ज्ञान और प्रेम
....... राग-द्वेषकी बात लिखी सो ठीक ही है। राग-द्वेष सभी जगह मिलेगा। यह तो श्रीभगवान्ने कहा ही है—
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
‘प्रत्येक इन्द्रियके प्रति अर्थमें राग-द्वेष हैं, हमें उनको अपना शत्रु समझकर उनके वश नहीं होना चाहिये।’ वास्तवमें राग-द्वेषादिका मूल कारण अपनी ही भूल है। हमारे मनसे राग-द्वेष निकल जायगा तो जगत्में हमें कहीं राग-द्वेषके दर्शन नहीं होंगे। ब्रह्मविद् सर्वत्र ब्रह्म ही देखता है। राग-द्वेष मायाका कार्य है। मायाकी ग्रन्थिसे छूटा हुआ पुरुष राग-द्वेषका दर्शन वस्तुत: नहीं पाता। वैसी स्थिति न होनेतक यथासाध्य राग-द्वेषका प्रभाव अपने चित्तपर नहीं पड़ने देना चाहिये।
तेरे भावें जो करौ भलो बुरो संसार।
नारायण तू बैठकर अपनो भवन बुहार॥
आपने लिखा कि मेरे लायक कोई शिक्षा लिखियेगा, सो ऐसा आपको नहीं लिखना चाहिये। मुझमें न तो शिक्षा देनेकी कोई योग्यता है और न अधिकार ही है। आपकी मुझपर सदासे कृपा रही है, उसी कृपाके भरोसे प्रार्थना या सलाहरूपमें आपको कुछ लिखनेकी धृष्टता—आपके पूछनेपर—कर बैठता हूँ। सो इसी आशापर कि आप मुझपर हर हालतमें प्रसन्न ही होंगे। अब आपके प्रश्नोंपर कुछ निवेदन करता हूँ।
(१) अपनेको और भगवान्को यथार्थरूपसे जाननेके बाद ही यथार्थ प्रेम होता है, परन्तु यथार्थरूपसे जानना भी प्रेमके बिना सम्भव नहीं। इस ज्ञान और प्रेममें परस्पर साध्य-साधन-सम्बन्ध है। पहले कुछ ज्ञान होनेपर प्रेम होता है, प्रेम होनेपर यथार्थ ज्ञान होता है और यथार्थ ज्ञानके अनन्तरका जो परम प्रेम हो वही सर्वोच्च प्रेम है। उसी प्रेमको भक्तोंने ‘रसाद्वैत’ कहा है। यहाँ प्रेमी और प्रेमास्पदकी एकता हो जाती है। परस्पर दोनों एक-दूसरेमें घुल-मिल जाते हैं। दो मिलकर एक हो जाते हैं। इसीको ‘परमशान्ति’ कह सकते हैं। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भगवान्के गुणविशेषके प्रति आकृष्ट होकर प्रेम करना शान्तिका हेतु नहीं होता। निर्गुणके साधककी भी आरम्भमें गुण देखकर ही अर्थात् निर्गुणकी साधनासे ब्रह्मस्वरूपकी प्राप्ति होगी ऐसा समझकर साधनामें प्रवृत्ति होती है। यथार्थ ज्ञान अपने-आप नहीं हो जाता।
अभेदभक्ति किसके द्वारा होती है?
(२) आपका दूसरा प्रश्न—‘भगवान्के साथ अभेदभक्ति ज्ञानवान्से हो सकती है या नहीं। यदि हो सकती है तो उससे उसको विशेष क्या लाभ होता है? इसका उत्तर यह है कि अभेदभक्ति ज्ञानवान्से ही हो सकती है, अज्ञानीसे नहीं। पहले यहाँ यह समझ लेना चाहिये कि इस अवस्थामें ‘भगवान्’ और ‘भक्ति’ शब्दका अर्थ क्या है। ज्ञानवान् वही होता है जो मायाके बन्धनसे मुक्त हो चुका, जिसकी अज्ञानकी समस्त ग्रन्थियाँ सदाके लिये टूट गयीं, जो माया-स्वप्नसे सर्वथा जग गया। परन्तु यह भी नहीं कि उसे पहलेके अज्ञानकी स्मृति हो और अब ज्ञानवान् होनेका भान हो। वास्तवमें ‘ज्ञानवान्’ शब्द अज्ञानियोंके लिये ही सार्थक होता है। ज्ञानवान् मुक्त पुरुषके लिये ज्ञान और अज्ञान दोनों ही शब्द निरर्थक हो जाते हैं। वह स्वयं ज्ञानस्वरूप है, ज्ञानका भोक्ता नहीं, इसीसे उसकी स्थिति अनिर्वचनीय होती है। वह सर्वत्र सबमें एकमात्र सम ब्रह्मको देखता है—‘ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति’ ‘सम: सर्वेषु भूतेषु’—इस प्रकार ब्रह्मभूत होनेपर ही भगवान् कहते हैं कि उसे मेरी ‘पराभक्ति’ प्राप्त होती है ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’। यह पराभक्ति ही अभेद भक्ति है जो ब्रह्मभूत हुए बिना नहीं मिलती। इस पराभक्तिसे ही भगवान् का—समग्र भगवान्का यथार्थ ज्ञान होता है। ‘भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।’ और यह तत्त्वज्ञान ही भगवान्के साथ—समग्ररूप भगवान्के साथ सर्वतोभावसे एकत्व कराता है। यहाँपर यही ‘भगवान्’ और ‘भक्ति’ शब्दका अर्थ है। इस भक्तिके बिना पूर्णरूपसे वास्तविक एकत्व नहीं होता, इसके अनन्तर ही होता है। इसीलिये भगवान् कहते हैं—‘विशते तदनन्तरम्’ यही विशेष लाभ है जो अवश्य प्राप्त करना चाहिये। अतएव अभेदभक्ति अवश्य प्राप्त करनी चाहिये। इस अभेदभक्तिको ही ‘पराज्ञाननिष्ठा’ कहते हैं। इसीको भक्त प्रेमाभक्ति या पराभक्ति कहते हैं। अवश्य ही बाह्यरूपमें देखनेपर दोनोंमें कुछ भेद प्रतीत होता है। परन्तु वस्तुत: है एकही-सी स्थिति। यही असली ज्ञान है और इस ज्ञानको प्राप्त पुरुष ही यथार्थ ‘तत्त्वज्ञ’ या ज्ञानवान् है।
ज्ञानवान्के संकल्प-विकल्प
(३) आपका तीसरा प्रश्न है—स्वरूपका यथार्थ ज्ञान हो जानेके पश्चात् ज्ञानवान्की वृत्ति क्या काम करती है? ज्ञानवान्को संकल्प-विकल्प रोकनेकी आवश्यकता है या नहीं? यदि है तो क्यों है? यदि नहीं है तो संकल्पसे और तज्जन्य न्याय्य या विपरीतादि कर्मसे उसका मोक्षमें प्रतिबन्धक है या नहीं?’
