफिरखाना है। अपने-अपने कर्मभोगोंके लिये जीव यहाँ आते हैं और भोग पूरा होनेपर चले जाते हैं। यहाँका कोई भी सम्बन्ध नित्य नहीं है। इसलिये आपको स्वयं शोक न करके घरवालोंको भी समझाना चाहिये। दूसरी बात यह है कि मृत्यु ऐसी चीज है, जिसपर किसीका वश नहीं है। विषाद या शोक करनेसे जरा भी लाभ नहीं होता। जिस जीवका देहसे सम्बन्ध छूट गया, वह फिर कभी उस देहसे मिल नहीं सकता। शोकसे रोगादि बढ़ते हैं, चित्तमें तामसिक भाव आते हैं और मरकर गये हुए जीवको भी—यदि वह पुनर्जन्मको प्राप्त नहीं हो गया है तो—हमारा शोक देखकर बड़ी तकलीफ होती है। उनसे हमारा सच्चा स्नेह है तो हमें उनके लिये नाम-जप, गीता-पाठ, दान आदि करके उनके अर्पण करने चाहिये, जिससे उनको शान्ति मिले। व्यावहारिक सम्बन्धको लेकर यही कर्तव्य होता है।
परमार्थ-दृष्टिसे तो आत्मा अमर है। शरीरका वियोग होता ही है। हमलोगोंको जो शोक होता है, सो ममत्वके कारण होता है। विचार करनेपर पता लगता है, यह ममत्व मोहसे ही उत्पन्न है। असलमें इसमें सार नहीं है।
इससे पिछले जन्ममें भी हम कहीं थे। वहाँ भी हमारा घर-बार था, बाल-बच्चे थे, सम्बन्धी थे। परन्तु आज उनकी हमें न तो याद है, न उनके लिये कभी मनमें यह चिन्ता ही होती है कि वे किस दशामें हैं। यह भी मनमें नहीं आती कि उनका कहीं पता तो लगावें, वे कौन थे। हम उन्हें बिलकुल भूल गये। हमारा नाता उनसे सर्वथा टूट गया। यही दशा मरनेपर यहाँ होगी। यहाँका सम्बन्ध बस, शरीरको लेकर ही है। इसलिये शोक नहीं करना चाहिये।
ऐसी घटनाओंको देखकर तो संसारकी क्षणभंगुरताका खयाल करके वैराग्य होना चाहिये। यही दशा सबकी होगी। यहाँ एक भगवान्को छोड़कर सभी चीजें अनित्य हैं, जो वस्तु अनित्य होती है वह दु:ख देनेवाली होती है। आज एक चीजको हम अपनी समझते हैं, उसके बिना हमारा काम नहीं चलता। परन्तु एक दिन उससे हमारा सम्बन्ध छूटेगा ही। या तो हम पहले उसको छोड़कर चले जायँगे, या वही हमसे बिछुड़ जायगी। जिस चीजके पाने और रहनेमें सुख होता है, उनके जाने और बिछुड़नेमें दु:ख होता ही है और यहाँ कोई भी चीज ऐसी है नहीं, जो सदा रहे, साथ आवे और साथ जाय। इसलिये भी शोक नहीं करना चाहिये।
यहाँ जो कुछ भी है, भगवान्की लीला है। लीलामें अच्छी-बुरी सभी बातें होती हैं। भगवान् मंगलमय हैं, उनकी लीला भी मंगलमयी है। पता नहीं जिनके बिछुड़ जानेसे आज हमें बड़ा भारी सन्ताप हो रहा है, वे भगवान्के विधानसे किसी अच्छी गतिको प्राप्त हुए हों और वहाँ वे बहुत ही सुखसे हों। मनुष्यको भगवान्के विधानमें सन्तोष करना चाहिये।
आप समझदार हैं, भजन करती हैं। ऐसे ही समयमें धीरज रखना आवश्यक है। भजनका फल होता है शोकका नाश। आपको स्वयं तो शोक करना ही नहीं चाहिये। सच्ची सहानुभूति, प्रेम तथा विवेकके साथ बहिनजीको भी धीरज बँधानी चाहिये। और चेष्टा करके उन्हें भगवान्की ओर लगाना चाहिये, जिसमें उनका दु:ख कम हो और उन्हें शान्ति मिले। दु:खकी स्थितिमें विचार, विवेक और धीरजसे काम लेना चाहिये और श्रीभगवान्के विधानपर सन्तोष करना चाहिये। जो चीज गयी, वह तो मिलेगी नहीं। जो है, उसे सँभालना है, उसकी सेवा करनी है। यदि आपलोग दु:ख ही करती रहेंगी तो उनकी सँभाल और सेवा कैसे होगी? इसलिये विचारपूर्वक धीरज रखनी चाहिये तथा बहिनजीको श्रीभगवान्के भजनमें लगाना चाहिये। श्रीभगवान् ही सबके एकमात्र स्वामी हैं। मीरादेवीने उन्हींको पतिरूपमें वरण किया था। जिनके पति नहीं हैं उन देवियोंके तो भगवान् ही पति हैं, जो पतिके भी पति हैं, सारे ब्रह्माण्डके पति हैं, उन्हींको अपना चित्त अर्पण करके दिन-रात उन्हींके भजनमें लगाने चाहिये। तभी शान्ति मिल सकेगी।
आप बहुत अच्छे स्वभावकी तथा समझदार हैं, इसीसे आपको इतना लिखा है। भगवान्को न भूलियेगा, यही अनुरोध है।