इस प्रश्नके उत्तरमें सबसे पहला मेरा यह निवेदन है कि पहले ज्ञानवान्के स्वरूपको समझना चाहिये। यदि ‘ज्ञानवान्’ शब्दसे हम केवल ‘शास्त्रज्ञानी’ या ‘परोक्षज्ञानी’ लेते हैं, तब तो यह स्पष्ट ही है कि उसकी अविद्या-ग्रन्थि अभी खुली नहीं है। वह अहंकारवृत्तिके द्वारा संचालित होता है; ऐसी अवस्थामें आत्माके विरुद्ध विजातीय संकल्प-विकल्पोंको रोकनेका साधन करनेकी उसे नितान्त आवश्यकता है। यदि वह नहीं रोकेगा तो उसकी चित्तवृत्तियाँ सतत विषयाभिमुखी होकर उसके शास्त्रज्ञानकी कुछ भी परवा न करके उसे मोहके गहरे गर्तमें डाल देंगी। विषयासक्तिके प्रवाहमें उसको बहा देंगी और यदि ज्ञानवान्का अर्थ यथार्थ ज्ञानी अथवा ‘मुक्त पुरुष’ है, तब वह वृत्तियोंका धर्मी या कर्ता रहता ही नहीं। वस्तुत: वह स्वयं उस अनिर्वचनीय अवस्थाको प्राप्त हो गया है जो चित्त तो क्या बुद्धिसे भी अति परे है। जहाँ चित्त ही नहीं वहाँ चित्तवृत्ति कहाँसे आती। और चित्तवृत्तिके अभावमें चित्तवृत्तियोंके कार्यका प्रश्न ही नहीं उठता। यह तो स्थिति है। अब यदि प्रारब्धवश जीवित रहे हुए शरीरमें स्थित चित्तवृत्तियोंकी बात कहें तो वहाँ यह कहना और मानना पड़ता है कि पहले अन्त:करणके शुद्ध और निष्काम हुए बिना ज्ञान प्राप्त नहीं होता और ज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर शरीरमें स्थित उस निष्काम और शुद्ध अन्त:करणमें ऐसा कोई संकल्प-विकल्प या तज्जन्य विपरीत कर्म होता ही नहीं जो दूषित हो या विपरीत हो और स्वाभाविक ही होनेवाले न्याय्य कर्मका भी कोई धर्मी या कर्ता न होनेसे फल उत्पन्न नहीं होता। प्रतिबन्धककी तो बात ही नहीं उठती; क्योंकि बाधा तो पथमें होती है। घर पहुँच जानेपर मार्गकी बाधाका कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता। अतएव मेरा तो यह निवेदन है कि ज्ञानवान् वृत्तिसे ऊपर उठा हुआ है, अतएव उसके लिये कोई प्रतिबन्धक नहीं है। ज्ञानवान् और मोक्षको प्राप्त एकार्थवाची ही हैं, फिर प्रतिबन्धक कैसा?
इस प्रकार आपके तीनों प्रश्नोंके उत्तरमें मैंने जो कुछ मनमें आया, लिख दिया है। मैं यह दावा नहीं करता कि मेरा मत सर्वथा अभ्रान्त है। न यह कहता हूँ कि यह मत मेरा है। सब शास्त्रोंकी बातें ही समझनी चाहिये। आग्रह छोड़कर इनका मनन करना चाहिये। एक ज्ञानवान् शब्दका अर्थ जान लेनेपर सब झगड़ा मिट जाता है। मैं ऐसी किसी स्थितिको नहीं मानता, जिसके लिये यह कहा जाय कि पूर्ण यथार्थ ज्ञान भी हो गया और मोक्ष बाकी भी रह गया। और ऐसी स्थिति न माननेपर आपका तीसरा प्रश्न उठता ही नहीं। भूल-चूकके लिये क्षमा कीजियेगा। मैंने जो कुछ लिखा है, इसे प्रार्थनाके रूपमें समझियेगा, उपदेशके रूपमें नहीं। आपकी कृपा सदा रहती ही है। मेरे योग्य सेवा लिखते रहें।